शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

भगवान से मिलन और आनन्द

          ।।श्रीहरिः।।

भगवान् का मिलन और आनन्द-

( जैसे, एक हमारा कोई अत्यन्त प्यारा मित्र हमारे साथ में रहता हो और हम उन्हें पहचानते नहीं हों। पास में रहनेपर भी हम उससे दूर हैं और वो हमारे से दूर है। मिलनेपर भी आनन्द नहीं आता। किसी कारण से अगर हम उसे पहचान लें, तो कितना आनन्द होगा? अपना प्यारा मित्र मिल जायेगा। ऐसे अगर हम भगवान् को पहचान लें, तो कितना आनन्द हो। भगवान् हमारे साथ में ही हैं। हम पहचानते नहीं।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि सब रूपों में भगवान् ही हैं। भगवान् ही संसार के रूप में बने हैं। भगवान् के मनमें आयी कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तो एक ही अनेक हो गये। भगवान् ही संसार बन गये। भगवान् ने संसार बनाया तो संसार को बनाने के लिये मसाला कोई दूसरी जगह से थोङे ही मँगवाया,कोई बिल्टी थोङे ही मँगवाई थी, (आप ही संसार का मसाला बने और आप ही संसार को बनानेवाले बने। इसलिये सबकुछ भगवान् ही हैं। राग-द्वेष के कारण हमारे को भगवान्  भगवान् नहीं दीखते, संसार दीखता है, कोई भला दीखता है, कोई बुरा दीखता है। राग-द्वेष न हो तो भगवान् ही भगवान् दीखेंगे।

इसलिये हमारे को मनुष्य आदि जो भी कुछ दीखते हैं, वे सब भगवान् ही हैं। पशु,पक्षी,वृक्ष, लता, भला,बुरा, गऊ, गधा,चाण्डाल आदि- सभी भगवान् हैं। उनको प्रणाम करें)।

••• क्योंकि भगवान् है। भगवान् के रूप है, अनेक रूप है।
मन्दिर होते हैं, केई तरह के होते हैं मन्दिर। मन्दिर के बनावट सब बराबर थोङी ही होती है। तो ये कोई दो पगों से चलते हैं मनुष्य,  पशु चार पगों से चलते हैं। तो दो थम्बो का मन्दिर है, वो चार थम्बों का मन्दिर है। इसमें ठाकुर जी विराजमान है। ऐसे देखे तो सब जगह भगवान् ही भगवान् दीखे। तो निहाल हो जायेगा।
अरे एक जगह, एक मित्र मिलता है,आणन्द आता है अर सब जगह अपणे इष्टदेव दीखे तो कितना आणन्द होगा उसको? कितनी मौज होगी और अपणे हाथ की बात। इसमें कोई पराधीन नहीं है। इसमें दूसरे के सहारे की जरुरत नहीं है। सत्संग, सत शास्त्र के द्वारा मदद मिलती है; परन्तु इसमें स्वतन्त्र है आदमी। देखणा (देखना) चाहे तो दीख जायेगा। ••• (हमारे प्यारे मित्र, भगवान् मिल जायेंगे,दीख जायेंगे)।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक 19931119_0518 वाले प्रवचन के अंश का यथावत लेखन।)


••• 
भगवान् हैं उनको प्राप्त हुए महात्मा हैं,उनका अनुभव और निर्णय है कि सबकुछ भगवान् ही है- वासुदेवः सर्वम्॰ (गीता ७|१९)। यह उनका अनुभव है, उनका निर्णय है,वो ही सत्य है। अपने को सब वासुदेव ही दीखने लग जाय,  साक्षात् ये परमात्मा ही है, चाहे वह मनुष्य हो, पशु, पक्षी, वृक्ष आदिक हो, चाहे दिवार, पहाङ, समुद्र, नदियाँ हो, अपने को दीखेंगे परमात्मा, सब परमात्मा ही है। तब वो सही, ठीक होवे। ऐसा समझ में न आवे, न दीखे, तो वो आदर करना चाहिये (विश्वास करना चाहिये) भगवान् के और महापुरुषों के वचनों पर। और वास्तव में हमारे को नहीं दीखता, परन्तु  है तो ये ही। ये धारणा है। अनुभव न हो तो भी ऐसी धारणा पक्की रहे कि बात सच्ची वही है। मनुष्य के अभिमान होता है। अभिमानी तो अपने स्वभाव को, अपने अनुभव को विशेष महत्त्व देता है कि परमात्मा है ही नहीं, है तो हमारे को दीखे। हमारे को नहीं दीखते तो परमात्मा है ही नहीं। यह अभिमान की आवाज है। अपने को ज्यादा जानकार मानता है कि मैं समझदार हूँ, जानकार हूँ, हमारे जानने में नहीं आती, वो चीज कैसे है,है ही नहीं। तो उसकी समझ ऊँची बढ़ेगी नहीं, वहीं अटक जायेगा वह। अभिमान जहाँ आया, वहीं उसका पतन हो जाता है, उत्थान नहीं होता।

