सोमवार, 10 अगस्त 2020

हम सब भगवान् की लीला में सम्मिलित हैं।

                        ।।श्रीहरिः।।


हम सब भगवान् की लीला में सम्मिलित हैं। 

आज (९|८|२०२० को) "साधक- संजीवनी" गीता में "अव्यक्त" (२|२५) की व्याख्या में  पढ़ा कि जैसे शरीर- संसार स्थूलरूपसे देखने में आता है, वैसे यह शरीरी स्थूलरूपसे देखने में आनेवाला नहीं है; क्योंकि यह स्थूल सृष्टि से रहित है। (आगे सूक्ष्म और कारण सृष्टि से भी रहित है, आदि बताया गया है) तो मन में आया कि क्या इसका स्वरूप अव्यक्त ही है? और भगवान् भी अव्यक्त ही रहते हैं?। फिर मन में आया कि भगवान् तो व्यक्त (प्रकट) होते हैं, उनके दर्शन होते हैं। तब उत्तर आया कि नित्यधाम में जीव भी तो पार्षद रूप में व्यक्त रहते हैं। वहाँ भगवान् भी व्यक्त रहते हैं। भगवान् का धाम तो सदा रहता है। 

 "धाम" की जिज्ञासा होनेपर श्री मद्भागवत महा पुराण में सनकादिकों और दुर्वासाजी के वैकुण्ठ गमन वाले प्रसंग देखे। फिर ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मखण्ड, द्वितीय अध्याय) के भगवद्धाम और सृष्टि वर्णन में पढ़ा कि  

••• ब्रह्मन् ! पूर्ववर्ती प्रलयकालमें केवल ज्योतिष्पुञ्ज प्रकाशित होता था,जिसकी प्रभा करोङों सूर्यों के समान थी। वह ज्योतिर्मण्डल नित्य है और वही असंख्य विश्व का कारण है। वह स्वेच्छामय रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का परम उज्ज्वल तेज है। उस तेज के भीतर मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं। तीनों लोकों के ऊपर गोलोक- धाम है,जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। ••• प्रलयकाल में वहाँ केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप- गोपियों से भरा रहता है। गोलोक से नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण भाग में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है।ये दोनों लोक भी गोलोक के समान ही परम मनोहर हैं। ••• 

(भगवान् श्रीकृष्ण से नारायण, शिव और ब्रह्मा आदि प्रकट हुए, लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, श्री राधा जी तथा गोप- गोपियाँ प्रकट हुई। श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी को सृष्टि रचने के लिये कहा। दूसरों को भी अपने- अपने कामों में लगाया आदि पढ़ा)। 

इससे पहले परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के प्रवचन सुने थे और उनके अंश यथावत् लिखे भी थे। 
 
 इस प्रकार समझ में आया कि भगवान् ही अनेक रूपों से प्रकट हुए हैं। नित्य- लोकों (वैकुण्ठलोक,शिवलोक आदि) और अनित्य- लोकों (अनेक ब्रह्माण्ड तथा जिसमें हमलोग रहते हैं) में जो कुछ हो रहा है, सब भगवान् की ही लीला है। अब ये सब हम स्वीकार करलें, इनमें सहमत हो जायँ, तो हम भी भगवान् की लीला में सम्मिलित हो गये। हो गये क्या, सम्मिलित हैं। कोई नित्यलीला में सम्मिलित होते हैं, हम अनित्य लोक वाली, अनित्य लीला में सम्मिलित हैं। उनकी मर्जी के अनुसार होनें दें और करते रहें। अपने अलग मानकर क्यों आफत करें। मौज में रहें। 
"साधक- संजीवनी" गीता (अठारहवें अध्याय के सत्तावनवें श्लोक की व्याख्या) में लिखा है कि- 

'शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिसे जो कुछ शास्त्रविहित सांसारिक या पारमार्थिक क्रियाएँ होती हैं, वे सब भगवान् की मरजीसे ही होती हैं। मनुष्य तो केवल अहंकारके कारण उनको अपनी मान लेता है। उन क्रियाओंमें जो अपनापन है, उसे भी भगवान् के अर्पण कर देना है; क्योंकि वह अपनापन केवल मूर्खतासे माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं। इसलिये उनमें अपनेपनका भाव बिलकुल उठा देना चाहिये और उन सबपर भगवान् की मुहर लगा देनी चाहिये।'

(इसलिये ये सब भगवान् की लीलाएँ हो रही हैं और हम उसमें सम्मिलित हैं।) 

जय श्रीराम 

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बाद के भाव-

 त्रेता और द्वापर युग में लीला का स्वरूप वैसा था आज लीला का स्वरूप ऐसा है। बदलने वाली लीला को स्थायी न मानकर सदा रहने वाले भगवान् के साथ में रहना चाहिये।)।