बुधवार, 23 सितंबर 2015

पति अगर सत्संगमें न जाने दें, तो क्या करें? (-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                          ॥श्रीहरि:॥

पति अगर सत्संगमें न जाने दें, तो क्या करें?

(-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

(प्रश्न-

पति अगर सत्संगमें आनेकी अनुमति न दें तो पत्निको क्या करना चाहिये?)

उत्तर-

पत्निको चाहिये कि(जिसमें) पतिका भला (हित) हो,(वो करे)

देखो! दो तरहकी सत्संग होती हैं-

एक- (१) जिसपर अपना विश्वास है,भरोसा है,ठीक तरहसे… तो वे (उस सत्)संगमें तो(जानेके लिये) हठ कर सकते हैं(उस सत्संगमें जा सकते हैं,जाना चाहिये);पर जिस {दूसरे- (२) सत्संग}में कुछ बहम हो, तो (उसमें) मत जाओ। ज्यादा (हो) तो मति(ही) जाओ आप (मत जाओ आप)।…

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके ५।१।१९९९.१६०० बजेवाले प्रवचनसे।

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

सोमवार, 14 सितंबर 2015

'साधक-संजावनी'की कुछ बातें।(-लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                          ॥श्रीहरि:॥

'साधक-संजावनी'की कुछ बातें।

(-लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌के सर्वथा शरण होनेवालेको भक्ति स्वतः प्राप्त होती है । (साधक-संजीवनी ४ । ११)

दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है । (साधक-संजीवनी ४ । ११)

अपने-आपको भगवच्चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान्‌ भक्तकी पुरानी त्रुटियोंको यादतक नहीं करते । वे तो वर्तमानमें साधकके हृदयका दृढ़ भाव देखते हैं । (साधक-संजीवनी ४ । ११)

भगवान्‌के नित्य-सम्बन्धको पहचानना ही भगवान्‌के शरण होना है । (साधक-संजीवनी ४ । ११ विशेष बात)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

यदि साधक राग-द्वेषको दूर करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है, तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहृद् प्रभुकी शरणमें चले जाना चाहिये । फिर प्रभुकी कृपासे उसके राग-द्वेष दूर हो जाते हैं (गीता ७ । १४) और परमशान्तिकी प्राप्ति हो जाती  (गीता १८ । ६२) । (साधक-संजीवनी ३ । ३४)

माने हुए ‘अहम्‌’-सहित शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण और सांसारिक पदार्थ सब-के-सब भगवान्‌के ही हैं‒ऐसा मानना ही भगवान्‌के शरण होना है । (साधक-संजीवनी ३ । ३४)

वह {जीव} सर्वथा भगवान्‌के शरण हो जाय तो भगवान्‌ अपनी शक्तिसे उसका अज्ञान भी मिटा सकते हैं और दर्शन भी दे सकते हैं । (साधक-संजीवनी ४ । ६)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

‘मैं भगवान्‌का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवानकी है’, इस प्रकार सब कुछ भगवान्‌के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये । ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान्‌से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान्‌ स्वतः करते है । (साधक-संजीवनी ३ । ३०विशेष बात)

भगवान्‌की वस्तुको भगवान्‌की ही मानना वास्तविक अर्पण है । जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए भगवान्‌के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान्‌ बहुत वस्तुएँ देते है; जैसे‒पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है । परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवानकी ही मानते हुए) भगवान्‌के अर्पण करता है, भगवान्‌ उसे अपने-आपको देते है और ऋणी भी हो जाते है । (साधक-संजीवनी ३ । ३० विशेष बात)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमके अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते है । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

विपरीत-से-विपरीत अवस्थामें भी प्रेमी भक्तकी प्रसन्नता अधिक-से-अधिक बढ़ती रहती है; क्योंकि प्रेमका स्वरूप ही प्रतिक्षण वर्धमान है । (साधक-संजीवनी १८ । ६६ विशेष बात)

शरणागतिसे ही समग्रकी प्राप्ति होती है । (साधक-संजीवनी नम्र-निवेदन)

जो वचनमात्रसे भी भगवान्‌के शरण हो जाता है, भगवान्‌ उसको स्वीकार कर लेते हैं । (साधक-संजीवनी २ । १०)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों अभिन्न रहते हैं । वहाँ भिन्नता कभी हो ही नहीं सकती । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

भगवान्‌ पूर्ण है, उनका प्रेम भी पूर्ण है और परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वयं भी पूर्ण है । अपूर्णता तो केवल संसारके सम्बन्धसे ही आती है । इसलिये भगवान्‌के साथ किसी भी रीतिसे रति हो जायगी तो वह पूर्ण हो जायगी, उसमें कोई कमी नहीं रहेगी । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

योग और वियोगमें प्रेम-रसकी वृद्धि होती है । यदि सदा योग ही रहे, वियोग न हो, तो प्रेम-रस बढ़ेगा नहीं, प्रत्युत अखण्ड और एकरस रहेगा । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ टिप्पणी)