इसलिये भगवान् के लिये कहा कि ••• अभिमान द्वेषीत्वात् दैन्यं प्रियत्वाच्च। नारद भक्तिसूत्र में आता है कि भगवान् अभिमान से द्वेष रखते हैं। द्वेष का मतलब उससे कोई बैर है, ऐसा नहीं, मानो भगवान् को वो सुहाता नहीं। संसृति मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोकदायक अभिमाना।।

अभिमान सब अनर्थों का मूल है। इस वास्ते अनर्थ किसी में हो, अभिमान हो, तो भगवान् को अच्छा नहीं लगेगा,
कारण? कि भगवान् प्राणीमात्र् के परम सुहृद है और जिससे प्राणियों का अहित होता है,वो बात भगवान् को सुहाती नहीं। इससे प्राणियों का अहित हो जायेगा, इस वास्ते उसके साथ द्वेष है, मानो उसको मिटाना चाहते हैं। तो अभिमानी आदमी कहता है कि भगवान् है तो हमारे को दीखे और हमारे को नहीं दीखता है तो भगवान् है ही नहीं। तो यह अभिमान की आवाज है। शास्त्र कहते हैं, संत कहते हैं,भगवान् कहते हैं, भगवत्प्राप्त पुरुष कहते हैं। सही बात वही है। समझ में नहीं आया,हमारे को नहीं दीखता, तो हम समझ नहीं पाये हैं- ऐसा समझने वाला अगाङी बढ़ता ही चला जायेगा; क्योंकि उसने अपनी रुकावट नहीं की,अपना रास्ता खुल्ला कर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ,परन्तु परमात्मा नहीं है,यह (बात) नहीं है। वो तो है ही। हमारी जानकारी तो बहुत थोङी है। बहुत जानना बाकी पङा है। हरेक विद्या में हम जावें तो विद्या में अधूरे ही अधूरे हैं, हम जानने में बहुत अधूरे हैं,और जानो,और जानो।

तो सीखी हुई,सुनी हुई, समझी हुई बातों में पूर्णता हमारी नहीं है। जो हमारी बुद्धि में आ ही नहीं सकता, उस विषय में पहले निर्णय कर लेना,यह गलती होती है। भगवान् साकार ही है, निराकार नहीं है,वो निराकार ही है,वो साकार हो ही नहीं सकता है- आदिक ये धारणा है,ये गलत है। ये अभिमान की धारणा है। परमात्मा के विषय में यह कह सकते हैं कि मेरी समझ में यहाँ तक आया है,वे साकार है। अथवा, मेरी समझ में साकार नहीं आता, मेरी समझ में निराकार ही आता है। तो मैं यहाँ तक जानता हूँ। यह बात ठीक है,सरलता की है; परन्तु निराकार है, वो साकार हो ही नहीं सकता। वो ऐसा है। तो भगवान् को एक तरह से असमर्थ समझता है। जैसे अपने को असमर्थ समझे,ऐसे भगवान् भी असमर्थ है। उसमें सामर्थ्य है ही नहीं साकार होने की। तो यह नहीं। तो वासुदेवः सर्वम् ,यह भगवान् ने बहुत विशेष तरह से, बहुत आदर देकर बात कही है। ऐसा महात्मा दुर्लभ है। तो उन महात्माओं का अनुभव है,उसका हम आदर करें। आदर क्या है? कि उसकी धारणा करे कि है तो ऐसा ही,अनुभव नहीं हुआ तो हमारे को नहीं हुआ है,परन्तु है तो यही बात। 

तो ऐसी मान्यता से फिर अनुभव हो जाता है। पहले धारणा करे- है तो परमात्मा ही। हम देख नहीं पाते हैं, हम संसार देख पाते हैं। तो संसार की धारणा मनुष्य ने की है। भगवान् के, महात्माओं के संसार की धारणा नहीं है। (साधक- संजीवनी गीता ७|४-६;)। तो जीव की धारणा में है संसार।  तो ये बात अपने को मान लेनी कि वास्तव में बात यह है। हमको मान लेना चाहिये।

जीव अगर जगत को धारण न करे तो जगत है ही नहीं, परमात्मा ही है। तो जगत की धारणा, अपनी धारणा है यह। ना भगवान् की है,ना महात्माओं की है। तो अपनी धारणा है,उसका सुधार करना है। तो मान लेना पहले कि सबकुछ भगवान् ही है। (फिर भगवान् दीखने लग जायेंगे।)
(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के
19931120_0518 वाले प्रवचन से।)