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शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

(९) श्री सेठजी द्वारा अपने चित्रका निषेध-



(९) श्री सेठजी द्वारा अपने चित्रका निषेध-
    ऐसे ही सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका भी अपने चित्र-प्रचार के लिए मना करते थे। श्री सेठ जी ने एक प्रसिद्ध संत से कहा कि आप लोगोंको अपनी फोटो देते हो, इसमें आपका भला है या लोगोंका? सुनकर उनको चुप होना पड़ा, जवाब नहीं आया।  
    कहते हैं कि एक बार किसी ने श्री सेठ जी से निवेदन किया कि हम आपका फोटो खींचना चाहते हैं। सुनकर श्री सेठ जी बोले कि पहले मेरे सिरपर जूती बाँध दो और फिर (सिरपर बँधी हुई जूती समेत फोटो) खींच लो। ऐसा जवाब सुनकर फोटो के लिये कहने वाले समझ गये कि इनको अपनी फोटो बिल्कुल पसन्द नहीं है। कोई फोटो लेता है तो इनको कितना बुरा लगता है। 
    (यहाँ श्री सेठ जी के एक प्रवचन का कुछ अंश दिया जा रहा है, जिसमें उन्होंने भाईजी और अपने स्मारक का निषेध किया है। इसमें भाईजी और श्री सेठ जी के चित्र का निषेध भी पढ़ना चाहिये–) 
   नाम तथा रूपकी पूजा कल्याणमें बाधक 
( परमश्रद्धेय सेठ जी श्री जयदयाल जी गोयन्दका द्वारा दिनांक-३०-३- १९४१, प्रातःकाल, श्रीजीका बगीचा, वृन्दावन में दिये गये प्रवचनका अंश—)
    मनुष्यके ऊपर उठनेमें मान-बड़ाईकी इच्छा बहुत बाधक होती है। मरनेपर मेरा नाम चले। इसी स्मृतिके लिये लोग स्मारक बनाते हैं। यह मामला गड़बड़ मालूम देता है। प्रायः यह बहुतोंमें ही रहता है। अच्छे-अच्छे साधु, नेता इस तरहकी व्यवस्था करते हैं कि स्मृति रहे। यह अन्धकारकी बात है।
    कहनेका विशेष उद्देश्य यह है कि मैं या भाईजी मर जायँ तो पीछेसे किसीको हमलोगोंके लिये कोई स्मृति या स्मारक नहीं बनवाना चाहिये। मरनेके बाद मैं कहने कैसे आऊँगा । अतः अभीसे कह देता हूँ। भाईजीके लिये भी मैं कहता हूँ।
    भगवच्चर्चा के लिये यह निषेध नहीं है। व्यक्तिगत नाम और रूपकी पूजाकी बात है। नाम, रूप तो मिटा ही दे।
    प्रारम्भमें एक दो पुस्तकें तैयार हुईं तो मैंने नाम देनेका निषेध किया था। पीछे लेखोंमें भाईजीने छाप दिया और लेखोंकी पुस्तकें बन गयीं। इसके सिवा और किसी रूपमें नाम, रूपका प्रचार नहीं होने दें।
    फोटो पूजना रूपकी पूजा है। स्मारक बनाना नामको पूजना है। ज्ञानी या भक्त कोई भी हो, जिनका नाम रूप प्रचलित होता है, लोग कहते हैं, यदि उनका वास्तवमें विरोध होता तो उनके अनुयायी लोग उनके नाम, रूपकी पूजा क्यों करते ?
