रविवार, 18 जुलाई 2021

त्याग और संकोच के उदाहरण



( त्याग और संकोच के उदाहरण-)

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज सब कामों में छाने हुए जल का ही उपयोग करते थे।
 
खान- पान, शौच- स्नान आदि करने में, कपङे और हाथ पाँव आदि धोने में तथा और भी कुछ करने में छना हुआ जल ही काम में लेते थे। अणछाणे (बिना छाने हुए) जलको काम में लेना जीवहिंसा मानते थे। जल भी गाढे कपङे को डबल (दो लङा) करके छानते थे। एक लङे कपङे के छिद्रों में से सूक्ष्म जीव पार निकल जाते हैं, अटकते नहीं,बचते नहीं। इसलिये डबल कपङे से छानकर उन सूक्ष्म जीवों को बचाते थे। फिर सावधानीपूर्वक जीवाणूँ करते थे अर्थात् चलते जलमें या पर्याप्त स्थिर जल में छोङते थे। कपङे के जिस तरफ सूक्ष्म जीव अटकते हैं,उस तरफ छाने हुए जलकी धारा गिराते हुए उन बारीक जीवों को जल में छोङते थे। छः घंटों के बाद में छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं,इसलिये छने हुए जल को भी छः घंटों में दुबारा छानते थे। इस प्रकार सब कामों में छने हुआ जल का ही उपयोग करते थे। किसी कारण से अगर ऐसा नहीं हो पाता तो बिना शौच- स्नान किये और बिना खाये-पिये (भूखे- प्यासे) ही रह जाते थे।

श्री स्वामीजी महाराज अपने जीवन की एक घटना इस प्रकार सुनाते थे -

  मेरा जल छानने का कपङा फट गया। (किसीने पूछा नहीं कि आपके कपङे फट गये हैं , दूसरे ला देवें आदि। तो) उस फटे हुए जलछानने को दो से चार लङा करके कुछ दिन काम चलाया; पर वो भी इतना फट गया कि पानी को छाननेयोगय नहीं रहा। (फटे हुए स्थानों से जीव निकल जाते, बचते नहीं थे। इस प्रकार जब जल छन नहीं सका) तब मैं न तो शौच गया और न स्नान किया। (सत्संग का समय होनेपर) सत्संग में चला गया। सत्संग के बाद में सेठजी ने कहा कि भोजन (भिक्षा) करो। तब मैंने (सकुचाते हुए) कहा कि स्नान नहीं किया है। तब वो बोले क्यों? (स्नान क्यों नहीं किया?)  मैंने बताया कि जलछानना (पानी छानने का कपङा) फट गया था। तब श्री सेठजी (ध्यान न देनेके कारण लोगों को उपालम्भ सा देते हुए) बोले - अरे, स्वामीजी के कपङा लाओ। जब कपङा आया,तब जल छानने का काम किया। (शौच जाकर स्नान आदि किये और भिक्षा पाई।) 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज ने एक आवश्यक कपङे के लिये भी कहा नहीं किसीको। ऐसा संकोच रखते थे। संग्रह रखते नहीं थे। त्याग पूर्वक रहते थे।

श्री स्वामीजी महाराज जब (सन् १९७५,७६ में) "कल्याण" पत्रिका के सम्पादक थे। तब उन्होंने भाईजी (कल्याण के आदि-सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) के नाम से ४९ वें वर्ष का हनुमान- अंक और सेठजी (गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक श्री जयदयाल जी गोयन्दका) के नाम से ५० वें वर्ष का भगवत्कृपा- अंक निकाला था (भगवत्=जय, कृपा=दयाल,जयदयाल जी गोयन्दका)।

उन दिनों लोगोंने श्री स्वामीजी महाराज को वहाँ से हटाने के बहुत प्रयास किये,दुर्व्यवहार किये,कोट- कचेङी आदि किये। कहने लगे कि स्वामीजी "कल्याण" को हङप लेंगे।

  (अनेक प्रयास करके भी जब लोग हटा नहीं सके, तब श्री स्वामीजी महाराज ने अपनी मर्जी से ही सम्पादक के काम को छोङ दिया।)

उस घटना पर अफसोस जताते हुए कभी-कभी श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि भविष्य में जब कोई खोज करेंगे और ऐसा (लिखित कार्रवाई आदि)रिकोर्ड देखेंगे, तो क्या सोचेंगे (और क्या कहेंगे)  कि स्वामीजी के साथ में लोगों ने ऐसा (बुरा) व्यवहार किया! (अफसोस है)।

उन दिनों गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर वाले महन्त जी बोले थे कि स्वामीजी दो चद्दर के सिवा तीसरी चद्दर अपने पास में नहीं रखते (एक चद्दर का भी संग्रह नहीं रखते) उनके लिये लोग कहते हैं कि ये "कल्याण" को हङप लेंगे, (कितनी बेसमझी की बात है, कितनी हैरानी की बात है)। इन लोगोंके क्या हो गया
(जो स्वामीजी के साथ ऐसा- ऐसा व्यवहार करते हैं,ऐसी- ऐसी बातें कहते हैं आदि)। 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज अपने पास आवश्यक वस्तु का भी संग्रह नहीं रखते थे। वस्तु के अभाव में कठिनता सह लेते थे; पर किसीको कहते नहीं थे। बङा संकोच रखते थे। त्याग रखते थे। बङी साधुता थीं उनमें।

श्री सेठजी ने (बिना माँगे ही, अपनी तरफ से) कह रखा था कि स्वामीजी! आपके कोई वस्तु आदि की जरुरत हो तो किसीसे कहकर मँगवा लिया करो, (उसके) पैसे हम दे देंगे।

एक बार श्री स्वामीजी महाराज के पेंसिल की जरुरत पङी। जब वे पुस्तक पढ़ा करते थे, तब कहीं कोई विशेष या नयी बात लगती, तो पेंसिल से वहाँ निसान लगा देते थे,रँग देते थे। ऐसा करने से वो पेंसिल घिसते-घिसते इतनी छोटी हो गयी कि काम करने लायक भी नहीं रही। तब उन्होने मोहनलाल जी पटवारी से कहकर दूसरी पेंसिल मँगवाई (शायद दो आने लगे थे उसके)। पटवारी जी ने लाकर दे दी। तब उनसे पूछा कि कितने पैसे लगे हैं पेंसिल के? कह, दो आने। तो बोले कि दो आने सेठजी से ले लेना, अर्थात् सेठजी से पेंसिल के पैसे ले लेना। पटवारी जी बोले कि महाराज जी! दो आने क्या चीज है! (जो सेठजी से लेवें? ये तो मैं ही दे दूँगा)।तो बोले कि नहीं, सेठजी से ले लेना;  क्योंकि जब हम स्वयं कोई वस्तु मँगवाते हैं तो उसके पैसे देते हैं।

पटवारी जी बङे उदार हृदय वाले सज्जन थे। दान में इतनी पूँजी लगा देते कि उतनी पूँजी खुद के, उनके पास में नहीं बचती थीं। जैसे,लाख रुपये का दान दे दिया और लाख रुपये की (जमीन आदि सारी) पूँजी भी खुद के पास में नहीं बची। श्री सेठजी ने उनको दानवीर कहा था। ऐसे उदार व्यक्ति से भी श्री स्वामीजी महाराज ने पैसे खर्च नहीं करवाये,उनको भी पैसे वापस दिलवाये।

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज दो आने की आवश्यक वस्तु माँगने में भी संकोच करते थे।

