शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

गीताजी कण्ठस्थ,याद करनेका उपाय।

एक सज्जनने पूछा है कि हम गीताजी कण्ठस्थ करना चाहते हैं,गीताजी कण्ठस्थ होनेका उपाय बतायें।

उत्तरमें निवेदन है कि

गीताजी कण्ठस्थ करना हो तो पहले गीता साधक-संजीवनी,गीता तत्त्वविवेचनी,[गीता पदच्छेद अन्वय सहित] आदिसे गीताजीके श्लोकोंका अर्थ समझलें और फिर रटकर कण्ठस्थ करलें।छौटी अवस्थामें तो पहले श्लोक रटा जाता है और पीछे उसका अर्थ समझा जाता है तथा बड़ी अवस्थामें पहले अर्थ समझा जाता है और पीछे श्लोक रटा जाता है।(जो श्लोक कण्ठस्थ हो चूके हों, उनकी आवृत्ति रोजाना बिना देखे करते रहें)।जो श्लोक दिनमें कण्ठस्थ किये गये हैं,रात्रिमें सोनेसे पहले कठिनता-पूर्वक बिना देखे उनकी आवृत्ति करलें,इससे सुबह उठते ही (वापस बिना देखे आवृत्ति करोगे तो) धड़ा-धड़ आ जायेंगे।

अगर कोई यह पूछे कि हम गीताजीका कण्ठस्थ पाठ भूलना चाहते हैं,कोई उपाय बताओ।तो भूलनेका उपाय यह है कि गीताजीका कण्ठस्थ पाठ गीताजीको देखकर करते रहो,भूल जाओगे अर्थात् कण्ठस्थ पाठ गीताजीको देख-देखकर न करें।कण्ठस्थ पाठ बिना देखे करें।यह उपाय श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका बताया हुआ है।

विशेष-

जो सज्जन गीताजीको याद करना चाहते हैं,उनके लिये 'गीता-ज्ञान-प्रवेशिका' (लेखक- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) नामक पुस्तक बड़ी सहायक होगी।इसमें गीता-अध्ययन सम्बन्धी और भी अनेक बातें बताई गई है।

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पता-

सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

बुधवार, 24 सितंबर 2014

सुभाषित,संस्कृतमें।

असती भवति सलज्जा क्षारं नीरं च शीतलं भवति ।
दम्भी भवति विवेकी प्रियवक्ता भवति धूर्तजनः ॥
(पंच.४२२)।
असती भवति सलज्जा
क्षारम्̣ नीरम्̣ च शीतलम्̣ भवति।
दंभी भवति विवॆकी
प्रियवक्ता भवति धूर्तजनः॥

पञ्च_१.४५१॥

रविवार, 21 सितंबर 2014

रामनाम और सद्भावका प्रभाव।

सूक्ति-
७५१-

प्रहलाद कहता राक्षसों ! हरि हरि रटौ संकट कटै।
सदभाव की छौड़ौ समीरण विपतिके बादळ फटै।।

शब्दार्थ-

समीरण (समीर,हवा,आँधी)।

प्रसंग-

हिरण्यकशिपुने जब राक्षसोंको आदेश दिया कि प्रह्लादको मार डालो और उसकी आज्ञाके अनुसार वो प्रह्लादको मारने लगे तो भगवानने रक्षा करली,प्रह्लादको मारने दिया नहीं।राक्षस जब उसको मार नहीं पाये,तब हिरण्यकशिपुने कोप किया कि तुम्हारेसे एक बच्चा नहीं मरता है?(तुम्हारेको दण्ड दैंगे)।तब डरते हुए राक्षस काँपने लगे।उस समय  प्रह्लादजी (हिरण्यकशिपुके सामने ही) राक्षसोंसे कहने लगे कि हे राक्षसों! तुम राम राम रटो,भगवानका नाम लो जिससे तुम्हारे संकट कट जायँ।
सद्भाव पैदा करो,जिससे तुम्हारी सब विपत्तियाँ नष्ट हो जायँ।

