सोमवार, 20 जनवरी 2014

÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ७०-८०  तक.

                                              ||श्री हरिः||

                                        ÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि).
सूक्ति-संख्या ७०-८०  तक.

सूक्ति-७१.
पाणी पीजै छाणियो,गुरु कीजै जाणियो.
शब्दार्थ-
जाणियो(जाना-पहचाना हुआ ).

सूक्ति-७२.
गुरु लोभी सिख लालची दौनों खेले दाँव |
दौनों डूबा परसराम बैठि पथरकी नाव ||
- ÷ -
.आँधे केरी डाँगड़ी आँधे झेली आय |
दौनों डूबा … ?… …काळकूपके माँय ||

सूक्ति-७३.
जाणकारको जायकै मारग पूछ्यो नाँय |
जन 'हरिया' जाण्याँ बिना आँधा ऊजड़ जाय ||
शब्दार्थ-
ऊजड़ (बिना रास्ते,जंगलमें ).

सूक्ति-७४.
कह,गुरुजी ! बिल्ली आगी (घरमें ).
कह, आडो बन्द* करदे .
शब्दार्थ-
आडो बन्द करदे ( किंवाड़ बन्द करदे - यहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं और दूसरी जगह जा सकेगी नहीं;)

*आजकल भी जो आकर चेला बन जाते हैं ,उनको गुरुजी आज्ञा दे-देते हैं कि दूसरी जगह सुनने मत जाना,तो उस शिष्यकी भी दशा उस बिल्लीकी तरह होती है  कि वहाँ तो कुछ (परमात्म-तत्त्व )मिलता नहीं और दूसरी जगह जा सकते नहीं |

सूक्ति-७५.
आकोळाई ढाकोळाई,पाँचूँ रूंखाँ एक तळाई.
दै रे चेला धौक, कह रुपयो धरदे रोक.

सूक्ति-७६.
कान्यो-मान्यो कुर्र्र्र्र्  , कह तूँ चेलो अर हूँ (मैं) गुर्र्र्र्र .
शब्दार्थ-
हूँ (मैं,स्वयं ).

सूक्ति-७७.
(कोई) मिलै हमारा देसी,गुरुगमरी बाताँ केहसी .
शब्दार्थ-
केहसी (कहेगा ).

सूक्ति-७८.
कह,मिल्यो कोनि कोई काकीरो जायो .

सूक्ति-७९.
कह,ओ तो म्हारे खुणींरो हाड है .
शब्दार्थ-
खुणीं (कोहनी,कोहनीकी हड्डी मजबूत,बड़े कामकी और प्रिय होती है ; अपने भाई आदि नजदीक-सम्बन्धीके लिये कहा जाता है कि 'यह तो मेरे कोहनीकी हड्डी है').

सूक्ति-८०.
कह, किणरी माँ सूंठ खाई है ! .
(सूंठ खानेवाली माँ का दूध तेज होता है; ऐसे ही धनियाँके लड्डू खानेवाली माँ के दूध बढ जाता है और जिस मनुष्यके गला बड़ा होता है,कोई चीज आसानीसे निगल ली जाती है , तो उसकी माँके दूध ज्यादा , पर्याप्त आता था (यह पहचान मानी जातीहै ).|

रविवार, 19 जनवरी 2014

÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ६१-७० तक.

                                              ||श्री हरिः||

                                        ÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ६१-७० तक.

सूक्ति-६१.
तनकी भूख इतनी बड़ी आध सेर या सेर |
मनकी भूख इतनी बड़ी निगल जाय गिरि मेर ||
शब्दार्थ-
निगल जाय (गिट जाय,मुखमें समालेना, बिना चबाये पेटमें लै जाना ).गिरि मेर (सुमेरु पर्वत ).

सूक्ति-६२.
मृग मच्छी सज्जन पुरुष रत तृन जल संतोष |
ब्याधरु धीवर पिसुनजन करहिं अकारन रोष ||
शब्दार्थ-
रत (लगे रहते हैं ) ब्याध (मृग मारनेवाला,शिकारी ).धीवर (मच्छली पकड़नेवाला ).पिसुनजन (चुगली करनेवाले,निन्दा करनेवाले ).

सूक्ति-६३.
जो जाके शरणै बसै ताकी ता कहँ लाज |
उलटे जल मछली चढै बह्यो जात गजराज ||
शब्दार्थ-
उलटे जल… (ऊपरसे परनाल आदिकी गिरती हुई धाराके सामने चढ जाना,उसीके सहारे ऊपर चढ जाना ).

सूक्ति-६४.
…[माया] गाडी जिकी गमाणी |
बीस करोड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||
खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||
कथा-
अजमेरके राजाजीके भाईका नाम बीसळदेव था | दौनों भाई परोपकारी थे | राजाजी रोजाना एक आनेकी सरोवरसे मिट्टी बाहर निकलवाते थे (सरोवर खुदानेका,उसमें पड़ी मिट्टी बाहर निकालनेका बड़ा पुण्य होता है ).ऐसे रोजाना खुदाते-खुदाते वो 'आनासागर'(बड़ा भारी तालाब) बन गया,जो अभी तक भी है | बीसळदेवजीने विचार किया कि मैं तो एक साथ ही  बड़ा भारी दान, पुण्य करुँगा (एक-एक आना कितनीक चीज है ) और धन-संचय करने लगे | करते-करते बीस करोड़से ज्यादा हो गया;किसी महात्माने उनको एक ऐसी जड़ी-बूंटी दी थी कि उसको साथमें लेकर कोई पानीमें भी चलै तो पानी उसे रास्ता दे-देता था;उस जड़ीकी सहायतासे बीसळदेवजीने वो बीस करोड़वाला धन गहरे पानीमें लै जाकर सुरक्षित रखा | संयोगवश उनकी रानी मर गई; तब दूसरा विवाह किया (कुछ खर्चा उसमें हो गया ); जब दूसरी रानी आई तो उसने देखा कि राजा पहलेवाली रानीके पसलीवाली हड्डीकी पूजा कर रहे हैं (वो जड़ी ही पसलीकी हड्डी जैसी मालुम पड़ रही थी ) ; रानीने सोचा कि पहलेवाली रानीमें राजाका मोह रह गया | इसलिये जब तक यह हड्डी रहेगी,तब तक राजाका प्रेम मेरेमें नहीं होगा ; ऐसा सोचकर रानीने उस हड्डीके समान दीखनेवाली बूंटीको पीसकर उड़ा दिया | राजाने पूछा कि यहाँ मेरी बूंटी थी न ! क्या हुआ ? तब रानी बोली कि वो बूंटी थी क्या ? मैंने तो उसको पीसकर उड़ा दिया | अब राजा क्या करे , उस बूंटीकी सहायताके बिना वो उस गहरे पानीके अन्दर जा नहीं सकते थे; इसलिये बीस करोड़की सम्पति उस गहरे पानीमें ही रह गयी ; इसलिये कहा गया कि माया को जो यह गाड़ना है वह उसको गमाना ही है-
…गाडी जिकी गमाणी |
बीस करोड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||