वो एक संत का उदाहरण बताते थे कि एक बार जगदीशानन्द जी महाराज बद्रीनारायण गये हुए थे। उन्होंने एक घटना सुनायी कि वहाँ एक साधू के अंगुली में पीङा हो गई थी, तो किसीने कहा कि यहाँ मलहम पट्टी करनेवाले हैं,आप मलहम पट्टी करवालें, उनसे कहदें कि मलहम पट्टी करदो। तो वो साधू बोले कि अंगुली की पीङा तो मैं सह लूँगा; पर उनको यह कहना कि "तुम मेरे मलहम पट्टी करदो" - यह पीङा मेरे से सही नहीं जायेगी।
मैंने साधू की जब यह बात सुनी तो वो मेरे चिपक गयी। (साधू की बात बहुत बढ़िया लगी, वे संत थे। ऐसे होते हैं संत। वे अंगुली की पीङा तो सहने को तो तैयार हो गये; पर किसीको परवश करने की पीङा सहने को तैयार नहीं हुए। किसीसे यह कहना कि तू ऐसा करदे, तो यह उनको परवश करना ही हुआ न। संतों के लिये किसीको इतनी सी पीङा भी देना नहीं चाहते। मलहम पट्टी करनेवाले के लिये यह कोई पीङा थोङे ही थी? यह तो उनका काम ही था,पीङा नहीं: फिर भी ऐसे संतों को संकोच होता है, माँगने में पीङा मालुम देती है।)

तो ऐसे थे श्री स्वामीजी महाराज, किसीसे कुछ कहते नहीं थे। कोई आवश्यकता होती और वो पूरी नहीं होती तो उस पीङा को सह लेते थे। किसीको कहते नहीं थे। किसीको कहना पीङा देनेके समान मानते थे। किसी वस्तु,मकान आदि को अपना और अपने लिये नहीं मानते थे तथा न अपने को उनका मालिक मानते थे।
श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि २-मेरा कुछ नहीं है,२-मुझे कुछ नहीं चाहिये और ३-मैं कुछ नहीं हूँ। उन्होंने "मानवमात्र् के कल्याणके लिये" नामक पुस्तक में इन बातों को समझाया है।  

बुधवार, 14 जुलाई 2021

महापुरुषों से सम्बन्धित किसी वस्तु को "स्मृतिरूप" में रखना उचित है या नहीं?, कह, नहीं है।

             ।। श्रीहरिः ।।


महापुरुषों से सम्बन्धित किसी वस्तु को "स्मृतिरूप" में रखना उचित है या नहीं?, कह, नहीं है।

अगर महापुरुषों ने मना किया है तो रखना उचित नहीं है।
महापुरुष जैसा कहें, वैसा करना चाहिये। उनके सिद्धान्त के अनुसार चलना चाहिये।
जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया है (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी नहीं करना चाहिये।  
           (१)
स्टेज प्रचार की घटना- 

(एक दिन (दि.14-4-2020 को) वाट्सऐप्प के समूह (ग्रुप) में जो बहस हुई थी , उसके विषय में कुछ लिखा जा रहा है । यद्यपि मैं उस ग्रुप में नहीं था ; परन्तु उनके कुछ लेखन आदि देखकर ऐसा लगा कि इस प्रकार के आपसी तर्क- वितर्क से कई लोगों के मन में विक्षेप हुआ है। 


आदरणीय सज्जनों और माता बहनों को जो विक्षेप हुआ, उसके लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि दुबारा ऐसा न हो।) 



बात क्या हुई कि श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग- मञ्चवाले तख्त ( स्टेज ) की फोटो एक सज्जन ने फेसबुक पर प्रकाशित करदी। बाद में उनको लगा कि मेरा यह काम अनुचित तो नहीं था ? उनको इस पर किसीने सलाह भी दी कि यह उचित नहीं है और मैंने सुना है कि श्री स्वामीजी महाराज जिसपर बैठते थे, वो वस्तु भी समाप्त करवा दी गई कि लोग उसको स्मृतिरूप में पूजना शुरु न करदें।
 
आप श्रेष्ठ महानुभावों से विचार विमर्श करके ही निर्णय लें (कि ऐसे प्रचार करना ठीक है या नहीं?)।

इस प्रकार और भी कुछ कारण बने होंगे। तब उन्होंने सन्देश भेजकर इसके लिये मेरेसे जानकारी चाही। मैंने संक्षेप में वो जानकारी लिखकर उनको व्यक्तिगतरूप से भेजदी। 

(वो जानकारी इस प्रकार थी-)

{ बैठने और सोने के लिये जो लोहे का बैड (तख्ता) था, उसके पुर्जे खुलवाकर, उन सबको गंगाजी में विसर्जित करवा दिया गया। बाकी सामग्री भी कुछ तो अग्नि के अर्पण कर दी गयी और कुछ गंगाजी में प्रवाहित करवा दी गयी। यह स्टेज (प्लास्टिक के शीशे आदि लगाकर बनाया गया कमरे जैसा स्थान और उसके भीतर रखा हुआ सत्संग-मञ्चवाला तख्ता) भी हटाया जानेवाला था,लेकिन हटाया नहीं जा सका। कुछ लोग इसको रखने के पक्ष में हो गये और यह सब चलने लगा (लोग स्मृतिरूप वस्तु की तरह इसको विशेषता से देखने लग गये और प्रचार भी करने लग गये), जो कि उचित नहीं है आदि।}

फिर उन्होंने वो बातें वाट्सऐप्प पर उस ग्रुप में (चलते हुए वाद विवाद के समय) भेजदी। इस के बाद बात और बढ़ गयी। 


ग्रुप में कई प्रकार के तर्क, कुतर्क, प्रतीकार आदि किये गये , मामला देर राततक चलता रहा। इससे ऐसा लगा कि लोगों के मन में काफ़ी विक्षेप हुआ है। अधूरी जानकारी के कारण लोगों के मन में असमञ्जस की स्थिति पैदा हो गई। लोगों के मन में नये प्रश्न पैदा हो गये और वास्तविक बात समझनी कठिन हो गयी । इसलिये मन में आया कि इस विषय पर कुछ और लिखा जाये , जिससे अगर कोई जानना चाहें तो उनको सही बात का पता लग सके।


[नीचे लिखी बातों में अनेक प्रकार के प्रश्नों के उत्तर हैं। सवालों के जवाब कहीं प्रकट और कहीं अप्रकटरूप से लिखे गये हैं। ध्यान से पढ़नेपर समझ में आते हैं। इसलिये कृपया ध्यान देकर पढ़ें।]
   
                 (२)
मतभेद हो जानेपर बुरा न मानें- 

(प्रश्न-)
किसी बात के विषय में अपने ही लोगों का मतभेद हो जाय, तो क्या करना चाहिये?