(इस प्रकार आया हुआ संकट कट जायेगा और आनेवाली विपत्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी)।

सद्भाव (जैसे, किसीको मारनेकी कौशीश मत करो,किसीका अनिष्ट मत चाहो,किसीको शत्रु मत समझो,सब जगह और सबमें भगवान परिपूर्ण हैं,सब रूपोंमें भगवान मौजूद हैं,इसलिये किसीसे डरो मत।सबका भला हो जाय,कल्याण हो जाय,सब सुखी हो जायँ,दुखी कोई भी न रहें)।

(ऐसे) सद्भाव रूपी आप हवा चलाओगे तो आपके विपत्तिरूपी बादल
नष्ट हो जायेंगे।

जैसे,बादल छाये हुए हौं और उस समय अगर  हवा (आँधी) चल पड़े, तो बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और वर्षा टिक नहीं पातीं।

इसी प्रकार जब संकट छाये हुए हों और उस समय अगर राम राम रटा जाता है और सद्भावकी हवा छौडी (चलायी) जाती है तो विपत्तिके बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और विपत्ति टिक नहीं पातीं।राम राम रटनेसे सब संकट मिट जाते हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:ख भाग्भवेत्।।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

कम्बलका प्रभाव।


सूक्ति-
७३०-

आ कामळ शी रे आडी ,
अर घी रे ई आडी (है)।

सहायता-

एक आदमी पंगतमें बैठा भौजन कर रहा था।उसके शीत रोकनेके लिये औढी हुई कम्बल (दूसरोंकी अपेक्षा) अच्छी,कीमती नहीं थी।परौसनेवाले दूसरोंको तो मनुहार और आग्रह करके भी घी आदि परौस देते थे,पर उसको साधारण आदमी समझकर परौसने वालोंकी भी उधर दृष्टि नहीं जा रही थी।वो घी नहीं परौस रहे थे,आगे चले जाते थे।तब कहा गया कि यह कम्बल शीतके आड़ी है (आड़ लगा रही है) और घी के भी आड़ी है।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

राबड़ी पर रोष।


सूक्ति-
७००-

राबड़ली थापर रौष कबिजन कदै न बीसरे ।
छौड़ी थी सौ कोस आय मिली तूँ आगरै ।।

कथा-

एक चारण (बारहठ) आगरे (शहर) चले गये।वहाँ किसीने उनके लिये राबड़ी बनवायी कि इनके वहाँ राबड़ी खायी जाती है,इसलिये इनको अच्छी लगेगी; लेकिन ये चारण भाई राबड़ीसे उकताये हुए थे।अब वही राबड़ी परौसी हुई देखकर वो बोले कि हे राबड़ी! तुम्हारे पर जो गुस्सा है,उसको कविलोग कभी नहीं भूलते।तेरेको सौ कोस दूर छौड़ी थी और तू अगाड़ी आकर आगरैमें (भी) मिल गई!

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
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शनिवार, 20 सितंबर 2014

फूटी हँडिया।


सूक्ति-
५८७-

म्हारी हाँडी तो चढ़गी ।

कथा-

एक कुम्हारने शामको घर आकर घरवालीसे रोटी माँगी तो घरवाली बोली कि घरमें अन्न (बाजरी,गेहूँ आदि) नहीं है।तब कुम्हार अपनी घड़ी हुई एक हँडिया लेकर गाँवमें गया और उसके बदले अन्न लै आया और कुम्हारीने पीसकर रोटी [साग,कड़ी आदि] बनादी।सबने भोजन कर लिया।

