शनिवार, 29 नवंबर 2014

(१८)- सत्संग से बहुत ज्यादा लाभ - ('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज')।

                          ।।श्रीहरिः। ।

(१८)- सत्संग से बहुत ज्यादा लाभ -

('श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज') 
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यह बात जरूर है कि संतोंसे लाभ बहुत होता है। संत-महात्माओंसे बहुत लाभ होता है।

मैं कहता हूँ कि (कोई) साधन करे एकान्तमें खूब तत्परतासे, उससे भी लाभ होता है; पर सत्संगसे लाभ बहुत ज्यादा होता है।

साधन करके अच्छी, ऊँची स्थिति प्राप्त करना कमाकर धनी बनना है और सत्संगमें गोद चला जाय( गोद चले जाना है)। साधारण आदमी लखपतिकी गोद चला जाय तो लखपति हो जाता है, उसको क्या जोर आया। कमाया हुआ धन मिलता है।

इस तरह सत्संगमें मार्मिक बातें बिना सोचे-समझे(मिलती है), बिना मेहनत किये बातें मिलती है।
कोई उद्धार चाहे तो मेरी दृष्टिमें सत्संग सबसे ऊँचा(साधन) है।

भजनसे, जप- कीर्तनसे, सबसे लाभ होता है, पर सत्संगसे बहुत ज्यादा लाभ होता है। विशेष परिवर्तन होता है। बड़ी शान्ति मिलती है। भीतरकी, हृदयकी गाँठें खुल जाती है एकदम साफ-साफ दीखने लगता है। तो सत्संगसे (बहुत)ज्यादा लाभ होता है।

सत्संग सुनानेका सेठजीको बहुत शौक था, वो सुनाते ही रहते, सुनाते ही (रहते)।

सगुण का ध्यान कराते तो तीन घंटा (सुनाते), सगुण का ध्यान कराने में, मानसिक-पूजा करानेमें तीन घंटा।

निर्गुण-निराकार का (ध्यान) कराते तीन घंटा(सुनाते)। बस, आँख मीचकर बैठ जाते। अब कौन बैठा है, कौन ऊठ गया है, कौन नींद ले रहा है, कौन (जाग रहा है)। परवाह नहीं, वो तो कहते ही चले जाते थे। बड़ा विचित्र उनका स्वभाव था। बड़ा लाभ हुआ, हमें तो बहुत लाभ हुआ भाई। अभी(भी) हो रहा है। गीता पढ़ रहा हूँ, गीतामें भाव और आ रहे हैं, नये-नये भाव पैदा हो रहे हैं, अर्थ पैदा हो रहे हैं। बड़ा विचित्र ग्रंथ है भगवद् गीता।

साधारण पढ़ा हुआ आदमी भी लाभ ले लेता है बड़ेसे (बहुत पढ़े हुए बड़े आदमीसे भी ज्यादा लाभ साधारण पढ़ा हुआ आदमी गीतासे ले लेता है)। गीता और रामायण- ये दो ग्रंथ बहुत विचित्र है। इनमें बहुत विचित्रता भरी है।

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' द्वारा दिये गये दि. 19951205/830 बजेके सत्संग-प्रवचनका अंश। ( goo.gl/cLtjIi )।

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सत्संग-संतवाणी. 
श्रध्देय स्वामीजी श्री 
रामसुखदासजी महाराजका 
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/

( इस पुस्तक ("महापुरुषों के सत्संग की बातें") के बाकी लेख भी इसी ब्लॉग पर है और यह पुस्तक रूप में भी छप चूकी है।  

-डुँगरदास राम, मोबाइल नं• 9414722389)।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

