मंगलवार, 12 नवंबर 2019

प्रार्थना [हस्तलिखित फोटो] (- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के हाथ से लिखी हुई , साधक की तरफ से प्रभु- प्रार्थना)।

                  ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ 


                       ●  प्रार्थना  ●

  ( परमश्रद्धेय स्वामीजी
 श्रीरामसुखदासजी महाराज 

 के हाथ से लिखी हुई ,  साधक की तरफ से प्रभु- प्रार्थना- )

                ।। श्री रामाय नमः।।  

हे नाथ ! आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप हमें प्यारे लगें , केवल यही
मेरी माँग है, और कोई अभिलाषा नहीं। 
हे नाथ ! अगर मैं स्वर्ग चाहूँ तो मुझे नरकमें डाल दें , सुख चाहूँ तो
अनन्त दुःखोंमें डाल दें , पर आप हमें  प्यारे लगें।
हे नाथ ! आपके बिना मैं रह न सकूँ , ऐसी व्याकुलता आप दे दें।
हे नाथ ! आप मेरे ऐसी आग लगा दें कि आपकी प्रीतिके बिना जी न सकूँ । 

हे नाथ ! आपके बिना मेरा कौन है ? मैं किससे कहूँ और कौन सुने ?
हे मेरे शरण्य ! मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ? कोई मेरा नहीं ।
मैं भूला हुआ कइयोंको अपना मानता रहा , धोका (धोखा) खाया , फिर भी धोका खा सकता हूँ। आप बचावें ! 

हे मेरे प्यारे ! हे अनाथनाथ ! हे अशरणशरण ! हे पतितपावन ! हे दीनबन्धो ! हे अरक्षितरक्षक ! हे आर्त्तत्राणपरायण ! हे निराधारके आधार ! अकारण- करुणावरुणालय ! हे साधनहीनके एकमात्र साधन ! हे असहायकके सहायक ! क्या आप मेरेको जानते नहीं ? मैं कैसा भङ्गप्रतिज्ञ , कैसा कृतघ्न , कैसा अपराधी , मैं कैसा विपरीतगामी , मैं कैसा अकरणकरणपरायण , 
अनन्त दुःखोंके कारणस्वरूप भोगोंको भोगकर , जानकर भी आसक्त रहनेवाला , अहितको हितकर माननेवाला , बार- बार ठोकरें खाकर भी नहीं चेतनेवाला , आपसे विमुख होकर बार- बार दुःख पानेवाला , चेतकर भी न चेतनेवाला , ऐसा जानकर भी न जाननेवाला  मेरे सिवा आपको ऐसा कौन मिलेगा ?  
 प्रभो ! त्राहि मां त्राहि मां पाहि मां पाहि माम् !  
 हे प्रभो ! हे विभो ! मैं आँख पसारकर देखता हूँ तो मन , बुद्धि , प्राण , इन्द्रियाँ और शरीर भी मेरे नहीं , तो वस्तु , वस्त्रादि [ व्यक्ति आदि ] मेरे कैसे हो सकते हैं ? ऐसा मैं जानता हूँ , कहता हूँ, पर वास्तविकतासे नहीं मानता ।  मेरी यह दशा क्या आपसे किंचिन्मात्र भी कभी छिपी है ? फिर हे प्यारे , क्या कहूँ ?
हे नाथ ! हे नाथ !! हे मेरे नाथ !!! हे दीनबन्धो ! हे प्रभो ! आप अपनी
तरफसे शरण ले लें। बस , केवल आप प्यारे लगें।  ●

मेर मन में तो आई थी कि आप सुबह, शाम, मध्याह्न - तीनों समय कर ,  खूब अच्छे भावपूर्वक करें तो प्रभुकृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है 
ता•१९|३|७६
चैत्र कृष्णा चतुर्थी, शुक्रवार
- रामसुखदास 

 (- यथावत् लेखन •••● , । () ! ? | - ) ■  
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
 इस हस्तलिखित प्रार्थना की फोटो भी  नीचे दी जा रही है ।  

यह प्रार्थना कई पुस्तकों में यथावत् लिखकर नहीं छापी गई है, अयथावत् छपी हुई मिलती है। इसके नीचे यह वाक्य और जोङ दिया गया है -- 
[ भक्त-चरित्र पढ़कर खूब अच्छा भाव बनाकर सुबह, शाम व मध्याह्न-तीनों
समय यह प्रार्थना करनी चाहिये। ] 

इसके सिवाय भक्त-चरित्र पढ़े बिना भी , सीधे ही यह प्रार्थना की जा सकती है तथा एक बार या अनेक बार की जा सकती है और उसको भगवान् सुन लेते हैं ।
  यह प्रार्थना किसी भी समय की जा सकती है और किसी भी प्रकार से की जा सकती है ।  इस प्रार्थना को कोई भी कर सकता है चाहे वो कैसा ही क्यों न हो और भगवान् उसको स्वीकार कर लते हैं ।  
इस प्रार्थना के नीचे श्री स्वामी जी महाराज के द्वारा लिखे हुए इतने अंश पर और ध्यान दें।  
 वो लिखते हैं-   
 मेर मन में तो आई थी कि आप सुबह, शाम, मध्याह्न - तीनों समय कर , खूब अच्छे भावपूर्वक करें तो प्रभुकृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है 
ता•१९|३|७६ 
चैत्र कृष्णा चतुर्थी, शुक्रवार 
- रामसुखदास 
  (अर्थात् ऐसे प्रार्थना की जाय तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है, ऐसा कोई भी काम नहीं है जो इस प्रार्थना से न हो सके, सबकुछ हो सकता है। 
 इस में भक्त- चरित्र पढ़ना भी जरूरी नहीं बताया गया है अर्थात् यह प्रार्थना किसी भी प्रकार से की जा सकती है और इससे असम्भव भी सम्भव हो सकता है।  भाव पूर्वक की जाय तो और भी बढ़िया है आदि आदि ।  )।
   ■

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रविवार, 10 नवंबर 2019

परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की ओरसे एक प्रार्थना

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
   परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
की ओरसे एक प्रार्थना
अपने निजस्वरूप प्यारे मुसलमान भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि आप अपने आदरणीय
पूर्वजोंकी गलतीको स्थायी रूपसे नहीं रखना चाहते हैं तथा अपनी गलत परम्पराको मिटाना चाहते हैं तो
जिनकी जो चीज है, उनको उनकी चीज सत्कारपूर्वक समर्पण कर दें और अपनी गलत परम्पराको,
बुराईको मिटाकर सदाके लिये भला रहना स्वीकार कर लें ।
आपलोगोंने मन्दिरोंको तोड़नेकी जो गलत
परम्परा अपनायी है, इसमें आपका ज्यादा नुकसान है, हिन्दुओंका थोड़ा। यह आपके लिये बड़े
कलंकका, अपयशका काम है।
आपके पूर्वजोंने मन्दिरोंको तोड़कर जो मस्जिदें खड़ी की हैं, वे इस
बातका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुसलमानोंके राज्यमें क्या हुआ ? अतः वे आपके लिये कलंककी,
अपयशकी निशानी हैं।
अब भी आप उसी परम्परापर चल रहे हैं तो यह उस कलंकको स्थायी रखना
है।
आप विचार करें,
सभी लोगोंको अपने- अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिका पालन करनेका अधिकार है ।
यदि हिन्दू अपने धर्मके अनुसार मन्दिरोंमें मूर्तिपूजा ( मूर्तिमें भगवान् की पूजा ) करते हैं तो इससे आपको
क्या नुकसान पहुँचाते हैं ? इसमें आपका क्या नुकसान होता है ? क्या हिन्दुओंने अपने राज्यमें मस्जिदोंको
तोड़ा है ? तलवारके जोरपर हिन्दूधर्मका प्रचार किया है ? उलटे हिन्दुओंने अपने यहाँ सभी
मतावलम्बियोंको अपने-अपने मत, सम्प्रदायका पालन करने, उसका प्रचार करनेका पूरा मौका दिया है।
इसलिये यदि आप सुख-शान्ति चाहते हैं, लोक-परलोकमें यश चाहते हैं, अपना और दुनियाका भला
चाहते हैं तो अपने पूर्वजोंकी गलतीको न दुहरायें और गम्भीरतापूर्वक विचार करके अपने कलंकको
धो डालें।
सरकारसे भी आदरपूर्वक प्रार्थना है कि आप थोड़े समयके अपने राज्यको रखनेके लिये ऐसा कोई
काम न करें, जिससे आपपर सदाके लिये लाञ्छन लग जाय और लोग सदा आपकी निन्दा करते रहें ।
आज प्रत्यक्षमें राम भी नहीं हैं और रावण भी नहीं है, युधिष्ठिर भी नहीं हैं और दुर्योधन भी नहीं है; परंतु
राम और युधिष्ठिरका यश तथा रावण और दुर्योधनका अपयश अब भी कायम है। राम और युधिष्ठिर
अब भी लोगोंके हृदयमें राज्य कर रहे हैं तथा रावण और दुर्योधन तिरस्कृत हो रहे हैं।
आप ज्यादा वोट
पानेके लोभसे अन्याय करेंगे तो आपका राज्य तो सदा रहेगा नहीं, पर आपकी अपकीर्ति सदा रहेगी।
यदि आप एक समुदायका अनुचित पक्ष लेंगे तो दूसरे समुदायमें स्वतः विद्रोहकी भावना पैदा होगी, जिससे
समाजमें संघर्ष होगा।
इसलिये आपको वोटोंके लिये पक्षपातपूर्ण नीति न अपनाकर सबके साथ समान
न्याय करना चाहिये और निल्लोभ तथा निर्भीक होकर सत्यका पालन करना चाहिये।
अन्तमें अपने निजस्वरूप प्यारे हिन्दू भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि मुसलमान भाइयोंकी
कोई क्रिया आपको अनुचित दीखे तो उस क्रियाका विरोध तो करें, पर उनसे वैर न करें।
गलत क्रिया
या नीतिका विरोध करना अनुचित नहीं है, पर व्यक्तिसे द्वेष करना अनुचित है। जैसे, अपने ही भाईको
संक्रामक रोग हो जाय तो उस रोगका प्रतिरोध करते हैं, भाईका नहीं। कारण कि भाई हमारा है, रोग
हमारा नहीं है। रोग आगन्तुक दोष है, इसलिये रोग द्वेष्य है, रोगी किसीके लिये भी द्वेष्य नहीं है।
अतः
आप द्वेषभावको छोड़कर आपसमें एकता रखें और अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करें, सच्चे हृदयसे
भगवान् में लग जायेँ तो इससे आपके धर्मका ठोस प्रचार होगा और शान्तिकी स्थापना भी होगी। 

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)। 

- 'कल्याण'वर्ष 67, अंक3 (मार्च 1993)।


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अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशी में शिव- मन्दिर की बारी

                      ।।श्रीहरिः।।
अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशी में शिव- मन्दिर की बारी  
कल (कार्तिक शुक्ला द्वादशी शनिवार , विक्रम संवत् २०७६ को) सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार अयोध्या में राम- मन्दिर बनना तै हो गया । भगवान् की कृपा से यह रामभक्तों और सारे संसार के लिये भी एक बङा हितकारी काम हुआ है । इससे हिन्दुओं का, ईसाईयों आदि का और मुसलमानों का भी बङा हित होगा।
कई लोगों को इससे बङी भारी प्रसन्नता हुई है । कई लोग तो इससे अपने को धन्य और कृतकृत्य (सब काम कर चूके) मानने लग गये ; लेकिन अपने को इतने से ही सन्तोष नहीं करना चाहिये ; क्योंकि अभी हमारे कई मन्दिरों का काम बाकी पङा है ।
इसलिये अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशीवाले शिव- मन्दिर के लिये काम शुरु करना चाहिये और मथुरा में श्रीकृष्ण- मन्दिर की तैयारी करनी चाहिये ।
जैसे, एक दिन अयोध्या राम- मन्दिर की थोङी- सी शुरुआत की गई थी, तो वो होते- होते कल निर्णय आ ही गया। अब राम- मन्दिर बनने की तैयारी है और राम मन्दिर बन जायेगा । ऐसे ही हमलोग अगर काशी में शिव- मन्दिर की थोड़ी- सी भी शुरुआत करदें, तो एक दिन यह मन्दिर भी बन जायेगा ।
विचार करके देखें तो शुरुआत में एक व्यक्ति के मनमें बात आती है, उसके बाद अनेकों के मनमें आ जाती है और अनेक लोग साथ में हो जाते हैं तथा अनेकों की शक्ति से वो काम हो जाता है । वो काम हुआ तो अनेकों की शक्ति से है; पर शुरुआत में उस काम को एक व्यक्ति ने ही शुरु किया था। ऐसे अगर हम अकेले ही (अयोध्या राम- मन्दिर की तरह एक व्यक्ति ही) यह काम शुरु करदें, तो हमारे साथ अनेक लोग हो जायेंगे और काशी में शिव- मन्दिर भी बन जायेगा।
वास्तव में यह होगा तो महापुरुषों और भगवान् की कृपा से ही, परन्तु निमित्त हमको बनना है। भगवान् और महापुरुष तो तैयार ही रहते हैं, अब हमको तैयार होना है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा था कि सीधी -सी बात है कि हिन्दुओं की जगह (राम- मन्दिर) हिन्दुओं को दे दी जाय । कह, फिर तो काशी और मथुरा वाले स्थान भी माँग लेंगे । अरे माँग लेंगे तो इससे तुम्हारा क्या हर्ज हुआ?
श्री स्वामीजी महाराज के सामने बार- बार अयोध्या राम मन्दिर का विषय आया था और उन्होंने समाधान किया था । उनके ऐसे कई प्रवचनों की रिकॉर्डिंग मौजूद है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने मुस्लिम भाइयों को, सरकार को और हिन्दू भाइयों को बङी आत्मीयतापूर्वक पत्र लिखवाकर कल्याण पत्रिका में प्रकाशित करवाया था ।( कल्याण वर्ष ६७ वाँ , अंक तीसरा, (3 मार्च 1993 ) ।
( पत्र और पत्र की फोटो नीचे दी जा रही है  )।
मुस्लिम भाइयों को सादर समझाया कि आपलोग अपने बङेरों का कलंक धो लो।
( अर्थात् अयोध्या का राम- मन्दिर तुङवाङकर उस जगह मुसलमानों के बङेरे बाबर ने मस्जिद बनवायी थी। मुसलमानों के बङेरे ऐसे अन्यायी, जबरदस्ती पूर्वक दूसरों की सम्पत्ति छीनने वाले, दुःख देनेवाले थे। मस्जिद इस बात की निशानी है । आपलोगों ने भी यही परम्परा अपना रखी है। यह आपलोगों के लिये कलंक है। अब आपलोग यह हिन्दुओं की जगह हिन्दुओं देकर अपने बङेरों का कलंक धो डालो। नहीं तो यह कलंक मिटेगा नहीं । अबतक जैसे मस्जिद के रूप में वो कलंक खङा था, कायम था, ऐसे ही आगे भी यह कलंक पङा रहेगा)।
सरकार को भी आदरपूर्वक समझाया कि आपलोग ज्यादा वोट के लोभ से अन्याय, पक्षपात मत करो।
हिन्दू भाइयों को अपने धर्म का ठीक तरह से पालन करने का और सच्चे हृदय से भगवान् में लग जाने के लिये आदरपूर्वक कहा। 
( http://dungrdasram.blogspot.com/2019/11/blog-post_0.html )
इस प्रकार महापुरुष हमारे साथ में हैं और महापुरुषों के साथ भगवान् हैं । भगवान् उनकी रुचि के अनुसार काम करते आये हैं-
राम सदा सेवक रुचि राखी।
बेद पुरान साधु सुर साखी।।
(रामचरितमा॰ २|२१९|७)