कुम्हार जिसको हाँड़ी देकर अन्न लै आया था,दूसरे दिन वो आदमी मिला तो  बोला कि अरे यार यह क्या किया? कुम्हारने पूछा कि क्या किया? तब वो बोला कि तुम्हारी हाँड़ी तो चढी ही नहीं (फूटी हुई थी,चूल्हे पर चढाई तो आग और बुझ गई)।तब कुम्हार बोला कि (तुम्हारी हाँड़ी नहीं चढी होगी,)हमारी हाँड़ी तो चढ गई (भूखे बैठे थे,उस हाँड़ीके बदले अन्न मिल जानेसे हमारे घरकी हाँड़ी तो चढ गई,तुम्हारी नहीं चढी तो तुम जानो)।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज इस कहानीका उदाहरण देकर कहा करते थे कि हमने तो आपके हितकी बात कह कर अपनी हाँड़ी चढादी,अब आप काममें लाओ तो आपकी हाँड़ी भी चढ जाय।हमारी तो हाँड़ी चढ गई (हमारे कर्तव्यका पालन तो हो गया), अब आपकी हाँड़ी आप जानो।(काममें नहीं लाओ तो फूटी तुम्हारी, हम क्या करें)।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

हनुमानजीसे ठगाई।


सूक्ति-
५६१-

कह ,
चढ़सी झकोई चाढ़सी |

कथा-

एक आदमी नरियलके पेड़ पर नरियलके फल लगे हुए देख कर उस पेड़ पर चढ गया।जब ऊपर पहुँचा तो वायुके कारण पेड़ हिला।जब पेड़ हिला तो उसका हृदय भी हिल उठा।वो नीचे गिरनेके डरसे बड़ा भयभीत हो गया और फलकी आशा छौड़ कर नीचे उतरनेकी चाहना करने लगा।हनुमानजी महाराजसे प्रार्थना करता है कि हे हनुमानजी महाराज! मुझे सकुशल नीचे उतारदो,मैं आपके सवामणि (पचास किलोका भोग) चढाऊँगा।श्री हनुमानजी महाराजकी कृपासे वो धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा।
जब आधी दूर तक नीचे उतरा तो सोचा कि सवामणिका मैंने ज्यादा कह दिया,कम कहना चाहिये था।ऐसा विचार कर उसने आधा चढानेके लिये कहा कि सवामण तो नहीं,पच्चीस किलो चढा दूँगा।उससे नीचे आया तो और कम कर दिया।इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों नीचे आता गया,त्यों-त्यों हनुमानजीके भोग(चढावे) को कम करता गया।जब दौ-चार हाथ ही ऊपर रहा,तो देखा कि अब तो अगर नहीं उतर पाये और गिर भी गये,तो भी मरेंगे नहीं।तब तो वो वहाँसे नीचे कूद गया और कूदता हुआ बोला कि अब तो जो चढेगा,वही चढायेगा अर्थात् जो इस पेड़ पर चढेगा,वही हनुमानजी महाराजके भौग चढायेगा। मैं तो अब न इस पेड़ पर दुबारा चढूँगा और न हनुमानजीके भौग चढाऊँगा,अब तो जो इस पेड़ पर चढेगा,वही चढायेगा।

इस प्रकार उसने हनुमानजीके साथ भी ठगाईका,स्वार्थका व्यवहार कर लिया,लेकिन कभी-कभी हनुमानजी महाराज भी ऐसे लोगोंकी कसर निकाल लेते हैं-

कथा-

एक पण्डितजी मन्दिरमें कथा कर रहे थे।उन दिनों मन्दिरमें एक सेठ आये और परिक्रमा करने लगे।सेठने सुना कि निजमन्दिरमें हनुमानजी महाराज और भगवानके आपसमें बातचीत हो रही है-

भगवान-
हनुमान!

हनुमानजी-
जी,प्रभो।हुक्म (फरमाइये)।

भगवान-
ये जो पण्डितजी कथा कर रहे हैं ना!