प्रेम-रस अलौकिक है, चिन्मय है । इसका आस्वादन करनेवाले केवल भगवान्‌ ही है । प्रेममें प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों ही चिन्मय-तत्व होते है । कभी प्रेमी प्रेमास्पद बन जाता है और कभी प्रेमास्पद प्रेमी हो जाता है । अतः एक चिन्मय-तत्त्व ही प्रेमका आस्वादन करनेके लिये दो रूपोंमें हो जाता है । (साधक-संजीवनी १८ । ५७ विशेष बात)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमकी प्राप्ति विवेकसाध्य नहीं है, प्रत्युत विश्वाससाध्य है । विश्वासमें केवल भगवत्कृपाका ही भरोसा है । इसलिये जिसके भीतर भक्तिके संस्कार होते है, उसको भगवत्कृपा मुक्तिमें सन्तुष्ट नहीं होने देती, प्रत्युत मुक्तिके रस (अखण्डरस) को फीका करके प्रेमका रस (अनन्तरस) प्रदान कर देती है । (साधक-संजीवनी १८ । ५४ परिशिष्ट)

भगवान्‌में रति या प्रियता प्रकट होती है‒अपनेपनसे । परमात्माके साथ जीवका अनादिकालसे स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है । अपनी चीज स्वतः प्रिय लगती है । अतः अपनापन प्रकट होते ही भगवान्‌ स्वतः प्यारे लगते हैं । प्रियतामें कभी समाप्त न होनेवाला अलौकिक, विलक्षण आनन्द है । वह आनन्द प्राप्त होनेपर मनुष्यमें स्वतः निर्वकारता आ जाती है । फिर काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर आदि कोई भी विकार पैदा हो ही नहीं सकता । (साधक-संजीवनी १८ । ५५ टिप्पणी)

प्रेमकी दो अवस्थाएँ होती हैं‒(१) कभी भक्त प्रेममें डूब जाता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद दो नहीं रहते, एक हो जाते है और (२) कभी भक्तमें प्रेमका उछाल आता है, तब प्रेमी और प्रेमास्पद एक होते हुए भी लीलाके लिये दो हो जाते हैं । (साधक-संजीवनी १८ । ५५ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

परमात्माको अपना माननेके सिवाय प्रेम-प्राप्तिका और कोई उपाय है ही नहीं । प्रेम यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि बड़े-बड़े पुण्यकर्मोंसे नहीं मिलता, प्रत्युत भगवान्‌को अपना माननेसे मिलता है । (साधक-संजीवनी १५ । २० अध्यायका सार)

जब साधक भक्तका भगवान्‌में प्रेम हो जाता है, तब उसको भगवान्‌ प्राणोंसे भी प्यारे लगते है । प्राणोंका मोह न रहनेसे उसके प्राणोंका आधार केवल भगवान्‌ हो जाते है । (साधक-संजीवनी १६ । ३)

विवेकपूर्वक जड़ताका त्याग करनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार शेष रह सकता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार नहीं रहता; क्योंकि भक्त त्याग नहीं करता, प्रत्युत सबको भगवान्‌का स्वरूप मानता है‒‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९ । १९ ) (साधक-संजीवनी १८ । ५४ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है ! (साधक-संजीवनी १२ । २ परिशिष्ट)

मुक्त होनेपर संसारकी कामना तो मिट जाती है, पर प्रेमकी भूख नहीं मिटती । (साधक-संजीवनी १५ । ४ परिशिष्ट)

जो मुक्तिमें नहीं अटकता, उसमें सन्तोष नहीं करता, उसको प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति होती है‒‘मद्‌भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८ । ५४) (साधक-संजीवनी १५ । ४ परिशिष्ट)

मात्र जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये मात्र जीवोंकी अन्तिम इच्छा प्रेमकी ही है । प्रेमकी इच्छा सार्वभौम इच्छा है । प्रेमकी प्राप्ति होनेपर मनुष्यजन्म पूर्ण हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता । (साधक-संजीवनी १५ । ७ परिशिष्ट)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग--इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है । उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी है‒इसका खयाल नहीं रहता । वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं । (साधक-संजीवनी अध्याय ७ । १८)

प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान्‌ ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान्‌ ही हैं‒‘तस्मिंतज्जने भेदाभावात्’ (नारद॰ ४१) । (साधक-संजीवनी ७ ।१८, परिशिष्ट भाव)

उस {महात्मा भक्त} का भगवान्‌के साथ आत्मीय सम्बन्ध हो जाता है, जिससे प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति (जागृति) हो जाती है । इस प्रेमकी जागृतिमें ही मनुष्यजन्मकी पूर्णता है । (साधक-संजीवनी ७ ।३०, अध्यायका सार)

भगवान्‌ ही मेरे हैं ओर मेरे लिये हैं‒इस प्रकार भगवान्‌में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्‌में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य-निरन्तर होता है । (साधक-संजीवनी ८ ।१४ परिशिष्ट भाव)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

सन्तोंकी वाणीमें आता है कि प्रेम तो केवल भगवान्‌ ही करते है, भक्त केवल भगवान्‌में अपनापन करता है । कारण कि प्रेम वही करता है, जिसे कभी किसीसे कुछ भी लेना नहीं है । भगवान्‌ने जीवमात्रके प्रति अपने-आपको सर्वथा अर्पित कर रखा है और जीवसे कभी कुछ भी प्राप्त करनेकी इच्छाकी कोई सम्भावना ही नहीं रखी है । इसलिये भगवान्‌ ही वास्तवमें प्रेम करते हैं । जीवको भगवान्‌की आवश्यकता है, इसलिये जीव भगवान्‌से अपनापन ही करता (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १६)