अब काम बाकी हमारा है। हम अगर तैयार हो जायँ,  इस काम को शुरु करदें, मन बनालें कि यह काम होना चाहिये, तो यह काम हो जाय, मन्दिर बन जाय।  

( काशीजी के ज्ञानवापी वाले शिव- मन्दिर की कैसी दुर्दशा की हुई है, यह तो आज भी समझी और देखी जा सकती है)।
जय श्री राम 
●●●●●●●●●●●●●
                    ( पत्र -)
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
  परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
की ओरसे एक प्रार्थना
अपने निजस्वरूप प्यारे मुसलमान भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि आप अपने आदरणीय
पूर्वजोंकी गलतीको स्थायी रूपसे नहीं रखना चाहते हैं तथा अपनी गलत परम्पराको मिटाना चाहते हैं तो
जिनकी जो चीज है, उनको उनकी चीज सत्कारपूर्वक समर्पण कर दें और अपनी गलत परम्पराको,
बुराईको मिटाकर सदाके लिये भला रहना स्वीकार कर लें ।
आपलोगोंने मन्दिरोंको तोड़नेकी जो गलत
परम्परा अपनायी है, इसमें आपका ज्यादा नुकसान है, हिन्दुओंका थोड़ा। यह आपके लिये बड़े
कलंकका, अपयशका काम है।
आपके पूर्वजोंने मन्दिरोंको तोड़कर जो मस्जिदें खड़ी की हैं, वे इस
बातका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुसलमानोंके राज्यमें क्या हुआ ? अतः वे आपके लिये कलंककी,
अपयशकी निशानी हैं।
अब भी आप उसी परम्परापर चल रहे हैं तो यह उस कलंकको स्थायी रखना
है।
आप विचार करें,
सभी लोगोंको अपने- अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिका पालन करनेका अधिकार है ।
यदि हिन्दू अपने धर्मके अनुसार मन्दिरोंमें मूर्तिपूजा ( मूर्तिमें भगवान् की पूजा ) करते हैं तो इससे आपको
क्या नुकसान पहुँचाते हैं ? इसमें आपका क्या नुकसान होता है ? क्या हिन्दुओंने अपने राज्यमें मस्जिदोंको
तोड़ा है ? तलवारके जोरपर हिन्दूधर्मका प्रचार किया है ? उलटे हिन्दुओंने अपने यहाँ सभी
मतावलम्बियोंको अपने-अपने मत, सम्प्रदायका पालन करने, उसका प्रचार करनेका पूरा मौका दिया है।
इसलिये यदि आप सुख-शान्ति चाहते हैं, लोक-परलोकमें यश चाहते हैं, अपना और दुनियाका भला
चाहते हैं तो अपने पूर्वजोंकी गलतीको न दुहरायें और गम्भीरतापूर्वक विचार करके अपने कलंकको
धो डालें।
सरकारसे भी आदरपूर्वक प्रार्थना है कि आप थोड़े समयके अपने राज्यको रखनेके लिये ऐसा कोई
काम न करें, जिससे आपपर सदाके लिये लाञ्छन लग जाय और लोग सदा आपकी निन्दा करते रहें ।
आज प्रत्यक्षमें राम भी नहीं हैं और रावण भी नहीं है, युधिष्ठिर भी नहीं हैं और दुर्योधन भी नहीं है; परंतु
राम और युधिष्ठिरका यश तथा रावण और दुर्योधनका अपयश अब भी कायम है। राम और युधिष्ठिर
अब भी लोगोंके हृदयमें राज्य कर रहे हैं तथा रावण और दुर्योधन तिरस्कृत हो रहे हैं।
आप ज्यादा वोट
पानेके लोभसे अन्याय करेंगे तो आपका राज्य तो सदा रहेगा नहीं, पर आपकी अपकीर्ति सदा रहेगी।
यदि आप एक समुदायका अनुचित पक्ष लेंगे तो दूसरे समुदायमें स्वतः विद्रोहकी भावना पैदा होगी, जिससे
समाजमें संघर्ष होगा।
इसलिये आपको वोटोंके लिये पक्षपातपूर्ण नीति न अपनाकर सबके साथ समान
न्याय करना चाहिये और निल्लोभ तथा निर्भीक होकर सत्यका पालन करना चाहिये।
अन्तमें अपने निजस्वरूप प्यारे हिन्दू भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि मुसलमान भाइयोंकी
कोई क्रिया आपको अनुचित दीखे तो उस क्रियाका विरोध तो करें, पर उनसे वैर न करें।
गलत क्रिया
या नीतिका विरोध करना अनुचित नहीं है, पर व्यक्तिसे द्वेष करना अनुचित है। जैसे, अपने ही भाईको
संक्रामक रोग हो जाय तो उस रोगका प्रतिरोध करते हैं, भाईका नहीं। कारण कि भाई हमारा है, रोग
हमारा नहीं है। रोग आगन्तुक दोष है, इसलिये रोग द्वेष्य है, रोगी किसीके लिये भी द्वेष्य नहीं है।
अतः
आप द्वेषभावको छोड़कर आपसमें एकता रखें और अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करें, सच्चे हृदयसे
भगवान् में लग जायेँ तो इससे आपके धर्मका ठोस प्रचार होगा और शान्तिकी स्थापना भी होगी। 
( - श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज )
- 'कल्याण'वर्ष 67, अंक3 (मार्च 1993)।

 
आपलोगों ने कोशिश करके जैसे यह राम- मन्दिर का काम करवा दिया, ऐसे ही आपलोगों से प्रार्थना है कि अब जल्दी ही गौ- हत्या बन्द करवा दें । आपका बहुत- बहुत आभार । 

जय श्री राम 

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रविवार, 3 नवंबर 2019

दिनचर्या की कुछ बातें (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की दिनचर्या- सम्बन्धी कुछ  बातें)।

                ।।श्रीहरिः।। 

दिनचर्या की कुछ बातें ।
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की दिनचर्या- सम्बन्धी कुछ  बातें)। 

किसी सत्संग- प्रेमी ने यह जानने की इच्छा व्यक्त की है कि
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की दिनचर्या कैसी थी?
उत्तर में कुछ बातें निवेदन की जा रही है-
(यह जानकारी संवत २०४१ के बाद की समझनी चाहिये ) । 

उन दिनों में श्रीस्वामीजी महाराज तीन बजे उठे हुए और स्नान आदि करते हुए देखे गये। बाद में उन्होंने दो बजे उठना शुरु कर दिया । उसके बाद उन्होंने एक बजे उठना शुरु किया और फिर रात्रि बारह बजे उठना और स्नान आदि करना शुरु कर दिया। कभी बारह बजे से पहले उठ जाते तो बारह बजने की प्रतीक्षा करते कि बारह बज जाय तो स्नान आदि करें । 

उन्होंने बताया कि बारह बजने से पहले तो वर्तमान दिन की ही घङियाँ रहती है, बारह बजने के बाद में (तारीख बदलने पर) दूसरे दिन की घङियाँ शुरु होती है, दूसरा दिन शुरु होता है। जब बारह बज जाते तब स्नान करते।

( बाद में किसीने कहा कि शास्त्र के अनुसार स्नान चार बजे के बाद में करना चाहिये। तब से स्नान बाद में करने लगे और सन्ध्या वन्दन आदि तो जैसे पहले करते थे , रात्रि बारह बजे के बाद, वैसे ही करते रहे और स्नान का समय बदल दिया। 
 
जिन दिनों में गंगाजी पर होते तो उन दिनों में तीन बार स्नान कर लेते थे। एक बार तो पहले से ही लाये हुए गंगाजल से निवास स्थान पर ही स्नान कर लेते और दो बार गंगाजी पर जाकर, डुबकी लगाकर स्नान करते थे)। 

उस (आधी रात के) समय स्नान करके आते ही सन्ध्या के लिये बिछाये गये आसन पर विराजमान हो जाते और सन्ध्या वन्दन आदि करते। श्रीकृष्ण भगवान् को नमस्कार करते। पूजन- सामग्री में स्थित श्री गणेश भगवान् को प्रणाम करते। श्लोकपाठ, स्तुति, स्तोत्रपाठ आदि करके माला से मन्त्रजाप करते और रासपञ्चाध्यायी , गीतापाठ , सन्तवाणी पाठ आदि करते। 

इसके बाद तीन बजे से पुस्तक लिखवाना आदि कार्य करते, साधकों के लिये रहस्ययुक्त बातों को सरल करके समझाते। अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का ज्ञान करवाते। अनेक प्रकार का विचार-विमर्श होता। 
(चार बजे श्री स्वामीजी महाराज द्वारा किये गये गीतापाठ की कैसेट लगायी जाती थी)।

 पाँच बजे नित्य-स्तुति, गीतापाठ आदि शुरु हो जाते। आप उसमें पधारते और सत्संग सुनाते। यह प्रोग्राम प्रायः छः बजे से कुछ पहले ही समाप्त हो जाता था । 
 
वापस आनेपर पर सूर्योदय होने के बाद में दूध, फल आदि लेते। अन्न का भोजन तो दिन में दो बार ही लेते थे। रात्रि में अन्न नहीं लेते थे। 
 
तीन बार सन्ध्या करते थे। दो बार तो सुबह और शामवाले भोजन से पहले और एक बार रात्रि बारह बजेवाले स्नान के बाद में । 
 
 कभी-कभी सुबह जंगल आदि की खुली हवा में चले जाते थे। जंगल को, एकान्त को पसन्द करते थे। वस्तु और व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे। अपनी बात को छोड़कर दूसरे की बात रखते थे। 

सुबह के भोजन का समय लगभग साढे दस बजे और शाम को पाँच या साढे पाँच बजे, सूर्यास्त से पहले- पहले ही रहता था। सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करत थे। 
 
भोजन के बाद दर्शनार्थियों को दर्शन होते और सत्संग की बातें होती थीं । किसीके कोई बात पूछनी होती तो वो भी पूछ लेते और उनको जवाब मिल जाता था। 
 
एक डेढ बजे विश्राम के बाद जलपान आदि करके सहजता से विवेक विचार आदि में बैठ जाते थे। गीता, रामायण , भागवत , संतवाणी , सत्संग की पुस्तकें आदि पढ़ते और विचार आदि करते हुए अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते थे। 

सत्संग की बातें तो हर समय होती रहती थी। जो सत्संगी अलग से मिलना चाहते थे या साधन आदि की बात करना चाहते थे , उनको अलग से समय दे देते थे। उनकी बाधाएँ दूर करते थे। वो कहते थे कि कोई मेरे से मिलना चाहता हो, तो उसको मेरे आराम के कारण, बिना मिलाये, निराश मत लोटाओ , मैं नींद में सोता होऊँ , तो भी जगाकर मिलादो। 
 
सूर्योदय और सूर्यास्त के समय नींद नहीं लेते थे ।
रात्रि में कोई दर्शनार्थी आते और आप विश्राम में होते तो नौ , दस बजे बाद, दुग्धपान के समय दर्शन हो जाते। 

रात्रि में बारह बजे से सुबह सूर्योदय तक जल के अलावा कुछ नहीं लेते थे। सूर्योदय के बाद कलेऊ में भी अन्न का आहार नहीं लेते थे (अन्न का आहार दिन में दो बार ही लेते थे)।  