हनुमानजी-
जी,सरकार।

भगवान-
इन पण्डितजीके एक हजार रुपयेकी व्यवस्था करनी है।

हनुमानजी-
जी,सरकार,व्यवस्था हो जायेगी।

ये बातें सुनकर सेठने सौचा कि पण्डितजीके कथामें हजार रुपयोंकी भैंट (चढावा) आयेगी,हनुमानजी महाराज इनके एक हजार रुपये पैदा करायेंगे।अब अगर हम पाँचसौ रुपये देकर पण्डितजीसे यह भैंट पहले ही खरीदलें तो हमारे पाँचसौ रुपयोंका मुनाफा हो जायेगा। यह सौचकर सेठ पण्डितजीसे बोले कि पण्डितजी महाराज! ये लो पाँचसौ रुपये और आपकी कथामें जितनी भैंट आयेगी,वो सब हमारी।आपको अगर यह सौदा मँजूर हो तो ये पाँचसौ रुपये रखलो। पण्डितजीने सौचा कि पाँचसौ रुपयोंकी भैंट आना तो मुश्किल ही लग रही है और ये सेठ तो प्रत्यक्षमें पाँचसौ रुपये दे रहे हैं।प्रत्यक्षवाले रखना ही ठीक है।ऐसा सौचकर पण्डितजीने वो रुपये रख लिये कि हमें सौदा मँजूर है।अब जितनी भैंट-पूजा आवे,वो सब आपकी।सेठने भी यह बात स्वीकार करली।

समय आनेपर भैंटमें उतनी पैदा हुई नहीं।अब सेठ कहे, तो किससे कहे? सेठने हनुमानजीकी मूर्तिके मुक्केकी मारी कि आपने हजार रुपयोंकी व्यवस्था करनेके लिये भगवानके सामने हाँ भरी थी और व्यवस्था की नहीं? मुक्की हनुमानजीकी मूर्तिके लगते ही मूर्तिसे चिपक गई।अब सेठ बड़े परेशान हुए कि लोग क्या समझेंगे? रुपये भी गये और इज्जत भी जायेगी।अब क्या करें? इतनेमें सेठको हनुमानजी और भगवानकी बातचीत सुनायी पड़ने लग गई।सेठ सुनने लगे।

भगवान-
हनुमान!

हनुमानजी-
जी,सरकार।

भगवान-
पण्डितजीके हजार रुपयोंकी व्यवस्था हो गई? (या हो रही है?)

हनुमानजी-
जी,सरकार! पाँचसौ रुपयोंकी व्यवस्था तो हो गई और बाकी पाँचसौ रुपयोंकी व्यवस्थाके लिये अमुक सेठको पकड़ रखा है,वो बाकी पाँचसौ रुपये दे देंगे तब छौड़ देंगे और इस प्रकार पण्डितजीके हजार रुपयोंकी व्यवस्था हो जायेगी।

सेठने सौचा कि अब रुपये देनेमें ही भलाई है।सेठने हनुमानजी महाराजसे प्रार्थना की कि हे हनुमानजी महाराज! मेरा हाथ छौड़दो,रुपये दे दूँगा।सेठने रुपये देनेकी हाँ भरी,तब चिपका हुआ हाथ छूटा।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
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(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

बनियेको बेटा देनेका फल मिला भैरवजीको।

सूक्ति-
५६०-

माताजी मठ में बैठी बैठी मटका करया है ,
बाणियाँ ने बेटा नहीं दिया है |

कथा-

एक बनियेने भैरवजीके मन्दिरमें जाकर उनकी मूर्तिके सामने उनसे प्रार्थना की कि हे भैरवजी! मुझे पुत्र दे दो,(और मनौति की कि मेरेको पुत्र दे दोगे तो) आपको एक भैंसा चढा दूँगा।

प्रार्थनाके अनुसार भैरवजीने उनको पुत्र दे दिया।तब बनिया एक भैंसा लेकर भैरवजीके मन्दिर उसको चढानेके लिये गया।अब भैंसेको काट कर तो कैसे चढावे (बनिये भी ब्राह्मणकी तरह अहिंसक,शाकाहारी होते हैं) और काट कर चढानेके लिये वादा भी नहीं किया था,चढानेके लिये कहा था।इसलिये बनियेने भैंसेके कुछ किये बिना ही भैंसेको भैरवजीकी मूर्तिके बाँध दिया और स्वयं घर चला आया।अब भैंसा मूर्तिके बँधा हुआ कितनीक देर रहे।भैंसा बाहर जाने लगा तो मूर्ति उखड़ गई और भैंसा मूर्तिको घसीटता हुआ बाहर चला गया।

