रविवार, 22 जनवरी 2023

करणनिरपेक्ष ज्ञान और केवल दृष्टि डालनेसे परमात्माकी प्राप्ति (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज)।

 

             ।।श्रीहरिः।।

करणनिरपेक्ष ज्ञान 

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज)।

19900613_0518_Parmatma Ka Swaroop Aur Mahtva_VV

[दिनांक १३ जून  १९९०, _ प्रातः ५ बजे के बाद, गीताभवन, ऋषिकेश]।

 

{0 मिनिट•(शुरुआतकी मिनिट) से}  

 राम राम राम राम राम राम राम राम राम।

   देखो, अनादि काल से, ये (यह) जीव- स्वयं, चेतन होता हुआ, अबिनाशी होता हुआ, अमल- शुद्ध होता हुआ, ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल और सहज सुख राशी होता हुआ, संयोगजन्य सुख में लग ज्याणे (जाने) से [इसको] सहज सुखराशीपणे का अनुभव नहीं होता। 'सहज सुखराशी' का अनुभव होता नहीं, इसी तरह से ही 'अमल' का पणा भी, अमलता है, माने इसमें कोई विकार नहीं है- निर्विकार है, (1 मिनिट से) शुद्ध है- इसका भी अनुभव नहीं होता और चेतनपणा है, जड़ता नहीं है, चेतन [है], इसका भी अनुभव नहीं होता र(और) अविनाशीपणे का तो अनुभव होता है। मानो अपणे (अपन- सबलोग) मानते हैं कि [जीव] अनादि काल से शरीर तरह-तरह के बदलता रहता है। "वासांसि जीर्णानि" (साधक- संजीवनी गीता २।२२) (में) ये ही बताया कि यह जीव, पुराणे कपड़ों को जैसे छोड़ देता है मनुष्य [और] नए कपड़े पहन लेता है, ऐसे पुराणे शरीर को छोड़ता है र नए शरीर धारण करता है। ये जो हमारे को ज्ञान है, ये शास्त्र से है। शास्त्र इसमें कारण समझो, नहीं तो ये 'करणरहित' है- ये करण (किसी इन्द्रिय) से ज्ञान नहीं है। किसी इन्द्रिय से क, बुद्धि से क, मनसे, अन्तःकरण, बहि:करण [-किसी से नहीं है। इसमें] कोई करण नहीं है। (2 मिनिट.) स्वतःज्ञान है क मैं वही हूँ। गीता ने ई (भी) कहा- भूतग्राम: स एव अयम् , भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। (८।१९), वही यह भूतसमुदाय है, जो हो- होकर लीन होता है। तो हो-होकर लीन होते हैं शरीर अर(और) भूतग्रामः स एव अयम्, -'भूतग्राम' वही है।

   तो इसका तो 'नित्यपणा' अर भूत्वा भूत्वा प्रलीयते - इसका 'अनित्यपणा', अपणे (अपने को) शास्त्रों से मालुम होता है और अपणे (अपने) अनुभव से भी मालुम होता है कि बालकपण में शरीर और था र आज शरीर और हो गया। तो 'शरीर बदलता है'। 'मैं बदलता हूँ'- ऐसा नहीं होता है। शरीर के साथ अपणा बदलना मान ले- बात एक अलग है, परन्तु ये ज्ञान बिना करण के [है]- किसी करण की जरुरत नहीं इसमें कि शरीर तो बदलता है और मैं नहीं बदलता हूँ। मैं वही हूँ- बचपन में (3 मिनिट.) पढ़ता था, ऐसा करता था, वही मैं आज हूँ। इस ज्ञान में किसी करण की आवश्यकता नहीं है। इसमें इन्द्रियों की, अन्तःकरण की, मन, बुद्धि आदि- किसी की जरुरत नहीं। प्रत्यक्ष ज्ञान है कि मैं वही हूँ और शरीर बदलते हैं। इसी ज्ञान को ही लेणा है क (लेना है कि) जो बदलनेवाळा [है, वह] मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा स्वरूप न बदलनेवाला है। इमें (इसमें) करण क्या है, बताओ? ये बिल्कुल 'करणनिरपेक्ष' ज्ञान है- क मैं वही हूँ और शरीर बदलता है। संसार बदलता है पण परमात्मा बदलते नहीं है। परमात्मा नहीं बदलते, ये ज्ञान भी शास्त्रों से है। और अपणे करण नहीं है इसमें- अपणा कोई करण इसमें है ही नहीं। शास्त्रों की बात मान लेते हैं कि परमात्मा वही है, संसार बदलता है।  तो (4 मिनिट.) संसार बदलता है र शरीर बदलता है। इसमें तो सन्देह नहीं है कि वे (वो) तो अनुभव है। ये तो सब का अनुभव है र वो अनुभव स्वत: है। ये अनुभव कोई करणा नहीं पड़ता है। इन्द्रियों से देखणा नहीं पड़ता है, मन बुद्धि से जाण्णा (जानना) नहीं पड़ता है। स्वतः ही मालुम है कि ये 'संसार और शरीर' बदलता है और ये 'स्वयं और परमात्मा' नहीं बदलते हैं। ये ज्ञान स्वत: है।

   अब इतना सा क करणा है कि शरीर को संसार से अलग नहीं मानणा है और अपणे को परमात्मा से अलग नहीं मानणा है। इतना काम करणा है अपणे। इमें करणे की जरुरत कोनी (इसमें करने की जरुरत नहीं है), सुण करके मान लेणा है।

   इसमें भी परमात्मा वही है- इसके मानणे की इतनी जरुरत नहीं है जितनी जरुरत 'बचपन से मैं था और वो ही आज मैं हूँ' [इसकी है]। 'पहला क्षण' में मर गया र 'दूजा क्षण' में पैदा हो गया। 'एक क्षण' भी मरणा और जल्मणा (जन्मना), मानो (5 मिनिट.) पैदा होणा और मरणा होता रहा है। 'नित्यजात' और 'नित्यमृत' रहा है, हरदम मरता है र हरदम जन्मता है - मानो शरीर बदलता है निरन्तर। घाम है,छाया है,सूर्य है,चन्द्रमा है,हवा है,ये सब बदलते हैं,सब बदलते हैं। इसका ये बणा (इनका यह बना) हुआ शरीर है। [इस] बदलने का अनुभव करणा है जिसके लिये शरीर हुआ (बना) है।

   इसमें करण की जरुरत नहीं। बचपन से मैं वही हूँ- इसमें किस करण की जरुरत है? मैं वही हूँ- इसमें कोई जरुरत [करण] रहता ही नहीं और शरीर बदलता है- यह [अनुभव] तो प्रत्यक्ष है, सबको ही।

   करण से ही देख लो- बदलता है। बिना करण के देखो- बदलता है। तो शरीर बदलने वाला है। ऐसे ही संसार बदलने वाला है, ऐसे ही शरीर बदलने वाला है और मैं बदलने वाला नहीं हूँ; क्योंकि मैंने संसार की अनेक घटनाएँ देखी है, अनेक क्रियाएँ देखी है, अनेक परिस्थिति देखी है, अनेक संयोग- वियोग देखे हैं, (6 मि•) तो मैं वही रहा। ये तो अपना अनुभव है- प्रत्यक्ष।

  इसमें किसी करण की जरुरत नहीं है। ना नाक कान आदिकी- इनकी जरुरत है, ना मन बुद्धि चित्त अहंकार की जरुरत है, किन्ही की जरुरत नहीं। ये होता है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- तीनों होते हैं। तीनों में 'मैं' रहता हूँ, नहीं रहता, तो सुषुप्ति का ज्ञान कैसे होता है? सुषुप्ति का है, जाग्रत का है, स्वप्न का है- तीन अवस्थाओं का ज्ञान होता है। ये तीन अवस्था होती है, एक मूर्छा है र एक समाधि- दो और होती है। वो अपणे में अनुभव न सही, पर इनके अनुभव में भी करण कौण सा है? मैं हूँ- इसमें भी कोई (किसी) करण की जरुरत नहीं, अवस्थाएँ बदलती है, इसमें ई (भी) कोई करण की जरुरत नहीं, शरीर बदलता है, इसमें कोई करण की आवश्यकता नहीं। पूरण करण- करणरहित नहीं, करणनिरपेक्ष ज्ञान है ये- स्वाभाविक।

   तो अपणा होणापन- अपणी सत्ता नित्य-निरन्तर रहणेवाली और अपणे साथ रहनेवाळे शरीर (7) और संसार- इनकी सत्ता हरदम बदलनेवाली, उत्पन्न हो- होकर होणेवाली सत्ता है और अपणी सत्ता 'सहज सुखराशी' है। ऐसे ही 'अविनाशी सहज' है यह (इसी प्रकार अपनी यह सत्ता 'सहज अविनाशी' है)।

ईश्वर अंश जीव अबिनाशी। चेतन अमल सहज सुख राशी- स्वाभाविक। (रामचरितमा. ७।११७)।

   तो इसमें, ये 'अविनाशी' है- इसका तो अनुभव है। अब 'अमल' का और 'सहज सुखराशी' का- इसका अनुभव नहीं है। चेतन अमल सहज सुख राशी- 'सहज सुखराशी' है। माने ये बात है कि अपणे [यह स्वयं] सुखराशी है तो इसको दुख सुहाता नहीं; क्योंकि 'सहज सुखराशी' है। इस वास्ते दुख के साथ इनके वास्तव में एकता नहीं है। इस वास्ते दुख नहीं सुहाता। सुख, सहज सुखराशी- सुख ही सुहाता है।

   तो "सहज सुखराशीपणा" - ये भी अनुभव है और चेतन है और जानता है- ये भी अनुभव है– शरीर तो अपणे को नहीं जानता, अपणे शरीर को (8) जानते हैं। तो ये जाणते हैं- ये चेतन है।

    और 'सहज सुखराशी', इसमें- खुद में दुख नहीं है। दुख र सुख आणे जाणेवाळे संसार के हैं। हरदम- नित्य- निरन्तर रहणेवाळा सुख है, उसको ही 'सुखराशी' कहते हैं और बदलनेवाले सुख को, दुख को, 'आणे जाणेवाला' कहते हैं। 'आणे जाणेवाला' दुख में बदलता है- दुख सुख में बदलता है, सुख दु:ख में बदलता है, दु:ख सुख में बदलता है- रात दिन हो गया, [दिन रात हो गई]। दिन और रात हो चाहे - अलंघ्यं दिन रात्रिवत्। सुखस्यानन्तरं दुखम्, दु:खस्यानन्तरं सुखम्। - दु.ख के बाद सुख, सुख के बाद दु:ख- अलंघ्यम् [दिन रात्रिवत्, इनका]- उल्लंघन अलंघ्य है (लांघे नहीं जा सकते)। जैसे दिन रात, रात [दिन]- रात के बाद दिन, दिन के बाद रात। ऐसे सुख र दुख बदलते हैं। यह बदलता है वो हमारा स्वरूप नहीं है। शरीर बदलता है, वो हमारा स्वरूप नहीं है। यह अपणे को स्वत: ही ज्ञान है- स्वाभाविक।