(१७)- 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का साधन-सत्संग

                       ।।श्रीहरिः। ।

(१७)- 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का साधन-सत्संग - 

श्री सेठजीने मेरेसे कहा कि व्याख्यान(सत्संग) सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर (तृप्त होकर) आया हूँ। अब तो साधन करना है। कथायें करली, भेंट-पूजा कराली, रुपये रखकर देख लिये, बधावणा करवा लिये, चेला-चेली कर लिये, गाना-बजाना कर लिया, पेटी (हारमोनियम) सीखली, तबला, दुकड़ा बजाने सीख लिये। अकेले भजन गा-गाकर रातभर जागरण कर लिये, व्याख्यान सुना दिये आदि आदि सब कर लिये। इन सबको छोड़ दिया। इन सबसे अरुचि हो गई।

श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर आया हूँ, अब सुनानेका मन नहीं है, अबतो साधन करना है। श्री सेठजीने कहा कि यही(सत्संग सुनाना ही) साधन है। कह, यह साधन है! 
तो सुनानेमें ऐसा लगा कि एक-एक दिनमें कई-कई घंटे(छ:छ:, आठ-आठ घंटोंसे ज्यादा) सत्संग सुनाता।

श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ, सुनाओ; तो इतना भाव भर दिया कि सुनाता ही सुनाता हूँ, उनका शरीर जानेके बाद भी। अभी तक सुनाता हूँ, यह वेग उन्हींका भरा हुआ है।

लोगोंने प्रेरणा की कि स्वामीजीको कलकत्ता भेजो, यहाँ सत्संग करानेवाला कोई नहीं है। तो वे कलकत्ता ले गये। फिर वहाँ कई महीनों(सात-सात, आठ-आठ महीनों) तक सत्संग सुनाता था। लोग सुनते थे। सुबह आठ बजेसे दस, शामको आठ बजेसे दस और कभी-कभी दुपहरमें दो से चार बजे। ऐसे सत्संग करते थे। भिक्षा माँग कर पा लेना और सत्संग सुनाना। ऐसे कई वर्ष बीत गये। [पहले पुराने गोबिन्दभवनमें सत्संग होता था, फिर बादमें यह नया गोबिन्दभवन कार्यालय बनाया गया]।
ऋषिकेशमें सत्संग पहले गंगाके इस पार काली कमलीवाली धर्मशालामें होता था, फिर बादमें उस पार होने लग गया। यह गीताभवन बादमें मेरे सामने बना है।

गीताजीकी टीका "तत्त्वविवेचनी" (लेखक-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका') हमारे सामने लिखी गई है।

श्री सेठजीने कहा कि स्वामीजी! गीताजीका प्रचार करो। मैं बोला कि कैसे करें? तो बोले कि म्हे कराँ ज्यूँ करो- जैसे हम करते हैं ऐसे करो अर्थात् जैसे हम व्याख्यान देकर करते हैं, गीताजीकी टीका लिखकर करते हैं, ऐसे आप भी व्याख्यान देकर करो और गीताजी पर टीका लिखकर करो। (इस प्रकार उनकी आज्ञासे हमने भी गीताजी पर टीका लिखी- "साधक-संजीवनी")।

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(१६)- भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार

                       ।।श्रीहरिः। ।

(१६)- भाईजी श्री हनुमान प्रसादजी पोद्दार -

सेठजीको तो मैं ऊँचा मानता था, श्रेष्ठ मानता था और भाईजी तो हमारे भाईकी तरह (बराबरके) लगते थे। साथमें रहते, विनोद करते थे ऐसे ही।

भाईजीका बड़ा कोमल भाव था। भाईजीका 'प्रेमका बर्ताव' विचित्र था- दूसरेका दुःख सह नहीं सकते थे (दूसरेका दुःख देखकर बेचैन हो जाते थे)। बड़े अच्छे विभूति थे। हमारा बड़ा प्रेम रहा, बड़ा स्नेह रहा, बड़ी कृपा रखते थे।

ये श्री सेठजीके मौसेरे (माँकी बहन-मौसीके बेटा)भाई थे। पहले इनके(आपसमें) परिचय नहीं था। इनके परिचय हुआ शिमलापाल जेलके समय।