भोजन मौन होकर करते थे। परोसने वाला जो परोस देता , वही पा लेते थे। माँगने का स्वभाव नहीं था। जबतक पेट नहीं भर जाता , तब तक कोई दूध आदि अच्छी, पौष्टिक- वस्तु न परोस कर साधारण, कम पौष्टिक वस्तु ही परोस देता, तो भी मना नहीं करते थे, उसी को पा लेते थे।  यह भी इसारा नहीं करते कि पौष्टिक- वस्तु पहले परोसो।  पौष्टिक- वस्तु कोई बाद में परोसने लगता तो मना कर देते कि अब पेट भर गया।  

उनका खास काम था- सत्संग करना। सत्संग की बङी भारी महिमा करते और रोजाना इसको आवश्यक समझते थे। दिन में दो , तीन या चार बार और कभी- कभी तो इससे भी अधिक बार , रोजना सत्संग सुनाते थे।  पहले के समय में तो एकबार में दो- दो घंटे व्याख्यान होता था। बाद में घंटाभर हो गया ।  

सत्संग का समय प्रायः सुबह साढे आठ बजे से , दुपहर में चार बजे से और रात्रि में सात आठ बजे या इसके बाद का रहता था 

कभी- कभी किसी साधक को बुलाकर भी बातें करते थे । किसीके कोई अङचन हो तो वो दूर हो जाय , ऐसी चेष्टा रहती थी। कभी कई साधकों से एक साथ मिलकर भी बातें करते थे और समझाते थे। 
 
परहित तो उनके द्वारा स्वतः और सदा ही होता रहता था। परहित में ही लगे रहते थे। कोई भी साधक के काम की बात होती, वो बताने की कोशिश रहती थी और आवश्यक बात को लिखवा भी देते थे , जो कि भविष्य में साधकों के काम आवे। 
 
 कोई एक बात पूछता तो उसका तो जवाब देते ही, साथ में और उपयोगी बातें , अधिक बता देते। 
 
हमेशा ऐसे आचरण और व्यवहार करते थे जो लोगों के लिये आदर्श हों। लोग उनसे सीखें और लोगों का हित हो। (ऐसा भाव रहता)। 


प्रश्न- 

इस प्रकार रातदिन जब वो इतने व्यस्त थे तो सोते कब थे?  

उत्तर-  

समय मिलता तब ही सोते थे। जैसे , सुबह कलेऊ करने के बाद में या सुबह शाम भोजन के बाद में (विश्राम कर लेते )। उस समय भी अगर सत्संग आदि का प्रोग्राम हो जाता तो सोने की परवाह नहीं करते । हरेक सत्संग में समय से पहले ही पहुँचते थे , एक मिनिट की देरी भी सहन नहीं करते थे। कभी सत्संग स्थल दूर होता और समय पर वाहन उपलब्ध नहीं रहता तो पैदल ही चल देते थे। 

 (एक बार किसीने पूछा कि ऐसे पैदल चलकर समय पर वहाँ पहुँच तो सकोगे नहीं , तब पैदल चलने से क्या फायदा? तो जवाब में बोले कि हम तो समय पर रवाना हो गये, अब पहुँच नहीं पाये तो हम क्या करें,  हमारे हाथ की बात नहीं। जितना हम कर सकते हैं, उसमें कसर क्यों रखें!)  

कभी कोई साथ में रहनेवाले समय पर उपस्थित नहीं रहते तो अकेले ही चल देते ।  ■ 


इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं। यह तो समझने के लिये कुछ दिग्दर्शन करवाया गया है। 

(उनमें से कुछ बातें इस प्रकार है-) 

भोजन में भगवदिच्छा से प्राप्त दूध आदि सात्त्विक- वस्तुएँ ही लेते थे। बाजार की (बनी हुई) वस्तुएँ नहीं पाते थे।   लहसुन, प्याज, गाजर, फूलगोभी, मसूर और उङद की दाल आदि वर्जित- वस्तुएँ नहीं लेते थे। 
 चीनी और चीनी से बनाई हुई घर की मिठाई भी मना करते थे। 
 (क्योंकि चीनी बनाते समय , चीनी की सफाई में हड्डियों का प्रयोग होता है)।  
 
जिस महीने में स्मार्त और वैष्णव - दो एकादशी व्रत होते, तो बादवाली, वैष्णव एकादशी का व्रत रखते थे। वैष्णव एकादशी के दिन तो चावल खाते ही नहीं थे और स्मार्त एकादशी को भी चावल नहीं खाते थे। एकादशी व्रत के दिन फलाहार में हल्दी नहीं डाली जाती थी; क्योंकि  हल्दी अन्न है 
 (हल्दी की गिनती अन्न में आयी है। मटर भी अन्न है)। 

चतुर्थी के दिन भी अन्न नहीं लेते थे। हर महीने गणेश भगवान् की चतुर्थी तिथि को व्रत रखते थे।  व्रत के दिन फलाहार लेते थे। 

 वृद्धावस्था में जब फलाहार प्रतिकूल पङने लग गया , फलाहार के कारण तबियत बिगङने लगी,  तब अन्नाहार लेने लगे ।  

एकादशी के दिन अन्नाहार लेने में संकोच करने लगे। साथवालों ने कहा कि आप अन्नाहार लीजिये, संकोच न करें । तो बोले कि भिक्षा लानेवाले अन्न की भिक्षा लायेंगे, (वो सब तो हम पा नहीं सकेंगे, फिर) इतने सारे अन्न का क्या होगा ? अर्थात् वो अन्न बर्बाद तो नहीं हो जायेगा? तब साथवाले कुछ लोग बोले कि हम पा लेंगे (बर्बाद नहीं होने देंगे)। तथा यह भी कहा गया कि (धर्मसिन्धु,निर्णयसिन्धु आदि ग्रंथानुसार) अस्सी वर्ष तक की अवस्था वालों के लिये ही एकादशी व्रत लागू पङता है, अस्सी वर्ष की अवस्था के बाद में नहीं करे तो भी कोई बात नहीं,छूट है। 
 
इस प्रकार परिस्थिति को देखते हुए आप बाद में  अन्नाहार लेने लगे।  

इसके बाद कई दूसरे लोग भी एकादशी को अन्न खाने लग गये। ऐसा होता हुआ देखकर एक दिन झुँझलाते हुए से बोले कि कम से कम एकादशी का तो कायदा रखा करो अर्थात् एकादशी के दिन तो अन्न मत खाया करो ! आपके  मनमें एकादशी का बङा आदर था ।  आप हर एकादशी को व्रत रखते थे ।  • 

××× 

किसीके देने पर भी आप न रुपये लेते थे और न रुपये अपने पास में रखते थे। रुपयों को छूते भी नहीं थे। किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर भी आप किसी से कुछ माँगते नहीं थे। कष्ट उठा लेते थे पर कहते नहीं थे। आप बङा संकोच रखते थे।

आप अपनी मान बङाई नहीं करवाते थे। मान दूसरों को देते थे। आप स्वार्थ, अभिमान, कञ्चन, कामिनी आदि के त्यागी थे। आप पुष्पमाला आदि का सत्कार स्वीकार नहीं करते थे। आप वर्षा में भी अपने ऊपर छाता नहीं लगाने देते थे। आप न रुई के बिछोनों पर बैठते थे और न सोते थे। खाट पर भी न बैठते थे और न सोते थे। बुनी हुई कुर्सी पर भी आप नहीं बैठते थे।

कहीं पर भी आसन बिछाने से पहले आप उस जगह को कोमलता पूर्वक, आसन आदि की ही हवा से झाङकर, वहाँ से सूक्ष्म जीव जन्तुओं को हटाकर बिछाते थे। बिना आसन के बैठते समय भी आप जीव जन्तुओं को बचा कर बैठते थे। 

चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि कहीं कोई जीव जन्तु पैर के नीचे दब कर मर न जाय। आपका बङा कोमल शील स्वभाव था। आपके हृदय में हमेशा परहित बसा रहता था जो दूसरों को भी दिखायी देता था।

आप हमेशा जल छान कर ही काम में लेते थे। छने हुए जल को भी चार या छः घंटों के बाद वापस छानते थे; क्योंकि चातुर्मास में चार घंटों के बाद और अन्य समय में छः घंटों के बाद में (छाने हुए जल में भी) जीव पैदा होने लगते हैं। जल में  जीव बहुत छोटे होते हैं, दीखते नहीं। इसलिये आप गाढ़े कपङे को डबल करके जल को छानते थे और सावधानी पूर्वक जीवाणूँ करके उन जीवों को जल में छोङते थे। 

 इस प्रकार आप छाने हुए जल को काम में लेते थे । खान, पान, शौच, स्नान आदि सब में आप जल छानकर ही काम में लेते थे।  

जिस शौचालय में ऊपर, आकाश न दीखता हो तो उसमें जाने के बाद,आकर स्नान करते थे। 

 (शौच, स्नान और पेशाबघर अलग-अलग होने चाहिये। एक साथ वाले शुद्ध नहीं माने जाते)। 

शौच और लघुशंका जाने से पहले वहाँ कुछ पानी गिराकर जगह को गीला कर देते, जिससे कि वो जगह अधिक अशुद्धि न पकङे तथा थोङे पानी से ही साफ हो जाय। शौच के बाद पहले बायाँ हाथ कई बार मिट्टी लगा- लगाकर धोते और फिर मिट्टी लगा-लगाकर दोनों हाथों को कई बार धोते। कुल्ला आदि करते समय जो पानी गिरकर बहता, उसीके साथ-साथ पैरों से सरकाते हुए उस मिट्टी को बहा देते जिससे कि उसको बहाने के लिये, अलग से जल खर्च न करना पड़े। पानी, अन्न और समय आदि व्यर्थ न जाय, इसका बङा ध्यान रखते थे। 

लघुशंका जाने के बाद जल से शुद्धि आदि करके फिर हाथ धोते और कई कुल्ले करते। मुख में पानी भरकर तथा चुल्लू में पानी भर- भर कर, उससे आँखोंपर खूब छींटे लगाते। फिर हाथ मुँह धोकर दोनों पैर धोते (टखनों तक) । 

अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे। 

  परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।

आपने मिलने वाले जिज्ञासुओं को हमेशा छूट दे रखी थी कि आपके कोई साधन-सम्बन्धी बात पूछनी हो तो मेरे को नींद में से जगाकर भी पूछ सकते हो। लोगों के लिये आप अनेक कष्ट सहते थे, फिर भी उनको जनाते नहीं थे।

आप न चेला चेली बनाते थे और न भेंट पूजा स्वीकार करते थे। आप न तो किसी से चरण छुआते थे और न किसी को चरण छूने देते थे। चलते समय पृथ्वी पर जहाँ आपके चरण टिकते , वहाँ की भी चरणरज नहीं लेने देते थे। कभी कोई स्त्री भूल से भी चरण छू लेती तो आप भोजन करना छोङ देते थे। उपवास रख कर उसका प्रायश्चित्त करते थे। आप न तो स्त्री को छूते थे और न स्त्री को छूने देते थे। रास्ते में चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि उनका स्पर्श न हों। आपके कमरे में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था।

स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है।

आप गर्भपात करवाने का भयंकर विरोध करते थे। जिस घर में एक स्त्री ने भी गर्भपात करवा लिया हो, तो आप उस घर का अन्न नहीं लेते थे और जल भी नहीं लेते थे। 

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अधिक जानकारी के लिये "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें" (संत डुँगरदास राम) नामक पुस्तक पढ़ें 
 https://drive.google.com/file/d/1kog1SsId19Km2OF6vK39gc4HJXVu7zXZ/view?usp=drivesdk
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 http://dungrdasram.blogspot.com/2019/11/blog-post.html
 

रविवार, 6 अक्तूबर 2019

गुरु 'तत्त्व' कैसे होता है ? क्या बिना 'गुरु' बनाये ही 'कल्याण' हो सकता है ?

              ।।श्रीहरिः ।।

गुरु 'तत्त्व' कैसे होता है ? क्या बिना 'गुरु' बनाये ही 'कल्याण' हो सकता है ? 

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज" आदि महापुरुष आजकल गुरु बनाने के लिए निषेध (मना) करते हैं । वो कहते हैं कि गुरु भगवान् को मानलो- "कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् "।

इस पर कई लोग पूछते हैं कि क्या बिना गुरु बनाये ही कल्याण हो सकता है? ऐसे ही कई लोगों के मन में ऐसी बातें भी आती है कि क्या बिना नेगचार के भी कोई 'गुरु' बन सकते हैं ?  अर्थात्  सिर पर हाथ रखना, कान में मन्त्र फूँकना आदि नेगचार के  बिना भी कोई गुरु हो सकते हैं क्या ?