(उत्तर-)
मतभेद होनेपर बुरा नहीं मानना चाहिये।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज कहते हैं कि मतभेद तो गुरु और चेले में भी हो जाते हैं  (इसमें बुरा न मानें। नाराज न हों।)

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका ने कहा है कि जो हमारे सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलते,उनके प्रति हमारी उदासीनता रहती है, पर हृदय में प्रेम कम नहीं होता, प्रेम में कमी नहीं आती।

महापुरुषों की इन बातों से हमें शिक्षा लेनी चाहिये।


•••  मतभेद हो जाने से वे कोई दूसरे नहीं हो जाते , पराये नहीं हो जाते। हमारे कहने का उद्देश्य न तो किसीकी निन्दा करना है और न किसी की प्रशंसा करना। हमारा उद्देश्य है कि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी कार्य उनकी आज्ञा के अनुसार ही हो और सब लोगों का हित हो। 


प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अपने घर में भी सब काम अपने मन के अनुसार नहीं होते। अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूरे घरवालों को चलाना तो दूर , हम अपनी मरजी के अनुसार अपने शरीर को भी नहीं चला सकते। जब एक शरीर को भी नहीं चला सकते तो फिर सब को तो चला ही कैसे सकते हैं, नहीं चला सकते। 


नहीं चला सकने पर भी हम अपने शरीर अथवा घरवालों से पराये नहीं हो जाते , नाराज़ भी नहीं होते। उनके साथ में ही रहते हैं। घरवाले और हमसब एक ही रहते हैं। मतभेद होनेपर भी प्रेमभेद नहीं होता। अपनापन वही रहता है। ऐसा नहीं होता कि बेटे ने माँ की बात नहीं मानी तो अब वो माँ का बेटा नहीं रहा । बात न मानने पर भी बेटा तो बेटा ही रहता है, माँ भी माँ ही रहती है। माँ और बेटे का सम्बन्ध वही रहता है, मतभेद होने पर भी , एकमत न दीखने पर भी रहते सब एक ही हैं। ऐसे हमलोग मतभेद होनेपर भी हैं सब एक ही। अलग-अलग नहीं हैं। हम जो कह रहे हैं, वो अपने लोगों को ही कह रहे हैं। इस बात को समझना चाहिये। न समझने के कारण ही ऐसे तर्क कुतर्क पैदा होते हैं। अशान्ति, दुःख आदि होते हैं।


अपने- अपने घरों में भी हमें ऐसे एकतापूर्वक, प्रेम से रहना चाहिये। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबके प्रति हित का भाव रखना चाहिये। 

परमात्मस्वरूप सारे संसार में जितने भी प्राणी हैं, वो और हम सब एक हैं। 

सबजग ईश्वररूप है भलो बुरो नहिं कोय। 
 जैसी जाकी भावना तैसो ही फल होय।। 

                 (३)
"पूजा" या "स्मृृतिरूप" में वस्तु रखने का निषेेध- 

क्या श्रीस्वामीजी महाराज के प्रवचनस्थल के तख्त को स्मृति के रूप में रखना उचित है? 

उत्तर -
उचित नहीं है। महापुरुषों से सम्बन्धित इस प्रकार की किसी वस्तु आदि को काम में लेना तो ठीक है , पर उनको स्मृति आदि के रूप में रखना उचित नहीं । 

श्रीस्वामीजी महाराज की "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या आठ पर लिखा है कि ••• अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)- को पूजा में अथवा स्मृतिके रूप में बिलकुल नहीं रखनी चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये। 

                   (४)
 शीशे आदि से विशेष स्टेज बनवाने का कारण- 

प्रश्न-
तो ऐसा शीशेवाला विशेष स्टेज बनवाया ही क्यों? जिसके कारण लोगों के रखने की और देखने की मन में आवे? 


उत्तर -
यह सदा रखने के लिये नहीं बनवाया , यह तो आवश्यकता समझकर थोङे समय के लिये बनवाया था। क्यों बनवाया था? इसका कारण सुनो - 

श्री स्वामी जी महाराज से (उनके अन्तिम वर्षों में) यह प्रार्थना की गयी कि आप यहाँ, गंगातट पर ही रहें। आप यहाँ रहेंगे तो सत्संग भी हो जायेगा और लाभ भी अधिक लोगों को मिलेगा। लोगों के रहने आदि की सुविधा जितनी यहाँ है, उतनी दूसरी जगह मिलनी कठिन है (इसलिये आप यहीं रहें)। तब उन्होनें कृपा करके यह प्रार्थना स्वीकार करली और अन्तिम समय तक आप वहीं रहे। 

लोगों के सत्संग करना आसान हो गया। दूर- दूर से लोग वहाँ आकर रहने लग गये और सत्संग का लाभ लेने लगे। रोजाना सत्संग होता था , चाहे सर्दी हो या गर्मी, शरीर स्वस्थ हो या बिमार , सत्संग की कोशिश हमेशा रहती।
 
कोई पूछते कि महाराज जी ! आपकी तबियत कैसी है? तो कभी-कभी तो आप ऐसे कह देते कि आपका काम ( सत्संग प्रवचन करना, अलग से बातचीत आदि करना) तो हम कर देते हैं , फिर तब़ियत चाहे कैसी ही क्यों न हो ! अपनी अस्वस्थता , असुविधा, तकलीफ, कठिनता आदि बताने में भी संकोच करते थे। (अपने तो सत्संग होना चाहिये।)
 
अधिक वृद्धावस्था आदि के कारण आपके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी, अधिक सर्दी या गर्मी सहन करने की शरीर में शक्ति नहीं रही , अगर सर्दी गर्मी आदि सह लेते , स्वयं उनकी बेपरवाही कर देते , तो शरीर बिमार होने लगता और शरीर बिमार हो जाता तो वैद्य, डाक्टर या उनके हितैषी लोग बाहर, सत्संग में जाना बन्द करवा देते कि शरीर कुछ ठीक हो जाय तब जाना ठीक रहेगा। 
 
सत्संग बन्द होना श्रीस्वामीजी महाराज को पसन्द नहीं था। सत्संग को वो जरूरी और अत्यन्त लाभकारी मानते थे। आवश्यक सुविधा की व्यवस्था के कारण भले ही बाहर से हमारे त्याग में कुछ कमी ही दीखे ,पर सत्संग होना चाहिये । 

शरीर के हितैषी लोगों ने कुछ विशेष प्रबन्ध करवा दिये तो सहन कर लिये , सत्संग प्रवचन के समय जिस तख्ते पर आप विराजते थे , उसके इधर उधर प्लास्टिक आदि के शीशे लगवाकर, वहाँ के स्थान को पैक करवा दिया , तो (पसन्द न होते हुए ) भी आपने सहन कर लिया। 
 इनके अलावा और भी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं को उन्होनें सहा था और उस समय भी सह रहे थे। कैसी- कैसी परिस्थितियाँ थीं , उनको तो वो ही जान सकते हैं , दूसरे क्या समझे? कभी- कभी तो आप ऐसे कह देते थे कि- 

कौन सुने कासौं कहौं सुने तो समुझे नाँय। 
कहना सुनना समुझना मन ही के मन माँय।। 


ये सब होते हुए भी आप तो अपनी ही मौज में रहते थे । दुःखदायी परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बनाकर स्वयं परिस्थिति के अनुसार बन जाते थे। शारीरिक पीङा में भी हँसते थे। हर कोई तो उनकी स्थिति समझ ही नहीं पाता था ।  

शारीरिक कष्ट आदि के कारण उनमें प्रेम रखने वाले कभी- कभी कुछ दिन सत्संग बन्द करने के लिये कह देते तो वो भी मान लेते थे। बङा सुखदायी स्वभाव था आपका , बङा दयालु और सरल स्वभाव था। आप महाज्ञानी थे। किसी को किचिन्मात्र् भी कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते थे। अपनी बात को छोङकर दूसरे की बात रखते थे। बङे महान् थे। 

शरीर की अशक्तावस्था के समय भी लोगों का मन रहता कि महापुरुषों के दर्शन करें, उनकी बातें सुनें। कमजोरी के कारण व्याख्यान भले ही न दे सकें , पर दर्शन तो हो जाय, हमारी तरफ वो देख तो लें आदि आदि भाव थे लोगों के। वो लोगों के भावों का आदर करते थे, बाहर पधारते थे। लोग दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ लेते और अगर वो कुछ बात बोल देते तो और भी आनन्द हो जाता। 