    हमारे मरनेपर कोई हमारे लिये शोक सभा न करे। नाम, रूप कायम रखनेकी कोई चेष्टा न करे। जो लोग हमारे इस भावका प्रचार करेंगे वे ही हमारे अनुयायी हैं।
    मंगलनाथजीमें जितनी मेरी श्रेष्ठ बुद्धि थी या है, उतनी मेरे जीवनमें किसी जीवित मनुष्यमें नहीं हुई। पर मैं उनके नाम व चित्रका प्रचार नहीं करता। उनके सिद्धान्तोंका प्रचार करता हूँ।
    व्याख्यानके समय उनकी स्मृति हो जाती है, उनकी युक्तियोंका खयाल करके बातें भी कही जाती हैं, पर उनके नाम, रूपका प्रचार मैं कभी नहीं करता। उनका जो भाव था, उसीका हमें प्रचार करना चाहिये। यदि यह बात कही जाय कि उनके द्वारा मनाही की बात यों ही कहनामात्र था तो इसमें तीन दोष आते हैं- झूठ, कपट और दम्भ । 
    मेरा चित्र मेरे घर में है। यदि मेरा शरीर पहले शांत हो जय, मेरी स्त्री उसे रखना चाहे तो मेरा विरोध नहीं है, पर चित्र घरके बाहर न निकले। मुझे पूरा भरोसा है कि हरिकृष्ण या शिवदयाल कभी उस चित्रकी नकल किसीको नहीं लेने देंगे। एक चित्र श्री ज्वालाप्रसादजीके पास है। उनसे प्राप्त करनेकी पहले बहुत चेष्टा की गयी पर उनसे बहुत प्रेम था, उन्होंने नहीं दिया, यदि उनसे लिया जाय तो उनको बहुत दुःख होगा। इस कारण विचार होता है।
    प्रश्न- भक्त या ज्ञानी किस दृष्टिसे ऐसी बात चाहते हैं?
    उत्तर- भक्त तो अपने स्वामीकी ही पूजा चाहता है, उसीके नामका प्रचार चाहता है। वह नौकर नालायक है, बेईमान है, भगवान्‌को धोखा दे रहा है, जो भगवान्‌के बदले में अपने नाम- रूपको पुजवाता है। मालिककी दुकानपर अपना नाम चलानेवाला नौकर क्या मालिकको अच्छा लग सकता है। भगवान्‌के भक्तको भगवान के नाम, रूप, गुणका प्रचार करना चाहिये।
    मनुष्यके क्षणभङ्गुर, नाशवान् शरीरको पुजवानेसे क्या लाभ? मेरा पाँच वर्ष पहलेका चित्र यदि हो तो उसमें और आजके चित्रमें कितना अन्तर होगा। ऐसे ही सभी चित्रोंमें कौन-सा सच्चा है? कोई नहीं। 
   भगवान्‌का रूप-नाम कितना मधुर है। यदि पहले जन्मका मेरा चित्र कहीं पूजा जाता हो तो उससे मुझे क्या लाभ हो रहा है। मेरी पुस्तकोंमें, लेखोंमें, भगवान् विष्णु, राम, कृष्णकी ही प्रशंसा मिलेगी। यदि भक्तोंके चित्रोंकी प्रचारकी दृष्टि होती तो मंगलनाथजी महाराजके चित्रका खूब प्रचार करते। 
    ज्ञानीकी दृष्टिसे बतलाया जाता है। पूजनकी दृष्टिसे पूजे तो उसे छोटा बना रहा है। ज्ञानी तो ब्रह्म ही हो गया, साक्षात् परमात्मा हो गया। पूजक लोग उसे छोटा बना रहे हैं। उसे महात्मा कह रहे हैं, उसे ब्रह्मसे न्यारा कर रहे हैं। उसके नाम, रूपको ब्रह्मसे अलग निकाल रहे हैं।
   महात्माकी दृष्टिसे यदि वह अपने नाम, रूपकी पूजा चाहता है तो वह ब्रह्मको प्राप्त ही नहीं हुआ। अपने वर्तमान नाम, रूपमें उसका अभिमान है, तभी वह उसकी पूजा चाहता है, अन्यथा उसे यही समझना चाहिये कि राम, कृष्णका नाम, मेरा ही नाम है। उनकी पूजा मेरी ही पूजा है। यदि वह अलग नाम, रूपकी पूजा चाहता है तो राम, कृष्णसे अपनेको अलग मानता है। यदि मैं जयदयालके नाम, रूपसे आप लोगोंका लाभ समझता हूँ, आपको पूजक और अपनेको पूज्य समझता हूँ तो देहाभिमान और किसका नाम है।