जब भक्त सर्वथा निष्काम हो जाता है अर्थात् उसमें लौकिक-पारलौकिक किसी तरहकी भी इच्छा नहीं रहती, तब उसमें स्वतःसिद्ध प्रेम पूर्णरूपसे जाग्रत् हो जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १६)

प्रेम कभी समाप्त भी नहीं होता; क्योंकि वह अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है । प्रतिक्षण वर्धमानका तात्पर्य है कि प्रेममें प्रतिक्षण अलौकिक विलक्षणताका अनुभव होता रहता है अर्थात् इधर पहले दृष्टि गयी ही नहीं, इधर हमारा खयाल गया ही नहीं, अभी दृष्टि गयी—इस तरह प्रतिक्षण भाव और अनुभव होता रहता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ ।१७)

'वासुदेव: सर्वम्' का अनुभव होनेपर फिर भक्त और भगवान्‌—दोनोंमें परस्पर प्रेम-ही-प्रेम शेष रहता है । इसीको शास्त्रोंमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम, अनन्तरस आदि नामोंसे कहा गया है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १७, परिशिष्ट भाव)

प्रेममें प्रेमी अपने-आपको प्रेमास्पदपर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी अलग सत्ता नहीं मानता । ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमीपर न्योछावर हो जाते है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १८)

ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है । परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है । प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो है और दो होते हुए भी एक है । इसलिये प्रेम-तत्त्व अनिर्वचनीय है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १८)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वत: एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको 'प्रेम' कहते है । जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह 'प्रेम' दब जाता है और 'काम' उत्पन्न हो जाता है । जबतक 'काम' रहता है, तबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता । जबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता, तबतक 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता । (साधक-संजीवनी, अध्याय ३ । ४२ मार्मिक बात)

अहंकार-रहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वत: प्रेममय भगवानकी तरफ चला जाता है । कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है । इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ४ । ११ विशेष बात)

जो अन्तरात्मासे भगवान्‌में लग जाता है, भगवान्‌के साथ ही अपनापन कर लेता है, उसमें भगवत्प्रेम प्रकट हो जाता है । वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि, क्षति और पूर्तिसे रहित है । (साधक-संजीवनी, अध्याय६ । ४७)

एकमात्र प्रेम ही ऐसी चीज है, जिसमें कोई भेद नहीं रहता । प्रेमका भेद नहीं कर सकते । प्रेममें सब एक हो जाते है । ज्ञानमें तत्वभेद तो नहीं रहता, पर मतभेद रहता है । प्रेममें मतभेद भी नहीं रहता । अतः प्रेमसे आगे कुछ भी नहीं है । प्रेमसे त्रिलोकीनाथ भगवान्‌ भी वशमें हो जाते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १० परिशिष्ट भाव, टिप्पणी)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌ विद्या, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ आदिसे जाननेमें नहीं आते, प्रत्युत जिज्ञासुके श्रद्धा-विश्वाससे एवं भगवत्कृपासे ही जाननेमें आते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय १० । २ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌को अपनी शक्तिसे कोई नहीं जान सकता, प्रत्युत भगवान्‌की कृपासे ही जान सकता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय १० । १४ परिशिष्ट भाव)

साधक जिसको अपना मान लेता है, उसमें उसकी प्रियता स्वत: हो जाती है । परन्तु वास्तविक अपनापन उस वस्तुमें होता है, जिसमें ये चार बातें हों‒
1) जिससे हमारी सधर्मता अर्थात् स्वरूपगत एकता हो ।
2) जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला हो ।
3) जिससे हम कभी कुछ न चाहें ।
4) हमारे पास जो कुछ है, वह सब जिसको समर्पित कर दें । ये चारों बातें भगवान्‌में ही लग सकती हें । (साधक-संजीवनी, अध्याय २ । ३० परिशिष्ट भाव)

संसारके किसी एक विषयमें 'राग' होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्‌में 'प्रेम' होनेसे संसारसे वैराग्य होता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ३ । ३४)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌ने मनुष्यको (अपना उद्धार करनेकी) बहुत स्वतन्त्रता दी है, छूट दी है कि किसी तरहसे उसका कल्याण हो जाय । यह भगवान्‌की मनुष्यपर बहुत विशेष कृपा है ! (साधक-संजीवनी, अध्याय ८ । ५ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌के सभी न्याय कानून दयासे परिपूर्ण होते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय ८ । ६)

जब उसके (भक्तके) सामने अनुकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान्‌की ‘दया’ को मानता है और जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है, तब वह उसमें भगवान्‌की ‘कृपा’ को मानता है । दया और कृपामें भेद यह है कि कभी भगवान्‌ प्यार, स्नेह करके जीवको कर्मबन्धनसे मुक्त करते है‒यह ‘दया’ है और कभी शासन करके, ताड़ना करके उसके पापोंका नाश करते है‒यह ‘कृपा’ है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ९ । २८ विशेष बात)