   इस ज्ञान को ही ज आदर कर लेते हैं कि महाराज! बात यही सच्ची है। 'बदलनेवाळा' अपणा स्वरूप (9) नहीं है। 'नित्य निरन्तर रहणेवाळा' अपणा स्वरूप है। अब इसमें किसी करण की जरुरत नहीं है। ये करणनिरपेक्ष है। इसमें कोई करण हो तो आप शंका करो भले ही, पूछो। यह करणनिरपेक्ष है।

   शरीर बदलनेवाळा और मैं बदलनेवाळा नहीं। शरीर के बदलने की अवस्था को 'मैं' जानता हूँ। मेरे को 'शरीर' नहीं जानता है। ये ज्ञान हमारा 'करणनिरपेक्ष' है। इण (इस) 'करणनिरपेक्ष ज्ञान' में ही, स्थित रहणा ही 'करणनिरपेक्ष- साधन' है। उसमें स्थित रहणा- ज्ञान जो अपणा है, उसीमें स्थित रहणा- यह 'करणनिरपेक्ष- साधन' है। इसमें शंका हो तो बोलो। भूतग्राम: स एव अयं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। (- वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो- होकर लीन होता है) वो यही- यह है।

   करणों से ज्ञान नहीं होता है। पहले जनम में था र इस जनम में हूँ- ये 'करण' से ज्ञान नहीं होता है, (10) 'करण' से ज्ञान नहीं होता। 'मैं निरन्तर रहता हूँ'- ये भी 'करण' से ज्ञान नहीं होता है। 'शरीर बदलता है'- इसको तो हम देख भी सकते हैं,सुनते भी हैं, अनुभव भी करते हैं। ये तो ज्ञान होता है। परन्तु 'मैं वही हूँ'- इसमें ज्ञान होता है– स्वतःसिद्ध ज्ञान है, [वो] चेतन है,अमल है, सहज सुखराशी है, नित्य है, निर्विकार हैऽऽ, इसका 'है पणा' है- स्वतः।

   तो 'है पणा' दो तरह का होता है- [एक तो] उत्पन्न होकर 'है पणा' होता है, एक बिना उत्पन्न [हुए] 'है पणा' होता है। तो शरीर- संसार का उत्पन्न होकर 'है'- 'है पणा' होता है और अपणा बिना उत्पन्न हुए 'है पणा' [है]। बोलो। अब करणनिरपेक्ष की अपेक्षा यहाँ... करणनिरपेक्ष है। 

नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण ■

 –  परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज द्वारा, गीता भवन स्वर्गआश्रम में (11) विक्रम संवत 2047,श्री कृष्ण संवत 5216, ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, - 13 जून 1990 को प्रातः 5:00 बजे की स्तुति प्रार्थना के बाद, यह प्रवचन हुआ।।राम।। 

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                       ।।श्रीहरिः।।

केवल दृष्टि डालनेसे परमात्माकी प्राप्ति

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज)

    {ऊपर (दिनांक १३ |६ |१९९०_०५१८ बजे) के प्रवचन में शरीर, संसार, ईश्वर और ईश्वरअंश जीव के 'सहज- स्वरूप' का विषय समझाया गया। अब आगे (इसी दिन के साढ़ेआठ बजे) वाले प्रवचन में इनका और विस्तार किया जायेगा। इसमें अपनी स्थिति के अनुभव की बातें भी बताई जायेगी और कई शंकाओं का समाधान किया जायेगा। इस प्रवचन का उस  प्रवचन के साथ में सम्बन्ध है (श्री स्वामी जी महाराज ने इसमें उसकी बातको विशेष ध्यान देनेयोग्य बताया है)। तथा यह प्रवचन उसको साथ में रखने से ही पूरा होता है। इसलिये इन दोनों प्रवचनों को यहाँ एकसाथ रखा गया है।} 

19900613_0830_Ahamta Mamta Se Rahit Swaroop 

{0 मिनिट (शुरुआतकी मिनिट) से}

 राम राम राम राम राम राम राम राम राम।।

पराकृतनमद् बन्धं परं ब्रह्म नराकृति।

सौन्दर्यसारसर्वस्वं वन्दे नन्दात्मजं महः॥

प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये।

ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नमः।।

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।

देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।

वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् पीताम्बरादरुणविम्बफलाधरोष्ठात्।

पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् 

कृष्णात् परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥

हरिओम नमोऽस्तु परमात्मने नमः, 

श्रीगोविन्दाय नमो नमः 

(श्री गुरुचरणकमलेभ्यो नमः, 

महात्मभ्यो नमः,सर्वेभ्यो नमो नमः)।।

नारायण नारायण (1 मिनिट से) नारायण नारायण नारायण नारायण।।

   देखो! क्या क्या बतावें थाने (आपलोगों को)। आज, सुबह मैंने बात कही, वा (वह) बात बहुत ध्यान देणे की र बड़ी सरल है। जिसको जीवन्मुक्ति कहते हैं, तत्त्वज्ञान कहते हैं, अनुभव कहते हैं, तत्काल अनुभव हुवे जैसी बात है (तत्काल अनुभव हो जाय, ऐसी बात है) और अनुभव है। केवल, जैसे भगवान् शंकर 'सहज स्वरूप सम्भारा' है ना ऐसी सोरी (सुगम) बात है, संकर सहज स्वरूप संभारा। अर(और) लागि समाधि अखंड अपारा।। - अखण्ड समाधि लग गई। (रामचरितमा.१।५८)।  तो 'सम्भाला' में उद्योग नहीं है। हाँ, ठीक है- इतीज (इतनी ही) है। पङा है- हमारे पास पड़ी है चीज– केवल दृष्टि डालनी है। (2 मिनिट.) इस तरह का साधन बताता हूँ। केवल आप दृष्टि डालो। और कुछ नहीं करणा है। अर वो अनुभव है आपका- सबका। उधर ध्यान नहीं देते हैं, उसको मूल्य नहीं देते हैं, उसको आदर नहीं देते हैं। येह बात (है)। उसको महत्त्व नहीं देते हैं, इतनीज (इतनी- सी) बात है।

   आपके सबके अनुभव की बात बताऊँ- बाल्यावस्था से अभी तक,"बहन भाई- सब ध्यान देकर सुणना"- अभी तक शरीर बदला है, भाव बदले हैं, विचार बदले हैं, संग से तरह-तरह के रंग लगे हैं, सब बदले हैं। देश,काल,वस्तु,व्यक्ति, परिस्थिति,घटना- सब बदले हैं; परन्तु आप बदले हो क्या? कोई स्वीकार नहीं करेगा- मैं बदल गया। शरीर के बदलने से मैं बदल गया- मान लेते हैं; (3 मिनिट.) पण शरीर बदलता है तो आप नहीं बदलते हो। शरीर के बदलने का आपको ज्ञान है क बाल्यावस्था, जवान अवस्था, वृद्धावस्था हुई शरीर की, पण आपकी कहाँ अवस्था हुई? आप जाणने वाले हो। जानने में आणेवाळा बदले, उसमें जाणनेवाळा कैसे बदला? केवल इधर ख्याल करना (है) कि मैं बदला नहीं हूँ।

   शरीर बदलता है,समय बदलता है,देश बदलता है, संग बदलता है, बिचार बदलते हैं, घटना बदलती है, परिस्थिति बदलती है- सब बदलती है। सिवाय आपके सब बदलती है और सब बदलने पर भी आप नहीं बदलते हो। आ (यह) बात है। बोलो इसमें कोई परिश्रम है? इसमें शंका हो जितनी करणा, अभी नहीं, पीछे। जितनी शंका हो,लिखलो,शंका करणा।

   सुबह मैंने बताया (4 मिनिट.) कि 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' (रामचरितमा. ७।११७),  शरीर अविनाशी नहीं है, प्रत्यक्ष दीखे है अपणे (अपन- सबको प्रत्यक्ष दीखता है)। जनमें हैं, मरेगा- शरीर का वियोग होगा। जरूर होगा। तो 'चेतन अमल सहज सुख राशी'।।, तो 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी'। ये (इस) 'अविनाशी पणे' का अनुभव आप करो, क, शरीर 'विनाशी' र मैं 'अविनाशी' हूँ। इतनीज बात है। लम्बी- चौड़ी बात नहीं है। 'नहीं बदलना (है)'- वो मेरी स्थिति है और 'बदलना (है)'- ये मेरी स्थिति नहीं है, यह शरीर की स्थिति है। कितनी सुगम है। शंका करणी (हो) तो पीछे करणा खूब। अभी लिख लेणा। जो शंका हो ज्याए, खूब करणा।

  मैं वही हूँ। नहीं तो बालक अवस्था,जवान अवस्था, (5 मिनिट.) तीन अवस्थाओं का [अनुभव किसको होता?] आपको अनुभव है, शरीर को अनुभव नहीं है। शरीर क्या अनुभव करेगा? अनुभव आप करते हो। ऐसे जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति का आप अनुभव करते हो। पण आप स्वप्न में रहते हो, सुषुप्ति में रहते हो अर आप जाग्रत में रहते हो, तो आप जाग्रत में र स्वप्न में रहते हो, इसका तो बोध होता है। पण आप सुषुप्ति में भी रहते हो। इसमें थोड़ा सा क जोर पड़ता है, पण मैं सीधी बात बताऊँ–

   सुषुप्ति से जगते हो, तो कहते हो कि मैं किस जगह सोया, फिर (बाद में) ज्ञान आया, तो किस जगह सोया- यह ज्ञान नहीं था। कब सोया- ये ज्ञान नहीं था गाढ़ नींद में। (6 मि.) परन्तु ये ज्ञान नहीं था र जाग्रत स्वप्न में देश,काल आदि का ज्ञान है- ये दोनों आप में है क नहीं? सुषुप्ति में इस ज्ञान के अभाव का अनुभव है और जाग्रत र स्वप्न में इन्द्रियाँ, अन्तःकरण से जो जानने में आता है उनका ज्ञान है और सुषुप्ति में इनके अभाव का ज्ञान है। कुछ भी पता नहीं था,तो पता है- ज्ञान है। जैसे, कुछ पता नहीं- ये ज्ञान है कि नहीं? [है] ये आप में है। उस समय में भी ये अनुभव है; पण उस समय में अनुभव के जो औजार है, ये स्थूल शरीर,सूक्ष्म शरीर, अन्तःकरण, बहिःकरण- ये नहीं है। उसको प्रगट करणेवाले यन्त्र नहीं है। वो अविद्या में लुप्त हो गए। पण आप तो थे- इस बात का अनुभव होता है क मेरे को कुछ पता नहीं था (7) पण मैं वही हूँ- जो कल दिन जगता था,वो ही मैं आज हूँ और बीच में [यह] नहीं क अभाव था। संसार का कुछ ज्ञान नहीं था; परन्तु आप नहीं थे- ये ज्ञान आपको नहीं है कि मेरा अभाव था- सुषुप्तिमें मेरा अभाव था। सुषुप्ति में 'स्वप्न और जाग्रत का ज्ञान' का अभाव था। आप का अभाव हुआ [होता] तो [और संसार के ज्ञानका] अभाव न होता,तो 'कुछ भी पता नहीं था'- कौण (कौन) कहता? इस पर गहरा विचार करो। ऐसी गाढ़ नींद आई, मेरे को कुछ पता नहीं रहा, तो 'कुछ पता नहीं'- इस बात का तो पता है ना! जैसे बाहर से कोई आवाज यहाँ दे कि अमुक आदमी है? तो भीतर में एक आदमी बोलता है क नहीं- वो अभी आदमी नहीं है। तो वो 'नहीं है'- कहता हुआ- कहणे वाळा भी नहीं है क्या? (8) अगर कहणेवाला नहीं है,तो 'वो आदमी यहाँ नहीं है'- [यह] कौण कहता है? ऐसे 'हमारे को ज्ञान कुछ नहीं था'- यह कौण कहता है? आप अगर न होते तो 'मेरे को कुछ भी ज्ञान नहीं है'- यह कौण कहता?

