।।श्रीहरिः।।
एक डॉक्टर साहब को लिखा गया पत्र -
सादर राम राम, सीताराम।
आपने 'स्वदेशी चिकित्सा सार' आदि पुस्तकें लिखीं और दुनियाँ का बङा हित किया। इसके लिये आपको बहुत-बहुत बधाई।
आपने स्वदेशी चिकित्सा सम्बन्धी बहुत अच्छी-अच्छी और अनेक जानकारियाँ लिखीं, अनेक उपचार बताये, जिससे लोगों को बङा लाभ हुआ।
हमने आपकी पुस्तक (स्वदेशी चिकित्सा सार) देखी है। उपचार के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी लगी। आपने अकारादि वर्णानुक्रम से दूसरी विषयसूची जोङकर इसको और भी उपयोगी बना दिया है। कुछ उपयोगी बातों की चर्चा हमने श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के आगे भी की थी।
एक बार एक उपचार की श्री स्वामीजी महाराज ने प्रशंसा की और आपको पत्र लिखने के लिये फरमाया था। वो अब लिखा जा रहा है। देरी के लिये क्षमा चाहता हूँ। इतने दिनों से लिखने का उत्साह नहीं बन रहा था। अब विचार आया कि महापुरुषों ने फरमाया था और अभी तक वो काम बाकी पङा हुआ है, यह ठीक नहीं। इसलिये वो काम अब किया जा रहा है। उस समय आपके लिये हमने कापी में कुछ लिखा भी था, पर वो ऋषिकेश में ही रह गया। बात यह थी कि-
श्रीस्वामीजी महाराज के पौरुष ग्रंथि (प्रोस्टेट) के कारण बङी समस्या हो गई थी। लघुशंका खुलकर नहीं लगती थी।लघुशंका जाकर आनेपर भी बाकी रह जाती थी। जब लघुशंका जाने की आवश्यकता होती, तब वृद्धावस्था और शरीर की कमजोरी के कारण अपने स्थान पर से उठने में भी शक्ति लगानी पड़ती। चलते समय किसीका सहारा लेकर चलते। फिर लघुशंका जाकर जल से शुद्धि करते। फिर हाथ धोकर कई कुल्ले करते (तीन चार से अधिक बार आचमन करते)। मुख में पानी भरकर तथा चुलू में पानी भर- भर कर, उससे आँखोंपर खूब छींटे लगाते। फिर हाथ मुँह धोकर दोनों पैर धोते (टखनों तक)। इस प्रकार, ऐसा शौचाचार श्रीस्वामीजी महाराज पहले से ही करते आये थे अर्थात् इस समस्या के पहले भी ऐसा हर बार करते थे और अन्ततक भी करते रहे। फिर जब वापस आते तो आने में भी बङी कठिनता होती। ऐसे और भी कई बातें थीं।
वैद्य डॉक्टरों ने तरह-तरह के उपाय किये। इलाज के कई काम श्रीस्वामीजी महाराज की दिनचर्या के साथ जोङ दिये गये, जिससे दिन और रात में उनके और भी असुविधाएँ होने लगी। एक बार तो श्रीस्वामीजी महाराज के भी विचार पैदा हो गया ।
गोखरू के बीजों को उबाल कर उनका पानी पिलाने जैसे कई उपाय किये गये। वैद्य डॉक्टर आदि के कहे अनुसार, असुविधा होनेपर पर भी वे उनकी बात का पालन करते थे, बताये गये उपायों के अनुसार ही काम करते। दूसरे की बात का बङा आदर करते थे,उनकी बात रखते थे। इस प्रकार यह रोजाना ही चलने लग गया।
एक दिन हमने एक पुस्तक ("वनौषधि चन्द्रोदय" पृष्ठ १४, "बथुआ" प्रसंग) में पढ़ा कि बथुए के "पत्तों का उबाला हुआ पानी पीने से रुका हुआ पेशाब खुल जाता है।" तो यह बात श्रीस्वामीजी महाराज को बताकर, उसके अनुसार वो पानी उनको पिलाया गया। इससे पेशाब खुलकर आया। तब श्रीस्वामीजी महाराज आश्चर्य सा करते हुए हँसकर बोले कि अरे, येह ठीक है,कामकरता है! फिर बोले कि उस डॉक्टर को (आपको) पत्र लिखकर बताना चाहिये कि इससे हमारे को लाभ हुआ है। फिर यह इलाज रोजाना करने लग गये।