आगे जानेपर  देवी माताने भैरवकी यह दुर्दशा देख कर पूछा कि भैरव! आज तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? क्या बात है? तब भैरवजीने माताजीसे कहा कि आपने (माताजीने) मन्दिरमें बैठे-बैठे ही मौज की है,बनियेको बेटा नहीं दिया है- माताजी मठ में बैठा बैठा मटका करया है , बाणियाँ ने बेटा नहीं दिया है | (अगर बनियेको बेटा दे देती तो आपको भी पता चल जाता)।

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श्रध्देय स्वामीजी श्री
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(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html

लोभ तो थौड़ासा भी घातक है।


सूक्ति-
५११-

अति लोभो नहिं कीजिये मासोहि लोभ मलीन।
एक लोभके कारणै कूप पड़्या नर तीन।।

कथा-

एक कूएके पास नरियलका पेड़ था।उसकी एक डाली कुएके ऊपर गयी हुई थी।उसमें एक नरियलका फल लगा हुआ था।कूएके ऊपर होनेके कारण वो तौड़ा नहीं जा रहा था।वहाँ हाथ भी नहीं पहुँच पा रहा था,जिससे कि हाथसे खींच कर तौड़लें।

कुछ लोगोंने नरियलके लोभसे एक युक्ति सौची कि घौड़े पर बैठ कर घौड़ेको कूएके  ऊपरसे कूदायेंगे।घौड़ा जब नरियलके पाससे होकर आगे जायेगा, तो उस समय नरियलके फलको तौड़ लिया जायेगा।ऐसा सौचकर एक जनेको घौड़ेपर बिठाया और घौड़ेको कूएके ऊपरसे कुदाया।घौड़ा जब कूदकर उस फलके पासमेंसे होकर और  कूएके ऊपरसे होकर आगे जा रहा था,तो घौड़े पर बैठे व्यक्तिने नरियलके फलको पकड़ लिया, परन्तु उसको तौड़ नहीं पाया।इतनेमें घौड़ा तो उस पार पहुँच गया और वो आदमी उस फलको पकड़े हुए कूए पर ही लटका रह गया।उसको बचानेके लिये दूसरे आदमीने उसको पकड़ा,लेकिन उसके पैर उखड़नेके कारण वो भी उसके साथ ही कूए पर लटकने लग गया।खतरा देखकर तीसरे आदमीने बचानेकी कोशीश की,लेकिन वो भी पैरों पर मजबूतीसे खड़ा नहीं रह पाया और वो भी उन दौनोंके साथमें लटकने लगा।इस प्रकार एक ही फलके आधार पर तीन आदमी कूएमें लटकने लग गये।उन तीन जनोंके बौझसे वो फल टूट गया और उसके साथ ही तीनों आदमी कूएमें गिर पड़े।

इसलिये कहा है कि

अति लोभो नहिं कीजिये मासोहि लोभ मलीन।
एक लोभके कारणै कूप पड़्या नर तीन।।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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भूखे पाहुने और पहुनाई।


सूक्ति-
४९०-

भूखाँरे भूखा पाँवणा बे माँगे , अर , ए दै नहीं |
धायाँरे धाया पाँवणा , बे देवै , अर ए लै नहीं ||

सूक्ति-
४९१-

सगाँरे घर सगा आया लागी खैंचाताण | राबड़ीसूँ नीचा उतर्या (तो) थाँनें इष्टदेवरी आण ||