कोई भगवान् को 'गुरु' मानले या पहले जो श्रीतुलसीदासजी महाराज, गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका , श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज आदि 'महापुरुष' हो गये हैं, उनको कोई 'गुरु' मानले, तो क्या सचमुच में वे 'गुरु' हो जाते हैं और उससे (गुरु मानने वाले शिष्य का) 'कल्याण' हो जाता है? इन सब बातों का जवाब है कि हाँ, हो जाता है । अधिक जानने के लिए (संत डुँगरदास राम और गुलाबसिंहजी शेखावत की बातों वाला) यह प्रवचन सुनें -
(प्रवचन या उसका लिंक)

तथा श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह प्रवचन सुनें -

19931104_1430_Saccha Guru Kaun(सच्चा गुरु कौन ?) ।

http://bit.ly/2LOpuzq

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

"श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत्- वाणी" ; नामक पुस्तक और नम्र निवेदन।

                 ।। श्री हरिः ।।

     

"श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत्- वाणी" ; नामक पुस्तक और 

  ■ *नम्र निवेदन* ■ 

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने समय- समय पर जो अनेक सत्संग- प्रवचन किये हैं । उनमें से कई प्रवचनों की विशाल रिकोर्डिंग- सामग्री उपलब्ध है । इनमें से कुछ प्रवचनों का यथावत् लेखन करके इस पुस्तक ("श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत्- वाणी" )  में संग्रह किया गया है ।

सत्संग प्रवचन करते समय जैसे- जैसे श्री स्वामीजी महाराज बोले हैं , वैसा का वैसा ही लिखने की कोशिश की गयी है अर्थात् इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो वाणी वो महापुरुष बोले हैं , उसको वैसे के वैसे ही लिखा जाय । अपनी होशियारी न लगाई जाय । उस वाणी के कोई भी वाक्य और शब्द आदि छूटे नहीं । उनके द्वारा बोले गये शब्द और वाक्य आदि बदलें नहीं , जैसे वो बोले हैं वैसे- के- वैसे ही लिखे जायँ- ऐसा प्रयास किया गया है ।

महापुरुषों द्वारा बोली गयी प्रामाणिक, आप्तवाणी को लिखने में ईमानदारी पूर्वक सत्यता का ध्यान रखा गया है कि जैसे- जैसे वो बोले हैं , वैसे के वैसे ही लिखा जाय , कुछ फेर- बदल न किया जाय। इससे यह लिखी हुई वाणी अत्यन्त विश्वसनीय और उपयोगी हो गयी है तथा समझने में और भी सुगम हो गयी है । जब भगवान् की बङी भारी कृपा होती है तब महापुरुषों की हू-ब-हू , यथावत् वाणी मिलती है और उससे बङा भारी लाभ होता है ।

जहाँ मारवाड़ी भाषा आदि के कुछ कठिन शब्द और वाक्य आदि आये हैं, उनके कुछ भाव और अर्थ कोष्ठक (ब्रैकेट) में दिये गये हैं। कहीं- कहीं विषय को सरल बनाने के लिये भी कोष्ठक का उपयोग किया गया है। इस प्रकार यह बहुत ही उपयोगी और लाभदायक संग्रह है। 

  सभी सत्संगी सज्जनों से नम्र निवेदन है कि महापुरुषों के सत्संग- प्रवचनों को इसी प्रकार ईमानदारी पूर्वक यथावत् लिखकर या लिखवाकर और भी पुस्तकें छपवावें और इस प्रकार दुनियाँ का तथा अपना वास्तविक हित करें ।

(इसके बाद इसमें कुछ और उपयोगी सामग्री जोङी गई है ) । 

इसमें जो अच्छाइयाँ हैं , वो उन महापुरुषों की है और लेखन आदि में जो त्रुटियाँ है , वो मेरी व्यक्तिगत है । सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाई की तरफ ध्यान देंगे- ऐसी आशा है ।

इस पुस्तक में ये लेख हैं-
1-
नम्र निवेदन ,
2-
अन्तिम प्रवचन ,
3-
सीखने की बात और सरलता से भगवत्प्राप्ति ,
4-
सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता ,
5-
जानने योग्य जानकारी (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के विषय में) ,
6-
सत्संग सामग्री ,
7-
पाँच खण्डों में गीता साधक संजीवनी ,
8-
नित्य स्तुति और सत्संग ,
9-
ग्यारह चातुर्मासों के प्रवचनों की विषय सूची

आदि आदि ।

श्री स्वामीजी महाराज के प्रवचनों को यथावत् लिखकर प्रकाशित की गयी आजतक की यह पहली पुस्तक है ।

इसमें और भी उपयोगी सामग्री है ।
तथा इसके साथ श्रीस्वामीजी महाराज के सन् १९९० से लेकर सन् २००० तक के ग्यारह चातुर्मासों के प्रवचनों की विषय सूची (अंग्रेजी और हिन्दी में ) भी दी गयी है ।

सत्संग- प्रेमी सज्जनों के लिये यह पुस्तक बङे कामकी है । इसका अध्ययन करके अधिक से अधिक लाभ लेना चाहिये और दूसरों को भी बताना चाहिये ।

निवेदक-
डुँगरदास राम

                      श्रीकृष्ण जन्माष्टमी
                   शनिवार, संमत २०७६ 


-  ( इस पुस्तक का पता-) https://drive.google.com/file/d/168AH486VS05kutfemS3YtAAx6Hr50ZGY/view?usp=drivesdk 


सोमवार, 29 जुलाई 2019

सीखने की बात(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

                ।। श्री हरिः ।।
                  ● (पहला प्रवचन- ) ● 
               ■ सीखने की बात ■
  (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज )
{  दिनांक २०|०३|१९८१_ दुपहर २ बजे  खेङापा (जोधपुर) वाले प्रवचन
                                 का 
                       यथावत् लेखन -   } 