भगवान्‌ सब प्राणियोंमें समानरूपसे व्यापक हैं, परिपूर्ण हैं । परन्तु जो प्राणी भगवान्‌के सम्मुख हो जाते हैं, भगवान्‌का और भगवान्‌की कृपाका प्राकट्य उनमें विशेषतासे हो जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ९ । २९)

मेरा (भगवान्‌का) किया हुआ विधान चाहे शरीरके अनुकूल हो, चाहे प्रतिकूल हो, मेरे विधानसे कैसी ही घटना घटे, उसको मेरा दिया हुआ प्रसाद मानकर परम प्रसन्न रहना चाहिये । अगर मनके प्रतिकूल-से-प्रतिकूल घटना घटती है, तो उसमें मेरी विशेष कृपा माननी चाहिये; क्योंकि उस घटनामें उसकी सम्मति नहीं है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ९ । ३४)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

भगवान्‌के समग्ररूपको भगवान्‌की कृपासे ही जाना जा सकता है, विचारसे नहीं (गीता १० । ११) ।.......जैसे दूध पिलाते समय गाय अपने बछड़ेको स्नेहपूर्वक चाटती है तो उससे बछड़ेकी जो पुष्टि होती है, वह केवल दूध पीनेसे नहीं होती । ऐसे ही भगवान्‌की कृपासे जो ज्ञान होता है, वह अपने विचारसे नहीं होता; क्योंकि विचार करनेमें स्वयंकी सत्ता रहती है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । ३ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌ प्राणिमात्रके लिये सम हैं । उनका किसी भी प्राणीमें राग-द्वेष नहीं होता (गीता ९ । २९) । दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवान्‌के द्वेषका विषय नहीं है । सब प्राणियोंपर भगवान्‌का प्यार और कृपा समान ही है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १५ विशेष बात)

मनुष्यजन्ममें सत्संग मिल जाय, गीता-जैसे ग्रन्थसे परिचय हो जाय, भगवन्नामसे परिचय हो जाय तो साधकको यह समझना चाहिये कि भगवान्‌ने बहुत विशेषतासे कृपा कर दी है अतः अब तो हमारा उद्धार होगा ही....परन्तु ‘भगवान्‌की कृपासे उद्धार होगा ही’‒इसके भरोसे साधन नहीं छोड़ना चाहिये, प्रत्युत तत्परता और उत्साहपूर्वक साधनमें लगे रहना चाहिये । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । १९ )

सर्वथा भगवत्तत्त्वका बोध तो भगवान्‌की कृपासे ही हो सकता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ७ । २५)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

मानवशरीरका मिलना, साधनमें रुचि होना, साधनमें लगना, साधनका सिद्ध होना‒ये सभी भगवान्‌की कृपापर ही निर्भर हैं । परन्तु अभिमानके कारण मनुष्यका इस तरफ ध्यान कम जाता है । (साधक-संजीवनी, अध्याय २ । ६१)

साधुओंका परित्राण करनेमें भगवान्‌की जितनी कृपा है, उतनी ही कृपा दुष्टोंका विनाश करनेमें भी है ! विनाश करके भगवान्‌ उन्हें शुद्ध, पवित्र बनाते हैं । (साधक-संजीवनी, अध्याय ४ । ८)

भगवान्‌का  आस्तिक-से-आस्तिक व्यक्तिके प्रति जो स्नेह है, कृपा है, वैसा ही स्नेह, कृपा नास्तिक-से-नास्तिक व्यक्तिके प्रति भी है । (साधक-संजीवनी, अध्याय ४ । ११ परिशिष्ट भाव)

भगवान्‌के स्वभावमें ‘यथा-तथा’ होते हुए भी जीवपर उनकी बड़ी भारी कृपा है; क्योंकि कहाँ जीव और कहाँ भगवान्‌ !.......फिर भी वे जीवको अपना मित्र बनाते हैं, उसको अपने समान दर्जा देते हैं ! भगवान्‌ अपनेमें बड़प्पनका भाव नहीं रखते‒यह उनकी महत्ता है । (साधक-संजीवनी, अध्यान ४ । ११ परिशिष्ट भाव)

● श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज

(संकलित-

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English: www.swamiramsukhdasji.net
Hindi:  www.swamiramsukhdasji.org)

रविवार, 13 सितंबर 2015

समग्र(सम्पूर्ण) भगवान एक हैं-(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                           ॥श्री॥

समग्र(सम्पूर्ण) भगवान एक हैं-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

('साधक-संजीवनी' ९।४)।

व्याख्या-- 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' -- मन-बुध्दि-इन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है, वह भगवानका व्यक्तरूप है और जो मन-बुध्दि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते,वह भगवानकी अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवानने 'मया' पदसे व्यक्त (साकार-) स्वरूप और 'अव्यक्तमूर्तिना' पदसे अव्यक्त (निकाकार-) स्वरूप बताया है।इसका तात्पर्य है कि भगवान व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे भी हैं।इस प्रकार भगवानकी यहाँ व्यक्त-अव्यक्त (साकार-निराकार) कहनेकी गूढाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुण-निर्गुण,साकार-निराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है,वास्तवमें परमात्मा एक हैं।ये सगुण-निर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलग-अलग विशेषण हैं,अलग-अलग नाम हैं।
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सत्संग-संतवाणी. श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

