सूक्ति-
४४४-
खा गुड़ तेरा ही |
घटना-
एक ठाकुर रातमें चुपकेसे एक बनियेकी दुकानसे गुड़ लै आया और सुबह जाकर उसी बनियेसे बोला कि लौ सेठसाहब! गुड़ मौल लेलो।बनियेने परीक्षा के बहाने गुड़ चखते हुए एक डली उसमेंसे उठाकर खायी और इस प्रकार चखनेके बहाने वो बनिया गुड़ खाता जा रहा था। तब वो ठाकुर कहने लगा कि खा गुड़ तेरा ही-गुड़ खाता जा भले ही, यह है तो तेरा ही। अर्थात् मेरेको तो जितना मूल्य (पैसा) मिलेगा, वो मुफ्तमें ही मिलेगा। मेरे घरसे क्या जायेगा? सेठ अपनी जानकारीमें दूसरोंका गुड़ खा कर मुफ्तमें लाभ लै रहा है और गुड़को खा कर उसका वजन भी कम कर रहा है जिससे पैसे भी ज्यादा देने नहीं पड़ें,बच जायँ:परन्तु यह खर्चा भी उसीका हो रहा है।इसी प्रकार जब किसीको कोई चीज मुफ्तमें मिलती है तो वो राजी होकर उसका खूब उपभोग करता है; परन्तु यह भी है तो उसीका।उसको पहले किये हुए पुण्य-कर्मोंके फलस्वरूप वो चीज मिली है।वो जितना उपभोग करेगा,सुख भौगेगा,उतना पुण्यखर्च उसीका होगा।
७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html
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