घटना-

एक बार किसीके घर पर सगे-सम्बन्धी आ गये।अब घर वाले (घरके अन्दर)आपसमें विचार-विमर्श करने लगे कि इनके लिये भोजन कौनसा बनाया जाय।किसीने कहा कि सगोंके लिये तो बढिया हलुवा आदि बनाना चाहिये।किसीने कहा कि हलुएके लिये गेहूँका आटा तो पीसा हुआ ही नहीं है (अब अगर पीसेंगे तो सगेलोग क्या सोचेंगे कि इनके तो आटा पीसा हुआ ही नहीं है)।अच्छा, तो बाजरेके आटेकी रोटी घी में चूर कर और चीनी डाल कर, चूरमा बना कर भोजन कराया जाय (हलुवेमें भी तो घी,चीनी और गेहूँका आटा ही तो होता है!)। कह,चीनी तो बाजारसे लायी हुई ही नहीं है आदि आदि। … तो (छाछमें आटा राँधकर) राबड़ी बनायी जाय। [ इस प्रकार वो नीचे उतरते गये]…
उनकी ये बातें कच्चे मकान होनेके कारण जहाँ सगे-सम्बन्धी ठहरे हुए थे वहाँ सुनायी पड़ रही थी।राबड़ी तक आये जानकर वो सगे-सम्बन्धी (पाहुने) बोले कि सगोंके घर सगे आये तो (भोजनके लिये) खींचातानी होने लग गई।अब अगर आपलोग राबड़ीसे भी नीचे उतर गये तो आपको अपने इष्टदेवकी सौगन्ध है(पेटमें कुछ अन्न तो जाने देना! ऐसा न हो कि साफ दलिया[अथवा पानी] ही पिलादें) -

सगाँरे घर सगा आया लागी खैंचाताण |
राबड़ीसूँ नीचा उतर्या (तो) थाँनें इष्टदेवरी आण ||

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अकाल (दुर्भिक्ष) पड़नेके लक्षण


सूक्ति-
४६१-

प्रभातै गहडम्बराँ सांझाँ सीळा वाय |
डंक कहै सुण भडळी ये काळाँरा सुभाव ||

सहायता-

ज्योतिष विद्याके महान जानकार कवि डंक अपनी पत्नि भडळीसे कहते हैं कि अगर सबेरे खूब बादल छाये हुए हों और शामको ठणडी हवा चलती हो तो(समझना चाहिये कि अकाल पड़ेगा) ये अकालोंके स्वभाव हैं अर्थात् जब दुष्काल पड़ने वाला होता है तो पहले ऐसे लक्षण घटते हैं।इसलिये अबकी बार काल (दुष्काल,दुर्भिक्ष) पड़ेगा।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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ससुरालमें तीन दिनसे ज्यादा न रहें।


सूक्ति-
४५२-

सासरो सुख बासरौ ।
दिनाँ तीनरो आसरौ ।।
कह , रहस्याँ षटमास।
कह , देस्याँ खुरपी
अर कटास्याँ घास ।।

वार्ता-

एक बार अकाल पड़ा हुआ जानकर एक व्यक्ति ससुराल चला गया।उसके साथमें कुछ और भी लोग थे।सासूजीने आदर किया।अच्छा भोजन करवाया।वो वहीं रहने लग गये।धीरे-धीरे अच्छा भोजन बनाकर करवाना कम होने लगा,फिर भी रोटी तो घी से चुपड़ी हुई ही मिलती थी।साथवालोंने कहा कि अब यहाँसे चले चलें?तो वो बोला कि नहीं,यहीं ठीक है।घरकी अपेक्षा तो अच्छा ही मिल रहा है,सास रोटी चुपड़ कर देती है,घर पर तो यह भी नहीं मिलती थी।ससुराल सुखका आश्रय है-

सासरो सुख बासरो।

सालेने देखा कि इन्होने तो यहाँ डेरा ही लगा दिया।तब उन्होने कहा (या लिखा) कि

दिनाँ तीनरो आसरो।

अर्थात् ससुराल सुखका आश्रय तो है,परन्तु ससुरालमें तीन दिन तक ही रहना चाहिये।
तब इन्होने लिखा कि

रहस्याँ षट मास।

अर्थात् हम तो छ: महीने तक रहेंगे।

तब उत्तरमें सालेने लिखा कि-

देस्याँ खुरपी और कटास्याँ घास।

अर्थात् इतने दिनों तक रहोगे तो हाथमें खुरपी देंगे और घास कटायेंगे।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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धन-संग्रह किसके लिये करते हो?