शनिवार, 12 सितंबर 2015

'साधक-संजीवनी' की विषयसूची (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)।

                  ।।श्रीहरिः।।

{'साधक-संजीवनी'

(लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)}।

                            विषय-सूची

श्लोक-संख्या           विषय            पृष्ठ-संख्या

प्राक्कथन ...................................... ढ-प

                         पहला अध्याय

१-११ पाण्डव और कौरव-सेनाके मुख्य-मुख्य महारथियोंके नामोंका वर्णन (विशेष बात ११) ........................................... १-१२

१२-१९ दोनों पक्षोंकी सेनाओंके शंखवादनका वर्णन ........................................ १३-१८

२०-२७ अर्जुनके द्वारा सेना-निरीक्षण ...१९-२४

२८-४७ अर्जुनके द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त  वचन कहना तथा सञ्जयद्वारा शोकाविष्ट अर्जुनकी अवस्थाका वर्णन ... २४-३९
(विशेष बात ३१, ३७)

पहले अध्याय पद, अक्षर और उवाच ....... ४०
पहले अध्यायमें प्रयुक्त छंद .................... ४०

                         दूसरा अध्याय

१-१० अर्जुनकी कायरताके विषयमें सञ्जयद्वारा भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादका वर्णन ........................................ ४१-५२
(विशेष बात ४६)

११-३० सांख्ययोगका वर्णन .......... ५२-८७

(विशेष बात ५६, ६३; मार्मिक बात ६५, विशेष बात ६९, ६९, ७५, ७८; प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ८५)

३१-३८  क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे युद्ध करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन ........... ८७-९३

(प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ९२)

३९-५३ कर्मयोगका वर्णन ......... ९३-११६

(समता-सम्बन्धी विशेष बात ९६; विशेष बात १००; मार्मिक बात १०४; बुद्धि और समता-सम्बन्धी विशेष बात १०८)

५४-७२ स्थितप्रज्ञके लक्षणों आदिका वर्णन ................................. ११६-१४२

(मार्मिक बात १२९; अहंता-ममतासे रहित होनेका उपाय १३७ ; विशेष बात १४०)

दूसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... १४२
दूसरे अध्यायमें प्रयुक्त छंद .................. १४२

                          तीसरा अध्याय

१-८ सांख्ययोग और कर्मयोगकी दृष्टिसे कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण ..................................... १४३-१५८

(मार्मिक बात १४७, १४९; विशेष बात १५१; साधन-सम्बन्धी मार्मिक बात १५७)

९-१९ यज्ञ और सृष्टिचक्रकी परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण ........ १५८-१८४

(मार्मिक बात १६०; कर्तव्य और अधिकार-सम्बन्धी मार्मिक बात १६४; कर्तव्य-सम्बन्धी विशेष बात १६७; मार्मिक बात १७७; विशेष बात १७८, १८१; मार्मिक बात १८४)

२०-२९ लोकसंग्रहके लिये कर्तव्य-कर्म करनेकी आवश्यकताका निरूपण .......१८४-२०४

(परमात्मप्राप्ति-सम्बन्धी मार्मिक बात १८५; विशेष बात १८९, १९४, १९५, १९८, १९९; गुण-कर्मविभागको तत्वसे जाननेका उपाय २०१; प्रकृति-पुरुष-सम्बन्धी मार्मिक बात २०२; विशेष बात २०३)

३०-३५ राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्मके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेकी प्रेरणा ...... २०५-२२७

(अर्पण-सम्बन्धी विशेष बात २०५; कामना-सम्बन्धी विशेष बात २०६; विशेष बात २०८; राग-द्वेषपर विजय पानेके उपाय २१६; सेवा-सम्बन्धी मार्मिक बात २१९; मार्मिक बात २२४; स्वधर्म और परधर्म-सम्बन्धी मार्मिक बात २२६)

३६-४३ पापोंके कारणभूत 'काम' को मारनेकी प्रेरणा ..............................२२७-२४७

(कामना-सम्बन्धी विशेष बात २२९; विशेष बात २३२, २३५, २३८; मार्मिक बात २४३, २४५)

तीसरे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... २४७
तीसरे अध्यायमें प्रयुक्त छंद ................२४७

                           चौथा अध्याय

१-१५ कर्मयोगकी परम्परा और भगवानके जन्मों तथा कर्मोंकी दिव्यताका वर्णन ....... २५०-२८६

( विशेष बात २५२; मार्मिक बात २५७; विशेष बात २७३; अवतार-सम्बन्धी विशेष बात २६५; मार्मिक बात २७४; विशेष बात २८०)

१६-३२ कर्मोंके तत्वका और तदनुसार यज्ञोंका वर्णन .............................. २८६-३१२

( विशेष बात २८८; मार्मिक बात २८८; विशेष बात ३०२; मार्मिक बात ३०४; विशेष बात ३०९)

३३-४२ ज्ञानयोग और कर्मयोगकी प्रशंसा तथा प्रेरणा ............................ ३१२-३२८