(1 मिनिट से) ●•• मनुष्यको एक बिशेष(विशेष) बुद्धि दी है।  निर्वाहकी बुद्धि तो पशु-पक्षियोंको भी है, और वृक्षों में भी है। जिससे अपना जीवन निर्वाह हो ज्याय(जाय), उसके लिये अपणा (अपना) प्रयत्न करणा(करना) , ऐसी बुद्धि तो वृक्ष, लता, घास- इसमें (इनमें) भी है। बेल होती है ना, वहाँ, जिस तरफ उसको जगह मिलती है उधर चढ़ ज्याती(जाती) है ऊपर और बर्षा(वर्षा) बरसे तो घास, पौधे- सब खुश हो ज्याते(जाते) हैं।, गर्मी पड़े और जळ नहीं मिले , तो कुम्हला ज्याते(जाते) हैं। तो अनुकूलता में राजी र प्रतिकूलता में नाराजी(नाराजपना) , उनमें भी है। (2 मिनिट.)  अगर यही हमारे - मनुष्यों में रही, तो मनुष्यों के बुद्धिका क्या उपयोग हुआ ? वो पशु भी कर लेते हैं अपना । घाम तपता है, तावड़ो(घाम) तपे जोरदार। गाय, भेंस, भेड़, बकरी, ऊँट - ये भी छायामें चले जाते हैं , और अच्छी चीज मिलती है तो वो ही खा लेते हैं, बुरी चीज नहीं खाते । उनका भी कोई प्यार करे, आदर करे, तो उनको अच्छा लगता है। उनका तिरस्कार करे, मारे , तो उनको बुरा लगता है। कुत्तेका भी आदर करो तो राजी हो ज्याता है, अर निरादर करो तो उसको गुस्सा आ ज्याता है, काटनेको दौड़ता है। उसके चेहरे पर फर्क पड़ ज्याता है, अगर यही हमारेमें हुआ तो फिर मनुष्यकी बुद्धिका उपयोग क्या हुआ? (3 मिनिट.) मानो मिनखपणों कठे काम आयो ? पशुपणों ही हुयो (मनुष्यपना कहाँ काम आया ? पशुपना ही हुआ)। । मनुष्य भी अपणेको (अपनेको) अच्छा देखणा(देखना) चाहता है कि मेरेको लोग अच्छा मानें। ऐसे हमारे भाई- बहन भी चौखा ओढ़- पहर र(कर) तैयार हो जाय क(कि) मने(मेरेको) लोग अच्छा मानें। तो फिर मनुष्यों में र(और) पशुओं में  क्या फर्क आया(हुआ) भाई ? वो मनुष्यपणा नहीं है। जकेने(जिसको) मानखो कहे, मिनखपणो कहे र(आदि), मिनखपणो नहीं है। मिनखपणो तो तभी है कि जब जीते- जी आणँद(आनन्द) हो ज्याय । जिसमें दुःख का असर ही न पड़े।
युद्धमें जाणेवाळे(जानेवाले) कवच पहना करते थे , बड़ा- बड़ा बखतर लोहेका, जिणसे(जिससे कि)  (4 मिनिट.) उसके चौट न लगे, घाव न लगे। इसी तरहसे हम संसारमें आकर ऐसे रहे(रहें ), जो हमारे , प्रतिकूल- से- प्रतिकूल का भी घाव हमारे लगे ही नहीं । हम ठीक साबत– साबत (बिना किसी टूट- फूटके , जैसे पहले थे वैसे ही) बच जायँ। तब तो है मिनखपणो और चौट लग जाती है तो मिनखपणा कहाँ भाई? मिनखपणा नहीं हुआ और इसी बात को ही वास्तव में सीखणा(सीखना) है, समझणा(समझना) है। मनुष्यके लिये यह, इस बात की बड़ी भारी आवश्यकता है, जरुरत है और मनुष्य ऐसा बण(बन) सकता है, भाई हो, चाहे बहन हो, वे ऐसे बण सकते हैं। हर दम खुश रहें।
पूरे हैं मर्द वही जो हर हाल में खुश है (रहे),
हर समय में प्रसन्न रहे, मौजमें रहे, मस्तीमें रहे, आणँदमें रहें (5 मिनिट.) ऐसे हम और आप - सब बण सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं है। 
बाहरकी घटना मन- सुहावती(मन- सुहाती) हो, चाहे बेसुहावती(बिना मन- सुहाती) हो, ये तो होती रहेगी। बाहर की घटनाओं को ही सुधार ले , अपणे लिये सुखदायी ही सुखदायी हो, ये किसी के हाथ की बात नहीं है ।
भगवान् रामजी अवतार लेकर आते हैं, उनके सामने भी सुखदायी और दुःखदायी घटना आई है। [जब] ये विचार हुआ क(कि) रामजी को राजगद्दी दी ज्यायगी(जायेगी) और राजगद्दीके बदळे(बदले) बनवास(वनवास) हो गया। कितनी बिचित्र(विचित्र) बात। प्रसन्नतां या न गताभिषेकतः (२|२) ( रामचरितमानस मं॰२|२) ,  अभिषेककी बात सुणी(सुनी), राजतिलक की बात सुणी हो[ऽऽ]  तो उनके मुखाम्बुजश्री-  उनके मुखकमल की शोभा & (6 मि.) कोई प्रसन्न नहीं हुई और तथा न मम्ले वनवास दुखतः  और बनवास(वनवास) की बात सुणादी क( सुनादी कि) तुम्हारेको चौदह बरस(वर्ष) तक बन में रहणा(रहना) पड़ेगा। किसी गाँवमें जा नहीं सकते, पैर नहीं रख सकते। चौदह बरस तक किसी गाँव में नहीं जा सकते। ऐसा बनवास हो गया , तो उससे कोई दुःखी नहीं हुए- तथा न मम्ले वनवास दुखतः । मुखाम्बुजश्री,  ऐसी वो जो शोभा है , वो हमारा मङ्गल करे अर(और जो) स्वयं सुखी और दुःखी होता है (वो) हमारे मंगळ क्या करेगा ? वो हमारी सहायता क्या करेगा ? [ जैसे ] हम सुखी- दुःखी होते हैं [ वैसे ]  वो भी सुखी- दुःखी होता है। 
रामायणमें तो बड़ी सुन्दर बात आई है। (7) मन्त्री जब गये हैं रामजी को बुलाणे(बुलाने) के लिये, दशरथजी महाराज बरदान देणेके(वरदान देनेके) लिये , वो तैयार नहीं हुए, कैकेयी ने हठ कर लिया। दशरथजी दुःखी हुए । उस समय मन्त्री गये तो सुबह हो गया , बात क्या है? उठे नहीं भूपति । तो कैकेयी ने कहा क राम को बुला लाओ , उसको सुणाएँगे(सुनाएँगे)।  बुलानेके लिये गये तो वहाँ आया है- 'रघुकुलदीपहि चलेउ लिवाई (लेवाई) ' ,  तो 'रघुकुलदीप' हुआ- दीपक, दीपक की तरह , रघुवँशियों में  दीपक की तरह, उसको(उनको) लेकर चले। 
जब रघुनाथजी महाराज दशरथजी के सामने जाते हैं, वहाँ  देखे हैं (देखा है) , (8) तो गोस्वामीजी कहते हैं-
जाय'(जाइ) दीख रघुबंसमणि(रघुबंसमनि)'
(रामचरितमानस २|३९)
वहाँ  दीपकसे मणि हो गये और जब बनवास की बात सुणाई(सुनाई) तो 'मन  मुसकाय(मुसुकाइ) भानुकुल भानू'    समझे ! , अब सूरज(सूर्य) हो गये। बुलाया जब(तब) तो दीपक था, देखा जब मणि हो गया अर(और) बनवास की बात सुणी(सुनी) तो सूरज हो गये, तो तेज बढ़ गया। मानो बिपरीत(विपरीत) बात सुणणे (सुनने) से तेज बढ़ा है।   मलीन और दुखी तो होवे ही क्या, विपरीत- से- विपरीत बात सुण करके खुश हो रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं।  हाँ,  वो जो 'मुखाम्बुजश्री'  है न,(9) वो हमारा कल्याण करे, हमारेको आणँद देवे (आनन्द दें)- 'सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा' (२|२) ।  तो , क्योंकि उसके (समतायुक्त , मनुष्यपन वाले के) तो मंगळ ही मंगळ है।
मणि होती है उसकी बात सुणी है क उसको शाण (कसौटी वाले पत्थर) पर लगा करके रगड़ते हैं तो वो एकदम चमक उठती है, राजाओंके मुकुट में चढ़ ज्याती है, तो विपरीत अवस्थामें (वो मनुष्य) चमक  उठता है, असली संत होते हैं, महात्मा होते हैं , वो चमक उठते हैं। और ये स्थिति मनुष्यमात्र् प्राप्त कर सकता है। ऐसा बड़ा सुन्दर अवसर मिला है, मौका मिला है।
भाईयों ! बहनों ! यहाँ थोड़ी- सी क चीज मिल ज्याय, थोड़ा- सा शृङ्गार कर लिया - थोड़ा [ कि लोग ] मेरेको चौखा- अच्छा , अच्छा  देखे । महान्  मूर्ख है, महान्  मूर्ख, (१0) महान् मूर्ख। लोग अच्छा देखे र, बुरा देखे, तुम अच्छे बण ज्याओ भीतरसे, श्रेष्ठ बण ज्याओ(बन जाओ) । चाहे लोग बुरा देखे, अच्छा देखे, निन्दा करे, स्तुति करे, आदर करे, निरादर करे , तुम्हारे पर कोई असर न हो।  इतना बखतर पहरा (पहना) हुआ है , ऐसा जो मस्त- ही- मस्त है, आणँद ही आणँद है। ऐसे बण ज्याओ तो मौत में भी दुःखी नहीं होंगे । 
मरणे(मरने) की तो इच्छा नईं(नहीं) और जीणे(जीने) की भी इच्छा नीं(नहीं), भई (भाई !) मैं जी उठूँ- येइ(यह भी) इच्छा नीं और कुछ मिल ज्याय - ये बिलकुल ही भीतरमें भाव नहीं - मेरे को मिल ज्याय। तो जीणे की इच्छा क्यों नहीं होती है कि वो सदा के लिये जी गया, अब मरणा है ई(ही) नहीं । तो मरणे की बात कहाँ हो? मरणे की सम्भावना (11) होती है तब न डरता है ! तो मरेगा कौण? कह, शरीर। अर शरीर के साथ एक हुआ– हुआ है तो वो तो मरेगा भाई ! कितनी वार मरेगा-  इसका पता नहीं है। और मरणे का डर लगता है तब जीने की इच्छा होती है।
संतों ने कहा - 
‘अब हम अमर भये न मरेंगे '  
अब मरेंगे नहीं 
‘राम मरै तो मैं मरूँ नहिं तो मरे बलाय ।
अबिनासी रा (का) बालका र मरे न मारा जाय’।।, 
अर इसकी प्राप्ति में सब स्वतन्त्र हैं, पर धन मिल ज्याय क, मान मिल ज्याय क, सुन्दर शरीर मिल ज्याय क, भोग मिल ज्याय क, रुपये मिल ज्याय- इसमें(इनमें) कोई स्वतन्त्र नहीं है। रामजी भी स्वतन्त्र नहीं है क राज मिल ज्याय । (हल्की हँसी) कोई स्वतन्त्र नहीं और मौज में सब स्वतन्त्र है, और उसमें जितना आणँद है, (12) [ उतना ] उन पराई चीजसे सुखी होणे वाळा कभी सुखी हो नहीं सकता क्यों(कि)
  'पराधीन सुपनेहुँ(सपनेहुँ) सुख नाहीं' ।। '
(रामचरितमानस १|१०२|५)।
धन के अधीन हुआ तो पराधीन हो गया, राज्य मिला तो पराधीन हो गया, पराधीनको सुख नहीं। सदा स्वतन्त्र हो ज्याय । किसी बात की पराधीनता न रहे । उस स्वतन्त्रता का अर्थ यह नहीं क उच्छृङ्खल हो ज्याय (और) मन मानें ज्यूँ(ज्यों) करे। उद्दण्डता करे- ये अर्थ नहीं है। अपणे सुख के लिये, अपणे आराम के लिये, अपणे आणँद के लिये, कभी किसी चीज की गरज(गर्ज़) किंचित् मात्र् रहे ही नहीं,  भीतरसे  खाता ही उठ ज्याय। 
सज्जनों ! मैं बात तो कहता हूँ, आप लोग कृपा करें, मेरी बात की तरफ ध्यान दें। ऐसे हम बण सकते हैं, ऐसा बड़ा भारी लाभ हम ले सकते हैं, बिलकुल ले सकते हैं, अर बड़ी सुगमता से ले सकते हैं। (13) ऐसा धन हम इकट्ठा कर सकते हैं, जिसमें सदा तृप्ति रहे, मौज ही मौज रहे। मृत्युके समयमें भी दुःखी न होवें । कबीर साहब ने कहा है-
सब जग डरपे मरणसे अर मेरे मरण आणँद ।
कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द।। 
दुनियाँमात्र् मरणे से डरती है, हमारे तो मरणे में आणँद है। यहाँ से मरे तो बहुत ही आणँद ही में- आणँद में जायेंगे डर किस बात का , मौज है यहाँ ।  डरता वही है जो शरीर के आधीन हो गया- शरीरको 'मैं' अथवा 'मेरा' मानता है , अपणेको शरीर मानणा अथवा शरीरको अपणा मानणा। अपणेको शरीर मानणा हुआ 'मैं- पन' -- 'अहंता' (14) और शरीरको अपणा मानणा हुआ 'ममता' । तो 'मैं' 'यह हूँ' र ये 'मेरा है'- ऐसा बिचार रखणे(रखने) वाला तो मरेगा र डरेगा , संसार का कोई दुःख ऐसा है नहीं जो शरीरको 'मैं' और 'मेरा' मानणे वाळे को न मिले। ऐसा 'दुःख' है ई(ही) नीं(नहीं)। कोई ऐसा 'दुःख' नहीं है जो उसको न मिले। सब तरह का 'दुःख' मिलेगा और मिलेगा अर मिलता ही जायेगा, जब तक 'मैं' और 'मेरा' मानेगा तब तक मिलता जायेगा 'दुःख' - 
मैं मेरे की जेवड़ी गळ बँधियो संसार।
दास कबीरा क्यों  बँधे जिसके राम आधार।। 
उसका शरीर आधार नहीं है, उसके रामजी आधार है, तो कबीरजी कहते हैं- हमारेको किसका भय भाई? ये 'मैं' - 'मेरे' की जेवङी बँधी है ना-  गळ बँधियो संसार।  संसार एक गळेमें फाँसी है - 'मैं' - 'मेरे' की। सच्ची पूछो तो (15) बात ये है, कह, मनुष्य 'मैं' और 'मेरा' - ये मिटा सकता है। 'मैं' और 'मेरे' को बढ़ा ले पूरा [ ये ] किसी के हाथ में नईं(नहीं) । कितना ही ऊँचा 'मैं' बण ज्यायगा तो उससे ऊँचा और रह ज्यायगा कोई , बाकी और ऊँचा रह ज्यायगा , और ऊँचा रह ज्यायगा । और सर्वोपरि हो ज्यायगा । दुनियाँमात्र् में,  कहीं भी उससे बड़ा नहीं रहा है तो एक होगा। दो तो  हो इ नईं सकते। दोनों बराबर हो जायेगें, 'सबसे बड़े' कैसे होगा? अर वो(जो) , सबसे बड़ा होगा  सबसे अधिक भयभीत होगा वो ; क्योंकि सबके ऊपर आधिपत्य करता है तो आधिपत्य करणे वालेको सुख नहीं मिलता है। ये बहम है।  एक मिनिस्टर बणता है क मैं मालिक हूँ। वो मालिक नहीं , दुनियाँ का गुलाम है, गुलाम, गुलाम। अपणे को बड़ा मानता है, है दुनियाँ के आधीन। [ दुनियाँ ] सबकी सब बदल जाय तो जय रामजी री(जय रामजी की) , कुछ नहीं। बोट(वोट) नहीं दे तो? (16) क्या दशा हो? पराधीन है पराधीन। संतो ने इस पट्टे को बढ़िया नहीं (बताया) है,
राम पट्टा है रामदास, दिन– दिन दूणा थाय। 
पट्टा तो भई ! ये है जो
राम पट्टा है राम . दिन दिन दूणा थाय।। 
तो पट्टा मिल ज्याय तो दूणा(दूना)- ही- दूणा बढ़े, कभी घाटा पङे ही नहीं । अर वो पट्टा सब को मिल ज्याय । एक- एक सर्वोपरि होजायेंगे, सब के सब सर्वोपरि हो जायेंगे और किसी को ही दखल नहीं होगी, किसी के भी दूखेगा नहीं। जिनको मिल गया वे भी राजी अर जिसको(जिनको) नहीं मिला वे भी राजी अर मिलना(पाना) चाहते हैं , वे भी राजी हैं । सब- के- सब प्रसन्न हो ज्याय । ऐसी बात है, अर सीधी बात है भाई। सीधी, सरल बात - कह, 
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम ।।  
आप कई तरह का(के) उद्योग करते हो, कई तरह का मनोरथ करते हो, कई तरह का संग्रह करते हो, (17) जो कि अपणे हाथ की बात नहीं है । बिद्वान (विद्वान) बण्णा हाथकी (बात) नाहीं(नहीं), धनवान बनना हाथकी बात नहीं, मान पा ज्याणा हाथकी बात नहीं, सब लोग प्रशंसा करे, हाथकी बात नहीं, राम राम राम राम करे जणा(तब) पराधीन की बात ही नहीं, इनमें क्या पराधीन है भाई? हरदम राम राम करे।  जबानसे नहीं हो तो भीतर- भीतर से करे।  अर शक्ति नहीं (है) तो पड़ा- पड़ा ही , भगवान् के चरणों में पड़ा हूँ (ऐसा मानले)। केवल इतनीज (इतनी- सी) बात ।
  मैं दुनियाँ में पड़ा हूँ , दुनियाँ में क्यों पड़ा [ है ] रे ? भगवान् के चरणों में हूँ [ - ऐसा मान ] ' सर्वतःपाणिपादं तत् ' (गीता १३|१३)    - भगवान् के सब जगह चरण है । तो जहाँ आप पड़े हो, हम पड़े हैं, वहाँ  चरण नहीं है क्या भगवान् के?  नहीं तो 'सर्वतःपाणिपादम् '  कैसे कहा? सब जगह भगवान् के चरण हैं, तो हम भगवान् के चरणों में पड़े हैं, हमारेको क्या भय है? क्या चिन्ता है? 
धिन शरणों महाराजको निशदिन करिये मौज। (18) 
तो भगवान् रो शरणो है (भगवान् का आधार है)।
निशदिन करिये मौज  (ज्यूँ - वैसे ही)
संतदास संसार सुख दई दिखावे नौज (नहीं ) ।। 
ऐसा है हो ऽऽ ! -  दई(भगवान्) कभी सुख न दिखावे  , संसारका सुख न दिखावे, कृपा करे भगवान्। कह, 'सुख के माथै सिल पङो'।  ये नहीं दिखावे ।
अब संत तो आ(यह) बात कैवे(कहते हैं) र आपाँ चावाँ(अपने चाहते हैं) क(कि) - सुख मिले।
जो बिषिया संतन तजी, ताही नर लिपटाय।
ज्यौं नर डारे वमनको र स्वान स्वाद सौं खाय ।। 
उल्टी(वमन) हो जाती है न , उल्टी होती है तब अपणी भाषामें  - 'जी दोरो ह्वे है' कह (कहते हैं)  (जीव- अन्दर से दुखी हो रहा है)  जी दोरो ह्वे जणा उल्टी ह्वे है क। , जी दोरो ह्वे जणा उल्टी ह्वे है न ! कोई सोरे में ह्वे है?  (अन्दर से दुखी होता है तब उल्टी होती है न , कोई सुखी रहने में होती है ? )  जी दोरो ह्वे जब(तब) उल्टी ह्वे,(19) उल्टी हू ज्याय जणा सोरो हू ज्याय (जीव- अन्दर से दुखी होता है तब उल्टी होती है और जब उल्टी हो जाय , तब सुखी हो जाता है)  , ठीक, साफ उल्टी हो ज्याय, तो जी सोरो हू ज्याय। तो संताँ(संतों) ने उल्टी करदी- संसारको छोड़ दिया, भोग छोड़ दिया, तो उल्टी हो गयी। उल्टी कैसे है?  कह, सुल्टी तो खाणे- खाणे(खाने- खाने) में है , वह (छोङना) तो उल्टी ही है। लोग खाणो चावे र, वेरे लिये वो उल्टी  {लोग खाना चाहते हैं आदि और उन (संतों) के लिये वो विषय आदि  है उल्टी}  , लोग विषय भोगणो चावे (भोगना चाहते हैं) , संसार चावे (संसार को चाहते हैं) , मिल ज्याय रुपया पैसा र मान र  सत्कार, भोग मिल ज्याय । अर संतों के वो हुई उल्टी । 
उल्टी हो जाणेपर कुल्ला भी करें तो और ज्यादा [उल्टी की सम्भावना ] , मक्खियाँ भिणके (भिनके ) र नाक र (आदि)  देखेंगे तो और उल्टी हो ज्यायगी, इस वास्ते (इसलिये) उसकी तरफ देखते ही नहीं, अर कुत्ते लड़ते हैं - वो तो कह , मैं खाऊँ, वो कहते- मैं खाऊँ । 'स्वान स्वाद सौं खाय '   ( हँसते हुए [- समझे? ] ) एक- एक लड़कर खाते हैं। ऐसे (20) लोग संसार के भोगोंके लिये, रुपयों के लिये र  पदार्थोंके लिये, मान के लिये, बडाई के लिये लड़ते हैं कि मेरेको मिल ज्याय , वो कहता- मेरेको मिल ज्याय, वो कहते- मेरेको मिल ज्याय, तो कुत्ते से भी नीची दशा है भई, समझदार होकर ऐसा करे। कुत्ता बिचारा बेसमझ और अपणे समझते हैं। 
  अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नाति पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ।।
(भर्तृहरिवैराग्यशतक)। (गीता साधक- संजीवनी 11/29)।  
 
