बुधवार, 24 अप्रैल 2019

सत्संग की बातों के अंश-(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सत्संग की बातों के अंश) 

।।श्रीहरि:।।

सत्संग की बातों के अंश। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग की बातों के अंश 


(जीवन में काम आनेवाली और काम में लेने के लिये आवश्यक बातें- ) 
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सबसे पहले तो हमारा यह उद्देश्य हो कि हमें अपना उद्धार करना है। •••
हमारे सामने ये चीजें आती हैं- 
काम- धन्धा, समय, व्यक्ति, वस्तु आदि- आदि । •••  

मान लें वह काम आप हाथ-मुँह धोनेका कर रहे हैं। तो उसमें अनुभव यह होना चाहिये कि यह भगवान् का काम है। ••• 

हम हाथ धोनेके समय यह समझें कि भगवान् की अनन्त सृष्टिमें यह भी उनका एक छोटा-सा क्षुद्र अंश है। ••• 

(अधिक जानकारी के लिए मूल प्रवचन,  पुस्तक आदि देखें) 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज  
की पुस्तक  
"साधन रहस्य" (एकै साधै सब सधै) के 'सबका कल्याण कैसे हो? ' लेख से ।
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सबसे पहले साधकको दृढ़ताके साथ यह मानना चाहिये कि ‘शरीर मैं हूँ और यह मेरा है’ यह बिलकुल झूठी बात है। हमारी समझमें नहीं आये, बोध नहीं हो, तो कोई बात नहीं। पर शरीर ‘मैं नहीं हूँ’ और ‘मेरा नहीं है, नहीं है, नहीं है’—ऐसा पक्का विचार किया जाय, जोर लगाकर। जोर लगानेपर अनुभव नहीं होगा, तब वह व्याकुलता, बेचैनी पैदा हो जायगी, जिससे चट बोध हो जायगा।
शरीर मैं नहीं हूँ—इस बातमें बुद्धि भले ही मत ठहरे, आप ठहर जाओ ! बुद्धि ठहरना या नहीं ठहरना कोई बड़ी बात नहीं है। यह मैं नहीं हूँ—यह खास बात है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह इतना जल्दी लाभदायक नहीं है, जितना ‘यह मैं नहीं हूँ’ यह लाभदायक है। दोनों तरहकी उपासनाएँ हैं; परंतु ‘यह मैं नहीं हूँ’ इससे चट बोध होगा। लेकिन खूब विचार करके पहले यह तो निर्णय कर लो कि शरीर ‘मैं’ और ‘मेरा’ कभी नहीं हो सकता। ऐसा पक्का, जोरदार विचार करनेपर अनुभव नहीं होनेसे दु:ख होगा। उस दु:खमें एकदम शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी ताकत है। वह दु:ख जितना तीव्र होगा, उतना ही जल्दी काम हो जायगा। 

" तात्त्विक- प्रवचन " के
'मैं शरीर नहीं हूँ ' लेख से। 

•••तो इच्छा करने से वस्तुएँ थोङे ही मिलेंगी । वस्तुएँ तो काम करने से मिलेंगी । इसलिये वस्तुओं की इच्छा न करके काम करने की इच्छा करो। ••• 

इस विषय में मैं चार बातें कहा करता हूँ -- 

(1)अपना सब समय अच्छे- से- अच्छे, ऊँचे- से ऊँचे काम में लगाओ। निकम्मे मत रहो, निरर्थक समय बरबाद मत करो •••
(1) जिस किसी काम को करो, सुचारुरूप से करो, जिससे आपके मन में सन्तोष हो और दूसरे भी कहें कि बहुत अच्छा काम करता है। •••
(3) इस बात का ध्यान रखो कि आप के पास दूसरे का हक न आ जाय। आपका हक दूसरे के पास भले ही चला जाय, पर दूसरे का हक आपके पास बिल्कुल न आये।
(4) अपने व्यक्तिगत जीवन के लिये कम- से कम खर्चा करो। ••• 

चिन्ता करना और चीज है, विचार करना और चीज है । 'काम किस रीति से करें, किस रीति से कुटुम्ब का पालन करें, किस रीति से व्यापार करें; किस तरह से सबके साथ व्यवहार करें ' ऐसा शान्त- चित्त से विचार करो । विचार करने से बुद्धि विकसित होगी। परन्तु चिन्ता करोगे कि 'हाय , क्या करें ! इतने कुटुम्ब का पालन कैसे करें । पैदा है नहीं, क्या करें ! ' तो बुद्धि और नष्ट हो जायगी, काम करने में भी बाधा लगेगी, फायदा कोई नहीं होगा । ••• 

"कल्याणकारी- प्रवचन " के
'इच्छा के त्याग और कर्तव्य- पालन से लाभ' से । 


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दूजी बात, एक मार्मिक बताता हूँ । उस तरफ भाई बहनों का ध्यान बहोत कम है । आप कृपा करके ध्यान दें । अपणे भजन- स्मरण करके भगवान् का चिन्तन करके, दया, क्षमा करके जो साधन करते हैं । ये जो करके साधन करते हैं , इसकी अपेक्षा भगवान् की शरण होणा , तत्त्व को समझणा और ये करणे पर जोर नहीं देणा, करणे से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका त्याग करके एक शरण होणा, एक परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का जप करो, कीर्तन करो , भगवान् की चर्चा सुणो, भगवान् की बात कहो- ये करणे की है। और दूजा करणे का ऊँचा दर्जा नहीं है । जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं । 

निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः। 

काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है। 

तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।। 

भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम मुख्य करणे का है।
और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि । यज्ञ करो तो , दान करो तो , पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा री जरुरत है । तो जिणके पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है । पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे - 

धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजै कौण उपाव।।
कीजै कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी।
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिकै न पाँव।
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।। 

तो धर्म, दान, पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते टैक्स है । नीं करे तो डण्ड होगा । तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम करणे का है । भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ करलूँ, इयूँ करलूँ । कहीं कुछ नहीं होता । पईसा है तो वे लगाओ अच्छे काम में । नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी , पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा । डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है ।
करणे रो काम तो भगवान् रे नाम रो जप करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो , भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ सुणो, पढ़ो । ये पवित्र करणे वाळी चीजें हैं और मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं । और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई । ये जितना अशुद्ध •••
(आगे की रिकोर्डिंग कट गई)। 

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सतरह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी, प्रातः पाँच बजे वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।
http://dungrdasram.blogspot.com/2019/04/blog-post.html