(ज्ञान-प्राप्तिकी प्रचलित प्रक्रिया ३१३, विशेष बात ३२१, ३२३, ३२४)

चौथे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ३२८
चौथे अध्यायमें प्रयुक्त छंद ................. ३२८

                          पाँचवाँ अध्याय

१-६ सांख्ययोग तथा कर्मयोगकी एकताका प्रतिपादन और कर्मयोगकी प्रशंसा ..................................... ३२९-३४२

(मार्मिक बात ३३५; विशेष बात ३३९)

७-१२ सांख्ययोग और कर्मयोगके साधनका प्रकार ................................ ३४२-३५६

(विशेष बात ३४३, ३४८; मार्मिक बात ३५४)

१३-२६ फलसहित सांख्ययोगका विषय ...................................... ३४६-३८०

(समता-सम्बन्धी विशेष बात ३६५)

२७-२९ ध्यान और भक्तिका वर्णन ... ३८०-३८५

पाँचवे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ३८५
पाँचवे अध्यायमें प्रयुक्त छंद ................... ३८५

                        छठा अध्याय

१-६ कर्मयोगका विषय और योगारूढ़ मनुष्यके लक्षण .................................. ३८७-३९६

(विशेष बात ३८९)

५-९ आत्मोद्धारके लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोगीके लक्षण .............. ३९३-४०७

(उद्धार-सम्बन्धी विशेष बात ३९७; विशेष बात ४०५)

१०-१५ आसनकी विधि और फलसहित सगुण-साकारके ध्यानका वर्णन ....... ४०७-४१४

(विशेष बात ४०८)

१६-२३ नियमोंका और फलसहित स्वरूपके ध्यानका वर्णन ........................ ४१४-४२६

(विशेष बात ४१६, ४१८, ४२०)

२४-२८ फलसहित निर्गुण-निराकारके ध्यानका वर्णन ................................... ४२६-४३५

(ध्यान-सम्बन्धी मार्मिक बात ४२८; परमात्मामें मन लगानेकी युक्तियाँ ४३२)

२९-३२ सगुण और निर्गुणके ध्यान-योगियोंका अनुभव ............................. ४३५-४४१

३३-३६ मनके निग्रहका विषय ..... ४४१-४४७

(मार्मिक बात ४४६)

३७-४७ योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन और भक्त-योगीकी महिमा ...................... ४४७-४६४

(विशेष बात ४४९, ४५५, ४५७; मार्मिक बात ४५९; विशेष बात ४६३)

छठे अध्यायके पद, अक्षर और उवाच .... ४६४
छठे अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ................ ४६४

                          सातवाँ अध्याय

१-७ भगवानके द्वारा समग्ररूपके वर्णनकी प्रतिज्ञा करना तथा परा-अपरा प्रकृतियोंके संयोगसे प्राणियोंकी उत्पत्ति बताकर अपनेको सबका मूल कारण बताना ..... ४६५-४८६

(विशेष बात ४६७; शरणागतिके पर्याय ५६७; ज्ञान और विज्ञान-सम्बन्धी विशेष बात ४७०; विशेष बात ४७९)

८-१२ कारणरूपसे भगवानकी विभूतियोंका वर्णन ............................ ४८६-४९६

(विशेष बात ४८९, ४९४)

१३-१९ भगवानके शरण होनेवालोंका और शरण न होनेवालोंका वर्णन ....... ४९६-५२४

(विशेष बात ५०२, ५०७; मार्मिक बात ५०८, ५१६; महात्माओंकी महिमा ५२०)

२०-२३ अन्य देवताओंकी उपासनाओंका फलसहित वर्णन .....................५२४-५३०

(विशेष बात ५२९)

२४-३० भगवानके प्रभावको न जाननेवालोंकी निन्दा और जाननेवालोंकी प्रशंसा तथा भगवानके समग्ररूपका वर्णन ............ ५३०-५५३

(विशेष बात ५३१, ५४०; भगवानके समग्ररूप-सम्बन्धी विशेष बात ५४४; अध्याय-सम्बन्धी विशेष बात ५४६)

सातवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ५५२
सातवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ........... ५५२
सातवें अध्यायका सार ............५५२-५५३

                         आठवाँ अध्याय

१-७ अर्जुनके सात प्रश्न और भगवानके द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब समयमें अपना स्मरण करनेकी आज्ञा देना ............ ५५५-५६९

(विशेष बात ५५९; मार्मिक बात ५६३; विशेष बात ५६५; स्मरण-सम्बन्धी विशेष बात ५६८)

८-१६ सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकारकी उपासनाका फलसहित वर्णन .................................... ५६९-५८१

(विशेष बात ५७८, ५८०, ५८०)

१६-२२ ब्रह्मलोकतककी अवधिका और भगवानकी महत्ता तथा भक्तिका वर्णन ....................................... ५८१-५८९

(विशेष बात ५८८)

२३-२८ शुक्ल और कृष्ण-गतिका वर्णन और उसको जाननेवाले योगीकी महिमा ... ५८९-५९७

(विशेष बात ५९२)

आठवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ५९७
आठवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .................५९७