   तो जाग्रत,स्वप्न में ज्ञान रहता है। गाढ़ नींद में ज्ञान नहीं रहता, तो ज्ञान के 'अभाव का ज्ञान' है ना। 'ज्ञान का भाव' र 'ज्ञान के अभाव का ज्ञान'- ये आपमें है। उसको आप प्रकाशित करते हो। आप वही हो। इतनी बातों का मेरे को पता नहीं कि किस देश काळ में है। ये तो नए हो गये, परन्तु नींद से खुलणे (जगने) पर "मैं" नया हो गया, मेरा नया ज्ञान हो गया- ये नहीं हुआ है। "मैं" नया आ गया [यह नहीं हुआ है]। अवस्था नई आ गई,परन्तु मैं नया आ गया- ये नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आप अवस्थाओं की गिणती कर लेते हो। (9) जाग्रत होती है,स्वप्न होती है,सुषुप्ति होती है, तो तीनों का ज्ञान आपको है तब न आप गिणती- तीन करते हो अवस्था करके... (अवस्था को लेकर के)। तो तीन... [करके] गिणती कौण करता है?

   अगर तीनों में आप नहीं रहते,तीनों का आपको ज्ञान न होता, तो गिणती कौण करता? मैं गिणती करता हूँ- एक,दो,तीन,चार। तो मैं अलग हूँ। तो अवस्थाओं की गिणती हुई। ज्ञान की,अज्ञान की गिणती हुई। तो सुषुप्ति में भी आप रहते हो।

   बालक अवस्था से अभी तक [की] अवस्थाओं में, रोजाना की जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति अवस्थाओं में आप रहते हो, ये नहीं रहते हैं। 'ये नहीं रहते हैं'- ये संसार और शरीर है र प्रकृति है। और 'रहते हो' ये परमात्मा का साक्षात अंश है। ये बात क्यों कह रहा हूँ कि "ईश्वर अंश जीव अविनाशी" का ज्ञान कराणे के लिये।(10) 'मैं अविनाशी हूँ- ये ज्ञान कराणे के लिए कहता हूँ।

   आपके सामने अवस्थाओं (अवस्थाएँ) बिनाशी है, परिस्थितियाँ बिनाशी है, घटनाएँ बिनाशी है,देश,काल बिनाशी है; परन्तु आप अबिनाशी हो। सम्पूर्ण के 'भाव' 'अभाव' को जानते हो। देश,काल,वस्तु,व्यक्ति के भाव- अभाव को जानते हो, तो आप अविनाशी हो। अविनाशी नहीं हो तो आपको,एक को ज्ञान ऐसे कैसे होगा? जाग्रत का र स्वप्न का,सुषुप्ति का- इसका (इनका) ज्ञान होता है,तो आप हो। केवल अविनाशी की तरफ मैं दृष्टि डालता हूँ (डलवाता हूँ)। आप, 'अविनाशी हूँ मैं'- ये बात आप मझो। फिर शंकाएँ हो तो लिख लो,फेर पूछ लेणा।

   और चेतन,'चेतन' किसको कहते हैं? अपणे स्थूल रीति से कहते हैं- जिसमें "प्राण" है,उसको चेतन कहते हैं। "प्राण" चेतन का लक्षण नहीं है। "प्राण" तो वायु है,जड़ है। (11) "चेतन" का लक्षण है- "ज्ञान"। तो आपको जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति का "ज्ञान" होता है,तो "चेतन" हो ना आप। जाग्रत को स्वप्न का,सुषुप्ति का ज्ञान है? स्वप्न को जाग्रत,सुषुप्ति का ज्ञान है? सुषुप्ति को जाग्रत,स्वप्न का ज्ञान [है?] नहीं है ज्ञान, इन अवस्थाओं को ज्ञान नहीं है। शरीरों को ज्ञान नहीं है। आपको ज्ञान है। तो आप को ज्ञान है जब [तब], ज्ञानस्वरूप हुए,चेतनरूप हुए न [आप], इनको जाण्णेवाले हो (आप इनको जाननेवाले हो)। आपकी सत्ता हुई,आपकी चेतनता हुई और कहा अविनाशी,"अमल"।

    "अमल", तो अमल आया। "मळ" (दोष) आया जितना [वो] अवस्थाओं में आया [आप में नहीं]। जाग्रत में आया, स्वप्न में आया, सुषुप्ति- कुछ ज्ञान नहीं- [यह] मळ आया; परन्तु आप तो "अमल" ही रहे ना! जैसे जाग्रत को जाननेवाले रहे,ऐसे स्वप्न को जानने वाले रहे। ऐसे (12) ही सुषुप्ति को जाण्णेवाले रहे,तो आप में "मल" क्या आया? आप में दोष नहीं है। आप दोषों के साथ मिलकर अपणे को दोषी मानते हो अर दोष आगन्तुक है,ये तो प्रत्यक्ष बात है। शोक, चिन्ता,भय, उद्वेग, राग-द्वेष, हर्ष-शोक– [आदि दोष] आणे जाणे वाले हैं।  'आगमापायिनोऽनित्या:' (गीता २।१४)भगवान ने कितनी बढ़िया बात कही- 'अनित्य' है, तो 'आगमापायी' - आणे जाणेवाले हैं– प्रत्यक्ष अनुभव है।

   अब आणे- जाणे वालों के साथ मत मिलो। तितिक्षस्व- सह लिया,  ठीक है, हो गया - 'आणे- जाणेवाळा, ए ही (ये भी) 'आणे- जाणे वाळा'। सुख भी 'आणे- जाणे वाला',दुख भी 'आणे- जाणे वाला'। संयोग- वियोग होणेवाला है- आणे- जाणेवाला है। परन्तु आप इन को- आणे- जाणे को जानते हो,तो चेतन हुए। अबिनाशी हुए,चेतन हुए और, और अमल हुए- मल नहीं हुआ। तो अविनाशी, चेतन र अमल- तीन बात हुई। (13)

   अब 'सहजसुख राशी' है ,इसका अनुभव नहीं होता। तो 'सहज सुख राशी' का अनुभव होता है- सुषुप्ति में दूजी (कोई) आफत नहीं रहती है। ध्यान देकर सुणना सब- मेरी बात को। सुषुप्ति में और कुछ नहीं जाणते,पण दुख नहीं होता है। पण नींद आ ज्याय तो सुखी हाँ (हैं), वेद्य जी! एक गोळी दे दो, जोरदार तकलीफ हो रही है, नींद आ ज्याय।

    आप रुपयों बिना रह सकते हैं, आप भूखे- प्यासे रह सकते हैं,आप संसार के भोगों बिना रह सकते हैं,पण नींद बिना नहीं रह सकते। अगर नींद बिना रहो तो पागल हो ज्याओगे।

   ध्यान देणा। बिशेष ध्यान देणा! तो क्या मिलता है? कि संसार के अभाव का सुख मिलता है। संसार के अभाव का,संसार के अभाव का ज्ञान हो ज्याय,संसार का सम्बन्ध- विच्छेद हो ज्याय (14) तो दुख मिट ज्याय अर परमात्मा में स्थिति हो ज्याय, तो आँणद मिल ज्याय- इसको ही 'मुक्ति' कहते हैं। 'दु:खों का अत्यन्त अभाव अर परमानन्द की प्राप्ति'- इसको मुक्ति कहते हैं।

   तो दुखों का अभाव है, दुख कठै है? (कहाँ है?) [कि] संसार के सम्बन्ध से है। जाग्रत में, स्वप्न में संसार का सम्बन्ध रहता है, तो शान्ति नहीं मिलती है। इनसे (इनको) भूल ज्याते हो तो शान्ति मिलती है। भूल जाते हो र शान्ति मिल ज्याती है, तो त्याग कर दो और परमात्मा में स्थिति हो ज्याय तो कितना आँणद होगा। भूलनेमात्र् से सुख है। भूलनेमात्र् में मन को ताकत मिलती है,बुद्धि को ताकत मिलती है,शरीर को ताकत मिलती है अर इणके साथ रहणे से शरीर थकता है, बुद्धि थकती है,मन थकता है, इन्द्रियाँ थकती है, थकावट होती है इणमें और इणके सम्बन्ध [इनके साथमें न रहने से],माने केवल अज्ञान में लीन हो ज्याणे से इनको विश्राम मिलता है,बुद्धि में ताजगी आती है,मन में ताजगी आती है,इन्द्रियों में ताजगी आती है,(15) शरीर में ताजगी आती है- नींद से।

   तो केवल संसार के अभाव में आप को ताकत मिलती है। अगर भगवान के भाव का ज्ञान हो तो! कितनी ताकत मिले! कितना आँणद मिले! तो इनके 'भाव का ज्ञान' है,'अभाव का [भी] ज्ञान' आपको है। तो संसार का अभाव होता है गाढ़ नींद में। उस नींद बिना आठ पहर भी नहीं रह सकते आप।

    आजकल की बात मैंने एक सुणी है [कि] पहले, पहले मारपीट करके और साच (साँच) बुलाया करते थे, आजकाल क्या करते हैं क मारपीट की जरुरत नहीं। पास में बैठो,नींद मत लेणे दो- सुई चुभो दो, नींद मत लेणे दो। साच (सच) बोल ज्याता है आदमी। इतना घबरा ज्याता है जाग्रत से,फिर साच बोल ज्याता है। मारपीट से जल्दी नहीं बोलता जितना [इतना] बोल ज्याता है। नींद नहीं लेने देंगे, बस।

   तो नींद नहीं लेणे का दुख (16) मामूली नहीं है। नींद में बड़ा भारी सुख होता है। नींद में बहोत बड़ा सुख मिलता हैऽऽऽ। सुखं अस्वात्सम्, न किञ्चिद् अवेदितम् - ऐसा सुख से सोया,इता सुख से,कि मेरे को कुछ [ज्ञान] नहीं था। तो दुख किसका है? [कह,] संसार के सम्बन्ध का है बाबा! 'सुखराशी' हो ना आप।

 अगर 'सुखराशी' नहीं हो तो नींद क्यूँ चाहते हो। काम- धन्धा करो आठ ही पहर, विश्राम क्यूँ चाहते हो?

