गुरुवार, 9 मई 2019

बिना प्रयत्न और बिना इच्छा के भी तत्त्वज्ञान(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।


।।श्रीहरिः।


तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥ ११॥


उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप- (होनेपन-)में रहनेवाला मैं (उनके) अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

तेषाम्=उन भक्तोंपरअनुकम्पार्थम्=कृपा करनेके लियेएव=हीआत्मभावस्थ:=उनके स्वरूप- (होनेपन-)में रहनेवालाअहम्=मैं (उनके)अज्ञानजम्=अज्ञानजन्यतम:=अन्धकारकोभास्वता=देदीप्यमानज्ञानदीपेन=ज्ञानरूप दीपकके द्वारानाशयामि=नष्ट कर देता हूँ।

— 'तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:’—उन भक्तोंके हृदयमें कुछ भी सांसारिक इच्छा नहीं होती। इतना ही नहीं, उनके भीतर मुझे छोड़कर मुक्तितककी भी इच्छा नहीं होती१। अभिप्राय है कि वे न तो सांसारिक चीजें चाहते हैं और न पारमार्थिक चीजें (मुक्ति, तत्त्वबोध आदि) ही चाहते हैं। वे तो केवल प्रेमसे मेरा भजन ही करते हैं। उनके इस निष्कामभाव और प्रेमपूर्वक भजन करनेको देखकर मेरा हृदय द्रवित हो जाता है। मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा उनकी कुछ सेवा बन जाय, वे मेरेसे कुछ ले लें। परन्तु वे मेरेसे कुछ लेते नहीं तो द्रवित हृदय होनेके कारण केवल उनपर कृपा करनेके लिये कृपा-परवश होकर मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको दूर कर देता हूँ। मेरे द्रवित हृदय होनेका कारण यह है कि मेरे भक्तोंमें किसी प्रकारकी किंचिन्मात्र भी कमी न रहे।
 'आत्मभावस्थ:’—मनुष्य अपना जो होनापन मानते हैं कि 'मैं हूँ’ तो यह होनापन प्राय: प्रकृति-(शरीर-) के साथ सम्बन्ध जोड़कर ही मानते हैं अर्थात् तादात्म्यके कारण शरीरके बदलनेमें अपना बदलना मानते हैं, जैसे—मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं निर्बल हूँ इत्यादि। परन्तु इन विशेषणोंको छोड़कर तत्त्वकी दृष्टिसे इन प्राणियोंका अपना जो होनापन है, वह प्रकृतिसे रहित है। इसी होनेपनमें सदा रहनेवाले प्रभुके लिये यहाँ 'आत्मभावस्थ:’ पद आया है।
 'भास्वता ज्ञानदीपेन नाशयामि’—प्रकाशमान ज्ञानदीपकके द्वारा उन प्राणियोंके अज्ञानजन्य अन्धकारका नाश कर देता हूँ। तात्पर्य है कि जिस अज्ञानके कारण 'मैं कौन हूँ और मेरा स्वरूप क्या है?’ ऐसा जो अनजानपना रहता है, उस अज्ञानका मैं नाश कर देता हूँ अर्थात् तत्त्वबोध करा देता हूँ। जिस तत्त्वबोधकी महिमा शास्त्रोंमें गायी गयी है, उसके लिये उनको श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि साधन नहीं करने पड़ते, कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्युत मैं स्वयं उनको तत्त्वबोध करा देता हूँ। 

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( कई टिप्पणियाँ छूट गई) 


विशेष बात
 भक्त जब अनन्यभावसे केवल भगवान्में लगे रहते हैं, तब सांसारिक सिद्धि-असिद्धिमें सम रहना—यह 'समता’ भी भगवान् देते हैं और जिसके समान पवित्र कोई नहीं है, वह 'तत्त्वबोध’ (स्वरूपज्ञान) भी भगवान् स्वयं देते हैं। भगवान्के स्वयं देनेका तात्पर्य है कि भक्तोंको इनके लिये इच्छा और प्रयत्न नहीं करना पड़ता; प्रत्युत भगवत्कृपासे उनमें समता स्वत: आ जाती है। उनको तत्त्वबोध स्वत: हो जाता है। कारण कि जहाँ भक्तिरूपी माँ होगी, वहाँ उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही। इसलिये भक्तिके आनेपर समता—संसारसे वैराग्य और अपने स्वरूपका बोध—ये दोनों स्वत: आ जाते हैं। इसका तात्पर्य है कि जो साधनजन्य पूर्णता होती है, उसकी अपेक्षा भगवान्द्वारा की हुई पूर्णता बहुत विलक्षण होती है। इसमें अपूर्णताकी गंध भी नहीं रहती।
 जैसे भगवान् अनन्यभावसे भजन करनेवाले भक्तोंका योगक्षेम वहन करते हैं (गीता—नवें अध्यायका बाईसवाँ श्लोक), ऐसे ही जो केवल भगवान्के ही परायण हैं, ऐसे प्रेमी भक्तोंको (उनके न चाहनेपर भी और उनके लिये कुछ भी बाकी न रहनेपर भी) भगवान् समता और तत्त्वबोध देते हैं। यह सब देनेपर भी भगवान् उन भक्तोंके ऋणी ही बने रहते हैं। भागवतमें भगवान्ने गोपियोंके लिये कहा है कि 'मेरे साथ सर्वथा निर्दोष (अनिन्द्य) सम्बन्ध जोडऩेवाली गोपियोंका मेरेपर जो एहसान है, ऋण है, उसको मैं देवताओंके समान लम्बी आयु पाकर भी नहीं चुका सकता। कारण कि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, त्यागी आदि भी घरकी जिस अपनापनरूपी बेडिय़ोंको सुगमतासे नहीं तोड़ पाते, उनको उन्होंने तोड़ डाला है’।२
भक्त भगवान्के भजनमें इतने तल्लीन रहते हैं कि उनको यह पता ही नहीं रहता कि हमारेमें समता आयी है, हमें स्वरूपका बोध हुआ है। अगर कभी पता लग भी जाता है तो वे आश्चर्य करते हैं कि ये समता और बोध कहाँसे आये! वे 'अपनेमें कोई विशेषता न दीखे’ इसके लिये भगवान्से प्रार्थना करते हैं कि 'हे नाथ! आप समता, बोध ही नहीं, दुनियाके उद्धारका अधिकार भी दे दें, तो भी मेरेको कुछ मालूम नहीं होना चाहिये कि मेरेमें यह विशेषता है। मैं केवल आपके भजन-चिन्तनमें ही लगा रहूँ।’ 

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गीता साधक- संजीवनी (लेखक- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) 10/11 की व्याख्या ।