                             नवाँ अध्याय

१-६ प्रभावसहित विज्ञानका वर्णन ... ५९९-६१२

(ज्ञान और विज्ञान-सम्बन्धी विशेष बात ६००; विशेष बात ६०४; मार्मिक बात ६०९; विशेष बात ६११)

७-१० महासर्ग और महाप्रलयका वर्णन ............................. ६१२-६१८

११-१५ भगवानका तिरस्कार करनेवाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्राकृतिका आश्रय लेनेवालोंका कथन तथा दैवी प्राकृतिका आश्रय लेनेवाले भक्तोंके भजनका वर्णन .................................. ६१८-६२५

१६-१९ कार्य-कारणरूपसे भगवत्स्वरूप विभूतियोंका वर्णन .................... ६२५-६३०

२०-२५ सकाम और निष्काम उपासनाका फलसहित वर्णन .................... ६३०-६३९

२६-३४ पदार्थों और क्रियाओंको भगवदर्पण करनेका फल बताकर भक्तिके अधिकारियोंका और भक्तिका वर्णन .............. ६३९-६६६

(विशेष बात ६४०, ६४२, ६४४; मार्मिक बात ६५३; विशेष बात ६४७; मार्मिक बात ६५८, ६६०; विशेष बात ६६४; सातवें और नवें अध्यायके विषयकी एकता ६६४)

नवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ६६६
नवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .................६६६
नवें अध्यायका सार .........................६६६

                          दसवाँ अध्याय

१-७ भगवानकी विभूति और योगक कथन तथा उनको जाननेकी महिमा ...... ६६९-६८०

(विशेष बात ६७५, ६७८)

८-११ फलसहित भगवद्भक्ति और भगवत्कृपाका प्रभाव ............................ ६८०-६८७

(विशेष बात ६८१, ६८६)

१२-१८ अर्जुनके द्वारा भगवानकी स्तुति और योग तथा विभूतियोंको कहनेके लिये प्रार्थना ................................... ६८८-६९४

१९-४२ भगवानके द्वारा अपनी विभूतियोंका और योगका वर्णन ............ ६९४-७१८

(विशेष बात ७११, ७१५)

दसवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच .... ७२८
दसवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ................. ७२८

                         ग्यारहवाँ अध्याय

१-८ विराटरूप दिखानेके लिये अर्जुनकी प्रार्थना और भगवानके द्वारा अर्जुनको दिव्यचक्षु प्रदान करना ...................... ७१९-७२८

(विशेष बात ७२३, ७२७)

९-१४ सञ्जयद्वारा धृतराष्ट्रके प्रति विराट-रूपका वर्णन ................ ७२८-७३२

१५-३१ अर्जुनके द्वारा विराटरूपको देखना और उसकी स्तुति करना ........... ७३२-७४७

(विशेष बात ७३२; ७३८)

३२-३५ भगवानके द्वारा अपने अत्युग्र विराटरूपका परिचय और युद्धकी आज्ञा ................................... ७४७-७५२

(विशेष बात ७५१)

३६-४६ अर्जुनके द्वारा विराटरूप भगवानकी स्तुति-प्रार्थना ........................ ७५२-७६४

(ग्यारहवें अध्यायमें ग्यारह रसोंका वर्णन ७६१, विशेष बात ७६२)

४७-५० भगवानके द्वारा विराटरूपके दर्शनकी दुर्लभता बताना और भयभीत अर्जुनको आश्वासन देना ........................ ७६४-७७१

(विशेष बात ७६५; सञ्जय और अर्जुनकी दिव्यदृष्टि कबतक रही? ७६८)

५१-५५ भगवानके द्वारा चतुर्भुजरूपकी महत्ता और उसके दर्शनका उपाय बताना ..................................... ७७१-७७८

(विशेष बात ७७६, ७७७)

ग्यारहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ...७७८
ग्यारहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ........... ७७८

                         बारहवाँ अध्याय

१-१२ सगुण और निर्गुण-उपासकोंकी श्रेष्ठताका निर्णय और भगवत्प्राप्तिके चार साधनोंका वर्णन ........................... ७७९-८१२

(विशेष बात ७८७; विशेष बात - सगुण-उपासनाकी सुगमताएँ और निर्गुण-उपासनाकी कठिनताएँ ७९२; विशेष बात ७९९; भगवत्प्राप्ति-सम्बन्धी विशेष बात ८०१; कर्मफल-त्याग-सम्बन्धी विशेष बात ८०९; साधन-सम्बन्धी विशेष बात ८११)

१३-२० सिद्ध-भक्तों उन्तालीस लक्षणोंका वर्णन ............................ ८१२-८२९

(मार्मिक बात ८२७ ; प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ८२८)

बारहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ८३३
बारहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .......... ८३३

                         तेरहवाँ अध्याय

१-१८ क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचन .............................. ८६५-८६८

(मार्मिक बात ८६७ ; विशेष बात ८४४, ८४५, ८४८, ८४६)

१९-३४ ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुषका विवेचन ................................. ८६८-८९०

(मार्मिक बात ८८०)

तेरहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ८९०
तेरहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .................८९०