शीतकाल में जब कभी- कभी आपके शरीर पर ठण्डी का असर हो जाता। सर्दी जुकाम, कफ, बुखार आदि प्रबल हो जाते तब बाहर सत्संग में आना बन्द हो जाता। फिर जब परिस्थिति कुछ अनुकूल होती तब सत्संग में पधारना होता । 

यद्यपि कई बार आप अपने निवास स्थान पर बैठे बैठे ही सत्संग प्रवचन कर देते और यन्त्र (माइक) के द्वारा बाहर , पाण्डाल ( मण्डप ) में बैठे लोगों को सुनायी पङ जाता था । फिर भी लोगों का मन रहता कि सामने से, दर्शन करते हुए उनकी बातें सुनें। लेकिन बाहर आना तो फिर से ठण्डी आदि को निमन्त्रण देना था। 

ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये प्लास्टिक के शीशे आदि लगवाकर यह विशेष स्टेज बनवाया गया । इससे ठण्डी हवा का डर कम हुआ और सत्संग में जाना सुगम हो गया। 

             (५)
 सत्संग का आनन्द - 

भगवान् की कृपा से बहुत बढ़िया सत्संग चला और वहाँ का वातावरण सत्संगमय हो गया । श्री सेठजी का प्रयास सफल हो गया। श्री स्वामीजी महाराज के वहाँ विराजने से गंगातट सजीव हो उठा । लोगों के मन में आने लगी कि हम रहें तो यहीं रहें और मरें तो भी यहीं मरें । उस समय की भगवत्कृपा का आनन्द तो वही जान सकता है कि जिन्होंने उस आनन्द का कुछ अनुभव किया है । 

संसार में सब दिन एक समान नहीं रहते। इसलिये एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बदल गया । सत्संग समाप्त हो गया। 

अब जब वो सब परिस्थितियाँ ही नहीं रही, समाप्त हो गयी, तब हमारा मानना है कि इस शीशेवाले स्टेज को भी नहीं रखना चाहिये;  क्योंकि लोग इसको "स्मृतिरूप वस्तु" की तरह देखने लग गये, जो कि उचित नहीं है। (कारण ऊपर बताया जा चूका।) 
 

                 (६)
श्री स्वामीजी महाराज के त्याग और संकोच के उदाहरण-


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का त्यागमय जीवन अनुकरणीय है। वो सुख सुविधा , मान , बङाई , शरीर के आराम आदि को महत्त्व नहीं देते थे । गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के समय में भी, वे उनके साथ त्यागपूर्वक रहते थे और बाद में भी वे त्यागपूर्वक ही रहे। 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज जरूरी वस्तु के लिये भी किसीको कहने में संकोच करते थे। कष्ट सह लेते, पर किसीसे आवश्यक वस्तु भी माँगते नहीं थे। एक बारकी बात है कि जल छाननेका कपङा न होनेके कारण आप बिना शौच-स्नान किये (और भूख-प्यासे) ही रह गये। वे सब कामों में छाने हुए जल का ही उपयोग करते थे
 
खान- पान, शौच- स्नान आदि करने में, कपङे और हाथ पाँव आदि धोने में तथा और भी कुछ करने में छना हुआ जल ही काम में लेते थे। अणछाणे (बिना छाने हुए) जलको काम में लेना जीवहिंसा मानते थे। जल भी गाढे कपङे को डबल (दो लङा) करके छानते थे। एक लङे कपङे के छिद्रों में से सूक्ष्म जीव पार निकल जाते हैं, अटकते नहीं,बचते नहीं। इसलिये डबल कपङे से छानकर उन सूक्ष्म जीवों को बचाते थे। फिर सावधानीपूर्वक जीवाणूँ करते थे अर्थात् चलते जलमें या पर्याप्त स्थिर जल में छोङते थे। कपङे के जिस तरफ सूक्ष्म जीव अटकते हैं,उस तरफ छाने हुए जलकी धारा गिराते हुए उन बारीक जीवों को जल में छोङते थे। छः घंटों के बाद में छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं,इसलिये छने हुए जल को भी छः घंटों में दुबारा छानते थे। इस प्रकार सब कामों में छने हुए जल का ही उपयोग करते थे। किसी कारण से अगर ऐसा नहीं हो पाता तो बिना शौच- स्नान किये और बिना खाये-पिये (भूखे- प्यासे) ही रह जाते थे।

श्री स्वामीजी महाराज अपने जीवन की एक घटना इस प्रकार सुनाते थे -

  मेरा जल छानने का कपङा फट गया। (किसीने पूछा नहीं कि आपके कपङे फट गये हैं, दूसरे ला देवें आदि। तो) उस फटे हुए जलछानने को दो से चार लङा करके कुछ दिन काम चलाया; पर वो भी इतना फट गया कि पानी को छाननेयोगय नहीं रहा। (फटे हुए स्थानों से जीव निकल जाते, बचते नहीं थे। इस प्रकार जब जल छन नहीं सका) तब मैं न तो शौच गया और न स्नान किया। (सत्संग का समय होनेपर) सत्संग में चला गया। सत्संग के बाद में सेठजी ने कहा कि भोजन (भिक्षा) करो। तब मैंने (सकुचाते हुए) कहा कि स्नान नहीं किया है। तब वो बोले क्यों? (स्नान क्यों नहीं किया?)  मैंने बताया कि जलछानना (पानी छानने का कपङा) फट गया था। तब श्री सेठजी (ध्यान न देनेके कारण लोगों को उपालम्भ सा देते हुए) बोले - अरे, स्वामीजी के कपङा लाओ। जब कपङा आया,तब जल छानने का काम किया। (शौच जाकर स्नान आदि किये और भिक्षा पाई।) 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज ने एक आवश्यक कपङे के लिये भी कहा नहीं किसीको। ऐसा संकोच रखते थे। संग्रह रखते नहीं थे। त्याग पूर्वक रहते थे।

श्री स्वामीजी महाराज जब (सन् १९७५,७६ में) "कल्याण" पत्रिका के सम्पादक थे। तब उन्होंने भाईजी (कल्याण के आदि-सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) के उद्देश्य से ४९ वें वर्ष का हनुमान- अंक और सेठजी (गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक  श्री जयदयाल जी गोयन्दका) के उद्देश्य से, ५० वें वर्ष का भगवत्कृपा- अंक निकाला था (भगवत्=जय, कृपा=दयाल,जयदयाल जी गोयन्दका)।

उन दिनों लोगोंने श्री स्वामीजी महाराज को वहाँ से हटाने के बहुत प्रयास किये,दुर्व्यवहार किये,कोट- कचेङी आदि किये। कहने लगे कि स्वामीजी "कल्याण" को हङप लेंगे।

  (अनेक प्रयास करके भी जब लोग हटा नहीं सके, तब श्री स्वामीजी महाराज ने अपनी मर्जी से ही सम्पादक के काम को छोङ दिया।)

उस घटना पर अफसोस जताते हुए कभी-कभी श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि भविष्य में जब कोई खोज करेंगे और ऐसा (लिखित कार्रवाई आदि)रिकोर्ड देखेंगे, तो क्या सोचेंगे (और क्या कहेंगे)  कि स्वामीजी के साथ लोगों ने ऐसा (बुरा) व्यवहार किया! (अफसोस है)।

उन दिनों गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर वाले महन्त जी बोले थे कि स्वामीजी दो चद्दर के सिवा तीसरी चद्दर अपने पास में नहीं रखते (एक चद्दर का भी संग्रह नहीं करते) उनके लिये लोग कहते हैं कि ये "कल्याण" को हङप लेंगे, (कितनी अनुचित बात है, कितनी बेसमझी की और कितनी हैरानी की बात है)। इन लोगोंके क्या हो गया
(जो स्वामीजी के साथ ऐसा- ऐसा व्यवहार करते हैं,ऐसी- ऐसी बातें कहते हैं आदि)। 

