सूक्ति-
१२२-
हरि भजरे हरिदासिया ! हरिका नाम रतन।
पाँचूँ पाण्डू तारिया कर दागियौ करण।।
शब्दार्थ-
कर दागियौ (हाथ पर दाह क्रिया की ) , करण (कर्ण , कुन्तिपुत्र ) |
कथा-
अन्त समयमें कर्णनें भगवान् श्री कृष्णसे यह वरदान माँगा था कि मेरी अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) अदग्ध-भूमिमें हो अर्थात् मेरे को वहाँ जलाया जाय , जहाँ पहले किसीको भी न जलाया गया हो | उसके अनुसार भगवानने जहाँ भी अदग्ध-भूमि देखकर दाहक्रिया करनी चाही , वहाँ [धरतीके कहनेसे] पता लगा कि यह अदग्ध नहीं है | यहाँ तो सौ वार भीष्म जल चूके हैं , तीनसौ वार द्रोणाचार्य जल चूके और हजार वार दुर्योधन जल चूका तथा कर्णके जलनेकी तो गिनती ही नहीं थी |
अब भगवान विचार करने लगे कि इनको कहाँ जलावें ? पृथ्वी पर तो कोई जगह बिना जली हुई मिली नहीं मेरा दाहिना हाथभी राजा बलीसे दान लेनेके कारण जला हुआ है |
( जैसे-
जिह्वा दग्धा परान्नेन हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् |
परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कथं सिध्दिर्वरानने ! ||
अर्थात् पराये अन्नसे जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | अब हे पार्वती ! सिध्दि कैसे हो ! अर्थात् इसलिये मनोरथसिध्दि नहीं होती , (कोई अनुष्ठान किया जाता है तो मन लगाकर , जीभके द्वारा जपकरके या बोल करके तथा हाथोंके द्वारा ही तो किया जाता है ! और ये तीनों ही जले हुए हैं तो कार्यसिध्दि कैसे हों? नहीं होती) |
इससे लगता है कि पार्वतीजीने भगवान शंकरसे पूछा है कि महाराज ! अपने मनकी चाहना पूरी करनेके लिये , मनोरथ पूरा करनेके लिये लोग मन लगाकर जप करते हैं , शुभकाम करते हैं ; परन्तु उनका मनोरथ पूरा क्यों नहीं होता , उनको सिध्दि क्यो नहीं मिलती ? |
तब शंकर भगवानने जवाब दिया कि
पराये अन्नसे (उनकी) जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | इसलिये हे पार्वती ! अब सिध्दि कैसे हो ! मन, वाणी और हाथ जल जानेके कारण उनके मनचाही पूरी नहीं होती) |
तब भगवानने अपने बायें हाथ पर कर्णकी दाह क्रिया की |
इस प्रकार भगवानने जो काम पाण्डवोंके लिये भी नहीं किया , वो कर्णके लिये किया | पाण्डवोको भवसागरसे पार कर दिया , पर कर्णको तो अपनी हथैलीमें दागा | इसलिये कोई भी रतनस्वरूप भगवानका नाम लेता है , भगवानको भजता है , तो भगवान उनको वो सौभाग्य दे-देते हैं जो पाणडव जैसे भक्तोंको भी नहीं मिला )|
७५१ सूक्तियोंका पता-
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सूक्ति-प्रकाश.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजके
श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि
(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)। http://dungrdasram.blogspot.com/2014/09/1-751_33.html
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