                          चौदहवाँ अध्याय

१-४ ज्ञानकी महिमा और प्रकृति-पुरुषसे जगतकी उत्पत्ति ................... ८९१-८९५

५-१८ सत्व, रज और तम - इन तीनों गुणोंका विवेचन ..........................८९५-८१५

(विशेष बात ८९६, ९०२; मार्मिक बात ९०७; विशेष बात ९१२, ९१४)

१९-२७ भगवत्प्राप्तिका उपाय एवं गुणातीत पुरुषके लक्षण ................... ९१५-९२६

(विशेष बात ९१९)

चौदहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ७७८
चौदहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .............७७८

                         पन्द्रहवाँ अध्याय

१-६ संसार-वृक्षका तथा उसका छेदन करके भगवानके शरण होनेका और भगवद्धामका वर्णन ......................... ९२७-९४७

(विशेष बात ९३५; वैराग्य सम्बन्धी विशेष बात ९३६; संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदके कुछ सुगम उपाय ९३७; विशेष बात ९४३, ९४४)

७-११ जीवात्माका स्वरूप तथा उसे जाननेवाले और न जाननेवालेका वर्णन ..... ९४८-९६६

(विशेष बात ९५०, ९५७, ९५८; मार्मिक बात ९६०, ९६३)

१२-१५ भगवानके प्रभावका वर्णन ............................ ९६६-९७५

(परमात्मप्राप्ति-सम्बन्धी विशेष बात ९७१; प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात ९७३; मार्मिक बात ९७५)

१६-२० क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तमका वर्णन तथा अध्यायका उपसंहार ......... ९७५-९८५

(मार्मिक बात ९७८; विशेष बात ९८०)

पंद्रहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ... ९८५
पंद्रहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द .......... ९८५
पंद्रहवें अध्यायका सार ............. ९८५-९८६

                          सोलहवाँ अध्याय

१-५ फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्तिका वर्णन ................... ९८७-१०१०

(मार्मिक बात १००४, १००६)

६-८ सत्कर्मोंसे विमुख हुए आसुरी-सम्पत्तिवाले मनुष्योंकी मान्यताओंका कथन ............................... १०११-१०१७

(विशेष बात १०१५)

९-१६ आसुरी-सम्पत्तिवाले मनुष्योंके दुराचारों और मनोरथोंका फलसहित वर्णन ................................... १०१७-१०२५

१७-२० आसुरी-सम्पत्तिके मूलभूत दोष - काम, क्रोध और लोभसे रहित होकर शास्त्रविधिके अनुसार कर्म करनेकी प्रेरणा ..... १०३१-१०३६

सोलहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच .............................. १०३६
सोलहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ......... १०३६

                          सत्रहवाँ अध्याय

१-६ तीन प्रकारकी श्रद्धाका और आसुर निश्चयवाले मनुष्योंका वर्णन ..... १०३७-१०४५

(मार्मिक बात १०४०; विशेष बात १०४५)

७-१० सात्विक, राजस और तामस आहारिकी रूचिका वर्णन ......................१०४५-१०५१

(प्रकरण-सम्बन्धी विशेष बात १०४९; भोजनके लिये आवश्यक विचार १०५०)

११-२२ यज्ञ, तप और दानके तीन-तीन भेदोंका वर्णन .......................... १०५२-१०६८

(सात्विकताका तात्पर्य १०५२; मनकी प्रसन्नता प्राप्त करनेके उपाय १०५९; दान-सम्बन्धी विशेष बात १०६७; कर्मफल-सम्बन्धी विशेष बात १०६७)

२३-२८ 'ॐ तत्सत्' के प्रयोगकी व्याख्या और असत्-कर्मका वर्णन ............१०६९-१०७५

सत्रहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ................................ १०७५
सत्रहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ............. १०७५

                         अठारहवाँ अध्याय

१-१२ संन्यास और त्यागके विषयमें मतान्तर और कर्मयोगका वर्णन ..... १०७७-११०८

(मार्मिक बात १०९२; कर्म-सम्बन्धी विशेष बात १०९५)

१३-४० सांख्ययोगका वर्णन .... ११०८-११४७

(मार्मिक बात १११९; विशेष बात ११२८, ११३६, ११४३, ११४४)

४१-४८ कर्मयोगका भक्तिसहित वर्णन ............................ ११४७-११६८

(विशेष बात ११४८; गोरक्षा-सम्बन्धी विशेष बात ११५२; स्वाभाविक-कर्मोंका तात्पर्य ११५४; जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ११५४; विशेष बात ११६०, ११६३, ११६६)

४९-५५ सांख्ययोगका वर्णन ...... ११६९-११७८

(विशेष बात ११७६)

५६-६६ भगवद्भक्तिका वर्णन .... ११७८-१२१९

(प्रेम-सम्बन्धी विशेष बात ११८२; विशेष बात ११८६, ११८९, ११९२; शरणागति-सम्बन्धी विशेष बात १२०४; शरणागतिका रहस्य १२१२)

६७-७८ श्रीमद्भगवद्गीताकी महिमा ................................... १२१९-१२३९
(मार्मिक बात १२३१)

अठारहवें अध्यायके पद, अक्षर और उवाच ............................... १२३९
अठारहवें अध्यायमें प्रयुक्त छन्द ............................... १२३९
आरती ...................................... १२४०