सूक्ति-६५.
खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||

सूक्ति-६६.
खादो सोई ऊबर्यो दीधो सोई साथ |
'जसवँत' धर पौढाणियाँ माल बिराणै हाथ ||
शब्दार्थ-
खादो (जो खा लिया ).ऊबर्यो (उबर गया,बच गया ).दीधो (जो दै दिया ).
कथा-
एक राजाने सोचा कि मेरे इतने प्रेमी लोग है,इतनी धन-माया है ; अगर मैं मर गया तो पीछे क्या होगा ? यह देखनेके लिये राजाने [विद्याके प्रभावसे] श्वासकी गति रोकली और निश्चेष्ट हो गये ; लोगोंने समझा कि राजा मर गये और उन्होने राजाको जलानेसे पहले धन-मायाकी व्यवस्था करली,कीमती गहन खोल लिये,कपड़े उतार लिये,एक सोनेका धागा गलेमेंसे निकालना बाकी रह गया था,तो उसको तोड़ डालनेके लिये पकड़कर खींचा,तो वो धागा चमड़ीको काटता हुआ गर्दनमें धँस गया गया,तो भी राजा चुप रहे; फिर पूछा गया कि कोई चीज बाकी तो नहीं रह गयी ? इतनेमें दिखायी पड़ा कि राजाके दाँतोंमें कीमती नग (हीरे आदि) जड़े हुए हैं और वो निकालने बाकी है,औजारसे निकाल लेना चाहिये; कोई बोला कि अब मृत शरीरमें पीड़ा थोड़े ही होती है,पत्थरसे तोड़कर निकाल लो ; राजाकी डोरा (सोनेका धागा ) तोड़नेके प्रयासमें कुछ गर्दन तो कट ही गयी थी ,अब राजाने देखा कि दाँत भी टूटनेवाले है; तब राजाने श्वास लेना शुरु कर दिया; लोगोंने देखा कि राजाके तो श्वास चल रहे हैं,हमने तो इनको मरा मान कर क्या-क्या कर दिया ; कह, घणी खमा, घणी खमा (क्षमा कीजिये,बहुत क्षमा कीजिये). | अब राजा देख चूके थे कि मेरे प्रेमी कैसे हैं और क्या करते हैं तथा धनकी क्या गति होती है | उन्होने आदेश और उपदेश दिया कि धन संग्रह मत करो, काममें लो और दूसरोंकी भलाई करो; दान,पुण्य आदि करना हो तो स्वयं अपने हाथसे करलो (तो अपना है); नहीं तो बिना दिये ये सोना,चाँदी आदि  मरनेपर साथमें नहीं जाते;ऐसा नहीं देखा गया है कि बिना दिये सोना चाँदी साथमें चले गये हों ; इसलिये कहा गया कि - खादो सोई …माल बिराणै हाथ || (कोई कहते हैं कि ये जसवँतसिंहजी जोधपुर नरेश स्वयं थे,जो कवि भी थे )|

सूक्ति-६७.
दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय |
घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय ||
शब्दार्थ-
दीया (दीपक,दिया हुआ,दान).कर दिया न…(हाथसे दिया न हो,हाथमें दीपक न हो… तो घरमें रखी हुई चीज भी नहीं मिलती,न यहाँ मिलती है, न परलोकमें मिलती है ).

सूक्ति-६८.
माँगन गये सो मर चुके(मर गये) मरै सो माँगन जाय |
उनसे पहले वो मरे जो होताँ [थकाँ] ही नट जाय ,
उनसे पहल वो मरे होत करत जे नाहिं ||

सूक्ति-६९.
आँधे आगे रोवो, अर नैण गमाओ .

सूक्ति-७०.
जठे पड़े मूसळ ,बठे ही खेम कुसळ.

शनिवार, 18 जनवरी 2014

÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक

                                              ||श्री हरिः||

                                        ÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक.

सूक्ति-५१.
आखी गुञ्ज  न आखिये होइ जो मित्र सुप्यार |
दूधाँ सेती पित्त पड़े आधी आधी बार ||
भावार्थ-
अगर अपना अच्छा,प्यारा मित्र हो तो भी अपनी रहस्यकी सारी गुप्त बातें तो उनसे भी नहीं कहनी चाहिये ; (क्योंकि उन शत(सौ)-प्रतिशत बातोंमें से पचास प्रतिशत हानि हो जाती है | जैसे,किसीको भरपेट दूध पिलाया जाता है तो) दूधसे भी आधी आधी बार(सौ बारमेंसे आधी-पचास बार) पित्त पड़ जाता है .

सूक्ति-५२.
आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||
भावार्थ-
अपनोंको छोड़ कर परायोंमें बसनेसे और स्त्रीको गुप्त रहस्य बतानेसे पुँडरीक नागको देखो कि वह (गरुड़जीके) पैरोंमें बुरी तरहसे लूंबता,लटकता जा रहा है .
शब्दार्थ-
बिड़ बसण (परायोंमें बसना).गुञ्ज (रहस्यकी बात).
कथा-
एक 'पुँडरीक' नामका नाग गरुड़जीके डरसे (दूसरा रूप धारण करके) कहीं जाकर रहने लग गया (वहाँ विवाह भी कर लिया,परन्तु यह रहस्य किसको भी नहीं बताया था)| एक बार नागपञ्चमीके दिन उस नागकी पत्नि नागदेवताकी पूजा करनेके लिये कहीं जाने लगी तो पुँडरीक नागके पूछने पर उसने बताया कि नागदेवताकी पूजा करने जा रही हूँ | तब
उसने हँसकर बताया कि वो तो मैं ही हूँ , जब मैं साक्षात नाग तुम्हारा पति हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो किसकी पूजा करने जा रही हो? यह सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ | नागने कहा कि यह बात  किसीको भी बताना मत; परन्तु उसकी पत्निके यह बात  खटी नहीं और अपनी पड़ोसिनको बतीदी तथा मना कर दिया कि वो किसीको न बतावे; उसके भी वो बात खटी नहीं और उसने आगे बतादी | इस प्रकार चलते-चलते यह बात गरुड़जीके पास पहुँच गयी और गरुड़जी तो उसको खोज ही रहे थे | तब गरुड़जी  वहाँ आये और पुँडरीक नागको पकड़ कर लै गये (पंजोंसे उसको पकड़ कर उड़ गये)| इसलिये कहा गया कि-
आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||

सूक्ति-५३.
पत्र देणों परदेसमें मित्रसे होय मिलाप |
देरी होय दिन दोयकी तो करणो पड़े कलाप ||

सूक्ति-५४.
*नासत दूर निवारज्यो आसत राखो अंग |
कलि झोला बहु बाजसी रहज्यो एकण रंग ||
शब्दार्थ-
नासत (नास्तिकता-ईश्वरको न मानना).आसत (आस्तिकता-ईश्वरको मानना).झोला (एक प्रकारकी हवा,जिससे खेती जल जाती है).
(*यह दोहा श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके गुरुजीने किसीको पत्र लिखवाते समय पत्रमें लिखवाया था ).