भाईजी पहले काँग्रेसमें थे और काँग्रेसमें भी गर्मदलमें थे। बड़ी करड़ी-करड़ी बातें थीं उनकी (गर्मदलके नियम बड़े कठोर होते थे)। भाईजी जब बंगालके शिमलापाल कैदमें थे, तब श्री सेठजीको पता लगा कि हनुमान जेलमें है। पीछे इनकी(भाईजीकी) माताजी थी, घरमें उनकी स्त्री(पत्नि) थी। उनका प्रबन्ध श्री सेठजीने किया। उस प्रबन्धका असर पड़ा भाईजी पर और वो इनके(श्री सेठजीके) शिष्य ही बन गये, अनुयायी ही बन गये।

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(१५)-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' से सम्बन्ध

                        ।।श्रीहरिः। ।

(१५)-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' से सम्बन्ध-

(पहली बार मिलने के बाद) फिर हम (चूरूसे) गीताप्रेस गोरखपुर आये। वहाँ कई दिन रहे। सत्संग हुआ। फिर ऋषिकेशमें सत्संग हुआ और इस प्रकार श्री सेठजी और हमारे जल्दी ही भायला (मित्रता, अपनापन) हो गया, कोई पूर्व(जन्म)के संस्कार होंगे(जिसके कारण जल्दी ही प्रेम हो गया)।

श्री सेठजीको मैं श्रेष्ठ मानता था। लोग पहले उनको आपजी-आपजी(नामसे) कहते थे। मैं उनको श्रेष्ठ कहता था। फिर लोग भी श्रेष्ठ-श्रेष्ठ कहते-कहते सेठजी कहने लग गये।

एक बार सेठजी बोले कि स्वामीजीने हमको सेठ(रुपयोंवाला) बना दिया। मैंने कहा कि मैं रुपयोंके कारण सेठ नहीं कहता हूँ, रुपयेवाले तो और भी कई बैठे हैं, (जिनके पास रुपये सेठजीसे भी ज्यादा है)। मेरा सेठ कहनेका मतलब है- श्रेष्ठ।

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(१४)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' द्वारा गीताप्रेस खोला जाना

                   ।।श्रीहरिः। ।

(१४)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' द्वारा गीताप्रेस खोला जाना -

 गीताप्रेस कैसे हुआ?

'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' गीताजीके भाव कहने लगे। गहरा विवेचन करने लगे। तो कह, गीताजीकी टीका लिखो। तो गीताजीकी टीका लिखी गई- साधारण भाषा टीका। वो गोयन्दकाजीकी लिखी हुई है। उस पर लेखकका नाम नहीं है। वो छपाने लगे कलकत्ताके वणिकप्रेस में। छपनेके लिये मशीनपर फर्मा चढ़ गया, (छपने लगा), उस समय अशुद्धि देखकर कि भाई! मशीन बन्द करो, शुद्ध करेंगे। (मशीन बन्द करके शुद्धि की गई)।

ऐसे (बार-बार मशीन बन्द करवाकर शुद्ध करनेसे) वणिकप्रेस वाले तंग आ गये कि बीचमें बन्द करनेसे, ऐसे कैसे काम चलेगा? मशीन खोटी (विलम्बित) हो जाती है हमारी। ऐसी दिक्कत आयी छपानेमें।

तब विचार किया कि अपना प्रेस खोलो। अपना ही प्रेस, जिसमें अपनी गीता छाप दें। तब गीताप्रेस खोला।
{विक्रम संवत १९८० में यह गीताप्रेस गोरखपुर (उत्तर-प्रदेश) में खोला गया}।

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(१३)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'द्वारा "कल्याण"(-पत्र) शुरु

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(१३)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'द्वारा "कल्याण"(-पत्र) शुरु -