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज अपने पास आवश्यक वस्तु का भी संग्रह नहीं रखते थे। वस्तु के अभाव में कठिनता सह लेते थे; पर किसीको कहते नहीं थे। बङा संकोच रखते थे। त्याग रखते थे। बङी साधुता थी उनमें।

श्री सेठजी ने (बिना माँग रखे ही, अपनी तरफ से) कह रखा था कि स्वामीजी! आपके कोई वस्तु आदि की जरुरत हो तो किसीसे कहकर मँगवा लिया करो, (उसके) पैसे हम दे देंगे।

एक बार श्री स्वामीजी महाराज के पेंसिल की जरुरत पङी। जब वे पुस्तक पढ़ा करते थे, तब कहीं कोई विशेष या नयी बात लगती, तो पेंसिल से वहाँ निसान लगा देते थे,रँग देते थे। ऐसा करने से वो पेंसिल घिसते-घिसते इतनी छोटी हो गयी कि काम करने लायक भी नहीं रही। तब उन्होने मोहनलाल जी पटवारी से कहकर दूसरी पेंसिल मँगवाई (शायद दो आने लगे थे उसके)। पटवारी जी ने लाकर दे दी। तब उनसे पूछा कि कितने पैसे लगे हैं पेंसिल के? कह, दो आने। तो बोले कि दो आने सेठजी से ले लेना, अर्थात् सेठजी से पेंसिल के पैसे ले लेना। पटवारी जी बोले कि महाराज जी! दो आने क्या चीज है! (जो सेठजी से लेवें? ये तो मैं ही दे दूँगा)।तो बोले कि नहीं, सेठजी से ले लेना;  क्योंकि जब हम स्वयं कोई वस्तु मँगवाते हैं तो उसके पैसे दिलवाते हैं।

पटवारी जी बङे उदार हृदय वाले सज्जन थे। दान में इतनी पूँजी लगा देते कि उतनी पूँजी खुद के, उनके पास में नहीं बचती थीं। जैसे,लाख रुपये का दान दे दिया और लाख रुपये की (जमीन आदि सारी) पूँजी भी खुद के पास में नहीं बची। श्री सेठजी ने उनको दानवीर कहा था। ऐसे उदार व्यक्ति से भी श्री स्वामीजी महाराज ने (दो आने के भी) पैसे खर्च नहीं करवाये,उनको भी पैसे वापस दिलवाये।

इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज दो आने की आवश्यक वस्तु माँगने में भी संकोच करते थे

वो एक संत का उदाहरण बताते थे कि एक बार जगदीशानन्द जी महाराज बद्रीनारायण गये हुए थे। उन्होंने एक घटना सुनायी कि वहाँ एक साधू के अंगुली में पीङा हो गई थी, तो किसीने कहा कि यहाँ मलहम पट्टी करनेवाले हैं,आप मलहम पट्टी करवालें, उनसे कहदें कि मलहम पट्टी करदो। तो वो साधू बोले कि अंगुली की पीङा तो मैं सह लूँगा; पर उनको यह कहना कि "तुम मेरे मलहम पट्टी करदो" - यह पीङा मेरे से सही नहीं जायेगी।
मैंने साधू की जब यह बात सुनी तो वो मेरे चिपक गयी। (साधू की बात बहुत बढ़िया लगी, वे संत थे। ऐसे होते हैं संत।  

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि किसीसे चाहना करना है- यह बहुत ही नीचे दर्जे की (बात) है। माँगना बहुत नीचा दर्जा है। भगवान् भी माँगने के कारण छोटे हो गये- बावन अँगुल हो गयो छोटो। जरुरत की, आवश्यक चीज भी माँगनी नहीं चाहिये।  

(एक तो इच्छा होती है और एक आवश्यकता होती है।) इच्छा और आवश्यकता में बङा भारी भेद है। इन दोनों को समझना बहुत काम की चीज है। 
भूख लगी है तो भोजन की, अन्न की आवश्यकता है और मीठा चाहिये, चटपटा चाहिये आदि- यह इच्छा है। (दोनों में ऐसा भेद है।) 

आवश्यकता के पूर्ति की भी इच्छा नहीं करना। कोई पूछे तो ना कर देना। कोई पूछे कि भोजन करोगे? तो ना ही देना चाहिये, इनकार कर देना चाहिये। वो पूछता है तो उसका मन तो नहीं है न। (इसलिये ना कर देना चाहिये) 

एक साधू को मैंने कहा कि महाराज! भोजन करो,तो उन्होंने कर लिया। वो तीन दिन के भूखे थे। वो बोले कि आपने भोजन करने का कह दिया तो मैंने कर लिया, नहीं तो कोई पूछता है कि भोजन करोगे? तो मैं ना कह देता हूँ। साधुओं की बात जानते नहीं लोग।  

यह तो साधुओं की बात बतायी, अब गृहस्थों की बात बताता हूँ। 

 (ऋषिकेश) स्वर्गाश्रम में, बङ के पास, गंगाजी के किनारे वो गंगहरि की कुटिया है न। (वहाँ की घटना है)।  
तो कुछ दिन पहले (श्री सेठजी आदि ने) विचार किया कि सुबह की जो सत्संग है,वो बङनीचे करेंगे। तो सुबह आ जाते जल्दी ही और बङ नीचे ही सत्संग करते। 

सूर्योदय होनेपर सेठजी दूध लेते। सेठजी के संग्रहणी हो गयी थी। वो दूध ही देकर (ठीक की गयी)। एक पर्पटी थी, उससे ठीक हुआ। तो पाव डेढ़ पाव गाय का दूध उनको दवाई की तरह लेना पङता था, नहीं तो तकलीफ हो जाय शरीर में। एक दो उबाळ आ जाय, ज्यादा गर्म नहीं, ऐसा दूध सुबह, शाम और भोजन के लिये वो सदा लिया करते तथा साथ में तुलसी के पत्ता लिया करते। 

सेठजी की छोटी बहन थी नारायणी बाई। वो आयी दूध लेकर। साथ में तुलसी के पत्ता लायी। वो सेठजी से इतनी छोटी थी कि सेठजी के कन्या हो, इतनी छोटी। सेठजी इतने बङे थे। तो उन्होने सेठजी को दूध पिलाया। वो बोली कि तुलसी के पत्ता लोगे? तो सेठजी ने कहा- ना। सेठजी ने ना कह दिया। फिर लिया तो नहीं। दूध पीने के बाद में  एक बात बोले कि ऐसे नहीं पूछना कि लोगे? दे देना। (लेना होगा तो ले लेंगे,नहीं तो ना कह देंगे) पूछना नहीं। 

अपनी छोटी बहन, कन्या की तरह। बङे भाई का प्यार होता ही है, अपनी बच्ची है। जैसे कोई अपनी बेटी हो और वो कहती है कि तुलसीदल लोगे?(तो भी लिया नहीं)। 
गृहस्थी और अपनी छोटी लङकी की तरह,अब उससे ले ले तो क्या पाप लगे। (फिर भी लिया नहीं। इस प्रकार सज्जन लोग पूछनेपर आवश्यक वस्तु भी नहीं लेते। माँगना तो दूर, किसीके देनेपर भी नहीं लेते। हरेक इन बातों को जानते नहीं)। 