सूक्ति-५५.
राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत |
दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त ||
खुलासा-
(इस दोहेकी रचना स्वयं श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है,इसमें महाराजजीने परोक्षमें अपना नाम-(१)साधू (२)राम(३)सुख(४)दास लिखा है |

सूक्ति-५६.
आसाबासीके चरन आसाबासी जाय |
आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय ||
इस दोहेकी रचना करके श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है |
शब्दार्थ-
आसा (दिग,दिसाएँ).बासी (वास,वस्त्र,अम्बर).आसाबासी (बसी हुई आशा).आशाबाशी (आ-यह,शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही).आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती,तुरन्त मिटती है ,बाकी नहीं रहती).
भावार्थ-
विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती है (कि वाह  वा आप आशारहित हो गये -चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह -बादशाहोंका भी बादशाह हो जाता है,वो आप होगये,शाबाश | ) आशा बाशी नहीं रहती , अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती,गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है,बाकी नहीं रहती ,दु:खोंकी कारण आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह| सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ).|
विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी,वास)+आनन्द(आ शाबाशी,आशाबाशी नाँय)-दिगम्बरानन्दजी महाराज |
शिष्य श्री साधू रामसुखदासजी महाराज-
रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत |
दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत ||
इसके अलावा श्री स्वामीजी महाराजने एक दोहा कवि शालगरामजी सुनारके विषयमें बनाया था,(उनकी पुत्रीका नाम मोहनी था)जो इस प्रकार है-

सूक्ति-५६.
तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे |
मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये ||
भावार्थ-
तेरा(तो) और मेरा (मो+) मिटादो(+हन देह), भगवानका नाम मोहन मोहन कहनेसे (भगवान्नाम लेनेसे) मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे),भगवान (मोहन) से प्रेम करो और उनको पुकारो (मोहन मोहन कीजिये).

सूक्ति-५७.
राम भगति भूषण रच्यो साळग सुबरनकार |
हरिजन अरिजन दोउ मिलि मानेंगे हियँ हार ||
भावार्थ-
कवि शाळगरामजी सुनारने 'रामभक्ति भूषण'नामक ग्रंथकी है,जिसके कारण हरिजन (रामभक्त) और अरिजन (रामविमुख,शत्रु) - दौनों मिल कर हृदयमें हार मानेंगे (रामभक्त तो इसको कीमती हारके समान मानेंगे और रामविमुख हृदयसे हार मान लेंगे,हार जायेंगे ).

सूक्ति-५८.
चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह |
जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह ||
शब्दार्थ-
शाहनपति(बादशाह).शाहनपति शाह (बादशाहोंका भी बादशाह ).'बेपरवाह'माने दूसरी वस्तुओंके बिना तो काम चल सकता है;परन्तु अन्न,जल वस्त्र,औषध आदि तो चाहिये ही !- इसको 'परवाह' कहते हैं इस चिन्ताका भी त्याग कहलाता है- 'बेपरवाह' |

सूक्ति-५९.
ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह |
सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ||
(तृष्णारूपी आगका वर्णन आगेकी सूक्तिमें पढें )|

सूक्ति-६०.
जौं दस बीस पचास भयै सत होइ हजार तौ लाख मँगैगी |
कोटि अरब्ब खरब्ब भयै पृथ्वीपति होनकी चाह जगैगी ||
स्वर्ग पतालको राज मिलै तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी |
'सुन्दर'एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगैगी ||

÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ४१-५० तक.

                                          ||श्री हरिः||

                                        ÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ४१-५० तक.

सूक्ति-४१.
पीर तीर चकरी पथर और फकीर अमीर |
जोय-जोय राखो पुरुष ये गुण देखि सरीर ||
भावार्थ-
काम करनेवाले (नौकर अथवा सेवक) छः प्रकारके होते हैं -
१)पीर -इसे कोई काम कहें तो यह उस बातको काट देता है, २)तीर -इसे कोई काम कहें तो तीरकी तरह भाग जाता है,फिर लौटकर नहीं आता,३)चकरी-यहचक्रकी तरह चट काम करता है,फिर लौटकर आता है,फिर काम करता है|यह उत्तम नौकर होताहै,४)पथर-यह पत्थरकी तरह पड़ा रहता है,कोई काम नहीं करता,५)फकीर-यह मनमें आये तो काम करता है अथवा नहीं करता,६)अमीर-इसे कोई काम कहें तो खुद न करके दूसरेको कह देता है|
(इसलिये मनुष्यको सेवकमें ये गुण देखकर रखना चाहिये)|
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी पुस्तक 'अनन्तकी ओर'से (इसका यह अर्थ लिखा गया).

सूक्ति-४२.
बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस |
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास ||
शब्दार्थ- पसारा(विस्तार).

सूक्ति-४३.
साधू होय संग्रह करै दूजै दिनको नीर |
तिरै न तारै औरको यूँ कहै दास कबीर ||

सूक्ति-४४.
जोरि-जोरि धन कृपनजन मान रहै मन मोद |
मधुमाखी ज्यूँ मूढ मन गिरत कालकी गोद ||
शब्दार्थ- कृपनजन(कंजूस व्यक्ति).मोद (हर्ष).

सूक्ति-४५.
कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय |
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौ आय ||
शब्दार्थ- पट्टन( .नगर).

सूक्ति-४६.
सब जग डरपै मरणसे मेरे मरण आनन्द |
कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द ||
शब्दार्थ- कब मरियै (कब मरें !). भेटियै (मिलें,प्राप्त करें ).

सूक्ति-४७.
जहाँमें जब तू आया सभी हँसते तू रोता था |
बसल कर जिन्दगी ऐसी सभी रोवै तू हँसता जा ||
शब्दार्थ- जहाँमें (जगतमें).

सूक्ति-४८.
बैठोड़ैरे ऊभोड़ो पावणों

सूक्ति-४९.
कपटी मित्र न कीजिये पेट पैठि बुधि लेत |
आगै राह दिखायकै पीछै धक्का देत ||
शब्दार्थ- पैठि (प्रवेश करके).

सूक्ति-५०.
तब लगि सबही मित्र है जब लगि पड़्यो न काम |
हेम अगिनि सुध्द होत है पीतल होत है स्याम ||
शब्दार्थ- हेम (सोना).स्याम (काला).

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

४. महापुरुषोंका नाम नहीं हटावें। (महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें– रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें -)