 
मूढ़ता , हद हो गयी।
अजानन् दाहार्तिं पतति शलभस्तीव्र॰
(अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने )
, पतंगा जाणता नहीं कि मैं जळ(जल) ज्याऊँगा , ऐसा जाणता नहीं है र आग में पड़ ज्याता है अर मर ज्याता है बिचारा । ये कीट , पतंग, मछली भी जाणती नहीं, (21) वो टुकड़ा है, जो काँटा है, वो (उसको) निगळ जाती है अर मर ज्याती है बिचारी(बेचारी)। वे तो जाणते नहीं - अजानन् दाहार्तिं, न मीनोऽपि अज्ञात्वा ।  मछली को पता नहीं और हम कैसे (हैं) क विजानन्तः -  बिशेषतासे जाणते हैं, ठीक- ठीक जाणते हैं, भोग भोगकरके देखा है, कई वार उथल- पुथल करके देखा है अर उससे ग्लानि हुई है, मन(में) पश्चात्ताप  हुआ है, दुःख पाया है। विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्   हम लोग ठीक तरहसे जाणते हुए विपत्तियों के जाल से जटिल , ऐसे भोगोंका , हम त्याग नहीं करते हैं। अहह गहनो मोह -  मूढ़ता की हद्द(हद) हो गयी। इस मूढ़ता को छोड़ दो भाई । ये ई तो काम है। सत्संग में आणा- करणा(आना- करना) , इसका अर्थ यही कि मूढ़ता को छोङदें। असली धन ले करके जावें (जायें) । वो धन क्या काम का जो अठे(यहीं) ही रह ज्याय र हम मर ज्यावें(जायँ) बीचमें ही ! ऐसा धन कमावें(कमायें) (22) जको(जो) मौज में , साथ में ही जाय, संतों का धन साथ रहता है सदा। ऐसा धन कमाया जको सदा ही साथमें रहे, कभी बिछुड़े ही नहीं, वो धन लेणेके (लेनेके) लिये हम लोग आये हैं। सच्चे ग्राहक बण ज्यायँ , केवल चाहना हमारी हो , उससे मिलते हैं भगवान्। 
परमात्मा चाहना मात्र् से मिलते हैं ; पण चाहना होणी चहिए (होनी चाहिये) एक ही, दूजी(दूसरी) नहीं । 
एक बाण(बानि)  करुणा(करुना)निधान की। सो प्रिय जाके गति न आन की ।। 
  (रामचरितमानस ३|१०|८)।
  और का सहारा न हो, वो उसको मिलता है क्योंकि और(दूसरा) सहारा रहणेसे उसका मन उस, और की तरफ चला जाता है, इस वास्ते वो(परमात्मा) मिलता नहीं । और (दूसरी) चाहना न होणे से एक चाहना होती है भगवान् की, तो भगवान् एकही है तो चाहना एक ही है बस, फेर(फिर) मिल ज्यायगा, खट मिल ज्यायगा । फेर देरी का काम नहीं। और (23) चाहना नहीं, चीज भले ई आपके पास रहो, शरीर आपके पास रहो, ऊमर रहे, पदार्थ रहे, परन्तु चाहना न रहे।
चाह चूहङी रामदास सब नीचोंसे नीच ।
तू तो केवल ब्रह्म था ये चाह न होती बीच ।।
  ये अगर तेरे पास नहीं होती तो तुम तो केवल ब्रह्म हो । इस चाहना के कारण से भाई ! ये दशा है अर बड़ी निन्दा होगी, बड़ा तिरस्कार होगा, बड़ा अपमान होगा, बड़ा दुःख होगा और मिलेगा कुछ नहीं भाई। अपणी सीधी भाषा में - कोरो माजणो गमावणो है (केवल इज्जत गमाना- खोना है) और कुछ नहीं । मिलणो- मिलणो कुछ नहीं है, माजणो खोवणो(खोना) है । तो माजणो खोवणने  आया हा क्या? (तो इज्जत खोने के लिये आये थे क्या?) मनुष्य बण्या(बने) हो, कि...(और) रामजी कृपा करी(की) है तो ऐड़ी(ऐसी) बेइज्जती करावण ने आया हाँ ?(करवाने के लिये आये हैं?) बड़ी भारी बेइज्जती, मिनख बणकरके र फेर(मनुष्य बन करके और फिर) भी सदा दुःखी(ही) रहे,  (24 बडी गलती (है)। 
महान् सुख की बात है ये -
मैं तो प्रार्थना करता हूँ भाईयोंसे, बहनों(से) और हमारे आदरणीय साधु समाजसे कि आप थोड़ा(थोङी) कृपा करें, हम लोग मिल करके बातें करें, क भई ऐसा हो सकता है क्या? अरे ऐसा ही हो सकता है । संसार का धन र विद्या र मान र बड़ाई-  ये मिल ज्याय हाथकी बात नहीं है। इसमें कोई स्वाधीन नहीं है और इसकी प्राप्तिमें कोई पराधीन नहीं है। आप कृपा करें, थोड़ी सी कृपा करें। मैं आपको धोखा नहीं देता हूँ। आपको ललचाता हूँ , कोई विपरीत- मार्ग में ले जाता हूँ, ठगाई करता हूँ, ऐसी बात, नियत हमारा(हमारी) नहीं है, (25) आपको महान् आणँद मिले(-ऐसी नियत है हमारी) और संत- महात्माओं ने कहा है वो बात कहणा चाहता हूँ, उस तरफ भी ले जाणा चाहता हूँ। तो सब संत कृपा करें और इकट्ठे होकर के इसका बिचार करें, बहुत लाभ की बात है, बहुत लाभ की बात है, बहुत ही लाभकी बात है। तो ये प्रार्थना है।
मैं साधु समाज में रह चूका हूँ । बच्चा था तबसे अभीतक इस साधूवेष में हूँ, तो मैंने देखी है , बहुत बातें देखी। अपणी मारवाड़ी भाषामें कह न- (कहते हैं न-) 'ऊँनी - ठण्डी के ई देखी (है)'  (गर्म - ठण्डी कई देखी है) अच्छी- भूण्डी(बुरी) केई(कई) बातें देखी है, तो मैं भुगत- भोगी(भुक्तभोगी) हूँ। 
आदमी एक तो सीख्योड़ो ह्वे(सीखा हुआ होता) है र एक भोग्योड़ो ह्वे(भोगा हुआ होता) है, इणमें,  दोनों  में बड़ा फर्क है । सीख्योड़ो तो भूल ज्याय पण भोग्योड़ो भूले कोनी (सीखा हुआ तो भूल जाता है पर भोगा हुआ भूलता नहीं) । (26) कहावत है क नीं(है कि नहीं) ! --
'दोरो कूट्योङो र सोरो जिमायौङो भूले कोनी' ,  याद रेवै। (बहुत दुखी करते हुए पीटा हुआ और बहुत सुखी करते हुए भोजन कराया हुआ - भूलता नहीं  , याद रहता है)
(तो) मनें(मेरेको) बातें याद है, मेरे(को) बोहोत बरस हुआ है(हुए हैं), इस बेष(वेष) में आये हुए, होश में आये हुए, समझ में आये हुए, और मैं भाई ! देखी है बातें। मैं हाथ जोड़के(जोङकर) कहता हूँ कि मेरी देखी हुई बातें है, 'ए पापङ पोयौङा है म्हारा' । (ये पापङ बेले हुए हैं मेरे) । देख्योड़ी ई(देखी हुई ही) बात है। नमूना देखा है सब, तरह–तरह का देखा। 
मेरे मन में आती है कि मैं भटका कई जगह और मैं [ जो ] चाहता था वो चीज नहीं मिली, जब(तब) भटकता रहा। उसके लिये मैंने गृहस्थोंका र साधुओंका कोई बिचार ई(ही) नहीं किया, कह, साधुके पास मिल ज्याय  कि, गृहस्थी के ई पास मिल ज्याय, कठे ही(कहीं भी) मिल ज्याय ।  भूख लगती है, भिक्षा माँगता है (27) तो कठे ही मिल ज्याय , ऐसी मन में रही और उससे लाभ हुआ है भाई।
और मेरे एक मन में आती है , आप क्षमा कर देंगे, मैं अभिमान से नहीं कहता हूँ । बहुत सुगमता से वो मार्ग मिल ज्याय हमारे को, बहुत सरलता से बड़ी भारी उन्नति हो ज्याय और थोड़े दिनों में हो सकती है, महिनों में , बरसों में हो ज्याय  और बिलकुल हो ज्याय- इसमें सन्देह नहीं। केवल इसकी चाहना आप जाग्रत करें और आप पूछें और वैसे ही चलें। थोड़ा(थोङे) दिन, पहले तो भई सहणा(सहना) भी पड़ता है, कष्ट भी सहणा पड़ता है। परन्तु कष्ट वो कष्ट नहीं होता । जब अगाड़ी चीज मिलने वाली होती है न , तो वो कष्ट कष्टदायी नहीं होता, दुखदायी नहीं होता । ऐसे आप लोग लग ज्यायँ तो बड़ी कृपा मानूँगा आपकी, बहुत बड़ी कृपा।  (28) एक, मेरे एक शौक लगी है , एक , भीतरमें है ऐसी एक, उसको जलन कहदें तो ई (तो भी)  कोई आश्चर्यकी [बात] ना(नहीं) है पण जलन है नहीं वैसी। जैसी जलन जलाती है, ऐसी नहीं जलाती है, पण जलन है । आप लोग कृपा करके मेरी बात मानें, सुणें, उस पर बिचार करें, उसको समझणे(समझने) का उद्योग करें, चेष्टा करें, शंका करें, मेरेसे पूछें,  अर मेरेसे ही क्यों ,  संतों की बाणी पढ़े(पढें) , संत- महात्माओं की बात है न , उनको देखे(देखें) , पढें,  सुणें, समझें  और जो समझणे वाले हैं उनसे आपस में बात करे (करें) । तो बोहोत(बहुत) बड़े लाभ की बात है । नहीं तो समय आज दिन का गया , वैसे और रहा हुआ समय भी हाथों से निकल ज्यायगा । और फेर कुछ नहीं। आज दिनतक का समय चला गया ऐसे ये चला जायगा और ले लो तो बड़ा भारी लाभ (29) ले लोगे, हो जायेगा लाभ- इसमें सन्देह नहीं, किंचित् मात्र् भी सन्देह नहीं। अब इसमें कोई शंका हो तो बोलो आप।
भगवान् के नाम का जप है सीधा, सरल। 
सुमित सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाह(लाहु) परलोक निबाहू ।। 
(रामचरितमानस १|२०|२)।
लोक र परलोक, दोनों में ईं(ही) काम ठीक हो ज्याय, 
वो ही राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम [ है यह ] ।
श्रीजी महाराज, श्रीरामदासजी महाराज को देषनिकाळा हुआ, देश निकाळा। जोधपुरसे हुक्म हो गया क हमारे देश (खेङापा गाँव) में मत रहो। आप बाहर, देवळों  के सामने है नीं(न) खेजड़ी, उसके नीचे दातुन कर रहे थे, (तो) हुकम आ गया। वहाँ से ही चल दिया(दिये) और कहा भई ! हमारे गुरु- महाराज की बाणी(वाणी) का गुटका(पुस्तक) और छड़ी, ये लियाओ (ले आओ) । (30) भीतर आकर नहीं देखा , बाहर ही । आ ज्याओ(जाओ) , राज का हुकम हो गया। चीज- बस्तु भण्डार भरे , है जैसे- के- जैसे छोड़के(छोङकर) , वहाँ से ही चल दिये। [ पीछे ] इस राज में बड़ी आफत आई, दुःख हुआ। [ उन संतों को ] बीकानेर दरबार ने बुला लिया, द्यालजी (दयालजी) महाराज भी साथ में ईं थे। तो लोगों ने [ जोधपुर दरबार से ] कहा - कह , तुमने साधुओं को तंग किया, दुःख दिया , तो अब सुख कैसे होगा? दुःख पाओगे तो उनको बुलाओ। यहाँ से बुलावा भेजा । तो सुणते हैं (सुना है) कि [ रामदास जी महाराज के पुत्र ] द्याल- महाराज ने पत्र लिखा क जिस अवगुण(भजन) के कारण से हम निकाले गये वो अवगुण बढ़ा है, घटा नहीं है। हम राम राम करते थे न, तो वो धन तो बढ़ा ही है घटा थोड़े ही है। जिस कारणसे आप(आपने) इस तरह   निकाळा है न , वो हमारा अवगुण कि  (31) कुछ भी मानलो उसको आप , ऐब मानो , औगुण(अवगुण) मानो, खराबी मानो, वो हमारी तो बढ़ी है। अब क्यों बुलाते हो? क्या , अब शुद्ध हो गये क्या हम?  (हँसते हुए बोल रहे हैं ) दयालजी महाराज थे वे, दयालजीके भी गुरुजी (श्री रामदासजी महाराज) और दयालु थे महाराज ,
उन्होंने केह्यो(कहा)  कि बुलावे(बुलाते हैं) तो चलो भाई । (हँसत हुए बोल रहे हैं- ) समझे ?
  अब तो यूँ थोङी ही है , अब कहे तो यूँ ही सही
[ 'देश निकाला' देने वाली गलती को लेकर अङे नहीं रहे कि अब हम वापस नहीं आयेंगे , दया करके 'बुलावे' वाली बात भी मानली ]
अर पधार गये, वो ऐसा पट्टा है महाराज, देश निकाळा देणे(देने) पर भी अपणा(अपना)  तो बढ़े- 'दिन दिन दूणा थाय', । 
  नारायण, नारायण, राऽऽम राऽऽम राऽम  ।। 
रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(पीछे बोलते लोग- रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम (32) राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।) (33) 
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम (34)  सीताराम ।। )
सियावर  रामचन्द्रकी जय,
मोरमुकुट बँशीवाले की (जय) । 
{  दिनांक २०|०३|१९८१_ दुपहर २ बजे  खेङापा (जोधपुर) वाले प्रवचन
                                 का 
                       यथावत् लेखन -   }
लेखनकर्ता- डुँगरदास राम आदि
●● ●     ■><■     ●●●
             
http://dungrdasram.blogspot.com/2019/07/blog-post_29.html

सरलता से भगवत्प्राप्ति(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ) ।

               ।।श्री हरिः ।।

सरलता से भगवत्प्राप्ति (-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

           
              ● [ दूसरा प्रवचन ] ●

■ सरलता से भगवत्प्राप्ति ■

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज

( दिनांक २०|०३|१९८१_१४०० बजे  खेङापा
का यथावत् लेखन  , आगे का भाग - )
      (34 मिनिट से आगे...)    रा ऽम  रा ऽम  रा ऽम । 