    विश्राम में मिलता है आपको– शरीर को विश्राम मिलता है, मन,बुद्धि,इन्द्रियों को विश्राम मिलता है। तो ये संसार के अभाव होणे से मिलता है- संसार के भूल ज्याणे से। अभाव नहीं,अभाव तो [ज्ञान में होता है-] ज्ञान में अभाव हो ज्याता है। तो भूल ज्याणे से आँणद (मिले तो), संसार को अगर छोड़ दो आप र त्याग कर दो (17) तो बड़ा भारी आँणद मिलेगा और त्याग करते ही आपकी स्वरूप में स्थिति होगी। स्वतः- स्वाभाविक आपकी स्वरूप में स्थिति है; जो मैंने कहा अभी- अबिनाशी, चेतन, अमल कहा। यह स्थिति आपकी आप में है। स्वयं में है अर स्वयं में ही आणँद है- महान आनन्द है।

   अब इस [का] विचार करो,इस विचार में आपके क्या बाधा लगी? अर क्या कठिनता पड़ती है? कोई भाई बोले,तो इस विषय को गहरा समझकर, इस विषय की बात ही बोले और न बोले। अब पूछो।

   अबिनाशी, चेतन, अमल, सहज सुख राशी। अविनाशी आप न होते तो आपको बालकअवस्था, जवानअवस्था,वृद्धावस्था का ज्ञान नहीं होता। जाग्रत,स्वप्न, सुषुप्ति का ज्ञान नहीं होता। बेहोशी हो गई, आपकी बेहोशी कर दी- पैराभाँग (18) सुँघा दिया। बेहोशी हो गई। बेहोशी का ज्ञान हो गया क मेरे को होश नहीं था। होश नहीं था- होश के अभाव का ज्ञान है आपको। आप तो थे ही। नहीं तो बेहोशी का ज्ञान कौण करता? बेहोशी की स्मृति आती है- कह मेरे को कुछ भी ज्ञान नहीं था। तो कुछ भी 'ज्ञान का अभाव' का आपको अनुभव है और जाग्रत,स्वप्न के 'ज्ञान का भाव' है,उसका अनुभव है। इनका,सबका अनुभव– आप स्वयं नित्य निरन्तर रहते हो और ये निरन्तर नहीं रहते हैं। ये आपके साथी नहीं है,आप इनके साथी नहीं हो। केवल इतनी सी क बात है।

   इनके साथ रहणा अज्ञान है और साथ के अभाव का अनुभव करणा है, इनके संग के अभाव का अनुभव करना - ये ज्ञान है,ये बोध है,ये जीवन्मुक्ति है। जीते हुए मुक्ति, किससे क अभाव से- जाग्रत,स्वप्न के सुख दुःख से,आणे-जाणे के सुख दुःख से,(19) इनसे मुक्ति हो गई। प्रत्यक्ष बात है,प्रत्यक्ष अनुभव सबका, एकदम। कितनी विलक्षण बात है। इसमें कठिणता हो तो बोलो,सन्देह हो तो बोलो,शंका हो तो बोलो, परन्तु इतनी प्रार्थना है कि इसको गहरा समझकरके बोलना और बात मत छेड़ना। और (कुछ) पूछना हो तो और समय में [पूछो],अभी नहीं।

   अब इसको केवल महत्त्व देणा है- इतनी आपसे प्रार्थना है कि इस ज्ञान को महत्त्व देणा है, ये चीज असली है। जैसे रुपयों को महत्त्व दे रखा है,भोगों को महत्त्व दे रखा है,कुटुम्ब को महत्त्व दे रखा है,मकानों को,जमीन को,महत्त्व दे रखा है। ये- इनको, जो नाशवान को महत्त्व दिया है- ये ही अनर्थ का मूळ है। इनका महत्त्व कुछ नहीं - (20) क्षणभंगुर है। एक क्षण भी स्थिर नहीं रहते, उनको तो महत्त्व दे दिया अर आप निरन्तर रहते हो, उस को महत्त्व देते ही नहीं। महत्त्व की चीज ये है। केवल इस विवेक को महत्त्व देणा है। इतनीज बात है, और कोई लम्बी-चौड़ी बात है नहीं। एकदम जीवन्मुक्ति। शंका हो वो बोलो,सन्देह हो तो बोलो।

    थोड़ा सा क ज्ञान सुषुप्ति का है, वो थोड़ा सा क अटपटा है,परन्तु ज्ञानों के अभाव का ज्ञान है [इसपर ध्यान दें तो] - ये बिलकुल खुलासा हो ज्याय।

   और कल था वह- वो ही मैं आज हूँ। स्वप्न कल था, वो आज नहीं है। जाग्रत दीखे (दिखाई दे) जो आपको, दीखो भले ही, है नहीं वो। ये- सब बदलता है,आप बदलते नहीं हो। आप वही रहते हो और सब के अभाव होणे पर सुख का (21) अनुभव करते हो। तो ये- नींद में भूल ज्याते हो संसार को,उसमें आपको ताजगी मिलती है,सुख मिलता है। अगर जाग्रत अवस्था में आप ऐसे स्थित हो ज्याओ - स्वतः [तो महान् सुख मिलेगा]। समाधि नहीं कहता हूँ मैं, अन्तःकरण की एकाग्रता नहीं कहता हूँ मैं, अपणे आप में स्थित हो ज्याओ [यह कहता हूँ]।

श्रोता- (हरिगिरिजी महाराज-) एकाग्रता के बगैर (बिना) आप में स्थित कैसे हुआ जाय?

श्री स्वामीजी महाराज - ... (अगर) नहीं ह्वे तो एकाग्र कर लो (किसीके अगर ऐसी धारणा हो कि एकाग्रता के बिना अपने-आप में स्थित नहीं हुआ जा सकता तो एकाग्र कर लो-) मैं कहूँ, इनके बिना नहीं हुवे, वो आप करो। किसीके इसके बिना नहीं हुवे तो इसके बिना तो आप करोगे नहीं; परन्तु आप में स्थिति आपकी स्वतः है (बिना एकाग्रता और बिना समाधि के भी आपकी स्थिति अपने-आप में है)। जाग्रत में,स्वप्न में, सुषुप्ति में,मूर्छा में,समाधि में- आप की स्थिति किस अवस्था में नहीं है? बताओ। आप की स्थिति है वो, आपको पहचाणो आप। स्थिति है स्वतः। (22) अब इनके साथ नहीं मिलणा है- इसका नाम है 'ज्ञान' और इसके साथ मिल जाणा है- इसका नाम है 'अज्ञान'। इतनी (ही) तो बात है। कितनी सरल है, बताओ!

   अनेक ग्रंथों के पढ़ने से नहीं होगा और मेरी बात मानो, आपको हो ज्यायेगा। ये मेरी बात नहीं है,आपकी है,मेरी- सब की है। मेरी व्यक्तिगत बात नहीं हैऽऽऽ। सब के अनुभव की बात कही है मैंने। 

      [यहाँ यह सिद्ध होता है कि अगर किसी के ऐसी धारणा हो कि बिना एकाग्रता के अपने आप में स्थित नहीं हुआ जा सकता तो वो एकाग्रता करके अपने आप में स्थित हो जायँ और जिनके ऐसी धारणा नहीं है, वो बिना एकाग्रता के ही अपने-आप में स्थित हो जाय, एकाग्रता की जरुरत नहीं। बिना एकाग्रता और बिना समाधि के भी अपने-आप में स्थित हुआ जा सकता है। वो स्थिति तो पहले से ही है, श्री स्वामी जी महाराज की इन बातों के द्वारा उसको पहचानना है] 

श्रोता- (केशोराम जी अग्रवाल-) व्यवहार काल में घुलमिल जाता है,(उस वक्त यह स्पष्ट नहीं रहता)।

प्रश्न - हँ जी?(क्या बोले?)

उत्तर- (केशोराम जी अग्रवाल-) ...यह बात एकदम स्पष्ट समझ में आती है, लेकिन व्यवहार काल में [मनुष्य] इतना घुलमिल जाता है कि ये विवेक जो है,उस समय लुप्त सा हो ज्याता है।

श्री स्वामीजी महाराज - तो वो हो ज्याता है, [इसलिये कि] उसको मूल्य दे दिया- नाशवान को। (अन्य लोगों को स्पष्ट करके सुनाते हुए, उच्चस्वर में बताने लगे-) कहते हैं क इतनी स्पष्ट है फिर भी हरदम जाग्रति नहीं रहती, व्यवहार में भूल ज्याते हैं, कारण क्या है क व्यवहार में होणेवाली बस्तुओं को आपने महत्त्व दे दिया, यही भूली (23) करता है ऽऽऽ। - ये नाशवान है।

   आपको कितनी (ही) जोरदार भूख लगी हुई हो और आप सिनेमा में चले जायँ अर बहुत बढ़िया- बढ़िया भोजन आपके मनचाहा, गरमा- गरम है, पण खाणे की मन में आती है क्या? - यूँ आती है क्या क, भोजन थोड़ा क खा लें? (थोङा-सा क खा लेवें)। मुँह में पाणी आ ज्यायगा,भोजन की याद आ ज्यायगी पण वो खाणे का मन करता है क्या? प्यास लगी है र, ठण्डा पाणी है र बरषा बरस रही है, ठण्डा जल आ रहा है,गंगा जी बह रही है,पङदे (पर्दे) पर दीखता है,परन्तु मन करता है पीणे का? [नहीं करता।] कारण क्या है? क उसको महत्त्व नहीं दिया। अर जाग्रत को र पदार्थों को महत्त्व दिया। इस वास्ते इस को भूल ज्याते हैं, इस को महत्त्व दिया है जो विशेष। छोरे खेल में भूल ज्याते हैं। (24) [बात पूरी होने से पहले ही, अपने मत का मण्डन सा करते हुए-]

श्रोता- (हरिगिरि जी महाराज-) निश्चय हो जाता है ना उसमें - 

प्रश्न- हँ जी?

[वाक्य पूरा करते हुए-]

जवाब- है नहीं।

श्री स्वामीजी महाराज- हाँ तो

[श्री स्वामीजी महाराज की बात शुरु होने से पहले ही, अपनी कही हुई बात को स्पष्ट करते हुए-]

श्रोता- (हरिगिरी जी महाराज-) 'है नहीं' का निश्चय हो जाता है वहाँ...