४. महापुरुषोंका नाम 
नहीं हटावें। 
[ महापुरुषोंके नामका, कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें –रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढ़ें ]
(१) गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ही थे।
    एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज गीताप्रेस गोरखपुरमें विराजमान थे। उन दिनोंमें एक शोधकर्ता, अंग्रेज-भाई गीताप्रेस में आये। उन्होने श्री स्वामी जी महाराज से परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दारके विषयमें कई बातें पूछीं, जिनके उत्तर श्री स्वामीजी महाराजने दिये।
    श्री स्वामी जी महाराजकी बातोंसे उस अंग्रेज-भाईके समझमें आया कि गीताप्रसके संस्थापक तो सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका है। उन्होने संस्थापक भाईजीको समझ रखा था। फिर अंग्रेजभाईने बताया कि गीताप्रेसके संस्थापक तो भाईजी थे। उनसे पूछा गया कि कौन कहता है? अर्थात् यह बात किस आधार पर कहते हो? तब उस अंग्रेजभाईने गीतावाटिकामें जानेकी, वहाँ पूछनेकी और उत्तर पानेकी बात बताते हुए अखबारकी कई कटिंगें दिखायी कि ये देखो अखबारमें भी ये बातें लिखी है (कि गीताप्रसके संस्थापक भाईजी थे)। उन्होने और भी ऐसे लिखे हुए कई कागज बताये।
    ये सब देख-सुनकर श्री स्वामी जी महाराजको लगा कि ऐसे तो ये लोग श्री सेठजीका नाम ही उठा देंगे। 
[फिर श्री स्वामी जी महाराज ने अंग्रेजभाईको समझा दिया कि गीताप्रेसके संस्थापक श्री सेठजी ही थे]। 
तबसे श्री स्वामी जी महाराज अपने सत्संग-प्रवचनोंमें भी यह बात विशषता से 
बताने लग गये कि गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ही थे। 
   प्रवचनोंमें जब-जब श्री सेठजीका नाम लेते, तो नाममें गीताप्रेसके संस्थापक, संरक्षक, संचालक, उत्पादक, सब कुछ आदि शब्द जोड़कर बोलते थे। सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका गीताप्रेसके संस्थापक, संचालक, संरक्षक, उत्पादक, प्रवर्तक आदि सब कुछ थे- ऐसा बताते भी थे।
   श्री महाराजजीकी यह चेष्टा थी कि सब लोग ऐसा ही समझें और दूसरोंको भी समझायें। उन्होने कल्याण-पत्रिकामें भी यह विशेषता से लिखवाना शुरु करवा दिया कि गीताप्रेसके संस्थापक, संरक्षक आदि सब कुछ सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका है। इस घटनासे पहले ऐसा नहीं होता था। 
(२) महापुरुषोंका प्रचार करना कर्तव्य हमारा है।  
    श्री सेठजी अपना प्रचार नहीं करते थे, उनके अनुयायी भी नहीं करते थे; इसलिये श्री सेठजीका नाम तो छिपा रहा (कि गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका थे) और लोगोंने उस जगह भाईजीका नाम प्रकट कर दिया, जो कि बिल्कुल असत्य बात थी। अगर श्री स्वामीजी महाराज ऐसा नहीं करते, श्री सेठजी का नाम नहीं लिखवाते, तो श्री सेठजीका नाम और भी छिपा रह जाता और असत्यका प्रचार होता।
    ऐसे महापुरुषोंका नाम छिप जाता कि जिनको याद करनेसे ही कल्याण हो जाय। वे खुद तो अपना नाम चाहते नहीं थे, वे तो स्वयंकी लिखी पुस्तकों पर भी अपना नाम लिखना नहीं चाहते थे। गीताप्रेससे श्री सेठजी की अर्थसहित गीताजी (साधारण भाषा टीका) छपी है, परन्तु श्री सेठजीने उसमें अपना (लेखक का) नाम नहीं लिखा है। आज भी उसमें नाम नहीं लिखा जा रहा है।
    श्री सेठजीसे पुस्तकों पर स्वयंका नाम लिखनेकी प्रार्थना की गई कि आपका नाम लिखा होगा, तो लोग पढ़ेंगे; तब उन्होने स्वीकार किया और उनकी पुस्तकों पर उनका नाम लिखा जाने लगा। 
इस प्रकार श्री सेठजी अपना नाम नहीं चाहते थे और उनके अनुयायी भी इसमें
सहयोग करते थे; जिसका परिणाम यह हुआ कि सत्य छिप गया और उसके स्थान पर असत्य प्रकट हो गया, झूठ सामने आ गया, असत्यका प्रचार हो गया।
    अगर श्री सेठजीका नाम छिपा रहता तो हालात कुछ और ही हुई होती; परन्तु श्री स्वामीजी महाराजने यह कमी समझली और श्री सेठजीका नाम सामने ले आये, सत्य को प्रकट कर दिया, जिससे जगतका महान् उपकार हुआ। 
    यह उन महापुरुषोंकी हमलोगों पर बड़ी दया है। यह हमलोगोंको क्रियात्मक उपदेश है कि महापुरुष अपना प्रचार स्वयं नहीं करते; यह तो हम लोगोंका कर्तव्य है कि उनका प्रचार हमलोग करें।
    श्री स्वामीजी महाराज बताते थे कि एक बार जब 'कर्णवास' (उत्तर प्रदेश) में श्री सेठजीका सत्संग चल रहा था, तो भाईजी गीताप्रेस, कल्याण आदिका काम छोड़कर, बींटा (बिस्तर) बाँधकर वहाँ आ गये कि मैं तो भजन करुँगा; भगवान् का प्रचार मनुष्य क्या कर सकता है। तब श्री सेठजीने कहा कि भगवान् का प्रचार करना खुद भगवान् का काम नहीं है, यह तो भक्तों (हमलोगों) का काम है। भक्तिका प्रचार करना भक्तोंका काम है आदि। तब भाईजी वापस गये और काम करने लगे। 
    इसी प्रकार महापुरुषोंका और उनकी वाणीका प्रचार करना स्वयं महापुरुषोंका काम नहीं है, यह तो उनके अनुयायियोंका काम है, भक्तोंका काम है। अगर वे भी नहीं करेंगे तो कौन करेगा? उनका नाम वे नहीं लेंगे तो कौन लेगा? 
   इसलिये यह भक्तोंका (-हमारा) कर्तव्य है कि महापुरुषोंका, उनकी वाणीका, पुस्तकोंका, रिकॉर्डिंग वाणीका और उनकी बातोंका दुनियाँमें प्रचार करें।
   लोगोंको उनके बारेमें समझावें कि ये ऐसे महापुरुष थे। उनके ऐसे सिद्धान्त थे आदि।
    हाँ, उनके प्रचारकी ओटमें अपना स्वार्थ सिद्ध न करें। 