नारायण नारायण नारायण नारायण।

(तो) भाई- बहन अपणे कल्याणके लिये आये हैं, पारमार्थिक बातें सुनने के लिये आये हैं, उनसे मेरी एक नम्र निवेदना (विनती,नम्र निवेदन) है , उणसे कहणा है, अर्ज करणा(करना) है कि सरळता से काम लें। सीधे, सरळ होकर उस परमात्माकी तरफ चलें, तो बहुत सुगमता से (35 मिनिट.) कल्याण हो ज्याता है। हम जो अपने ब्यक्तिगत(व्यक्तिगत) सुख चाहते हैं न, मानो मेरे को सुख मिले, मेरी उन्नति हो ज्याय   , मैं बड़ा हो ज्याऊँ । ये बात दीखणे में तो अच्छी दीखती है, परन्तु बोहोत बड़ी बाधा होती है [ इससे ] । लोकमें और परलोकमें वो अपणा लाभ ले ले - ये बात नहीं है , नुकसाण(नुकसान) उठाता है [ वो ]। ऐसे मैं भावों को देखता हूँ, आचरणोंको देखता हूँ, तो मेरा बश(वश) तो नहीं चलता है पर(न्तु) दुःख होता है। भई ! क्या दशा होगी? ब्यवहार(व्यवहार) में ,परमार्थ में - सब जगह ही। इस वास्ते हम सरळता का अगर आश्रय लें, सीधे - सरळ हो ज्याय(जायँ) , तो बहुत सुगमता से हमारा कल्याण हो ज्याय । (36 मिनिट.) 

बोलो मत भाई ! थोड़ी देर है कोई ज्यादा देर नहीं है । आप थोड़े चुप रहें तो बड़ा अच्छा रहेगा, बातें अच्छी पैदा होगी , अच्छी बात कहूँगा  और आप बातें करते रहेंगे तो भी मैं तो मेरी बातें कह दूँगा ;  परन्तु बढ़िया बातें पैदा नहीं होगी । वो  मेरे हाथ की बात नहीं है। मैं मेरे मन में कपट रखणे का तो विचार रखता ही नहीं हूँ, क्योंकि सरळता है वो कल्याण करणे वाळी है । इस वास्ते सीधी , सरळ बात मैं कहता हूँ। आपलोग कृपा करके थोड़े चुप रहकर के ध्यान दें।

मेरे मन में बिचार आ रहे हैं तरह–तरह के ।  मैं देखता हूँ उन भाईयोंको, बहनोंको, (37 मिनिट.) जिसमें भी भाई लोग , गृहस्थ भाई हैं वे और जो हमारे आदरणीय संत हैं वे। वो ठीक मर्यादा से बैठणा- ऊठणा करे तो भी बड़ा अच्छा रहे । बैठणे(बैठने) में , मैं साधुओं की जगह गृहस्थियों  को देखता हूँ, अर वो भी बेढ़ंग से बैठे हुए । हमारे को दुःख होता है और हमारा बश तो चलता नहीं। मेरे हाथ की तो बात है नहीं, परन्तु वो  मर्यादा- विरुद्ध काम करते हैं वो अच्छा नहीं है। उणके(उनके) लिये भला नहीं है, इस बात को लेकर के दुःख है। सीधे , सरळ होकर , बड़ी नम्रता से काम में लें , तो हमारा ये जो धाम है, ये कल्याण करणे वाला है , यहाँ संत- महापुरुषों ने भजन किया है,(38 मिनिट.) भगवान् की तरफ सच्चे हृदयसे चले हैं,  तब उनका प्रभाव बढ़ा है ।

वैसे ही अगर हम सरळ  हो करके भगवान के केवल पीपासु  हो ज्यायँ - जिज्ञासु । , मानो भगवान् को हम जाण्णा(जानना)  चाहते हैं। भगवान् की तरफ हम चलें । हमारा कल्याण हो , लोक में , परलोक में , सब तरह हमारे को सुख हो, दुःख कभी न हो। ऐसा अगर बिचार है तो भई ! मर्यादा सहित , बड़ी सरळता से भगवान् की तरफ चलें । इसमें बड़ा लाभ होगा। 

भगवान् के नाम के जप का बड़ा माहात्म्य है । उसकी बोहोत बड़ी , भारी महिमा है । पण वो महिमा प्राप्त होगी सरळता से नाम लेणे से। आप परीक्षा की दृष्टि से देखेंगे , तो भगवन्नाम -महाराज उतना लाभ आपको देंगे नहीं,(39 मि.) क्यों क(क्योंकि) आपके लेणेकी उत्कट- अभिलाषा नहीं है।

भगवान् रामजी ने अवतार लिया तो रावण ने परीक्षा करणा(करना) चाहा कि वास्तव में साधरण मनुष्य है क(कि) अवतार है, तो मायाका मृग बणाया(बनाया) । बणावटी(बनावटी-) हरिण बणाकर(बनाकर) और भेजा मारीच को कि ये पहिचाणते(पहचानते) हैं क  नहीं ? तो भगवान् उसके पीछे दौड़े। रावण ने समझ लिया कि [ इनमें  ]  अकल(समझ) नहीं है । तो रावण से भगवान् को सार्टिफिकट(सर्टिफ़िकेट) लेणा नहीं था। रावणका सार्टिफिकट चलता, वो पास कर देता, तब तो लोग मानते अर वो पास नहीं करणे से लोग नहीं मानते - ऐसी कोई रेखा ही नहीं थी रामजी के भीतर।(40) इस वास्ते बड़ी सरळता से , उस मृग के पीछे ,  पीछे- पीछे चले गये। तो ऐसे ही नाम- महाराज की आप परीक्षा लोगे , तो नाम- महाराज फैल हो जायेंगे, पास नहीं होंगे । आपसे नाम- महाराजको गरज नहीं है कि आप पास कर देंगे तो वे ठीक रहेंगे,  नहीं तो फैल हो जायेंगे तो उनकी कोई बेइज्जती हो जायेगी । वहाँ बेइज्जती - इज्जत  की बात ही नहीं है । वे तो सबका कल्याण करणे के लिये कलियुग में विशेष अवतार लिये हैं। 
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि बिशेष (बिसेषि) नहिं आन उपाऊ ।। 

(रामचरितमानस १|२२|८) । 

चारों ही जुगों(युगों) में , चारों ही बेदों(वेदों) में नाम का बड़ा प्रभाव है ; परन्तु कळजुग(कलियुग) में नाम का प्रभाव बिशेष है ।  क्यों ? दूसरे जितनेक साधन है (41) उन साधनों में जो शक्ति है वो सब - की- सब शक्ति नाम- महाराजमें आ गयी। बंगाल में चैतन्यमहाप्रभु हुए हैं । उन्होंने ऐसा ही कहा है- 

नाम्नामकारि  बहुधा निज सर्वशक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न  कालः ।। 

नाम में सब शक्ति दे दी भगवान् ने, कलियुग आते ही , ये सीदे(सीधे)- सादे आदमी होंगे । बिशेष साधना कर नहीं सकेंगे । तो केवल नाम- महाराज का सहारा ले ले , राम राम राम राम राम - ऐसे, तो उसका(उनका) कल्याण हो ज्याय । इस वास्ते भगवान् ने नाम महाराज में अपार शक्ति रख दी और स्मरण करणे के लिये कोई समय- बिशेष नहीं बाँधा कि अमुक बगत (वक्त) में ऐसे– ऐसे किया जाय तो फायदा होगा, नहीं तो नहीं होगा - ऐसी बात नहीं (है)।  ऐसी भगवान् की कृपा । और मैं समझता (42) नहीं हूँ, आ भी (यह भी) बड़ी नम्रता प्रकट की है । चैतन्य महाप्रभु , बड़े महापुरुष हुए हैं। ऐसे संतों ने अपणी बात कही है । तो भाईयों से , बहनों से मेरा कहणा है कि आप हर समय
राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम -
ये रटते रहें, -

रसना से रटबो करे आठूँ पैहर (पहर) अभंग।
रामदास उस संत का राम न छाँडे संग।।

जो आठों पहर अभंग रूपसे , बीचमें कोई बाधा न देकर के नाम जपता रहे, तो वो भाई हो , चाहे बहन हो, गृहस्थ- आश्रम में  हो, चाहे साधु- आश्रम में हो, वो संत है अर उसके साथ राम जी रहेंगे। हर दम भगवान् के नाम को जपता रहे। तो भगवान् के नाम का जप बड़ा , बड़ा (43) सीधा , सरळ उपाय है, परन्तु भई ! जितना हृदय सरळ रखोगे उतना लाभ बहोत , बिशेष होगा। रामायण में प्रसंग आता है  क - 

सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ।।

(रामचरितमानस ७|४६|२)।

स्वभाव सरळ हो , मन में कोई कुटिलता नहीं। जैसा मिल जाय , उसमें संतोष है और

मोर दास कहाइ नर आसा । (करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा) ।।  
(७|४६|३) ।

भगवान् का दास कहा कर ...[ कुछ रिकार्डिंग कट गई ] ( मनुष्य की आशा करे तो  उसका क्या विश्वास है ? )  । (श्री तुलसीदास जी महाराज ने) भगवान् के मुखसे कहलाया है

बहुत कहउँ का कथा बढाई । एहि आचरण(आचरन) बस्य मैं भाई ।।

(७|४६|४) । 

बोहोत बात कहकर कथा क्या बढ़ाऊँ , ऐसा सरळ रस्ता है - बिचार,  उसके मैं बस(वश) में हो ज्याता हूँ। भगवान् बस में हो ज्याते(जाते) हैं । (44) चतुराइयों से आप दूसरों को बस में करणा चाहें तो होंगे नहीं र होकर के भी निहाल कुछ करेंगे नहीं। सिवाय बाधाके और कोई फायदा निकळेगा नहीं , अर सीधे , सरळ  होकर भगवान् की तरफ ही चलें, तो भगवान् बहुत बड़ी कृपा करें और बस में हो ज्याय। अर उसके होणे पर क्या बाकी रह ज्यायगा - कोऽसौऽस्यावशिष्यते ?  सब तरह से पूर्ण हो जायेंगे ।

(तो) भाईयों से, बहनों से, संतों से - सबसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ क मन की कुटिलता को छोड़कर , सरलता से भगवान् के चरणोंमें लग ज्याय -

कपट गाँठ मन में नहीं सबसें सरल सुभाय ।
नारायण ता भगत की लगी किनारे नाव ।। ।

सीधे, सरल होकर भगवान् में लग ज्याय , (45) उसकी नौका किनारे लग गयी, उसका उद्धार हो गया । कितनी सीधी बात है। चालाकी रखणे से, चतुराई करणे से, अपणे को भी तकलीफ पड़ती है, निगाह रखणी पड़ती है, और बाधा हो ज्याती है , बड़ी भारी हानि हो ज्याती है। सीधा , सरळ अन्तःकरण रख करके और भगवान् की तरफ चलें , तो कितना बड़ा फायदा हो ज्याय  । स्वाभाविक ही हो ज्याय ।