फिर वो चूरूसे जा रहे थे कलकत्ताकी तरफ; तो बीचमें बातें हुई। तो घनश्यामदासजी बिड़लाने इनको सूझ दी कि तुम सत्संग करते हो, (उन बातोंका) पत्र निकालो, तो कईयोंको लाभ हो जाय। तो जयदयालजीने कहा कि पत्र निकालना, करना आता नहीं। तो हनुमान प्रसादजी पोद्दारने कहा कि सम्पादन तो मैं कर दूँगा। तो श्री सेठजीने कहा कि लेख मैं लिखा दूँगा। तो ठीक है। कल्याण शुरु हुआ। तो कल्याण खूब चला और लोगोंने बहुत अपनाया और बहुत लाभ हुआ। वो कल्याण चलता आ रहा है आज तक। पहले बम्बईसे शुरु हुआ और फिर गीताप्रेसमें आ गया।

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(१२)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' द्वारा सत्संगका विस्तार

                       ।।श्रीहरिः। ।

(१२)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' द्वारा सत्संगका विस्तार -

इसके बाद वो भी भजनमें लग गये। ये फिर काम करते थे चक्रधरपुरमें। फिर बाँकुड़ा (बंगाल) आ गये।

श्री सेठजीने जो बातें बतायी थी हनुमानदासजीको, वो कुछ प्रसिद्ध हो गई थी। इसलिये कलकत्तामें सत्संग किया करते। ये भी दुकानदार, वो भी दुकानदार, समय मिलता नहीं, इसलिये कह, कल रविवार है (छुट्टी है), तो शनिवारको ही लोग खड़्गपुर आ जाते। बाँकुडासे वो आ जाते, कलकत्तासे ये चले जाते और रात भर सत्संग होता। सत्संग करके रविवार शामको ही वापस चले जाते। इस तरह सत्संग चला।

सत्संग चलते-चलते कुछ प्रचार हुआ। लोग भी जानने लगे। प्रचार करनेकी इनके धुन थी भीतर। अब लोगोंमें प्रसिद्धि हो गई। धर्मशाला नामक गाँवमें दुकान की थी, तो वहाँकी विचित्र बात मैंने सुनी-

जितने दुकानदार थे, सेठजी उनके सामने ताश(पत्ते) खेलते और बाजीगरकी तरह कळा दिखाते। लोग इकठ्टे हो जाते तब सत्संग सुनाते। ऐसे ही सत्संगके लिये तो इकठ्टे होते नहीं लोग; तो ऐसे चमत्कार दिखाकर सत्संग सुनाते। ऐसी कई-कई बातें है। तो जब सत्संग शुरु हो गया तो कलकत्तेमें भी शुरु हो गया। सत्संग होने लगा। (ऐसे) कई वर्ष बीत गये।

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(११)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'के मित्र हनुमानदासजी गोयन्दका

                       ।।श्रीहरिः। ।

(११)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'के मित्र हनुमानदासजी गोयन्दका -