सूक्ति-
४४७-

आई बलाय , दी चलाय |

सहायता-

रामा माया रामकी मत दै आडी पाऴ।
आयी ज्यूँ ही जाणदे परमारथरे खाऴ।।

विशेष-

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि हमारे गुरुजी (१००८ श्री श्री कन्नीरामजी महाराज) ऐसा कहते थे और ऐसा ही करते थे कि आयी बलाय, दी चलाय।रुपये-पैसे लेते थे और परोपकारके लिये आगे दे देते थे।संग्रह नहीं रखते थे।वो कहते थे कि -(सूक्ति नं.४४८ देखें)।

सूक्ति-
४४८-

पूत सपूत तौ क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तौ क्यों धन संचै ?

सहायता-

अगर आपका पुत्र सुपुत्र (सपूत) है तो क्यों धनका संग्रह करते हो,वो धन कमा लेगा और अगर आपका पुत्र कुपुत्र है तो क्यों धनका संग्रह करते हो, वो धन बर्बाद कर देगा।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
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भगवानपर भरोसा और सनातन धर्मकी सर्वश्रेष्ठता।


सूक्ति-
४४६-

बधू ! तूँ जाणै छै |

घटना-

एक बार श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सामने किसीने कहा कि महात्मा ईसाका सिध्दान्त (ईसाई धर्म)बड़ा ऊँचा था जो मारनेवालेके लिये भी उन्होने ईश्वरसे प्रार्थना की कि इसको सद्बुध्दि दो।

तब श्री स्वामीजी महाराज ( तेज होकर) बोले कि आप किसी भी धर्मकी श्रेष्ठ बात बतादो,मैं सनातन धर्ममें उससे भी श्रेष्ठ,ऊँची बात बता दूँगा।

(फिर बताया कि)

गुजराती भाषाकी एक पुस्तकमें एक संतोंका चरित्र लिखा है कि
कोई चौर चौरी करके दौड़े तो लोग उनके पीछे दौड़े।चौरोंने चौरीका माल एक संतकी कुटिया पर रखा और भाग कर कहीं छिप गये।संत उस समय भगवानके ध्यानमें लगे हुए थे,उन्होने चौरोंको देखा नहीं।वे इस विषयमें कुछ नहीं जानते थे।पीछेसे भागते हुए लोग आये और माल वहाँ पड़ा हुआ देखकर उन्होने उन संतोंको ही चौर समझा और लगे मारने-पीटने कि चौरी करके लै आया और अब यहाँ आकर साधू बना बैठा है।बिना कारण ही जब वो लोग पीटने लगे,मार पड़ने लगी,तो वो संत(ऊपरकी तरफ हाथ जौड़कर) भगवानसे कहने लगे कि बधू!  तूँ जाणै छै, बधू!  तू जाणै छै।
अर्थात् हे प्रभु!  आप जानते हो।मैंने अपनी जानकारीमें कोई अपराध तो किया नहीं और मार पड़ रही है तथा  बिना अपराधके मार पड़ती नहीं।इसलिये लगता है कि मेरे पहलेके कोई अपराध बने हुए हैं जिनको मैं जानता नहीं।अब कौनसे अपराधके कारण यह मार पड़ रही है-इसको मैं नहीं जानता प्रभु! आप जानते हो।
उन संतोंने चौरोंको अपराधी और दुर्बुध्दि नहीं माना तथा न भगवानको दोष दिया।उन्होने तो माना कि यह तो मेरे ही कोई कर्मोंका फल है।
बोलो,कितनी ऊँची बात है!
माहात्मा ईसाने सद्बुध्दि देनेकी प्रार्थना की तो उनको दुर्बुध्दि माना है ना!।ये संत ऐसा नहीं मानते हैं।
(ये तो ऐसा मान रहे हैं कि भगवानके राज्यमें जो हो रहा है, वो ठीक ही हो रहा है, बेठीक दीखनेवाला भी ठीक ही हो रहा  है।बेठीक हमको दीख रहा है, पर बेठीक है नहीं।हम जानते नहीं,भगवान जानते हैं आदि आदि)।

७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html