श्री स्वामीजी महाराज - [शिक्षा और उपालम्भ के से स्वर में-] अन्नदाता! यही कहता हूँ क इसका- अभाव का निश्चय करोऽऽ। यही तो मैंने बताया। [हँसते हुए] इनके- सबके अभाव का निश्चय करो। 'जाग्रत नहीं है र, स्वप्न नहीं है र, सुषुप्ति नहीं है,मूर्छा नहीं है,समाधि नहीं है'- इसका- अभाव का अनुभव करो। बस, यही बात करणी है- [हँसते- हँसते] जिस तरह सिनेमा में अभाव का अनुभव है,ज्यूँ अभाव [उस तरह व्यवहार में भी अभाव का अनुभव करो],क्यूँ क बदलता है प्रत्यक्ष- आपके सामने अर आप बदलते नहीं हो। दो बात है कि नहीं? तो इसका अभाव है।

   पहले अभाव था र पीछे अभाव रहेगा। ये तो मैं (मैंने) बहुत वार कही है,बहुत वार- सैकड़ों वार कहयो है,हजारों वार कयो (कहा) तो [भी अधिक कह दिया हो- ऐसी] बात नहीं है- कह,पहले ये- संसार-सम्बन्ध नहीं था,पीछे शरीर का,संसार- सम्बन्ध नहीं रहेगा। दो बात प्रत्यक्ष [है]। तीसरी बात, कि जो अभी सम्बन्ध रहते हुए, ये बदलता है अर आप नहीं बदलते हो। प्रत्यक्ष इनके परिवर्तन का ज्ञान आपको (25) है,अभाव में जा रहा है। आज दिन तक उम्र हुई- क हम जी गये,बिल्कुल गलती है, मर गयेऽऽ!। जितने बर्ष आये उतने तो मर गये,अब बाकी कितना है पता नहीं,वो पूरा होते ही मर ज्याओगे। तो मर क्या ज्याओगे, जन्मने के बाद मरणा शुरु हो गया। वो दो दिन का बालक है,तो जितना दिन जीणा था, [उनमें से] दो दिन कम हो गए- मर रहे हैं प्रत्यक्ष !

   तो पहले नहीं थे पीछे नहीं और वर्तमान में, नहीं में जा रहे हैं। शरीर सब नहीं में जा रहे हैं प्रत्यक्ष में। तो 'नहींरूप' हुआ संसार। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। (गीता २।१६) - इसकी सत्ता नहीं है अर सत का अभाव नहीं है। आप सत हो,रूप हो ('सत्स्वरूप' हो), जाण्णे (जानने) वाले हो और ये जाण्णे में आणेवाळा है। ये है नहीं,होता तो ठहरता। बालक- अवस्था सच्ची होती तो ठहरती, जवान- अवस्था सच्ची होती तो ठहरती, धनवत्ता सच्ची होती तो ठहरती,दरिद्रता सच्ची होती (26) तो ठहरती। ए ठहरे (ये ठहरते) कोई नहीं,तो अब कैसे ठहरेगा? प्रत्यक्ष अनुभव है अनित्यता का, इसको आदर दो थोड़ा [सा क] -  अनित्यपणे को र नित्यपणे को आदर दो, महत्त्व दो,ये वास्तविक चीज है। वास्तविक अनुभव की बात है। अब इसमें कठिणता क्या है? सबसे सुगम कहता हूँ क परमात्मतत्त्व की प्राप्ति सबसे सुगम, ये सबसे सुगम [है], कठिण क्या है इसमें? कठिन हो वो बताओ।

  एक बात बतायी कि भूल ज्याते हैं, तो भूल ज्याते हो तो आप आदर नहीं करते हो,इनको महत्त्व नहीं देते हो। आपके सौ रुपया खो ज्याय, [और आप] भूल ज्याओगे? कई वाराँ (बार) याद आवेगा। क्यूँ कि रुपया,मेरा रुप्या, रुप्या चला गया। अर ज्ञान चला ज्याय, इसकी परवाह ही नहीं है आपको।

श्रोता- (केशोराम जी अग्रवाल-) महाराज जी! इनके प्रति राग रहते हुए सत्ता का अभाव नहीं होता।

प्रश्न- हँ जी?

उत्तर- (केशोराम जी अग्रवाल-)

पदार्थों के प्रति राग रहते हुए सत्ता का अभाव नहीं होता।

श्री स्वामीजी महाराज- मैं कहूँ, राग रहते हुए भी,भोजन में राग (27) रहते हुए सत्ता का अभाव कैसे हुआ 'सिनेमा का भोजन' में?

श्रोता- (केशोराम जी अग्रवाल-) वहाँ तो जचा (जँचा) हुआ है।

प्रश्न- हँ?

उत्तर- वहाँ तो जँच गया- ये नहीं है पदार्थ।

श्री स्वामीजी महाराज- हर, अच्छ्या, ये है क्या? (और, अच्छा, ये है क्या?)।

श्रोता- (केशोराम जी अग्रवाल-) ये इतना स्पष्ट समझ में नहीं आ रहा है।

श्री स्वामीजी महाराज - स्पष्ट रूप से आपने खोज,कोशिश ही नहीं की। [जोर देते हुए दुबारा बोले-] इसके स्पष्टरूप से अभाव की कोशिश नहीं की है आपने। सिनेमा में पहले से जाणते हैं- 'नहीं है'। इसको पहले से ही कहते हैं कि 'है'। ये आपका बणाया हुआ 'है पणा' है। इसमें तो है नहीं।

श्रोता- (हरिगिरी जी महाराज-) इसमें 'है पणा' अन्दर से [ही चला जाय तब हो न], वो निकल नहीं रहा है, बात तो यहाँ अटकी है।

 श्री स्वामीजी महाराज - अच्छी बात है,सुणो,अब बताऊँ आपको। ध्यान देकर सुणना। 'है पणा' निकल नहीं रहा है, संसार का 'है पणा' निकल नहीं रहा है- यह प्रश्न है। अब उत्तर को ध्यान से सुणना आप– 'है पणा' दो तरह का होता है। एक 'है पणा' हरदम रहता है और एक 'है पणा' उत्पन्न होणे के बाद (ही) होता है। 'है पणा' दो तरह का (28) है। गीता- दर्पण में विषय लिखा है ये (- ‘गीतामें द्विविध सत्ताका वर्णन’ )। एक सौ आठ विषय है [गीता-दर्पण में], उनमें एक विषय ये भी है। एक "सत्ता"  पैदा होकर होणे वाळी है, एक "सत्ता" निरन्तर रहणे वाळी है। तो "आपकी सत्ता" निरन्तर रहणे वाली है अर जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- आ (यह -सत्ता) पैदा होकर होणेवाली है। ये निरन्तर रहणेवाळी नहीं है। आप कहो सत्ता मिटती नहीं है। हम कहते हैं- सत्ता टिकती नहीं है,अब आओ। अब बोलो मेरे से। सत्ता टिकती नहीं है इनकी।

    एक संत खड़े थे नदी के किनारे। तो लोग कहते हैं महाराज! देखो, नदी बह रही है,नदी बह रही है। तो महाराज ने पुल की तरफ ध्यान दिलाया - देखो! आदमी बह रहे हैं,आदमी बह रहे हैं। बात सच्ची है भई! इस वक्त नदी बह रही है, इसमें आदमी बह रहे हैं। ठीक है ना? कह,हाँ। कह, तो पुळ बह रहा है।(29) अब कैसे मानें, [हँसते-हँसते] पुल तो कैसे बह रहा है? पुळ तो वहीं है र [कह, बह रहा है]।अरे,पुळ बह रहा है। ज्यों नदी बह रही है,ज्यों आदमी बह रहे हैं,ज्यों (वैसे ही) पुळ भी बह रहा है। अब कैसे मान लें? तो बाबा जी ने पूछा क जिस दिन [पुळ] बणा था, उतना नया है आज? [कह,नहीं है] तो 'इतना क्षण' बह गया क नहीं? पूरा बहणे पर बिखर ज्यायगा। पुळ भी बह रहा है। ख्याल में आया? ऐसे, आप जिसको सत्ता स्थिर हो [स्थिर देख रहे हो] वो बह रही है क सत्ता स्थिर है? पुळ बह रहा है। ऐसे, संसार बह रहा है क स्थिर है? बताओ,सत्ता है? उत्पन्न होणेवाळी सत्ता है र नष्ट होणेवाळी सत्ता है। ये सत्ता है। इस सत्ता को आप [ने] महत्त्व दे दिया। नित्य रहणेवाळी सत्ता को आपने महत्त्व नहीं दिया। बोलो! नित्य रहणेवाली सत्ता को महत्त्व देवो। (30) ये तो अपणे सामने पैदा हुवे (होती), सामने नष्ट होती है। बोलो।

श्रोता- (सुनील जी महाराज-) महाराज जी! ये राग के रहते हुए,इनकी 'ये है नहीं'- यह निश्चय हो सकता है क्या?

श्री स्वामीजी महाराज- [आश्वासन देते हुए से] कोई बात नहीं, राग रहते हुए भी, राग मिट ज्यायगा, [वाक्य पर जोर देते हुए दुबारा बोले-] राग मिट ज्यायगा! जैसे बाळक को दर्पण दिखाओ ...[तो वो] छोरे को पकड़ेगा यूँ, दर्पण में दीखे वो (उस प्रतिबिम्ब को) पकड़ेगा।

श्रोता- (सुनील जी महाराज-) महाराज जी! मेरा प्रश्न ये है कि राग.

प्रश्न- हँ जी?

श्रोता- राग के रहते हुए,ये संसार है नहीं- ऐसा निश्चय हो सकता है क्या? ये जङ है।

श्री स्वामीजी महाराज- मैं कहूँ, अभी ज्ञान हुआ आपको, मेरे कहणे से कुछ ज्ञान हुआ क नहीं?

श्रोता- ... [हुआ]।

श्री स्वामीजी महाराज- तो इस समय में क्या राग मिट गया?

श्रोता- (सुनील जी महाराज-) नहीं मिटा।

श्री स्वामीजी महाराज- तो फिर मिटते हुए, अभाव का ज्ञान होता है ना। [श्रोता बोल नहीं पाये। फिर श्री स्वामीजी महाराज उसी बात को स्पष्ट करने के लिये हँसते हुए आगे बोले-] राग के रहते हुए अभाव का ज्ञान होता है ना। आप राग-द्वेष पर विचार मत करो। भाव-अभाव पर बिचार करो। नहीं ह्वे तो क्यूँ,(31) क्यूँ वे सूँ बखियाँ आओ थे? (नहीं हो तो क्यों, क्यों कुस्ती आते हो उनसे आप?) ये बदल ज्यायगा, कोई बात नहीं। राग द्वेष पड़े हैं। मैं (मैंने) बहुत वार कहा रे [कि] मैं सुगम बात बताता हूँ- राग-द्वेष दूर नहीं हुए,कोई परवाह नहीं; पण (पर) सत्ता नहीं है। ये तो बात मानो आप। ये तो अनुभव है क नहीं? सत्ता नहीं [है], राग द्वेष कहाँ टिकेगा? मिट ज्यायगा। अब इयूँ (ऐसे) आप ये चिन्ता मत करो। राग-द्वेष की चिन्ता मत करो। बिल्कुल। बेपरवाह  करो। राग हो गया तो हो गया,हो गया- कोई परवाह नहीं। द्वेष हो गया,हो गया- परवाह नहीं करो। उसको पकड़ो मत। ना राग को पकड़ो,ना द्वेष को पकड़ो। पकड़ो मत। होणे दो। होणा है, होता है झको(जो) जाता है- नष्ट होता है। पैदा होणेवाळी सत्ता है। राग की भी पैदा होणे वाळी सत्ता है,द्वेष की भी पैदा होणे वाळी सत्ता है, पदार्थों की भी पैदा होणे वाळी सत्ता है। ये 'सत्ता' "सत्ता" नहीं है। इसमें क्या बाधा लगती है? (32) कायम रहो। कृपा रखो। और बोलो।

श्रोता- संसार को कैसे भूला जाय?