कुटम्बमें इनके एक मित्र थे। उनका नाम था हनुमानदासजी गोयन्दका। ये हनुमान प्रसादजी पोद्दार (कल्याण सम्पादक)-ये नहीं, दूसरे थे - हनुमानदासजी (हनुमानबख्सजी) 'गोयन्दका'। (वो तो 'पोद्दार' थे और ये 'गोयन्दका' थे अर्थात् ये हनुमानदासजी दूसरे थे)। इनके (हनुमानदासजी और श्री सेठजी के) बालकपनमें बड़ी, घनिष्ठ मित्रता थी। कभी दोनों इस माँके पास रहते, कभी दोनों उस माँके पास रहते-ऐसे मित्रता थी।
वो लग गये थे व्यापारमें, कलकत्तामें और ये(श्री सेठजी) लग गये अपने (साधनमें)।
साधनकी बात उनको (हनुमानदासजीको) भी नहीं बताई। उनसे भी गुप्त रहते थे और ये इतने थे कि इनके पिताजी पर भी असर था कि यह जैदा(जयदयाल) काम करेगा तो पक्का आदमी है, वो छोड़ेगा नहीं।
जब इनको खूब अनुभव हो गया, बहुत विशेषतासे (अनुभव हो गया)। तब विचार किया कि ये बातें मेरे साथ ही चली जायेगी, दूसरोंको पता ही नहीं लगेगा; तो क्या करें? कैसे करें भाई? 
फिर विचार किया कि मेरी बात सुनेगा कौन? लोग तो कहेंगे- पागल है। इस वास्ते पागलकी बात कौन सुनता है। तो भाई! हनुमान सुनेगा मेरी बात।
ये थे चूरूमें और वो थे कलकत्तामें। वे खेमकाजी (आत्मारामजी) के यहाँ मुनीम थे। ऐसी बात आयी मनमें तो इन्होनें उनको पत्र लिखा कि तुम आओ। तुमको खास बात कहनी है। मेरी बात किसीको कहनेका विचार था नहीं; पर अब विचार किया कि किसीको कहदूँ। वो मैं तेरेको कहूँगा। तुम आओ। मैं तुम्हारेसे बात करूँगा। तुम्हारे समान और कोई मेरा प्यारा है नहीं जिससे कि मैं अपनी बात कहूँ। तब वो आये।
उस समय चूरूमें रेल नहीं हुई थी(चूरूमें रेल्वे लाइन बनी ही नहीं थी)। ऊँटों पर ही आये थे। सामने गये और मिले।
(उन्होने पूछा कि) क्या बात है? तो फिर उनके सामने बातें कहीं। (कि) मैं तेरेको कहता हूँ, तू भी इसमें लगजा। भगवानमें लगजा, अच्छी बात है।
बातें (ये) बताई कि देख! परमात्मतत्त्वका अनुभव आदमीको हो सकता है और तूँ और मैं बात कर रहे हैं, इस तरहसे भगवानसे भी बात हो सकती है। ऐसा हो सकता है। तो उनके बड़ा असर पड़ा कि ऐसा हो सकता है!? कह, हाँ। तो लगजा भजनमें। तू जप कर। भगवन्नामका जप कर। जपकी बात इनके विशेषतासे थी। भगवन्नामका रामरामरामरामरामरामरामराम राम… यह जप भीतरसे करते थे, श्वाससे।
अभी, वृद्धावस्था तक भी, देखा है- (श्री सेठजी) कोई काम करते, बोलते, बात करते, तो बोलनेके बादमें स्वत: जप शुरु हो जाता श्वाससे। वो निगाह रखते(उस जपका दूसरे कोई ध्यान रखते) तो दूसरोंको मालुम हो जाता। रामरामरामरामराम रामरामरामराम-ऐसे। तो ऐसे भीतरसे जप होता था (उनके)। तो वो जप करना शुरु किया (हनुमानदासजीने)।
जप करते-करते उनको कुछ वैराग्य हुआ, तो कह, मेरे मनमें आती है कि यहाँ बड़ा झंझट है, चलो साधू हो जावें।
तो सेठजीने कहा- देख! साधू तो हो जावें; परन्तु तेरे तो बच्चा होनेवाला है, (तू) विवाह करेगा और तेरे बालक होगा, तो तेरेको पीछा(वापस) आना पड़ेगा और मेरेको तू ले जायेगा तो मैं पीछे लौटकर आऊँगा नहीं। तो तेरा-मेरा सत्संग नहीं होगा। तो कहा-अच्छा, नहीं चलेंगे(साधू होनेके लिये-साधू नहीं बनेंगे)।
ऐसी कई-कई बातें इनके आपसमें हुई थी। मैंने बहुत-सी बातें तो हनुमानदासजीसे सुनी है।

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(१०)- श्री मंगलनाथजी महाराजसे 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' को प्रेरणा