   जैसे, पेम्पलेट में, पत्रिकामें, व्यापारमें या दुकान आदिमें उन महापुरुषोंका नाम लिखवा दें; (तो) इससे हमारा प्रचार होगा, हमारी दुकानका प्रचार होगा, बिक्री बढ़ेगी, लोग हमें उनका अनुयायी समझकर हमारा आदर करेंगे, विश्वास करेंगे, ग्राहक ज्यादा हो जायेंगे, हमारे आमदनी बढ़ेगी आदि और अपनी कथा-प्रचारमें, हमारे श्रोता ज्यादा आयेंगे, हमारी बात भी कीमती हो जायेगी, हमारी मान-बड़ाई होगी, लोग हमारेको उनका विशेष आदमी मानेंगे आदि आदि। 
    ऐसी स्वार्थकी भावनासे, इस प्रकार स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये महापुरुषोंके नामका दुरुपयोग न करें और कोई करता हो तो उसको भी यथासाध्य रोकें।
    श्री स्वामी
जी महाराज भी इसके लिये निषेध करते थे और रोकते थे। 
(३) महापुरुषों द्वारा चलाये हुए सत्संगको आगे बढ़ावें।
    परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजको सत्संग बहुत प्रिय था। 
    उनकी कोशिश थी कि ऐसा सत्संग आगे भी चलता रहे। 
    जैसे ठेला चलाने वाले लोग ठेलेके धक्का लगाकर खुद भी उसपर बैठ जाते हैं और उस धक्केके जोरसे ठेला बिना चलाये ही काफी दूरतक चलता रहता है। (ठेला धीमा पड़ने लगता है तो वो दुबारा धक्का लगाकर छोड़ देते हैं और ठेला काफी दूरतक और चलता रहता है)। ऐसे ही श्री सेठजी और श्री स्वामी जी महाराज जैसे महापुरुषोंके द्वारा चलाया हुआ यह सत्संगरूपी ठेला है जो उनके जानेके बाद भी, उनके लगाये हुए धक्केके जोरसे चल रहा है। अब हमलोग इसके और धक्का लगा देंगे (सत्संग करेंगे और करवायेंगे) तो यह कई दिनोंतक और चलता रहेगा। (इसके बाद भविष्य में कोई और धक्का लगा देगा तो आगे और चलेगा)। यह ठेला बन्द नहीं होना चाहिये अर्थात् यह सत्संग बन्द नहीं होना चाहिये। सत्संग चलते रहना चाहिये। इससे जगत का बड़ा भारी हित होगा। 
    प्रातः पाँच बजेवाला सत्संग श्री स्वामी जी महाराज के द्वारा चलाया हुआ है। इसको चलाते रहना चाहिये। ऐसी कोशिश करनी चाहिये कि यह आगे, भविष्य में भी चलता रहे। इससे दुनियाँका बड़ा भारी हित होगा। यह ठेला बन्द नहीं होना चाहिये।
    इसके धक्का लगाना हमारा कर्तव्य है। जैसा श्री स्वामी जी महाराज के समय में सत्संग होता था, वैसा ही हम आज भी करते रहें और करवाते रहें तथा विशेष कोशिश कर देते हैं तो यह धक्का लगाना हो गया। यह कई दिनोंतक चलता रहेगा। हमारे बाद में कोई और धक्का लगा देगा तो आगे और चलेगा। इस प्रकार दुनियाँका बड़ा भारी हित होता रहेगा। दुनियाँ दुखोंसे बच जायेगी। महान शान्ति मिलेगी।
(४) महापुरुषोंकी पुस्तकें लोगोंको सुनावें।
    उनकी रिकॉर्ड- वाणीके द्वारा सत्संग करें, पुस्तकोंके द्वारा सत्संग करें। दुकानपर पुस्तकें रखें और लोगोंको कोशिश करके बतावें तथा देवें। श्री स्वामी जी महाराजने बताया कि पुस्तकें पढ़नेके लिये देवें और पूछें कि वो पुस्तक पूरी पढ़ली क्या? पूरी पढ़लेनेपर वो पुस्तक वापस लेकर दूसरी देवें।
    (कम खर्चेमें ही पुस्तक- प्रचारका यह बहुत बढ़िया तरीका है)। 
   पुस्तक पढ़कर लोगोंको सुनावें, उनकी रिकॉर्ड की हुई वाणी- द्वारा सत्संग करें, सभा करके उनकी रिकॉर्ड- वाणी लोगोंको सुनावें।
    अपने कथा-प्रवचनोंमें भी महापुरुषोंकी रिकॉर्ड-वाणी लोगोंको सुनावें, भागवत-सप्ताहके समान उनकी गीता 'तत्त्वविवेचनी', गीता 'साधक-संजीवनी' आदि ग्रंथोंका आयोजन करके लोगोंको सुनावें। 
    जैसे कथाकी सूचना लिखवाते हैं और सूचना देते हैं कि अमुक दिन भागवत-कथा होगी, आप पधारें; इसी प्रकार महापुरुषोंकी वाणी सुनानेकी, पुस्तक सुनानेकी सूचना लिखवायें और सूचना देवें तथा समयपर वाणी या पुस्तक ईमानदारीसे सुनावें।
    जिस प्रकार श्री स्वामीजी महाराजके समय में प्रातः ५ बजे प्रार्थना, गीता-पाठ (गीताजीके करीब दस श्लोकोंका पाठ) और सत्संग होता था; वैसे ही आज भी प्रार्थना, गीता-पाठ करें और उनकी रिकॉर्डिंग- वाणी द्वारा सत्संग अवश्य सुनें। कुछ लोग प्रार्थना, गीतापाठ आदि तो कर लेते हैं पर सत्संग नहीं सुनते। ऐसा न करें। इससे आप महान लाभ से वञ्चित रह जायेंगे। श्री स्वामी जी महाराज का सत्संग जरूर सुनें। इसी प्रकार उनकी वाणी द्वारा लोगों को भी सत्संग करावें।
(५) महापुरुषोंके नामका दुरुपयोग न करें।
    वहाँ महापुरुषोंका नाम नि:स्वार्थभावसे लिखवावें कि अमुक महापुरुषोंकी वाणी या पुस्तक सुनायी जायेगी, आप इस सत्संग में पधारें। इसी प्रकार नाम लेकर सूचना देवें।
    ऐसा न हो कि हम तो उन संतोंका नाम लिखेंगे नहीं और दूसरा कोई लिखे, तो हम उनको मना करेंगे; क्योकि वे महापुरुष मना करते थे। 
   सवाल-  मना तो करते ही थे। 
   जवाब- हाँ, करते थे; परन्तु यह तो समझो कि मना किनको करते थे? मना उनको करते थे कि जो अपने निजी स्वार्थके कारण नामका दुरुपयोग करते हैं (जैसा कि ऊपर बताया गया है), उनको मना करते थे।
    एकबार श्री स्वामी जी महाराज के साथ में रहनेवाले एक सज्जनने अपने (जोधपुरवाले) सत्संग- प्रोग्रामके पत्रक (पेम्पलेट) में लिखवा दिया कि यह आयोजन श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के विशेष अनुग्रहसे हो रहा है, कृपासे हो रहा है।
    यह बात जब श्री स्वामी जी महाराजके पास पहुँची, तब उन्होंने जोरसे मना किया। वो प्रवचन आज भी उपलब्ध है और उसको कोई भी सुन सकता है। उसकी तारीख यह है– दिनांक २८|११|२००२_१५३० बजे- 20021128_1530_ QnA