श्री स्वामीजी महाराज- क्या कहे? (क्या कहते हैं?)।

अन्य श्रोता- [ये कहते हैं कि-] संसार को कैसे भूला जाय।

श्री स्वामीजी महाराज- संसार को,जैसे नींद आवे, भूल ज्याते हो। अभी कहता हूँ मैं क आप मेरी बात सुणते हो, अपणा घर याद है? [दुबारा, ऊँचे स्वर में सुनाते हुए बोले-] मेरी बात सुणते हो,तो अपणा घर याद है क्याऽ? बस,याद आते ही याद आया। इतनी देर भूले हुए थे ना। ऐसे भूल ज्याओ। संसार को कैसे भूलें? [हँसते हुए बोले] ऐसे भूलो। भूल का तो अनुभव होता है- ये जो नाशवान है,उसके भूलने का तो अनुभव होता है। उसके अभाव का अनुभव होता है। आप महत्त्व नहीं देते,यही बात है। इसके अभाव को महत्त्व नहीं देते, परमात्मतत्त्व के भाव को महत्त्व नहीं देते। ज्ञान आपको नहीं है,ये नहीं हो सकता,ज्ञान है।

   तो कृपानाथ! (33) इतना ही करो कि इसको महत्त्व दो। और शंका जहाँ पर हो,महत्त्व नहीं हो [आदि], जैसे आप (आपने) अभी कहा न– कह, इनकी सत्ता मिटती नहीं है,राग-द्वेष हो ज्याते हैं,ऐसे प्रश्न आप करते रहो। राग-द्वेष है,हरख (हर्ष)-शोक है,सत्ता आ ज्याती है,हम तो खिंच ज्याते हैं,हम तो भूल ज्याते हैं, ऐसी वास्तव में आपके खटकती हो, वो शंका करो मेरे से, बार-बार करो। डरो मत।

   [शंका] टिकेगी नहीं महाराज ! बाळू की भींत और नदी के ऊपर बाँधणा चाहे, ठहर ज्यायेगी? बालू की तो दीवार बणावे अर बणावे गंगा जी के प्रवाह के ऊपर। क्या करते हो? क बालू की भींत बणाते हैं। कहाँ बणाते हो? कह, नदी के ऊपर बणाते हैं। ये राग-द्वेष तो बाळूपर भींत है। ये नाशवान में राग र द्वेष है। ये तो बह रहा है- संसार। उस पर बाळू की भींत उठाते हैं। आ बाळू की भींत है सा।(34) क्या कराँ। बालू की भीत बँधेगी? बाँध दोगे कोई आप- इतने हो? मिट्टी की [भी] नहीं बँधेगी। बाळू की भींत बाँध दोगे क्या? नदी के ऊपर? !  ऐसे संसार तो बह रहा है अर आप उसमें राग द्वेष करते हो। कैसे कर लोगे। पाणी है बहणेवाळा,बहणेवाळा। आद- याद रखो- बहणेवाळा। ये रहणेवाला नहीं,ये रहणे [वाला नहीं]। इतनी बात याद रखो- कोई परिस्थिति आवे, सुखदाई-दुखदाई- रहणेवाळी नहीं है। इती (इतनी) याद रख लो। इतनी मैं तो सुगमता से बात बताता हूँ,सुगमता से अनुभव हो ज्याय - एकदम ! महान- बड़ा भारी अनुभव,वो सुगमता, सुगमता से हो ज्याय। ठीक है क। शंकाएँ कर लेणा खूब,लिख लेणा,लिस्ट बणा लेणा और कर लेणा (पूछ लेना)।

नारायण नारायण नारायण नारायण  नारायण नारायण ■

— ।।राम।। यह प्रवचन, परम श्रद्धेय (35) स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज द्वारा, गीताभवन स्वर्गआश्रम में, विक्रम संवत 2047, श्री कृष्ण संवत 5216, ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया,13 जून 1990 को, करीब, प्रातः  8:30 बजे  हुआ। 

 

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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

तत्त्वज्ञानका अनुभव अभी कैसे हो? - (श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)।

तत्त्वज्ञानका अनुभव अभी कैसे हो? 

 (श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज)। 

[ सत्संग-प्रेमी सज्जनों से सादर नम्र-निवेदन है कि परमात्मतत्त्व का अनुभव करने के लिये यहाँ लिखी बातें ध्यान देकर पढ़ें। 

   जो साधक "तत्त्वज्ञान" चाहते हैं,परमात्मतत्त्व में अपनी स्थिति का अनुभव करना चाहते हैं,  जो सरलता से "भगवत्प्राप्ति" चाहते हैं, 'भगवान् में प्रेम' चाहते हैं,'अपने स्वरूप और 'भगवान् के तत्त्व' को जानना चाहते हैं, अनुभव' चाहते हैं,  "मुक्ति" चाहते हैं, दुःख, शोक, चिन्ता, भय और काम,क्रोध आदि विकारों से छूटना चाहते हैं, उनको श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यहाँ बताये गये "प्रवचन" 'ध्यान देकर सुनने चाहिये' तथा यह लेख समझ- समझ कर, ध्यान से पढ़ना चाहिये। इससे भगवत्प्राप्ति में बहुत बङी सहायता मिलेगी। ऐसा मेरा विश्वास है ]।

 

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(श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के बीस अगस्त, उन्नीस सौ चौरानवें, प्रातः पाँच बजे, भीनासर (बीकानेर) वाले " प्रवचन" का 'यथावत् लेखन')। 

 

{ 0 मिनिट से } - { रामायण में आया है कि-

जङ चेतनहि ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ २ ॥ 

••• इस प्रकार जड और चेतनमें ग्रन्थि (गाँठ ) पड़ गयी। यद्यपि वह ग्रन्थि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटनेमें कठिनता है ॥ २ ॥         (रामचरितमा• ७।११७)।

 (इस बात को लेकर श्रोता ने प्रश्न किया कि यह झूठी है तो फिर यहाँ छूटने की कठिनता क्यों बताई गई ? इसपर श्रीस्वामीजी महाराज समझाने लगे-) 

श्रीस्वामीजी महाराज- हाँ, तो "मृषा" (झूठी) अगर न हो (1 मिनिट से) तो छूटे कैसे? "छूटत" छूटती वही है जो झूठी होती है, 'नाभावो विद्यते सतः' (गीता २|१६;) - सद्वस्तु का तो अभाव होता नहीं। तो झूठी नहीं हो तो छूटेगी ही नहीं, 'सत् का अभाव (सत्यतत्त्व का नाश) कभी होता ही नहीं'। इस वास्ते ये(यह) झूठी है वास्तव में। अर (और) 'छूटत कठिनई' क्यों है कि स्वयं पकङ रखा है न ये (यह स्वयं ने पकङ रखा है न)। स्वयं छोङे तब छूटती है, दूसरे के छुड़ाने से नहीं छूटती है। कितनी ही कोई मेहनत करे। जबतक ये स्वयं नहीं छोड़ता, तबतक ये छूटेगी नहीं। 

  इसमें क्या बाधा लगती है कि जो छोड़ना चाहता है,वो छोड़ना चाहता है, वो कह, "मैं छोड़ना चाहता हूँ"- ये ही ग्रंथि है। अपणा जो अहंकार है,(2 मिनिट•) वो- [मैं]"छोङना चाहता हूँ" तो ग्रंथि (को) तो पकङे हुए है, छोङेगा कैसे? 'अधिक अधिक उळझाय', छोड़ना चाहता है तो अधिक उळझती है। तो छोङने का अभिमान होता है। तो "अभिमान"- वो [ही] तो ग्रंथि है अर छोङना चाहता है अभिमान करके र - 'मैं छोङदूँ' तो मैं को तो पकङा हुआ है, छोङेगा कैसे?। इस वास्ते बङी कठिण (कठिन) है ये। 

   तो कैसे छूटे? थोड़ा ध्यान दें आपलोग। ये च्यार बातें हैं- 'मैं', 'तूँ', 'यह' और 'वह'। एक 'मैं' 'है',एक 'तूँ' है, एक 'यह' है, एक 'वह' है। बोलने वाला, वो तो कहता है- 'मैं हूँ'(3 मिनिट•) और जिसको कहता है, वो 'तूँ है' और नजदीक है वो 'यह है' और वोऽ जो दूर है वो 'वह है'। ये च्यारूँ (चारों) एक ही चीज़ है- 'मैं अरु मोर तोर तैं माया' (रामचरितमा.३|१५) - 'मैं' 'मेरा' र 'तूँ' 'तेरा', ये माया है। तो च्यार में दो बात रही- 'मैं- मेरा' र 'तूँ- तेरा'। और सन्तों ने कहा कि मैं मेरे की जेवङी गळ बँध्यो संसार। तो इसमें तो 'मैं', 'मेरा'- दो ही रहा। 'मैं', 'मेरा'- दो रहा, 'तूँ', 'तेरा'- च्यार हो गया। 'यह' और 'उसका'('इसका'), 'वह' और 'उसका'- आठ हो गया। ये है सब 'अहम'। एक 'अहम्' ही है ये सब रूप (इन सब रूपों में एक 'अहम्' ही है)। ये सम्पूर्ण संसार है। (4 मिनिट.) इस संसार का खास, मूल क्या है? ये 'मैं- पन' है। ये मिट ज्याय तो संसार मिट ज्यायगा अर नहीं मिटेगा तो संसार नहीं मिटेगा। क्यूँ क (क्योंकि) मूल कारण ये है। भगवान् ने कहा है कि 

भूमिरापोऽनलोवायुःखंमनोबुद्धिरेव च। 

अहंकार इतीयं मे भिन्नाः प्रकृतिरष्टधा।।       (साधक- संजीवनी गीता ७|४)। 

अपरेयम्,- आ (यह) अपरा है। आठ प्रकार की- पृथ्वी,जल,तेज,वायु,आकाश,मन,बुद्धि र अहम्, ये अपरा प्रकृति है। इससे दूजी (दूसरी) प्रकृति है जीवरूप- परा प्रकृति भगवान् की। तो 'एतद्योनीनि' 'सर्वाणि'- सम्पूर्ण में, ये ही कारण है सब का- अपरा र परा प्रकृति का मिलन। और परा र अपरा का ही मिलन- इसको ही 'चिज्जङग्रंथि' कहते हैं। (5 मिनिट•) ये ही 'जङचेतन की ग्रंथि' है। 'अहम्' तो है जङ। 'अहम्'- 'मैं', 'मैं', 'मैं', 'मैं'- ये 'जङ' है। और 'मैं' 'हूँ', 'हूँ'- ये है 'चेतन'। तो "मैं हूँ"- ये एक ग्रंथि है। अब इसको (इसका) "मैं" अलग हो ज्याय, "हूँ" 'है' में मिल ज्याय। "मैं" तो मिल ज्यायगा 'संसार' में अर "हूँ" मिल ज्यायगा 'परमात्मा' में अर छूट ज्यायेगी (छूट जायेगी)। 'परमात्मा' का 'अंश' तो- "हूँ", 'संसार' का 'अंश'- "मैं"। ये दोनों मिली हुई– इसको "जङ-चेतन-ग्रंथि" कहते हैं। तो वास्तव में "मैं" में "हूँ" नहीं है, "हूँ" में "मैं" नहीं है अर "मैं" से ही "हूँ" है र "हूँ" से ही "मैं" है। परन्तु "हूँ" तो 'सत्ता' है। 'सत्ता' में "मैं" नहीं है और "मैं" है वो 'स्वतन्त्र सत्ता' नहीं है। (6 मि.) वो 'मानी हुई', 'पकङी हुई सत्ता' है। तो एक तो 'वास्तविक सत्ता' र एक जो 'मानी हुई सत्ता'- दोनों मिलकर के 'एक' हुआ। इसको ही "जङचेतन की ग्रंथि" कहते हैं। 