                     ।।श्रीहरिः। ।

(१०)- श्री मंगलनाथजी महाराजसे 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' को प्रेरणा -

  श्री सेठजीके जीवन पर मंगलनाथजी महाराजका बड़ा असर पड़ा। ऐसा उन्होने स्वयं कहा है। वो संस्कृतके बड़े विद्वान भी थे और संत भी थे। उनके संतत्वकी छाप गोयन्दकाजी पर पड़ी (प्रभाव पड़ा) और विद्वत्ताकी छाप हमारे विद्यागुरुजी पर पड़ी। वो कहते थे कि बहुत बड़ा निर्णय मंगलनाथजी महाराज करते थे। वो साधूवेषमें थे।

वो चूरू आये थे, तो उनकी मुद्रा, उदासीनता, तटस्थता और विरक्ति बड़ी विलक्षण थी। सेठजीने कहा कि (वो देखकर) मेरेपर असर पड़ा। वो(श्री सेठजी उनको) भावसे गुरु मानते थे, शिष्य-गुरुकी दीक्षा आदि नहीं (ली थी, उनसे दीक्षा नहीं ली थी, उनको मनसे गुरु मानते थे)। (श्री सेठजी कहते हैं कि) उनसे मेरे जीवनपर असर पड़ा। इस तरहसे श्री सेठजी बड़े विचित्र थे।

{मुद्रा –
मुख, हाथ, गर्दन, आदि की कोई विशेष भाव सूचक स्थिति को मुद्रा कहते हैं। (बृहत हिन्दी कोश से)}।

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(९)- सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'को भगवद्दर्शन (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई सत्संग कुछ बातें)।

                      ।।श्रीहरिः। ।

(९)- सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'को भगवद्दर्शन -

'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' भारतके राजस्थान राज्यके चूरू शहरमें रहनेवाले थे। इनके पिताका नाम खूबचन्दजी गोयन्दका था और माताजीका नाम था श्री शिवाबाईजी ।

चूरूवाली हवेलीमें एक बार ये चद्दर ओढ़कर लेटे हुए थे। नींद आयी हुई नहीं थी। उस समय इनको भगवान् विष्णुके दर्शन हुए। (इन्होनें सोचा कि सिर पर चद्दर ओढ़ी हुई है, फिर भी दीख कैसे रहा है?) इन्होने चद्दर हटाकर देखा, तो भी भगवान् वैसे ही दिखायी दे रहे हैं। भगवान् और आँखोंके बीचमें चद्दर थी। फिर भी भगवान् दीख रहे थे। चद्दरकी आड़ (औट) से भगवानके दीखनेमें कोई फर्क नहीं आया।

श्री सेठजीने बताया कि ऐसे अगर बीचमें पहाड़ भी आ जाय, तो भी भगवानके दीखनेको वो रोक नहीं सकेगा। उसकी आड़में भगवानका दीखना बन्द नहीं होगा। (फिर चद्दर ओढ़े-ओढ़े ही दर्शन होते रहे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है)।

जब इनको भगवानने दर्शन दिये, तब इनको प्रेरणा हुई कि निष्काम भावका प्रचार किया जाय (और इन्होनें अपना सम्पूर्ण जीवन निष्कामभावपूर्वक परहितमें लगा दिया)।

आज गीताप्रेसको कौन नहीं जानता। उस गीताप्रेसकी स्थापना करनेवाले ये ही थे। ये ही गीताप्रेसके उत्पादक, जन्मदाता, संरक्षक, संचालक आदि सबकुछ थे। इन्होने ही चूरूमें ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम और कलकत्तामें गोबिन्दभवन बनवाया। आपने ही ऋषिकेश गंगातट पर गीताभवन बनवाया और सत्संगका प्रचार किया। आपने ही अद्वितीय गीताजीका प्रचार किया। (गीताजी पर 'तत्वविवेचनी' नामक टीका लिखवाई और अनेक ग्रंथोंकी रचना की)।