    इस प्रवचन में श्री स्वामी जी महाराजने कहा है कि यह मेरा नाम लिखना नहीं चाहिये। कभी नहीं लिखना चाहिये मेरा नाम। इससे मैं राजी नहीं हूँ। बुरा लगता है। मेरेको अच्छा नहीं लगता। भरी सभामें श्री स्वामी जी महाराज बोले कि आप सबको कहता हूँ– कोई भी ऐसा करे तो उसको ना करदो कि नहीं, यह स्वामीजीके कामका नहीं है। मेरेसे बिना पूछे फटकार दो उसको। अनुचित लिखनेवाले अखबारवालोंको मना करना चाहिये। सबको अधिकार है ना करनेका। मैं इतने वर्षोंसे फिरता हूँ; परन्तु सेठजीने कभी मेरेको ओळभा (उलाहना) नहीं दिया। मैं सेठजीको श्रेष्ठ मानता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं है। लेकिन कभी सेठजीने ओळबा नहीं दिया कि आपने ऐसा कैसे लिख दिया। नाम तो कहता सेठजीका ही, आज भी कहता हूँ। सेठजीका कहता हूँ, भाईजीका कहता हूँ (परन्तु कभी ऐसे दुरुपयोग नहीं किया)। कितने वर्ष घूमा हूँ, कभी ओळभा नहीं दिया [सेठजीने]। मैंने ऐसा काम किया ही नहीं, ओळबा क्यों देते कि यह ठीक नहीं किया है। ■
    इसी प्रकार एक बार श्री स्वामी जी महाराज के साथ में रहनेवाले एक साधू को सूरत (गुजरात) वालों ने भागवत कथा के लिये बुलवाया और उनके प्रोग्रामवाले पेंपलेट (पन्ने) में (कथाकार को कृपापात्र बताते हुए) श्री स्वामी जी महाराज का नाम छपवा दिया। वो पेंपलेट जब श्री स्वामी जी महाराज के सामने पहुँचा तो श्री स्वामी जी महाराज ने इस काम का भयंकर विरोध किया। फिर वहाँ के (सूरतवाले) लोगों ने वो पेंपलेट बन्द करवा दिये। उस पन्ने को लोगों में बाँटा नहीं। उनको पश्चात्ताप करना पड़ा।
    इस प्रकार अनुग्रह, कृपा और कृपापात्र बताकर नाम लिखनेवालोंको श्री स्वामी जी महाराज मना करते थे। दुरुपयोग करनेवालोंको मना करते थे। निःस्वार्थभावसे महापुरुषोंकी रिकार्डिंग- वाणी सुनाने के लिये और पुस्तक सुनाने के लिये नाम लिखनेवालोंको मना नहीं करते थे।
    नामकी ही अगर मनाही होती तो स्वामीजी महाराज श्री सेठजीका नाम क्यों लेते? और क्यों लिखवाते? जैसे कि ऊपर दोनों प्रसंग आये हैं (नाम लिखवाने और नाम लेने के –दोनों प्रसंग आये हैं)।
    श्री स्वामी जी महाराज के सत्संग-पाण्डालमें ही पुस्तकोंकी दुकान लगती थी और वहाँ महापुरुषोंका नाम लिखवाया जाता था कि यहाँ परमश्रद्धेय सेठ जी श्री जयदयाल जी गोयन्दकाकी पुस्तकें मिलती है, भाईजी श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दारकी पुस्तकें मिलती है। यहाँ श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराजकी पुस्तकें मिलती है, आदि आदि। इसी प्रकार उनकी रिकोर्ड-वाणीके प्रचारके लिये भी नाम लिखा जाता था। पुस्तक प्रचारके लिये नाम लिखा जाता था।
    श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके जहाँ-जहाँ सत्संग-प्रोग्राम होते थे, वहाँ-वहाँ उनका नाम लिखकर और नाम लेकर ही प्रचार किया जाता था। उसके लिये श्री स्वामी जी महाराज ने कभी मना नहीं किया। इसलिये हमलोगोंको आज भी वैसे ही करना चाहिये। 
   अगर हम संसारको न तो महपुरुषोंके विषयमें कुछ बतायेंगे और न उनकी पुस्तकें बतायेंगे, तथा न उनकी रिकॉर्ड- वाणीके विषयमें बतायेंगे और दूसरोंको भी मना करेंगे तो हम बड़े दोषी हो जायेंगे, महापुरुषोंका नाम उठा देनेवालों जैसे हो जायेंगे; क्योंकि इससे संसारमें महापुरुषोंका नाम छिप जायेगा, लोग सुगमता से न तो महापुरुषोंको जान पायेंगे और न उनकी पुसतकें पढ़ पायेंगे, न उनकी रिकॉर्ड-वाणी सुन पायेंगे और बेचारे लोग दूसरी जगह भटकेंगे। महापुरुषोंने दुनियाँके कल्याण के लिये जो महान प्रयास किया था वो सिमटकर कहीं पड़ा रह जायेगा। 
    इस प्रकार हम महापुरुषोंके उस प्रयासमें सहयोगी न बनकर उलटे बाधा देनेवाले बन जायेंगे, जो कि न तो महापुरुषों को पसन्द है और न भगवान् को पसन्द है तथा न दूसरों को पसन्द है। हम सत्यको छिपानेमें सहयोगी होंगे तथा झूठके प्रचारमें सहयोगी बनेंगे जैसा कि ऊपर प्रसंग आया है– गीताप्रेसके संस्थापक श्री सेठजी थे यह सत्य छिप गया और झूठका प्रचार हो गया। 
    प्रश्न– प्रातः पाँच बजेवाली सत्संग में श्री स्वामी जी महाराज का नाम न लिखकर, उसकी जगह संतवाणीका नाम लिखदें कि प्रातः ५ बजे प्रार्थना, गीता-पाठ और संतवाणी के द्वारा सत्संग होगा, तो क्या हानि है? यह ठीक नहीं है क्या?  
    उत्तर– ठीक नहीं है; क्योंकि संत-महात्मा अनेक हैं। पहले भी अनेक हुए हैं और आज भी अनेक हैं, उनकी वाणियाँ (संतवाणी) भी अनेक हैं। नाम लिखे बिना पता नहीं चलेगा कि यहाँ कौनसे संतकी वाणीसे सत्संग होगा। हरेक संत की वाणी को न तो लोग सुनना चाहते हैं और न सुनने के लिये हम कहते हैं। इसलिये जिन संतोंकी वाणीसे सत्संग किया जाय, उन संतोंका नाम लिखना चाहिये। श्री स्वामी जी महाराज की वाणीके द्वारा सत्संग किया जा रहा है तो श्री स्वामी जी महाराज का नाम लिखना चाहिये। सच्चाई इसीमें है।
    प्रातः पाँच बजेवाला सत्संग श्री स्वामी जी महाराज का चलाया हुआ है, इसमें नित्यस्तुति प्रार्थना, गीतापाठ आदि भी श्री स्वामी जी महाराज के ही चलाये हुए हैं। इसलिये इसमें नाम भी श्री स्वामी जी महाराज का ही लिखना चाहिये। संतवाणी आदि नाम देकर श्री स्वामी जी महाराज के नाम को छिपाना नहीं चाहिये, हटाना नहीं चाहिये। नहीं तो यह काम भी महापुरुषोंका नाम उठाने जैसा ही समझा जायेगा। जैसा कि ऊपर प्रसंग आया है (– श्री स्वामी जी महाराज को लगा कि ऐसे तो ये श्री सेठजी नाम ही उठा देंगे, आदि)। श्री सेठजीका नाम छिप न जाय– इसीलिये श्री स्वामी जी महाराज ने उनका नाम लिखवाना शुरु करवाया था। 
    प्रश्न- जहाँ लोगोंको साधक- संजीवनी गीता पढ़कर सुनानेका प्रोग्राम हो, वहाँ श्री स्वामी जी महाराज का नाम लिखवाना चाहिये या नहीं? 
    उत्तर- लिखवाना चाहिये। क्योंकि सबलोग नहीं जानते हैं कि साधक- संजीवनी श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक है। आजकल इस नाम से मिलते- जुलते नामवाली (साधक- जीवनी आदि) कई पुस्तकें भी बन गई हैं। लोग ध्यान नहीं देते हैं। नाम लिखे बिना पता चलना मुश्किल होगा कि यहाँ श्री स्वामी जी महाराजवाली साधक- संजीवनी ही सुनायी जायेगी। 