   तो ये है तो मृषा; क्यूँकि रात और अँधेरे की गाँठ होती नहीं। अमावस्या और सूर्य का गठबन्धन हो ज्याय- अमावस्या का सूर्य के साथ विवाह करलें; तो कैसे हो ज्यायेगा? सूर्य हो तो अमावस्या की रात रहेगी नहीं, अमावस्या की रात होती (होगी) तो सूर्य नहीं रहेगा। दोनों एक जगह कैसे होंगे? तो ऐसे ही 'मैं' तो है परिच्छिन्न- एकदेशी और माना हुआ र 'हूँ' है सत्ता और सर्वदेशी। तो ये दोनों एक कैसे हो ज्यायेंगे? 'हूँ' है वो तो प्रकाश है,चेतन है और 'मैं' है- ये जड है, प्रकाश्य है। (7) 'प्रकाशक' और 'प्रकाश्य' एक कैसे होंगे? परन्तु पकङा हुआ है ये। अब छोङे तो क्या क मैं छोङता हूँ। तो 'छोङता' [हूँ] तो नाम होगा र 'मैं' [को] पहले पकङेगा; तो छोडेगा कैसे? 

   तो फेर (फिर) छोङने का उपाय क्या है? छोङने का उपाय है कि ' मैं हूँ '- इसमें "मैं" जो "हूँ" है -' मैं हूँ ', ख्याल करें- ये ' मैं हूँ ' का "भान" (ज्ञान) होता है ना ! - 'मैं हूँ', जिस तरह से हमारे को "प्रकाश" में "थम्भा" (खम्भा) दीखता है, ये "प्रकाश्य" है, ऐसे 'अपणे आपमें', 'मैं हूँ' - ऐसा दीखता है न- 'मैं हूँ', अऽर (और) 'मैं हूँ' र 'तूँ है', 'यह है' र 'वह है'- ये च्यारों (इन चारों) का "भान" होता (8) है क नहीं? ठीक तरह से आप विचार करके बोलें क 'मैं हूँ' र 'तूँ है', 'यह है' र 'वह है', ये- च्यारों का 'भान'  होता है कि नहीं होता है? अगर 'भान' नहीं होता, तो 'मैं हूँ', 'यह है', 'वह है', 'तूँ है'- ये कहते कैसे हैं? तो इनका 'ज्ञान' होता है। च्यारों का 'ज्ञान' होता है न? 'मैं हूँ'- इसका ज्ञान है, 'तूँ है'- इसका ज्ञान है, 'यह है'- उसका ज्ञान है, 'वह है' - इसका ज्ञान है। तो च्यारों का ज्ञान है। तो "ज्ञान" के "अन्तर्गत" है च्यारों। एक "प्रकाश"- एक "जाणणापण" ("जाननापन") है "जाणणापण"- "जाणणा"। एक "सत्ता", जाणणेवाळा- चित्त। ए(इस) "जाणणापण" के अन्तर्गत "मैं" और "तूँ" , "यह" और "वह" है। (9) ये ख्याल आया कि नहीं? 

 अब ये जो च्यार दीखता है, तो ये, "जाणणापण" जो है,वो तो है- "सच्चा" र ये है (हैं)- "कच्चे"। तो "जाणणापण" में अपणी "स्थति" मानें कि "जाणणापण" है- ये "सरूप" (स्वरूप) है। उसमें "स्थित" हो ज्याय, जो कि "स्थिति" है उसमें। अर "मैं", "तूँ", "यह", "वह",- नहीं हैऽऽ।, 

   आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् (साधक- संजीवनी गीता ६|२५)कुछ भी चिन्तन न करे। ना "परमात्मा" का, ना "आत्मा" का,  ना "संसार" का - कुछ भी चिन्तन न करे। अर "मैं", "तूँ", "यह", "वह",- है नहीं और जो "प्रकाश" है, वो- हैऽ। वो हमदम रहता है। (10) "मैं", "तूँ" बदलता है- "मैं" जब कहता हूँ तो अपणे को "मैं" मानता हूँ , आप जब मेरे को कहते हो तो "तूँ" होता हूँ, उसमें "मैं" नहीं होता हूँ, "तूँ" हो ज्याता (जाता) है। मैं पास में होता [हूँ] तो "यह" हो ज्याता है और दूर होता हूँ तो "वह" हो ज्याता है। तो "मैं" हरदम नहीं रहा। "मैं" तो एक मेरी दृष्टि में ही रहा। आपकी दृष्टि में "तूँ" है, दूसरे की दृष्टि में "यह" है। चौथे की दृष्टि में "वह" है। तो "मैं", "मैं" तो केऽऽवल 'एक वोट' है- मेरा। अर "तूँ" र "यह" र "वह"- सैकड़ों वोट है इसमें। 

   ख्याल में आया कि नहीं भाई! "मैं" तो एक ही आदमी कहेगा- 'मैं- (हूँ'), दूजा आदमी "मैं" कहेगा उसको? अर "तूँ" तो कई कहेंगे। हरेक कह देगा- 'तूँ है',(11) 'तूँ है', 'तूँ है', 'तूँ है', 'तूँ है' और 'यह है', 'वह है'। 

   तो "यह" "वह" में तो बोट (मत) बहोत (बहुत) मिलते हैं। "मैं" में तो बोट एक ही मिलता है। तो फेर "मैं" नहीं है। अपणा "मैं" है- (यह) "मैं" नहीं है। किन्तु "मैं" का "प्रकाशक" है। वो "प्रकाशक" "तूँ" का र "यह" का र "वह" का- चारों का है। "प्रकाशक" है, "मैं" नहीं है। 

   जैसे येह "थम्भा" है। तो "थम्भा" तो "आणे- जाणे वाला" है और "प्रकाश" "स्थिर रहणा" (रहनेवाला है)- "प्रकाश" के "अन्तर्गत" "मैं" और "यह थम्भा" है। "थम्भा" "एकदेशीय" है, "प्रकाश" "सर्वदेशीय" है। ऐसे "मैं- पन" "एकदेशी" है और "मैं- पण" का "भान" जिसमें होता है वो "प्रकाश" "सर्वदेशी" (12) है। "सर्वदेशी" में "थम्बा" नहीं है, "सर्वदेशी" में "मैं-पन" नहीं है। "एकदेश" में है। तो "एकदेश" छोङकर "सर्वदेश"- नित्य: सर्वगतः स्थाणुः, अचलो अयं सनातनः।। (साधक- संजीवनी गीता २|२४) "नित्य" है, "सर्वगत"(सर्वदेशी) है, "स्थाणु" है, "अचल" है, "सनातन" है। तो जो "ब्यापक" (व्यापक) है, उसके "अन्तर्गत" "मैं-पण" है। इस वास्ते "मैं-पण" की "उपेक्षा" करदे। ' "मैं-पण" को मिटाता हूँ', (यह) नहीं , "मैं- पण" से अपना "ध्यान"- "दृष्टि" हटाले। हमारी "दृष्टि" "है- पण" में है। "है- पण" में "स्थित" हो ज्याय, जो कि "है- पण" में "स्थिति" स्वतः है। "है- पण" में "स्थिति"कोहीज (को ही वास्तव में) "हूँ" कहते हैं। "हूँ" कहते हैं "मैं" की "सत्ता" को लेकर। ' "मैं" की "सत्ता" ' की "उपेक्षा" करे तो "है- पण" ही होगा। (13) और "है- पण" में "मैं- पण" नहीं है। "मैं- पण" में तो "हूँ- पण" है, "हूँ" से "मैं" कहलाता है अर "मैं" से "हूँ" कहलाता है। "मैं" की "दृष्टि" हटाले तो "हूँ- पण" है ही नहीं, "है- पण" ही होगा, एक "है"ऽऽऽ। 

   श्रोता- (साथीणवाले पण्डित जी-) "है" के भीतर तो "हूँ" और "यह" "वह" भी मिट जायेगा। 

प्रश्न- हँऽऽ? (क्या बोले?)। 

उत्तर- है के भीतर में  "हूँ" और "यह" "वह" - सब मिट जायेगा। 

श्रीस्वामीजी महाराज- सब मिट ज्यायगाऽऽ, यही बात है। ये सब "मैं" के ऊपर ही आधारित है। "मैं" से ही "तू" है, "मैं" से ही "यह" है, "मैं" से ही "वह" है। "मैं" नहीं रहा तो [न] "तूँ" रहा, न "वह" रहा, न "यह" रहा, केऽऽऽवल "तत्त्व" रहा। केवल "प्रकाश" रहा,(14) केऽवल "ज्ञान" रहा। "ज्ञाता" कोई नहीं रहा। "ज्ञानमात्र्"। वो "ज्ञानमात्र्" में जो अपणी "स्थिति" है उसको भी सम्भाळ ले, 'संकर सहज रूप सम्हाळा'- शंकर ने "सहज रूप" को "सम्भाळा"। तो "है" ही रहा- लागि समाधि अखंड अपारा।। (रामचरितमा॰१|५८), "समाधि" लाग (लग) गई, "है" में वो "समाधी" हो गई। "है" में "तूँ" है न कोई "मैं" है न कोई "यह" है। ये [बात] है सा। 

श्रोता- (हरिगिरीजी महाराज-) 'सहज रूप सम्भाळा' का आता है 

प्रश्न- हँ जी? (सुनायी नहीं पङा)। 

श्रोता- 'संकर सहज रूप संभाळा' (यह कहा गया, तो शंकर) "रूप" को भूल गये थे क्या?, शंकर भगवान् अपने "स्वरूप" से "च्युत" हो जाते हैं क्या? (जो सम्हाळना पङा)। 

 श्री स्वामीजी महाराज- पूरा सुणा नहीं मैंने। 

अन्यश्रोता- (मनमोहन जी महाराज-) शंकर भगवान् है, [वो] अपने स्वरूप से च्युत होते हैं क्या कभी? 