(आपकी ही कृपासे 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' जैसे महापुरुष सुलभ हुए। आपके द्वारा जगतका बड़ा भारी हित हुआ है। दुनियाँ सदा आपकी ऋणी रहेंगी)।
ये गुप्तरीतिसे भजन करते थे। ऐसे इनकी निष्ठा थी कि मेरे भगवानकी तरफ चलनेको कोई जान न जाय, किसीको पता न लगे- इस रीतिसे भजन करते थे।

एक प्रसंग चला था। उसमें ऐसी बात चली थी कि प्रह्लादजी को बहुत कष्ट हुआ, बड़ी-बड़ी त्रास उनको मिली। ऐसी बात चलते-चलतेमें श्री सेठजीने कहा था कि प्रह्लादजीने अपनेको प्रकट कर दिया। इस वास्ते विघ्न आये। और वे (श्री सेठजी) कहते थे कि प्रकट नहीं होना चाहिये। गुप्तरीति से भजन होना चाहिये।

मनुष्य अपने साधारण धनको भी गुप्त रखते हैं, तो क्या भजन-स्मरण जैसी पूँजी (भी) कोई साधारण है, जो लोगोंमें प्रकट हो जाय! यह तो गुप्तरीति से ही भजन करना चाहिये। ऐसा उनका ध्येय था, इसी तरहसे लोग कहते थे।

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के 19951205_830 (goo.gl/cLtjIi) बजेवाले सत्संग-प्रवचनसे।

ऐसी उनकी बड़ी, ऊँची अवस्था हो गई थी। सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार- इस विषयमें मेरी समझमें उनकी अच्छी, बढ़िया जानकारी थी।

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सनातन-धर्मकी विशेषता('श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज')।

                ।।श्रीहरि:।।

एक विनम्र सुझाव है कि साधक-संजीवनीकी कमसे कम एक बात लिखना शुरु करदें।वो अगर दूसरोंको भी भेजेंगे, तो और भी बढिया हो जायेगा।सप्ताह भरमें,जब भी आपको समय मिले,तब ऐसा कर सकते हैं।

उदाहरणके लिये नीचे पढें-


सनातन-धर्मकी विशेषता-

…तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षषण है कि कोई भी कार्य करना होता है,तो वह धर्मको सामने रखकर ही होता है।युध्द-जैसा कार्य भी धर्मभूमि-तीर्थभूमिमें ही करते हैं,जिससे युध्दमें मरनेवालोंका उध्दार हो जाय, कल्याण हो जाय।अत: यहाँ कुरुक्षेत्रेके साथ 'धर्मक्षेत्रे' पद आया है।

साधक-संजीनी (लेखक- 'श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज') पहला अध्याय श्लोक १ की व्याख्यासे।
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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गुरुवार, 27 नवंबर 2014

(८)-'परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' और 'श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज' का मिलन

                        ।।श्रीहरिः। ।

(८)-'परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' और

'श्रद्धेय स्वामीजी
श्रीरामसुखदासजी महाराज' का मिलन -

अब परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका(चूरू) और 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के मिलनका वर्णन किया जायेगा, जिसका काफी वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 – goo.gl/ub5Pjy) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दि. 19951205/830 (goo.gl/cLtjIi) बजेके सत्संगमें भी किया है।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के कहनेके भाव है कि)

मेरे मनमें रही कि उनसे कैसे मिलें? पैसा मैं पासमें रखता नहीं, न लेता हूँ (किसीके देने पर भी पैसा मैं लेता नहीं), टिकटके लिये भी किसीसे कहता नहीं [कि मुझे श्री सेठ(श्रेष्ठ)जीकी सत्संगमें जाना है, टिकट बनवादो]। पैदल चलकर जाऊँ तो वहाँ पहुँच नहीं पाऊँ; क्योंकि मैं पहुँचूँ उससे तो पहले ही वो प्रोग्राम पूरा करके आगे चलदे। वो गाड़ीसे चलते हैं, मैं पैदल, कैसे पहुँचता।