भगवान् के यहाँ आवश्यकता की पूर्ति का तो प्रबन्ध है,पर इच्छापूर्ति का प्रबन्ध नहीं है और होगा तो पूर्ति हो जायेगी। थोङी इच्छा पूरी तो सभी की होती है। पूरी इच्छा पूरी किसीकी नहीं होती। वास्तव में आवश्यकता है परमात्मा की और इच्छा है संसार की। इच्छा का तो त्याग ही करना है। 

अधिक जानने के लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज का यह प्रवचन सुनें-
19950207_1500_Ishwar Ko Dekhe Sansar Ki Garaj Na Kare । 

 वे संत अंगुली की पीङा तो सहने को तो तैयार हो गये; पर किसीको परवश करने की पीङा सहने को तैयार नहीं हुए। किसीसे यह कहना कि तू ऐसा करदे, तो यह उनको परवश करना ही हुआ न।पीङा देना ही हुआ। संतों के लिये किसीको इतनी सी बात कहना भी पीङा मालुम देती है।वे किसीको थोङी सी भी पीङा देना नहीं चाहते। मलहम पट्टी करनेवाले के लिये यह कोई पीङा थोङे ही थी? यह तो उनका काम (कर्तव्य) ही था,पीङा नहीं: फिर भी ऐसे संतों को संकोच होता है, माँगने में पीङा मालुम देती है।)

तो ऐसे थे श्री स्वामीजी महाराज, किसीसे कुछ कहते नहीं थे। कोई आवश्यकता होती और वो पूरी नहीं होती तो उस पीङा को सह लेते थे। किसीको कहते नहीं थे। किसीको कहना पीङा देनेके समान मानते थे। किसी वस्तु,मकान आदि को अपना और अपने लिये नहीं मानते थे तथा न अपने को उनका मालिक मानते थे।
श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि १-मेरा कुछ नहीं है,२-मुझे कुछ नहीं चाहिये और ३-मैं कुछ नहीं हूँ। उन्होंने "मानवमात्र् के कल्याणके लिये" नामक पुस्तक में इन बातों को समझाया है।



ऐसे त्यागी महापुरुषों का सम्बन्ध एक ऐसे स्टेज से बताना , लोगों के द्वारा भी उसको पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाना , उसका प्रचार करने लग जाना आदि कोई बढ़िया बात नहीं है , यह तो एक प्रकार से उनके त्याग में कमी दिखाने जैसा है। वास्तविक बात को हर कोई तो नहीं समझता न ! इसलिये इसको नहीं रखना ही ठीक है ।

जो काम महापुरुषों की महिमा के अनुरूप न हो, तो वो काम अच्छा दीखने पर भी नहीं करना चाहिये। इससे लाभ नहीं होता। 

कोई कहे कि उनसे सम्बन्धित गंगातट पर और भी तो दूसरी वस्तुएँ हैं, उनके लिये न कहकर केवल इस प्लास्टिक और स्टेज के लिये ही क्यों कहते हो? 

तो इसका उत्तर यह है कि अनभिज्ञ लोग स्मृति आदि के रूप में इस स्टेज को ही महत्त्व देने लगे हैं, न कि दूसरी वस्तुओं को। इसलिये एक इस स्टेज के लिये ही कह रहें हैं। इस प्रकार की अगर कोई दूसरी वस्तु हो तो उसके विषय में भी यही समझना चाहिये। 

किसी के यह बात नहीं भी जँचे तो हम कोई आपत्ति नहीं करते। अपने कल्याण की बात ग्रहण करने और न करने में सब स्वतन्त्र हैं । हमने तो पूछनेपर यह हित की बात कही है , अब कोई माने तो ठीक और नहीं माने तो उनकी मरजी। अपने किसी से राग द्वेष नहीं करना है , समता में स्थित रहना है । 

••• 
                   (७)
आश्रम, गद्दी, स्थान आदि का निषेध-
 
श्री स्वामीजी महाराज तो देश , प्रदेश, विदेश आदि अनेक जगहों पर गये हैं और वहाँ रहे हैं तथा वहाँ उनके लिये स्टेज आदि भी बने हैं, लेकिन कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आया कि कोई स्टेज को ऐसे अलग से रखे और लोग स्मृति आदि के रूप में उसको देखने लग जायँ।

इसके अलावा किसी दूसरी जगह भी अगर कोई ऐसा करते हैं अथवा मानते हैं कि यह स्थान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह स्टेज उनका है , यह गद्दी श्रीस्वामीजी महाराज की है , तो वो भूल में हैं ; क्योंकि श्रीस्वामीजी महाराज कहते हैं कि- 
 
३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है। यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं। 

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है। मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है। ••• 

("एक संत की वसीयत" ,'मेरे विचार' नामक लेख,पृष्ठ संख्या 12 से)। 

                 (८)
मकान आदि का निषेध-  
 
अगर कोई ऐसा कहे अथवा समझे कि यह मकान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह कुटिया उनकी है ,यह कमरा श्रीस्वामीजी महाराज का है , तो वो ऐसा समझनेवाला भी भूल में है ; क्योकिं मकान के विषय में श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी वसीयत में लिखवाया है कि 

••• अपने जीवनकालमें भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदिका निर्माण नहीं कराया है और इसके लिये किसीको प्रेरणा भी नहीं की है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदिको मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणासे निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये। 
("एक संतकी वसीयत" पृष्ठ संख्या नौ।) 
 
अगर किसी स्थान पर कोई मकान आदि बनवाकर श्रीस्वामीजी महाराज के निमित्त करदे कि यह मैंने श्रीस्वामीजी महाराज को दिया, अब यह सब उनका है और लोग भी ऐसा समझने लग जायँ , तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि मकान आदि को वो स्वीकार नहीं करते थे और अपने लिये इसको उचित भी नहीं मानते थे। त्यागी थे। 
कोई कहे कि इस गाँव को अथवा इस मकान को तो श्रीस्वामीजी महाराज अपना कहते थे , इसलिये यह मकान तो उनका है। तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि वो "अपना कहना" केवल व्यवहार के लिये था , वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

"श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज" कई बार सत्संग में बताते थे कि जैसे , आपलोग रेलगाड़ी में बैठकर कहीं जा रहे हैं, यात्रा कर रहे हैं और एक जगह गाङी रुकी। आप गाङी से नीचे उतरे। और भी कई लोग नीचे उतरे। इतने में ही आपको अपने कोई परिचित दिखायी पङ गये। आप राजी हुए और बोले कि अहो ! आप भी इसी गाङी में हैं, आपका डिब्बा कौन सा है ? तो वो भी राजी हुए और बोले कि हमारा डिब्बा वो है ( तथा आप से भी पूछा कि ) आपका डिब्बा कौन सा है ? तो आपने बताया कि वो देखो , हमारा डिब्बा वो है । कुछ देर बाद में फिर सब अपने अपने डिब्बों में चले गये। 

जबतक यात्रा रही तबतक आराम से आप अपने उस डिब्बे में रहे और उस डिब्बे को अपना कहते रहे ; परन्तु यात्रा समाप्त करके जब आप अपने घरपर आ जाते हैं तो उस डिब्बे को अपना मानते हैं क्या? , कभी डिब्बे की चिन्ता होती है क्या? कभी पत्र लिखकर भी पूछते हैं क्या कि हमारा डिब्बा कैसा है ? आजकल उसका क्या हाल है ? आदि। 

क्यों नहीं पूछते ? कारण कि वो अपना था ही नहीं, आपने उसको अपना माना ही नहीं। उसको तो आपने व्यवहार के लिये अपना कहा था। वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 
 
इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने व्यवहार के लिये किसी मकान आदि को अपना कह दिया तो वो अपना बताने के लिये नहीं कहा। वास्तव में वो मकान आदि उनका अपना नहीं है । 