कुछ दिन बाद उनको देहरादून हॉस्पीटल में चैक कराने के लिये ले जाया गया और वहाँ डॉक्टरों ने प्रोस्टेट का ऑपरेशन कर दिया। एक बार तो डॉक्टर आदि सबको को लगा कि बहुत सफल काम हो गया है (वहाँ से वापस आने की छुट्टी भी दे दी गयी और वापस गीताभवन, ऋषिकेश आ भी गये); लेकिन वो इलाज बिगड़ गया और अन्त में उन्होंने शरीर ही छोङ दिया।
ऑपरेशन के बाद इलाज कई दिनों तक चला था, फिर भी सफलता नहीं मिली। कलकत्ते के एक होम्योपैथिक, नामी डॉक्टर (जिनके यहाँ इलाज करवाने वालों की रात दिन लाइन लगी रहती थी, इलाज के लिये कई दिनों पहले नम्बर लगाना पड़ता था,वो) आये। उनको देखकर श्रीस्वामीजी महाराज ने उनसे कहा कि हमारे को कोई अशुद्ध और हिंसायुक्त दवाई मत देना, भले ही प्राण चले जायँ। हमें "प्राण चले जाना" स्वीकार है, पर ऐसी दवा लेना स्वीकार नहीं है। डॉक्टर साहब बोले कि नहीं, ऐसी नहीं है यह दवाई।
फिर वो दवा शुरु की गई। पहले जो दवाई चल रही थी, उसको बन्द कर दिया गया। यद्यपि डॉक्टर साहब ने तो कहा था कि पहले वाली दवाई भी भले ही चलने दो। लेकिन इस दवा पर विश्वास किया गया। हमलोग बन्द करने में सहमत हो गये। बहुत दिनों तक चलते रहने के कारण, पहले वाले इलाज से परेशान भी हो गये थे। उस दवा को चलाने का प्रयास न करके, इस दवा को शुरु कर दिया गया और वो दवा बन्द कर दी गयी। फिर तो एक दो दिनों में ही परिणाम भयंकर हो गया (प्राण चलेे गये)।
इस इलाज से पहले श्रीस्वामीजी महाराज डॉक्टर की दवा आदि लेने का परित्याग करते हुए से बोले कि इनको छोङ दें क्या? लेकिन हमलोगों ने इसमें सहमति नहीं जतायी और तर्क पेश किया कि डॉक्टर के पास जाते ही नहीं तब तो ठीक था , पर जब हम डॉक्टर के पास चले गये तो उनके इलाज के अनुसार ही चलना पङेगा। सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज कुछ बोले नहीं, चुप हो गये और वो इलाज चलता रहा। यह (दूसरा) इलाज तो बाद में शुरु हुआ।
सन्तों के तो ऐसे भी आनन्द है और वैसे भी आनन्द।
श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बताते थे कि •••
सदा दिवाली सन्त के आठों पहर आनन्द।।
सब जग डरपे मरण से मेरे मरण आनन्द।
कब मरिहौं कब भेंटिहौं पूरण परमानन्द।।
[ आजतक तो मैं यही समझ रहा था कि अन्य लोगों की तरह श्रीस्वामीजी महाराज ने आपको अपना अनुभव बताने के लिये कहा है; लेकिन जब यह पत्र लिख दिया गया, तब मेरी समझ में आया कि बात इतनी ही नहीं थी, इसका अर्थ 'उनकी प्रेरणा' लेकर हम बथुए वाला यह उपाय "स्वदेशी चिकित्सा सार" नामक पुस्तक में जोङ सकते; क्योंकि यह इसमें मिला नहीं। पहले मेरे ध्यान में तो ऐसा था कि यह इसी में है, लेकिन खोजने पर मिला "वनौषधि चन्द्रोदय" नामक पुस्तक में (उन दिनों उस पुस्तक का भी हमने उपयोग किया था)। इससे भी स्पष्ट होता है कि इस उपचार को जोङना चाहिये ]
महापुरुषों की हर क्रिया में रहस्य भरा हुआ होता है।
श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग में बोलते थे कि
सन्तों की गति रामदास जग से लखी न जाय।
बाहर तो संसार सा भीतर उलटा थाय।।
ज्यों केले के पात में पात पात में पात।
त्यों चतुरनि की बात में बात बात में बात।।
सीताराम सीताराम
आषाढ़ कृष्ण ५, गुरुवार,
संवत् २०७७, सीकर।
डुँगरदास राम।
https://dungrdasram.blogspot.com/2021/07/blog-post.html
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