फिर गम्भीरचन्दजी दुजारी (मेरे सहपाठी चिमनरामजीके मित्र) बोले कि वार्षिकोत्सव पर श्री सेठजी ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम चूरू आनेवाले हैं, आपको मैं ले जाऊँगा, चलो। मैंने उनसे कहा नहीं था (कि मुझे वहाँ जाना है, ले चलो, टिकट दे दो आदि) वो अपने मनसे ही बोले। तब मौका समझकर कर मैं और चिमनरामजी चूरू आये।

श्री सेठजी उस समय चूरू पहुँचे नहीं थे। कोई पंचायतीके कारण देरी हो गई थी, आये नहीं थे। मैं वहीं रहने लगा। गाँवमेंसे भिक्षा ले आना, पा लेना और वहीं रहना। मौन रखता था। दो-चार दिन वहीं रहा।

फिर सुबहकी गाड़ीसे श्री सेठजी आये।(किसीने उनको बताया कि ऐसे-ऐसे यहाँ संत आये हैं तो श्री) सेठजी खुद आये हमारी कुटिया पर, तो मैं भी गया उनके सामने। उस समय थोड़ी देर मौन रखता था मैं। बोलता नहीं था। तो श्री सेठजी मिले बड़े प्रेमसे।

श्री सेठजीने कहा कि हमतो आपलोगोंके (सन्तों के) सेवक हैं। मेरे मनमें आया कि सेवा लेनेके लिये ही आये हैं, सेवा करो, सेवा लेंगे। हमारी सेवा और तरहकी है। मनमें भाव ही आये थे, बोला नहीं था। बड़े प्रेमसे मिले। फिर वहाँ ठहरे (और सत्संग करने लग गये)। यह घटना विक्रम संवत १९८९-९१ की है। हमारी पोल भी बतादें- 
श्री सेठजीने सत्संग करवाया। मैंने सुना। तो कोई नयी बात मालुम नहीं दी। ये गीताजीका अर्थ करेंगे शायद, तो अर्थ तो मैं बढ़िया करदूँ इनसे। वो (गीताजीके) पदोंका अर्थ करते, उनका(और किसीका)अर्थ करते; तो मनमें आती कि क्यों तकलीफ देखते हैं। मेरे मनमें अभिमान था कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ। मैंने विद्यार्थियोंको संस्कृत व्याकरण आदि पढ़ाया है। पढ़ाता हुआ ही आया था पाठशाला छोड़कर। यह अभिमान एक बड़ा भारी रोग है।

श्री सेठजी बात करते, तो बातें तो उनकी मेरेको अच्छी लगती; परन्तु श्लोकोंका अर्थ करते, ये करते, तो मेरे बैठती नहीं थी बात।

पढ़ना-पढ़ाना कर लिया, गाना-बजाना कर लिया। लोगोंको सिखा दिया। लोगोंको सुना दिया। (व्याख्यान) सुनाता था। सुनने-सुनानेसे अरुचि हो गई। अब तो भाई! साधनमें लगना है अच्छी तरहसे- यह मनमें थी। तो दृष्टि पसार कर देखा तो गोयन्दकाजीके समान कोई नहीं दीखा मेरेको। दीखा किससे? कि लेखोंसे।
गीताके विषयमें ये लेख लिखते थे, वो लेख देते थे कल्याणमें। केवल इनके लेख देखकर इतने जोरोंसे जँच गई कि मैंने न कहनेवाली बात भी कहदी। मैंने कहा कि गीताजीके गहरे अर्थको जितना गोयन्दकाजी जानते हैं, उतना टीकाकारोंमें कोई नहीं दीखता है हमें। (इसका वर्णन ऊपर आ चुका है)।

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