कोई कहे कि यहाँ तो श्रीस्वामीजी महाराज बार- बार आते थे और वर्षोंतक यहाँ रहे हैं , इसलिये यह जगह तो उनकी है , तो यह भी ठीक नहीं , क्योंकि यह सिद्धान्त है कि किसी जगह को अपनी माननेवाला तो थोड़ी देर में ही मान लेता है और नहीं माननेवाला वर्षोंतक रहने पर भी ( उस जगह को अपनी ) नहीं मानता। श्रीस्वामीजी महाराज ऐसे महापुरुष थे कि वर्षों तक एक जगह रहनेपर भी उस जगह को अपनी नहीं मानते थे।

इसलिये श्रीस्वामीजी महाराज के अधिक रहनेपर भी उस जगह को खास बताकर लोगों का ध्यान उधर नहीं लगाना चाहिये जिससे कि लोग उस जगह को पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जायँ। 
 (यद्यपि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और कार्य आदि विशेष होते हैं , आदरणीय,अच्छे और विलक्षण होते हैं; लेकिन जिस कार्य के लिये महापुरुष मना कर देते हैं, तो वो कार्य अच्छा होने पर भी नहीं करना चाहिये। )

जैसे, महापुरुषों के चरणरज की बङी भारी महिमा है; पर अपनी चरणरज लेने के लिये अगर महापुरुष मना कर देते हैं तो नहीं लेनी चाहिये। 

चरणरज लेना अच्छा काम है; परन्तु श्री स्वामीजी महाराज इसके लिये मना करते हैं , इसलिये यह काम अच्छा होने पर भी अच्छा नहीं है, इसलिये नहीं करना चाहिये। 
 
(ऐसे ही उनके चित्र आदि के विषय में समझ लेना चाहिये। उनका चित्र भी नहीं रखना चाहिये। अपनी फोटो खींचने और रखने का वो कङा विरोध करते थे। यह बात तो प्रसिद्ध ही है।)
 
                 (९)
बरसी आदि का निषेध- 

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।
  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये।

(आजकल कई लोग गुप्त या प्रकटरूप से कुछ अंश में श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की बरसी मनाने लग गये, जो कि उचित नहीं है। ) 

इस दिन कोई तो कीर्तन करते हैं और कोई  गीतापाठ आदि का प्रोग्राम रखते हैं। (मानो वो इस प्रकार बरसी मनाते हैं)।

लेकिन इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि  बरसी के लिये श्रीस्वामीजी महाराज ने मना किया है।  

"एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर बरसी आदि का निषेध करते हुए लिखा है कि- 
 " जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये। "  
 इस में बरसी के लिये मना लिखा है, फिर भी लोग बरसी मनाते हैं, चाहे आंशिक रूप से ही हो। इससे लगता है कि या तो उनलोगों को पता नहीं है या वे परवाह नहीं करते अथवा यह भी हो सकता है कि लोगों ने ध्यान देकर इस पुस्तक को पढ़ा नहीं। 

 नहीं तो जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो, वो क्यों करते?  

इसलिये कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं। कीर्तन, गीतापाठ आदि करना तो अच्छा काम है,भले ही रोजाना करो; पर बरसी के उद्देश्य से कोई ये करते हैं तो उनको विचार करना चाहिये।

 इसी प्रकार अन्य कामों में भी समझना चाहिये। 
 
                  (१०) 
 निषेध काम करने से नुकसान- 

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध (मना) किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है , वो न रखें। किसी वस्तु , स्थान , कमरा , स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले। दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें। 
 
                 (११) 
आज्ञापालन से लाभ- 

ऐसे उन वर्जित कामों को न करके महापुरुषों के जो पसन्द है, वो काम करने चाहिये, उनको महत्त्व देना चाहिये,उनके ग्रंथों को, रिकोर्डिंग वाणी को महत्त्व देना चाहिये। उनको आदर पूर्वक रखना और पढ़ना चाहिये। महापुरुषों की रिकोर्डिंग वाणी सुनना और उसका प्रचार- प्रसार करना चाहिये। भगवान् की वाणी श्री मद् भगवद् गीता पर लिखी हुई टीका तत्त्वविवेचनी और साधक- संजीवनी का प्रचार-प्रसार करना चाहिये।

महापुरुषों के लेख , सत्संग प्रवचनों के ग्रंथ , तत्त्वचिन्तामणि , साधन- सुधा- सिन्धु आदि का अध्ययन करना और करवाना चाहिये । यह काम उन महापुरुषों को पसन्द है और यह सबका कल्याण करने वाला है। पंजाबी लोग अपने गुरु ग्रंथ साहिब को कितना आदर से रखते हैं, ऐसे हमलोगों को भी चाहिये कि महापुरुषों के साधक- संजीवनी गीता आदि ग्रंथों को आदर से रखें , उनको महत्त्व दें और पढें । 

साधक- संजीवनी गीता के सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि - 

 [ सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।] 


इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं, हमलोगों को चाहिये कि मन लगाकर ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करें, महापुरुषों के सिद्धान्तों को समझें और उनके अनुसार अपना जीवन बनावें। 
••• 
आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। इस प्रकार भ्रम की बातें फैलने लगी है। सही बातें मिलनी मुश्किल हो गयी। इसलिये सही और महापुरुषों की बढ़िया बातें बताने के लिये एक पुस्तक लिखी गयी है। उस पुस्तक का नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें"।

इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई सही बातें लिखी है। इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। 

ऐसे ही दूसरी एक पुस्तक है - "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत् वाणी"। इसमें श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग- प्रवचन में जैसे जैसे बोले थे , वैसे- वैसे ही लिखने का प्रयास किया गया है तथा इसमें ग्यारह चातुर्मासों (सन् 1990 से 2000 तक) के प्रवचनों की विषयसूची भी लिखी गयी है कि किस तारीख को , कितने बजे और किस विषय पर श्रीस्वामीजी महाराज बोले थे। इसमें और भी उपयोगी सत्संग- सामग्री है। इन दोनों पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिये। पुस्तकों का पता-

सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1

इन बातों में जो अच्छापन है वो उन महापुरुषों का है और जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छेपन की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है। मेरी इन बातों से किसीको ठेस लगी हो तो मैं क्षमा याचना करता हूँ। 


निवेदक- 
डुँगरदास राम 

वैसाख कृष्ण ११ शनिवार , वि.सं.२०७७ । 

जय श्री राम 

 

शनिवार, 10 जुलाई 2021

एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र

                      ।।श्रीहरिः।।

एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र - 

डॉक्टर साहब !
सादर राम राम, सीताराम।


आपने 'स्वदेशी चिकित्सा सार' आदि पुस्तकें लिखीं और दुनियाँ का बङा हित किया। इसके लिये आपको बहुत-बहुत बधाई।

आपने स्वदेशी चिकित्सा सम्बन्धी बहुत अच्छी-अच्छी और अनेक जानकारियाँ लिखीं, अनेक उपचार बताये, जिससे लोगों को बङा लाभ हुआ। 

हमने आपकी पुस्तक (स्वदेशी चिकित्सा सार) देखी है। उपचार के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी लगी। आपने अकारादि वर्णानुक्रम से दूसरी विषयसूची जोङकर इसको और भी उपयोगी बना दिया है। कुछ उपयोगी बातों की चर्चा हमने श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के आगे भी की थी।