    स्त्री पतिकी, पुत्र माता-पिताकी पूजा करे, यह लाभकी बात है। परमात्मा सबसे ऊँचे हैं। अपनी श्रद्धासे अपने गुरुको ईश्वर तुल्य मान सकता है, पर ईश्वर नहीं । अन्यथा यह ईश्वरको मटियामेट करनेकी-सी बात है। यह सिद्धान्तकी बात है । नहीं तो इतने ईश्वर खडे हो जायँगे कि आपको वास्तविक ईश्वरका पता लगाना कठिन हो जायगा। 
   दम्भ-पाखण्डके पेटमें मान-बड़ाई या धनकी इच्छा ही है। जितने काम विश्वमें भगवान्‌के विरुद्ध हो रहे हैं, उनसे भगवान् प्रसन्न नहीं हैं। अधिकार दे दिया। लोग भगवान्‌का दुरुपयोग कर रहे हैं, अतः दण्ड मिलेगा। आगे अधिकार नहीं रहेगा। बन्दूक छीन ली जायगी। अच्छा काम करेगा, उसे दुबारा बन्दूक मिल जायगी और पुरस्कार भी मिलेगा।
    हरेकमें यह बात आ जानी चाहिये कि भगवान् के मन्दिरमें भगवान्‌की जगहपर किसी मनुष्यकी पूजा करनी यह घृणा करने योग्य बात है। यदि उन महात्माओंने स्वयं इस प्रकारका प्रचार करवाया है, तब तो वे महात्मा ही नहीं थे। यदि उनके अनुयायियोंने उनकी बात न मानकर यह प्रचार किया है तो उन्होंने उस महात्माका सिद्धान्त नहीं समझा।
    यह सिद्धान्तकी बात है, हम सोचेंगे तो हमको प्रिय लगेगी, बड़ी ठोस बात है। सत्य बोलना चाहिये, परस्त्रीको माँके समान समझना चाहिये। ठोस सिद्धान्तकी बात है। 
    अन्यायसे धन अर्जित करनेवाला लोभी ही नहीं, अपितु पापी भी है। न्यायसे अर्जित करनेवाला भी लोभी है। जहाँ खर्च करना न्याय हो वहाँ खर्च नहीं करता, वह भी लोभी है। वैराग्यवान् हो तो न्यायसे भी अर्जित होना उसे अच्छा नहीं लगता।
    दूसरी स्त्रीपर कुदृष्टि जाना तो पाप है ही, अपनी स्त्रीके साथ भी अन्याययुक्त भोग भोगना पाप ही है। न्याययुक्त भोग शास्त्र प्रणालीसे हो, वहाँ भी यदि भोग-बुद्धि है, वह काम तो है ही ।पापका अभाव है, पर कामका अभाव नहीं है। वहाँ वैराग्य कहाँ। 
    अनुचित क्रोध पाप रूप है। स्त्री बालकोंको शिक्षा देनेके लिये यदि न्याययुक्त क्रोध हो, उसमें आपत्ति नहीं है। वह भी यदि वास्तवमें क्रोध है तो वह दोष ही है। क्रोधका अभिनय हो
तो आपत्ति नहीं।
    सूक्ष्म काम, क्रोध भी स्थूल होकर गिरानेमें हेतु बन सकते हैं, अतः इनकी जड़ काट डालनी चाहिये ।
    काम, क्रोध, लोभ – यह सब बातें खूब अच्छी तरह अनुभव की हुई हैं। काम-क्रोध-लोभ खूब बाधा डालते रहे हैं । प्रकृति लोगोंकी भिन्न-भिन्न रहती है, पर सबसे अधिक बलवान् काम है। मेरेपर कामका जोर अधिक रहा, क्रोधका जोर नहीं रहा । लोभके लिये बीचकी स्थिति रही ।
    किसी भी भक्तका भक्तके रूपमें प्रचार होना कोई आपत्तिकी बात नहीं है। उनके आचरण, गुण, क्रिया, सिद्धान्त, उपदेश, कथन – इनको जितना स्वयं धारण कर सके, दूसरोंमें करवा सके, उसके समान उस महात्माको कोई प्रिय नहीं होता । उसके माता-पिता एवं प्राण भी उसे इतने प्रिय नहीं लगते, जितना प्रिय वह सिद्धान्तका प्रचारक लगता है। भगवान् स्वयं कहते हैं— 
        न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः। 
        भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥                                                (गीता १८ । ६९)
      उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं । 
    नाम और रूप तो भगवान् का ही प्रचार करनेके योग्य है। सिद्धान्त भगवान् का ही है। गीताके वचन स्वयं भगवान्‌के ही वचन हैं। गीताकी बातें जो मेरी समझमें आयी हैं, वे बातें कही जाती हैं। उनका पालन करनेवालेके उद्धार में कोई शंकाकी बात नहीं है। मेरे नाम, रूपकी पूजाकी कोई बात करे तो उसका मैं विरोध ही करूँगा। 
    सिद्धान्तकी बातको काममें लानेवालेके उद्धार होनेमें कोई शंकाकी बात नहीं, किन्तु कहनेवाले इस शरीरकी, वक्ताकी कोई पूजा करे, इसकी सेवा करे, आश्रय ले, उसके लिये मैं पाव आने भर भी उत्तरदायी नहीं हूँ । उसका कोई हित होगा, यह बात नहीं कही जा सकती। मैं एक तुच्छ मनुष्य हूँ। भगवान् ने रामायणमें, गीतामें जो बातें कही हैं, उनकी ओर ध्यान देना चाहिये । 
    भगवान् के नाम-रूपकी तरह कोई मनुष्य अपनी पूजा कराने लगे तो यह पतनका ही मार्ग है। यदि कोई कहे कि गुरु परम्पराकी रक्षा करनेके लिये मैं ऐसा करता हूँ, हमें यह ठेका क्यों लेना चाहिये। रक्षा करनेवाला अपने आप करेगा। यह सिद्धान्तकी बातें हैं । सिद्धान्तका ही डाली पत्ता है, उसीका अंश है।
    मेरे एक साथी चरण धोकर पिलाना तथा जुठन खिलाना आदि व्यवहार करते थे, उनका पतन हो गया। हमलोगोंको भगवान् शिक्षा दे रहे हैं कि तुमलोग खूब सावधान रहो। हम भी यदि नहीं चेतते तो हमारी यह दशा होती। मैं यदि एकान्तमें भी इनको कुछ भी गुंजाइश दूँ तो सभामें इनका ऐसा विरोध कैसे कर सकता हूँ।
    मैं और स्वामीजी ऋषीकेश सत्संगमें जाते हैं। लोगोंके आग्रहवश लोगोंके तथा मेरे रुपये सब मिलाकर साधुओंको अन्न, वस्त्र आदि बाँटनेका काम किया जाता है। ऐसा काम करना स्वामीजीके लिये तो बिलकुल ठीक नहीं है। मेरे लिये भी यह दो नम्बरका काम है। पर यह काम जुड़ गया है। पीछे वो समझमें आ गयी। किसी प्रकार भी लोगोंसे रुपयोंका सम्बन्ध न जुड़ना ही ठीक है । बीचमें दलाल न बनें। किसीको आवश्यकता हो, वह स्वयं ही जाकर लगा दे। अपने स्वयंके रुपये हो तो लगा दे, दूसरोंसे सम्बन्ध न जोड़े।
    बहुत पहले मैं लोगोंके उपकारके लिये माँगकर लाता था। तीस वर्ष पहलेकी बात है । चक्रधरपुरमें एक साधुको कम्बल दिलानेके लिये हरिकृष्णको कुछ रुपये जमा करनेके लिये भेजा । एकने कहा कि आप साथ आ गये, अतः जो कुछ देते हैं, वह आपको ही देते हैं। हरिकृष्णको यह बात बुरी लगी कि आगे से अपने पास हो वह दो, किन्तु माँगने मत जाओ ।
    बादमें यह भी शिक्षा मिली। मेरे कुछ धनी मित्र कह देते, तेरे जँचे उस अच्छे काममें हमारा रुपया भी लगा देना। उसमें भी उलाहना मिला कि इसलिये भार थोड़े ही दिया था कि इतना लिखा दें। तबसे कोई भार दे तो स्पष्ट कह दिया जाता है कि भार उठाने लायक मैं नहीं हूँ । 
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(—‘भगवत्प्राप्तिकी अमूल्य बातें’ नामक पुस्तक के ‘नाम तथा रूपकी पूजा कल्याणमें बाधक’ नामक लेख से।)
— 'महापुरुषोंकी बातें और कहावतें' नामक पुस्तक से


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