     नाम लिखा होगा तो अनजान लोगोंको भी पता चल जायेगा, जिन्होंने श्री स्वामी जी महाराज का नाम ही नहीं सुना है, ऐसे लोगों को भी पता चलेगा। इसलिये जहाँ गीता साधक- संजीवनी सुनाई जाय, वहाँ श्री स्वामी जी महाराज का नाम लिखना चाहिये और लिखने की परम्परा रखनी  चाहिये। 
    प्रश्न- अगर ऐसे शुद्धभाव से भी श्री स्वामी जी महाराज का नाम लिखा जायेगा तो इसके देखा-देखी दूसरे लोग नामका दुरुपयोग करने लग जायेंगे। उस दुरुपयोग को रोकनेके लिये क्या श्री स्वामी जी महाराज का नाम हटाना उचित नहीं है? 
    उत्तर– उचित नहीं है, श्री स्वामी जी महाराजका नाम हटाना उचित नहीं है। हाँ, दुरुपयोगको बन्द कराओ, श्री स्वामी जी महाराजके नामको बन्द मत कराओ। 
    दुरुपयोगको रोकने में शक्ति न लगाकर अगर आप नामको हटाने में शक्ति लगाते हो तो यह श्री स्वामी जी महाराज की बातका भी दुरुपयोग है; क्योंकि उन्होंने तो अपने नाम का दुरुपयोग करनेवालोंको मना किया है और आप सदुपयोग करनेवालोंको मना कर रहे हो। श्री स्वामी जी महाराजकी सत्संग और उनकी पुस्तक पढ़कर सुनानेवालोंको मना कर रहे हो। इस प्रकार सत्संग और पुस्तक-प्रचार को रोक रहे हो। 
    श्री स्वामी जी महाराजने तो गलत प्रचारको रोकनेके लिये कहा है और आप सही प्रचारको रोक रहे हो। सोचो, आप कर क्या रहे हो? 
    दुरुपयोग करनेवालोंको रोकनेकी अगर आपमें हिम्मत नहीं है तो महापुरुषोंका नाम हटाने की कायरता मत करो। रखनेका काम नहीं कर सकते तो हटानेका भी मत करो!।
    महापुरुषोंका नाम हटना दुनियाँके लिये बड़ेभारी नुकसानकी बात है। तभी तो श्री स्वामी जी महाराजने श्री सेठजी का नाम नहीं हटने दिया। 
   सवाल- हम तो स्वामीजी महाराज के नाम की रक्षा के लिये ही ये सब कर रहे हैं, हमारा इसमें कोई स्वार्थ थोड़े ही है। कोई स्वामीजी महाराजका नाम खराब न करे, इसलिये यह प्रयास कर रहे हैं, नाम लिखनेका विरोध कर रहे हैं। 
   जवाब- ध्यान दो– जिस नाम की रक्षाके लिये आप इतना प्रयास कर रहे हो, वो नाम तो आपके द्वारा हटाया जा रहा है। पुस्तक पढ़ने- पढ़ानेके प्रयासमें, सत्संग करने-करानेके प्रयासमें नाम लिखनेका आप तो विरोध कर रहे हो। नाम हटानेका काम कर रहे हो। जब आपको नाम ही हटाना है, तब ये प्रयास किसलिये कर रहे हो? इधर तो नाम हटानेका काम कर रहे हो और उधर श्री स्वामी जी महाराज के नाम में प्रेम बता रहे हो कि कोई खराब न करदे। यह कौन-सा प्रेम है? 
    प्रयास तो करना था नाम के दुरुपयोगको हटानेका और आप प्रयास कर रहे हो नाम को हटानेका। विरोध तो करना चाहिये था श्री स्वमीजी महाराज के नाम का दुरुपयोग करनेवालोंका और आप विरोध कर रहे हो नामको आगे बढ़ानेवालोंका।  यह कौन-सा काम है? 
    नामका दुरुपयोग हटाना ठीक है या नाम को ही हटा देना ठीक है? नाम को हटाना ठीक नहीं है। अगर ठीक होता तो स्वामी जी महाराज श्री सेठजी का नाम रखनेका प्रयास नहीं करते? महापुरुषोंका नाम तो रखना चाहिये। 
(६) महापुरुषोंके नाम से दुनियाँका बड़ा भारी हित होता है। 
   महापुरुषोंका और भगवान् का नाम महान् कल्याण करनेवाला होता है। इसलिये संत- महात्माओंका, भगवान् का नाम अटल रहे, उनका नाम आगे बढ़े, लोगों में प्रचार हो, लोगोंका कल्याण हो– ऐसा हमको भाव रखना चाहिये और प्रयास करना चाहिये। बिना सोचे- समझे हाँ में हाँ मिलाकर भगवान् और संत-महात्माओंके नाम का विरोध नहीं करना चाहिये। इसमें हित नहीं है आपका।
    हम आपको यह नहीं कह रहे हैं कि जिन महापुरुषोंकी कृपासे हमने और आपने इतना कुछ पाया है तो हम उनका अहसान मानें, कृतघ्नी न बनें। हमारे बाप दादाओंको जिनसे लाभ हुआ और हमारे बेटा-पौता आदि को भी लाभ होगा, उनका अहसान मानें। जो इतना बड़ा उपकार करनेवाले हैं, उनकी हम इतनी सी भी सेवा न करें और उलटे उनका नाम भी न रहनें, हटा दें। दूसरा कोई उनके नाम का प्रचार करे तो उनको भी करने न देवें आदि। अगर ऐसा है तब तो हम बड़े कृतघ्नी हैं। बड़े-बड़े पापोंको मिटानेके उपाय बताये गये हैं, परन्तु कृतघ्नतावाले पापको मिटानेका कोई उपाय नहीं बताया गया है। इसलिये उनका उपकार न मानकर हम कृतघ्नी न बनें आदि आदि। 
   हम यह भी नहीं कह रहे हैं कि हम उनका नाम लिखकर, उनका प्रचार करके उनपर कोई अहसान कर रहे हैं। अहसान नहीं कर रहे हैं, न हम उनके उपकार का ऋण (बदला) चुका रहे हैं। ऋण तो उनका कोई चुका ही नहीं सकता। उनके तो सभी ऋणी हैं और रहेंगे। हम उनका और उनके नाम का प्रचार करेंगे तो हमारे से उन महापुरुषों को कोई लाभ होगा और नहीं करेंगे तो उनके कोई घाटा रहेगा– ऐसी बात भी नहीं है। उनको तो सबकुछ मिला हुआ है, सबकुछ प्राप्त है। उनके कोई जरुरत ही नहीं है। उनके किसी भी प्रकार की, कोई कमी नहीं है जो हम पूरी करदें। उनके अपने नाम- प्रचार की गर्ज नहीं है। उनके यह चाहना नहीं है कि लोगोंमें हमारा नाम हो और हमारा नाम चलता रहे, लोग हमारा नाम लेवें, लोग हमको जानें आदि आदि।
    हमारा कहनेका भाव यह है कि उनके नाम से दुनियाँको बड़ा भारी लाभ होगा, उनके प्रचार से दुनियाँ का बड़ा भारी हित होगा। दुनियाँ का कल्याण होगा। उन महापुरुषोंने भी दुनियाँके लिये ही इतना प्रयास किया है। इतने प्रवचन दिये हैं, इतनी पुस्तकें बनायी हैं। लोगोंका सुगमता-पूर्वक और शीघ्रता से कैसे कल्याण हो जाय– ऐसी बातें बताई है। अब दुनियाँ उनको जानेगी तभी तो लाभ लेगी न! जानेगी ही नहीं तो कैसे लाभ लेगी? उनकी वाणी, उनकी पुस्तकें, उनके नाम के कारण ही तो लोग पढ़ेंगे और सुनेंगे। श्री सेठ जी ने भी अपनी पुस्तकोंपर अपना नाम लिखवाना इसीलिये स्वीकार किया कि इससे लोग पढ़ेंगे। लोग उनका नाम ही नहीं जानेंगे तो सुगमता से कैसे उनकी पुस्तकें पढ़ेंगे, कैसे उनकी वाणी सुनेंगे। महापुरुषोंका पता ही नहीं है उनको। हमको भी उनके नाम से ही तो पता लगा है। नहीं तो कैसे हम उनको जानते और कैसे लाभ लेते। इसलिये हमको चाहिये कि लोगोंमें कैसे उनका नाम हो, कैसे लोग उनको जानें– ऐसा प्रयास करें। 