एक बार एक उपचार की श्री स्वामीजी महाराज ने प्रशंसा की और आपको पत्र लिखने के लिये फरमाया था। वो अब लिखा जा रहा है। देरी के लिये क्षमा चाहता हूँ। इतने दिनों से लिखने का उत्साह नहीं बन रहा था। अब विचार आया कि महापुरुषों ने फरमाया था और अभी तक वो काम बाकी पङा हुआ है, यह ठीक नहीं। इसलिये वो काम अब किया जा रहा है। उस समय आपके लिये हमने कापी में कुछ लिखा भी था, पर वो ऋषिकेश में ही रह गया। बात यह थी कि-

श्रीस्वामीजी महाराज के पौरुष ग्रंथि (प्रोस्टेट) के कारण बङी समस्या हो गई थी। लघुशंका खुलकर नहीं लगती थी।लघुशंका जाकर आनेपर भी बाकी रह जाती थी। जब लघुशंका जाने की आवश्यकता होती, तब वृद्धावस्था और शरीर की कमजोरी के कारण अपने स्थान पर से उठने में भी शक्ति लगानी पड़ती। चलते समय किसीका सहारा लेकर चलते। फिर लघुशंका जाकर जल से शुद्धि करते। फिर हाथ धोकर कई कुल्ले करते (तीन चार से अधिक बार आचमन करते)। मुख में पानी भरकर तथा चुलू में पानी भर- भर कर, उससे आँखोंपर खूब छींटे लगाते। फिर हाथ मुँह धोकर दोनों पैर धोते (टखनों तक)। इस प्रकार, ऐसा शौचाचार श्रीस्वामीजी महाराज पहले से ही करते आये थे अर्थात् इस समस्या के पहले भी ऐसा हर बार करते थे और अन्ततक भी करते रहे। फिर जब वापस आते तो आने में भी बङी कठिनता होती। ऐसे और भी कई बातें थीं।

वैद्य डॉक्टरों ने तरह-तरह के उपाय किये। इलाज के कई काम श्रीस्वामीजी महाराज की दिनचर्या के साथ जोङ दिये गये, जिससे दिन और रात में उनके और भी असुविधाएँ होने लगी। एक बार तो श्रीस्वामीजी महाराज के भी विचार पैदा हो गया ।

गोखरू के बीजों को उबाल कर उनका पानी पिलाने जैसे कई उपाय किये गये। वैद्य डॉक्टर आदि के कहे अनुसार, असुविधा होनेपर पर भी वे उनकी बात का पालन करते थे, बताये गये उपायों के अनुसार ही काम करते। दूसरे की बात का बङा आदर करते थे,उनकी बात रखते थे। इस प्रकार यह रोजाना ही चलने लग गया।

एक दिन हमने एक पुस्तक ("वनौषधि चन्द्रोदय" पृष्ठ १४, "बथुआ" प्रसंग) में पढ़ा कि बथुए के "पत्तों का उबाला हुआ पानी पीने से रुका हुआ पेशाब खुल जाता है।" तो यह बात श्रीस्वामीजी महाराज को बताकर,  उसके अनुसार वो पानी उनको पिलाया गया। इससे पेशाब खुलकर आया। तब श्रीस्वामीजी महाराज आश्चर्य सा करते हुए हँसकर बोले कि अरे, येह ठीक है,कामकरता है! फिर बोले कि उस डॉक्टर को (आपको) पत्र लिखकर बताना चाहिये कि इससे हमारे को लाभ हुआ है। फिर यह इलाज रोजाना करने लग गये।

कुछ दिन बाद उनको देहरादून हॉस्पीटल में चैक कराने के लिये ले जाया गया और वहाँ डॉक्टरों ने प्रोस्टेट का ऑपरेशन कर दिया। एक बार तो डॉक्टर आदि सबको को लगा कि बहुत सफल काम हो गया है (वहाँ से वापस आने की छुट्टी भी दे दी गयी और वापस गीताभवन, ऋषिकेश आ भी गये); लेकिन वो इलाज बिगड़ गया और अन्त में उन्होंने शरीर ही छोङ दिया।

ऑपरेशन के बाद इलाज कई दिनों तक चला था, फिर भी सफलता नहीं मिली। कलकत्ते के एक होम्योपैथिक, नामी डॉक्टर (जिनके यहाँ इलाज करवाने वालों की रात दिन लाइन लगी रहती थी, इलाज के लिये कई दिनों पहले नम्बर लगाना पड़ता था,वो) आये। उनको देखकर श्रीस्वामीजी महाराज ने उनसे कहा कि हमारे को कोई अशुद्ध और हिंसायुक्त दवाई मत देना, भले ही प्राण चले जायँ। हमें "प्राण चले जाना" स्वीकार है, पर ऐसी दवा लेना स्वीकार नहीं है। डॉक्टर साहब बोले कि नहीं, ऐसी नहीं है यह दवाई।

फिर वो दवा शुरु की गई। पहले जो दवाई चल रही थी, उसको बन्द कर दिया गया। यद्यपि डॉक्टर साहब ने तो कहा था कि पहले वाली दवाई भी भले ही चलने दो। लेकिन इस दवा पर विश्वास किया गया। हमलोग बन्द करने में सहमत हो गये। बहुत दिनों तक चलते रहने के कारण, पहले वाले इलाज से परेशान भी हो गये थे। उस दवा को चलाने का प्रयास न करके, इस दवा को शुरु कर दिया गया और वो दवा बन्द कर दी गयी। फिर तो एक दो दिनों में ही परिणाम भयंकर हो गया (प्राण चलेे गये)। 

इस इलाज से पहले श्रीस्वामीजी महाराज डॉक्टर की दवा आदि लेने का परित्याग करते हुए से बोले कि इनको छोङ दें क्या? लेकिन हमलोगों ने इसमें सहमति नहीं जतायी और तर्क पेश किया कि डॉक्टर के पास जाते ही नहीं तब तो ठीक था , पर जब हम डॉक्टर के पास चले गये तो उनके इलाज के अनुसार ही चलना पङेगा। सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज कुछ बोले नहीं, चुप हो गये और वो इलाज चलता रहा। यह (दूसरा) इलाज तो बाद में शुरु हुआ।

सन्तों के तो ऐसे भी आनन्द है और वैसे भी आनन्द।
श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बताते थे कि •••
सदा दिवाली सन्त के आठों पहर आनन्द।।
सब जग डरपे मरण से मेरे मरण आनन्द।
कब मरिहौं कब भेंटिहौं पूरण परमानन्द।।

[ आजतक तो मैं यही समझ रहा था कि अन्य लोगों की तरह श्रीस्वामीजी महाराज ने आपको अपना अनुभव बताने के लिये कहा है; लेकिन जब यह पत्र लिख दिया गया, तब मेरी समझ में आया कि बात इतनी ही नहीं थी, इसका अर्थ 'उनकी प्रेरणा' लेकर हम बथुए वाला यह उपाय "स्वदेशी चिकित्सा सार" नामक पुस्तक में जोङ सकते; क्योंकि यह इसमें मिला नहीं। पहले मेरे ध्यान में तो ऐसा था कि यह इसी में है, लेकिन खोजने पर मिला "वनौषधि चन्द्रोदय" नामक पुस्तक में (उन दिनों उस पुस्तक का भी हमने उपयोग किया था)। इससे भी स्पष्ट होता है कि इस उपचार को जोङना चाहिये ]
महापुरुषों की हर क्रिया में रहस्य भरा हुआ होता है।

श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बोलते थे कि

सन्तों की गति रामदास जग से लखी न जाय।
बाहर तो संसार सा भीतर उलटा थाय।।

ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों चतुरनि की बात में बात बात में बात।।

सीताराम सीताराम

आषाढ़ कृष्ण ५, गुरुवार,
संवत् २०७७, सीकर।
डुँगरदास राम। 

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