श्रीस्वामीजी महाराज- ना, "स्वरूप" से "च्युत" नहीं होते, 'मैं- पण' को 'स्वीकार करते हैं'।(15) "च्युत" कोई नहीं होता है। "स्वरूप" से च्युत कोई नहीं हुआ, कभी नहीं हुआ, कभी नहीं होगा, कोई भी। "स्वरूप" से "अलग" थोङे ही होते हैं,  एक "मैं" को पकड़ लेते हैं, तब "अलग" मानते हैं- कर्ताहमिति मन्यते।। (गीता ३|२७) अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते - माना हुआ है। 'अलग- च्युत नहीं होते'। [च्युत] कोई भी नहीं है,अभी अपणे को "च्युत" मानते हैं। "मैं- पन" को पकड़ने से वो "च्युत" होता हुआ दीखता है, "च्युत" हो गया- ऐसा मानते हैं। 

श्रोता- (हरिगिरीजी महाराज-) यह 'मैंपन' तो वहाँ भी है,'शंकर भगवान्' भी "मैं" को स्वीकार करते हैं क्या? 

श्रीस्वामीजी महाराज- "मैं" को भगवान् स्वीकार करते हैं, तभी तो बोलते हैं! तो 

"संकर सहज सरूप सम्हारा।" ...

"लागि समाधि अखंड अपारा।।" (16) 

ऐसे जो च्यार है, बङी सीधी बात बताऊँ, सीधी बात, सरल बात। कह- (उँचे स्वर में- ) "मैं" और "तूँ" और "यह" और "वह"- च्यारों का "भान" होता है क नहीं? यह पहले बताओ, च्यारों का "भान" होता है क नहीं? जैसे "थम्भा" दीखता है, ऐसे भीतर- 'मैं' 'तूँ' 'यह' 'वह' दीखता है क नहीं भीतर? यह बाहर दीखता है 'थम्भा'। 

श्रोता- दीखता है। 

श्रीस्वामीजी महाराज- दीखता है न, तो/जो "दीखता" है, इसकी "दृष्टि" हटादे, इसकी (दृष्टि) हटादे  बस, और "दृष्टि" 'करे नहीं', 'हटादे'। जो च्यारों [का] प्रकाशक है- च्यारों का प्रकाश है, वो "प्रकाश" केवल रह ज्यायगा बऽस, ये मिट गई। सीधी बात है, एकदम ऽऽ सरल, (ऊँचे स्वर में-) एकदम सीधी। (17) बोलो इसमें कोई शंका है? बोलो शंका हो तो। मानो,ये जो,  इतने हैं आदमी, दीखते हैं, थम्बा दीखता है,ये दीखता है ना? तो दीखता है तो "प्रकाश" में दीखता है। ये "प्रकाश" के "अन्तर्गत" हैं सब और "प्रकाश" में कुछ नहीं है,"केवल प्रकाश" में कुछ नहीं है, केवल "प्रकाश" के "अन्तर्गत" दीखते हैं। "अन्तर्गत" की तरफ "दृष्टि" न रखकर के, अर "चुप" हो ज्याय, तो "प्रकाश" ही रहेगा। 'अन्तर्गत दीखने वालों' की तरफ "दृष्टि" न रखकर के ••• [ चुप हो जाय ] और कुछ भी नहीं बस, ...(ये,इनकी तरफ) "दृष्टि" न रखे। 'प्रकाश की तरफ "दृष्टि" रखे'- ये नहीं कहता हूँ में, (18) "प्रकाश" 'स्वतः' रहेगा। "दृष्टि" रखो तो "अहम्" आ ज्यायगा। ये ख्याल आया कि नहीं? 

श्रोता- (हरिगिरी जी महाराज-) "प्रकाश" तो है ही, स्वतः ई(ही) । 

श्रीस्वामीजी महाराज- बेस(बस)। इस वास्ते "ज्ञानी" कोई हुआ ई (ही) नहीं, कोई "ज्ञानी" नहीं हुआ। "ज्ञानी" होता ही नहीं कोई। केवल "ज्ञान" होता है, "ज्ञानी" कोई नहीं हुआ। कभी हुआ नहीं र है नहीं र होगा नहीं, कोई नहीं है "ज्ञानी"। [ ख्याल ] आ गया? [ हाँ ] , बऽस। एकदम सीधी बात है। 

तो "मृषा" तो इस वास्ते कि मिट ज्याती है,ये 'मृषा'- "झूठी" है, 'मृषा' है। "छूटत कठिनई" क्यों क वो कठिन रखने में- छोङना चाहता है। तो छोङना चाहता है,तो छोङना चाहता है वो ग्रंथि में बैठ के ई (बैठकर ही) छोङना चाहता है। तो कठिनता क्यों हुई कि जिसको छोङना चाहता है उसीको ही पकङता है। अर उसको ज्यूँ (ज्यों) छोङता है ज्यूँ (त्यों) ही दृढ़ होता है (19) मैंपण। एकदम। इस वास्ते कठिनता है। अर 'मृषा' है तो वो (उसको) छोङना है ही नहीं। छोङना है ही नहीं हमारे को। 

   हमारे तो बात है कि सम दुखसुखः स्वऽस्थ: ऽऽ  - स्व में स्थित है। जो है ही, स्वतः - स्वस्थः(गीता १४|२४) न किञ्चिदपि चिन्तयेत्। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा (गीता ६|२५) -"एऽऽक" "परिपूर्ण" "सच्चिदानन्दघन" है, ऐसे करके कुछ भी "चिन्तन" न करे। कुछ भी "चिन्तन" करेगा तो "अहम्" आ ही ज्यायगा, छोङने के लिये करेगा तो छूटेगा नहीं और [इस प्रकार ग्रंथि] पकङी गई। इस वास्ते कुछ भी "चिन्तन" न करे। ' "चिन्तन" न करणे का "भाव" 'भी न रखे (कि) ' "चिन्तन" नहीं करूँगा'- यह भी न पकङे, ' "चिन्तन" करूँगा', यह भी न पकङे। ' "चिन्तन" करणा है'- इसको ही(भी) नहीं, (20) अर तो '"चिन्तन" नहीं करणा है' - इसको भी नहीं (दोनों को ही न पकङे)। सीधी बात है। ख्याल आया (कि) नहीं? 

   'न किञ्चिदपि चिन्तयेऽऽत्' , "सऽम", "शाऽऽन्त", "सद् घन", "चिद् घन", "आनन्दघन"।  ' भूमा अचल शाश्वत अमल, सम ठोस है तूँ सर्वदाऽऽ '। ये, "तूँ","यह", "वह","मैं"- ये नहीं है। "है" है। "है" के "अन्तर्गत" न "मैं" है न "तूँ" है, न "यह" है। सीधी सादी आप देखो कि ये इतने "आदमी" देखें हम, तो मनुष्यों की तरफ "दृष्टि" देखने से 'बहुत मनुष्य' है और मनुष्यों की तरफ "दृष्टि" न डालकर के, (21) केऽऽवल "प्रकाश" ही "प्रकाश" देखे, तो "प्रकाश" के "अन्तर्गत" है, मानो "प्रकाश" में कुछ नहीं है। "प्रकाश" में "प्रकाश" ही "प्रकाश" है,कुछ नहीं (है)। ऐसे कहाँ "ग्रंथि" रही,रही नहीं "ग्रंथि"। "ग्रंथि" तो "व्यक्तित्व" पकङे तब हो न! आप शंका करो कोई हो तो , शंका उठती हो तो बताओ। 

अन्य श्रोता- भक्तिमार्ग... (श्रोता की बात ठीक से सुनायी नहीं देनेपर उनकी तरफ से हरिगिरि जी महाराज बोले- कहते हैं कि भक्तिमार्गवाळा- ये प्रकाश क्या है?)।

श्रीस्वामीजी महाराज- भक्तिमार्ग में भगवान् है वो। जो प्रकाश है, वो भगवान् का सरूप है। उसके शरण हो ज्याओ। (22) बऽस। 

उपस्थित अन्य सज्जन- सात तारीख को मैंने आपको एक पत्र दिया था गोरक्षा के बारे में। 

प्रश्न- हँऽजी? (क्या बोले?)। 

उत्तर- सात तारीख को गोरक्षा के बारे में---

श्री स्वामीजी महाराज- (साधुता और विनयपूर्वक, सादर रोकते हुए- अब, अभी नहीं),  पछे छेङो- पछे (बाद में)। बीच में मत छेङो आप। बीच में, अब मत छेङो। और, और बात मत छेङो बिल्कुल कोई। गहरी बात है वो ठीक (है, चलने दो उसको)। 

   (फिर, वापस उसी बात को कहने लगे-) देखो! 'मैं', 'तूँ', 'यह', 'वह',- इनकी तरफ ध्यान देणे से 'मैं' 'तूँ' 'यह' 'वह'- च्यार दीखते हैं। इधर ख्याल न करें तो ['है' ही रहेगा] बऽस। इसमें ख्याल नहीं करणा, 'है' की तरफ ख्याल करणा- ये दोनों छोङदे। (23) अब इसमें शंका क्या है? बोलो, तो मृषा है तभी तो मिटी (है) ग्रंथि। अगर सत्य ह्वै(हो) तो कैसे मिटेगी? प्रकाश में ग्रंथि नहीं है।

श्रोता- (हरिगिरीजी महाराज-) एक दोहे में आता है- एक दोहा ऐसा है- 

है कहूँ तो है नहीं, नहीं कहूँ तो दूर। 

है (और) नहिं के मध्य में ज्यों का त्यों भरपूर।। 

श्री स्वामी जी महाराज- हाँ। यही बात•। 

 श्रोता- (एक श्रोता दूर से बोले-) जैसे हमारा 'है-पणा' नित्यसिद्ध है वैसे सभी पशु पक्षियों का 'है-पणा' भी नित्यसिद्ध है- 

प्रश्न- हँ?( सुनायी नहीं पङा)। 

दूरवाले श्रोता- (पिछला वाक्य पूरा करते हुए-) ऐसा है क्या?)। (24) 

(दूरवाले श्रोता वापस दोहराते हुए कहने लगे-) जैसे हमारा 'है-पणा' नित्यसिद्ध है •••

श्री स्वामी जी महाराज- हमारा है- है ही नहीं।

दूरवाले श्रोता- हमारा 'है-पणा' है, वो नित्यसिद्ध है, हमको कुछ नहीं करणा पङता, हैं ही- हम हैं, ऐसे पशु पक्षियों का 'है-पणा' भी नित्यसिद्ध है क्या?- 

अन्य श्रोता- (दूरवाले श्रोता की बात जब ठीक से सुनायी नहीं पङी, तब एक नजदीकवाले श्रोता उनकी बात बताने लगे-) जैसे हमारा 'है-पणा' नित्यसिद्ध है, वैसे ही पशु पक्षियों का ही (भी) क्या?, "होणापण" सिद्ध है क्या?- 

श्री स्वामी जी महाराज- बिल्कुल सिद्ध है। पशुओं और पक्षियों का, राक्षसों का,देवताओं का,मनुष्यों का,गधे का,कुत्ते का- सब का। सबका एक ... (तरह का सिद्ध है)- सबका। राक्षस,असुर,देवता,ज्ञानी र अज्ञानी र मूढ़ र कसाई अर कुत्ता र गधा- सबका एक समान ('है-पना' नित्यसिद्ध है)।

 

नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण ■

 

(-श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के बीस अगस्त, उन्नीस सौ चौरानवें, प्रातः पाँच बजे, भीनासर (बीकानेर) वाले "प्रवचन" का 'यथावत् लेखन')। 

 

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