(७) महापुरुषोंका नाम हटाना अपराध है।
    जो महापुरुषोंका नाम हटानेका काम करता है वो तो एक प्रकारका अपराध करता है। अपराध पापसे भी भयंकर होता है। पाप तो फल भोग लेनेपर मिट जाता है, परन्तु अपराध नहीं मिटता है। अपराध तो तभी मिटता है जब [जिसका अपराध किया है] वो स्वयं माफ करदे। भक्त का अपराध भगवान् भी नहीं सहते। श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक ‘जित देखूँ तित तू’ में लिखा है कि– 
जिस तरह भक्तिमें कपट, छल आदि बाधक होते हैं, उसी तरह भागवत – अपराध भी बाधक होता है। भगवान् अपने प्रति किया गया अपराध तो सह सकते हैं, पर अपने भक्तके प्रति किया गया अपराध नहीं सह सकते। देवताओंने मन्थरामें मतिभ्रम पैदा करके भगवान् रामको सिंहासनपर नहीं बैठने दिया तो इसको भगवान् ने अपराध नहीं माना । परन्तु जब देवताओंने भरतजीको भगवान् रामसे न मिलने देनेका विचार किया, तब देवगुरु बृहस्पतिने उनको सावधान करते हुए कहा- 
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।। 
जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।। 
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।  (मानस, अयोध्या० २१८ २-३ ) 
   शंकरजी भगवान् रामके ‘स्वामी’ भी हैं, ‘दास’ भी हैं और ‘सखा’ भी हैं—‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (मानस, बाल० १५ । २) । इसलिये शंकरजीसे द्रोह करनेवालेके लिये भगवान् राम कहते हैं— 
सिव द्रोही मम भगत कहावा । सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ 
संकर बिमुख भगति चह मोरी । सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥ 
        संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास । 
      ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ॥ 
(मानस, लंका० २।४, २) 
    अतः साधकको इस भागवत – अपराधसे बचना चाहिये । 
(‘जित देखूँ तित तू’, पृष्ठ २३,२४;)
   {आजकल श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग- प्रवचनों पर ध्यान देना चाहिए कि उनमें से तारीख और महाराज जी का नाम तो नहीं हटा दिया गया है? 
    ऐसा देखने में आया है कि किसीने श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के कई प्रवचनों में से तारीख हटा दी है और श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का नाम भी हटा दिया है। यह किसी ने महान अपराध किया है; क्योंकि प्रवचनों के अन्दर तारीख रिकॉर्ड करने की व्यवस्था स्वयं श्री स्वामी जी महाराज ने करवायी थी।
    मेरे (डुँगरदास राम के) सामने की बात है कि श्री स्वामी जी महाराज से पूछा गया कि प्रवचन की कैसेटों पर लिखी हुई तारीख कभी-कभी साफ नहीं दीखती है। मिट भी जाती है। प्रतिलिपि के समय लिखने में भूल भी हो जाती है, दूसरी तारीख लिख दी जाती है। ऐसे में सही तारीख का पता कैसे लगे? इसके लिये क्या करें?
    तब  श्री स्वामी जी महाराज बोले कि प्रवचन के साथ ही (भीतर में) रिकॉर्ड करदो (अगर ऊपर, तारीख लिखने में भूल हो जायेगी तो भीतर वाली रिकॉर्ड सुनकर पकड़ी जायेगी, सही तारीखका पता लग जायेगा)। 
    तब से ऐसा विशेषता से किया जाने लगा। इन प्रवचनों की भीतर से तारीख हटाकर किसी ने श्री स्वामी जी महाराज की वो व्यवस्था भंग की है। जो इसको आगे बढ़ाते हैं, एक प्रकार से वे भी इस अपराध में शामिल हैं। इसलिए आज से ही इसका ध्यान रखें। 
   श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के प्रवचनोंके साथ और प्रवचन के अंश के साथ  तारीख रहना आवश्यक है और उपयोगी भी है। जैसे, श्री स्वामीजी महाराज की कोई बात हमको बढ़िया लगी और हम उस बात को या प्रवचन को ठीक तरह से समझने के लिये मूल प्रवचन सुनना चाहें, तो उस तारीख के अनुसार खोजकर वो प्रवचन सुन लेंगे, समझ लेंगे। अब अगर उस प्रवचन की तारीख ही हटा दी गयी, तो कैसे खोजेंगे और क्या सुनेंगे? कैसे समझेंगे? 
      ×   ×   ×
    इसलिये प्रवचनों के ऊपर लिखी गयी तारीख और भीतर रिकॉर्ड की गयी तारीख- दोनों रहनें दें, हटावें नहीं। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का नाम उनके प्रवचनों में से हटावें नहीं, रहनें दें। दूसरों को भी यह बात समझावें। (“सत्संग-सामग्री” नामक लेख से । इस लेख में यह भी बताया गया है कि निषेध काम को करने से करनेवाले का वंश नष्ट हो गया)}
    जहाँ जिस महापुरुषकी रिकॉर्डिंग वाणी सुनाई जाय, वहाँ उन महापुरुषका नाम लिखना चाहिये। इसी प्रकार जहाँ उनकी पुस्तक सुनायी जाय, वहाँ भी उनका नाम लिखना चाहिये। इसी में सच्चाई है, सत्यपना है। सत्य में प्रेम होना ही सत्संग है। 
   संसारमें और घरोंमें स्वयं अगर कोई जल्दी तथा सुगमता-पूर्वक सुख-शान्ति चाहे, कल्याण चाहे तो उपर्युक्त प्रकारसे महापुरुषोंकी पुस्तकें पढ़ें और पढ़ावें, सुनें और सुनावें। उनकी रिकॉर्डिंग-वाणी सुनें और सुनावें तथा महापुरुषोंके, संतोंके चरित्र सुनें और सुनावें, पढ़ें और पढ़ावें। 

••••••• ● राम ● •••••••
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