पारमार्थिक फायदा बहुत चौड़े पड़ा हुआ है। हम देखते हैं तो हम अपणे शरीर के लिये अन्नको आधार मानते हैं और है भी, अन्न के बिना जी नहीं सकते ; पण अन्नसे भी ज्यादे(ज्यादा) जरुरत (46) जळ की है। अन्न बिना केई(कई) दिन रह सकते हैं परन्तु जळ के बिना नहीं रह सकते। वो अन्नसे जळ सस्ता है और जळ के बिना ई(भी) केई घंटा(घंटे) रह सकते हैं, परन्तु श्वास (हवा)के बिना नहीं रह सकते। तो हवा है , श्वास लेणेके लिये बोहोत सस्ती है। इतना जळ सस्ता नहीं , जितनी हवा है - कहीं श्वास लो , सब जगह श्वास आता है, लेते हैं, जी सकते हैं। श्वाससे हमारे प्राण रहेंगे , [  हमारा शरीर रहेगा ]    ;  परन्तु अन्तमें शरीर तो छूट ज्यायगा । हम रहेंगे । हमारे असली आधार भगवान् हैं। वे भगवान् वायु से भी बहुत सरल है (सस्ते हैं ) । वे सब जगह मौजूद है। (47) सब समय में, सब जगह, सम्पूर्ण  ब्यक्तियों में, सब बस्तुओंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियों में सदा है ज्यों- के- त्यों  रहते हैं । और सच्ची पूछो तो ये देश ,काल, बस्तु, ब्यक्ति, घटना, परिस्थिति, उसके अन्तर्गत है, वो तो असीम है, अनन्त है, अपार है, और सबके लिये अपणे आपको दे रखा है। वो  संतोंके तो हो ज्याय और जो दुष्ट है , उनके न हो, ऐसी बात नहीं है।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

(गीता ९|२९)।

  - न मेरे कोई प्रेम का बिषय(विषय) है, न मेरे द्वेष का बिषय है, कोई मेरेको अप्रिय नहीं है -

सब मम प्रिय सब मम उपजाए ।

(रामचरितमानस ७|८६|४) ।

वो सब के भगवान् हैं। पर सनमुख(सन्मुख) होता है वो ले लेता है, और बिमुख(विमुख) होता है वो ले नहीं पाता । (48) परमात्मा अपणी तरफ से मना नहीं करते । हमारे भाव शुद्ध न होणे से हम ले नहीं पाते हैं  अर अपणा भाव शुद्ध करणे में हम , आप - सब स्वतन्त्र हैं।

बाहर की परिस्थिति है , उसको ठीक बणालें , ये किसी के हाथकी बात नहीं है। बाहर से हम धनवान बणें न बणें , कुटुम्ब वाले बणें न बणें , लोग महिमा करे न करे, आदर करे न करे , ये हमारे हाथकी बात नहीं है, परन्तु हम सीधे , सरळ होकर भगवान् की तरफ चलें , इसमें बिलकुल परतन्त्रता नहीं है। सब- के- सब हम स्वतन्त्र हैं ।

परमात्माकी तरफ चलणे में सब के सब स्वतन्त्र (है)।  तो कितनी बढ़िया बात है , बताओ । कितनी एक आणँद की बात है। ये जो हमारा जीवन [ है ] , ये जनम सफल हो ज्याय । कितनी विचित्र बात है। (49) बड़े सुखकी , बड़े आणँद की बात है । तो सीधे , सरल होकर के भगवान् की तरफ चलें हम, प्रभुकी तरफ चलें।

आप- हम जो यहाँ इकट्ठे हुए हैं । ये महाराजका धाम है। ये धाम की महिमा क्यों है ? क यहाँ संतों ने भजन किया है। हम तो महिमा महापुरुषों की मानते हैं ; परन्तु महापुरुषों में महापुरुष(पन) कहाँ से आया? ये(यह) महापुरुषपण है वो भगवान् के भजनसे आया है। इस वास्ते वो , अगर भजन में हम लग ज्यायँ सीधे , सरल हो करके , तो बहुत बड़ी उन्नति हमारी हो ज्याय , बड़ा भारी लाभ हम ले लें , इसमें कोई सन्देह नहीं है। कारण ? कि ये समय गिरा है। दो सौ ,  ढाई सौ बरस हुए , (50) इससे पहले समय बोहोत अच्छा था। अभी समय बोहोत गिरावट पर है । ये अनुभव आप- हम कर सकते हैं। छोटी उम्र वाळे भी , जिसकी(जिनकी) पचास- साठ बरस की ऊमर है, तीस- चाळीस बरस की ऊमर है, वे भी इस बात का अनुभव कर सकते हैं। हमारे देखते- देखते लोगों के भाव में कितना परिवर्तन हो गया। तो सौ , दो सौ , ढाई सौ बरस पहले कितना भाव अच्छा था। जितना संसारमें भाव अच्छा था ज्यादे , उतने उण अच्छे भावोंकी इतनी कीमत नहीं थी, और ज्यों- ज्यों  ये भाव गिरते गये हैं, त्यों ही त्यों अच्छे भाव की कीमत बहुत बढ़ती चली गयी।

अभी बस्तुओं की कीमत बोहोत बढ़ गयी। (51) कहते हैं सब चीजें महँगी हो गई । हम दूसरी दृष्टि से देखें तो रुपये सस्ते हो गये। पहले एक सेर घी गाय का, उसका एक रुपया मिलता। आज सत्ताईस - अट्ठाईस , तीस रुपयोंमें भी शुद्ध घी मिलणा मुश्किल है । तो  घी की कीमत बढ़ गयी - ऐसे कहदो, चाहे कह दो कि रुपये की कीमत घट गयी। तो ऐसे ही सद्गुण-  सदाचार और सरल- हृदय से भगवान् की तरफ चलने की बात है , इसकी बड़ी भारी कीमत है - ऐसा कहदें और चाहे भगवान् सस्ते हैं - यूँ कह दें । भगवान् बहुत सस्ते हैं । हमारे देखते- देखते बहुत परिवर्तन हुआ है   ।

अनुभव भगवद् भजन का भाग्यवान को होय ।

भजन करने का अनुभव (52) जल्दी होता नहीं है, श्रद्धासे करते रहते हैं, परन्तु सरळता से अगर लग ज्यायँ , तो मैं तो दिनोंमें और महिनोंमें समझता हूँ, बरसों में तो लाभ हो ही जायेगा - इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु सच्चे हृदयसे लगणा चाहिये , लगनपूर्वक। उसके बोहोत , बिशेष लाभ होगा। 

मेरी एक प्रार्थना है, आप कृपा करके सरळता से लग ज्यायँ , अपणें में नम्रता रखें। लोग मेरे को मान लें - ऐसी इच्छा न रखें । लोग मेरेको बड़ा मानें - ऐसी लालसा (है) वो बड़ा होणे नहीं देती। वो लोकों का गुलाम हो ज्याता है, वो बड़ा हो नहीं सकता , क्योंकि लोगों से आशा रखता है न, 

आशा हि परमं दुखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
(श्रीमद्भा॰११|  )
ये महान् दुःख देणेवाळी (53) चीज है। लोग मेरा कहणा मानें , मेरे अनुकूल हो ज्याय , ऐसी इच्छा है , वो बड़ी पतन करणे वाली है। 

तेरे भावै जो करो भलो बुरो संसार ।
नारायण तूँ बैठिकै अपणा भवन बुहार ।। 

दुनियाँ चाहे तुम्हारे को कैसा ही समझे, अपणा अन्तःकरण निर्मल करो और सज्जनों ! मैं ये बात बताणे में, आपके(आपको) समझाणे में तो असमर्थ हूँ, पर बात ये पक्की है। मेरे को मानले लोग- ये भाव ज्यों- ज्यों  उठता चला जायेगा , त्यों  ही [त्यों ] लोग मानते चले जायेंगे और इच्छा रखेंगे तो नहीं मिलेगा। आपाँरी (अपने लोगों की) साधारण भाषा में (ईं) आवे है ना - घी तो आडै हाथ ही आवै है । { घी तो (रोकने के लिये दिये गये) आङे हाथ से ही आता है } ।  घी घालो , तो घी घाले तो , फेर वो सँभेगा नहीं (कोई कहे कि मेरे को घी परोसो, तो घी परोसे , तो  फिर वो तैयार नहीं होगा)। घी की माँग नहीं हो , ना- ना (54) कहते- कहते घी आया करे(करता) है , ऐसे ही आप कृपा कर थोड़ा- सा बिश्वास करलें। अपणे मन का बड़ापन है ना, 

मार मार तन मन मोटाई हाय ! दाव ऐसो मत हार । 

तन- मन मोटाई (बङप्पन का अभिमान ) - इसको मार।  ऐसा दाव मिलेगा नहीं,

फळी ज्यूँ फूट ज्यावसी फटके तटके तागो तूटै तेह।
झाड़ हाथ उठ ज्यासी झटके खटके तन हू ज्यासी खेह।।

ये राख हो ज्यायगी ।

और सज्जनों ! समय जा रहा है, छोटी अवस्था में साधू है, उण से मेरा बिशेष निवेदन है, क थोड़ी वे कृपा करें , सरळता से भगवान् की तरफ लग ज्याय(जायँ) , बहुत बड़ा लाभ होगा। आप जो चाहते हो क हमारे को लोग अच्छा मानें , मेरी तरफ लोग खिंच ज्याय , आकृष्ट हो ज्याय , ये इच्छा रखोगे तब तक होगा नहीं, (55) और ज्यों- ज्यों  भीतर की इच्छा चली ज्यायगी , हम सच्चे बणते(बनते) चले ज्यायँ । तो लोगों का आकर्षण होगा पर लोगों का आकर्षण तो बाधक होगा , फायदा नहीं होगा। ये(यह) जिस दिन बात समझमें आ ज्यायगी , आपको पारमार्थिक लाभ होगा बिलक्षण । स्वतःही होगा - स्वाभाविक ही।

ये जो अभी 'नहीं'(संसार) हैं(है) , उसके पीछे पड़े हैं, इस वास्ते 'है'(भगवान्) वो दीखते नहीं है । 'नहीं' है ये , 'नहीं' है वो  - संसार नहीं है। आज से पहले जमाना था , वो आज नहीं है अर आज है वो अगाड़ी रहेगा नहीं । सब संसार अभाव में जा रहा है, प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है । अभाव हो रहा है, मिट रहा है । इसका क्या भरोसा करते हो? इसकी आशा लगाये रहते हो क मान मिले ,  भोग मिले, सुख मिले, आदर मिले, महिमा मिले । (56) कुछ नहीं मिलने का है। बहम रहेगा और मर जायेंगे,  रीते रह जायेंगे । इस वास्ते सज्जनों ! सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ चलें आप । तो बोहोत लाभ होगा। साधुओं से बिशेष मेरा कहणा है।

एक बात मनमें आती है , कहणे में संकोच होता है , परन्तु अगर कोई ख्याल करे तो लाभ है । इस वास्ते कहता हूँ। है तो शर्म की बात , लज्जा की बात है, परन्तु किसी के लाभ हो ज्याय तो कोई हर्ज नहीं है, हमारी नीची बात ही सही। वो यह है क मैं साधू- आश्रम में बहोत बरसों से हूँ, मेरेको याद है बोहोत- सी बातें और बहुत- सी मैं भूल गया हूँ, परन्तु ये जो (57) आपसे मैं(मैंने) बातें कही- इन बातों को मैं जानता हूँ, [ मेरे को याद है ]भुगत- भोगी हूँ, मैंने देखा है। ये ऊँचा- नीचा सब तरह का समय मेरे सामने आया है। अपणें सीधी भाषामें कहे है(कहते हैं) न -  ए पापङ पोयोङा है ,  म्हारे देख्योड़ा है ये (मेरे देखे हुए हैं ये) । इस वास्ते भुगत- भोगी कोई आदमी मिल ज्याय तो उनसे कोई लाभ लेणा चाहे तो बहोत बिशेष लाभ ले सकता है । जकेरे देख्योड़ी बाताँ है, बीत्योङी है अपणी ऊमर में । वो देखे (है) क ऐसा चालणे से ऐसी आफत आती है, ऐसा चालणेसे ऐसा लाभ होता है (जिसके देखी हुई बातें हैं , बीती हुई है अपनी उम्र में । वो देखता है कि ऐसे चलने से ऐसी आफत आती है , ऐसे चलने से ऐसा लाभ होता है) । उणसे(उनसे) अगर हम सीखलें तो बड़ा अच्छा है ।

मेरी कुछ ऐसी जिज्ञासा रही है। हमारे साथ रहने वालोंने शास्त्रोंके ऊपर, पुस्तकोंके ऊपर विश्वास विशेष किया और (58) करणा चाहिये र मैं भी अच्छा मानता हूँ र मैं भी करता हूँ, पर मेरे मन में कुछ लगन रही क कोई अनुभवी आदमी मिले। इण बातोंको करके किसी ने देखा हो , वैसे मिले , तो हम उणसे लाभ लें। ऐसी खोज करणे पर मेरे को संत मिले हैं। अच्छे संत मिले हैं, तो मिल सकते हैं संत - इसमें कोई सन्देह की बात नहीं। 

भगवान् का अवतार होता है नैमित्तिक-  कभी- कभी अवतार होता है और संत- महात्माओं का अवतार हमने सुणा है कि नित्यअवतार है- हर समयमें संत रहते हैं। जिसमें हमारी भारतभूमि है ये, ये बहुत बिलक्षण है । राजस्थान उसमें भी बिलक्षण हैं(है)। इसमें अच्छे- अच्छे महापुरुष हुए हैं, होते रहते हैं। तो हमारी सच्ची लगन हो , तो अच्छे- महात्मा मिल सकते हैं।

सज्जनों ! रुपये- पैसे (59) र भोग और(आदि) मिलेगा , हरेक जूणी(योनि) में मिल ज्यायगा । इसमें ये भोगोंके ऊपर (आपकी) अधिक रुचि है न , ये तो कुत्तोंको र गधोंको भी मिल ज्यायगा । इसमें कमी नहीं रहेगी। परन्तु पारमार्थिक बातें मिलेगी नहीं अर वो मनुष्य- शरीरमें ही हम ले सकते हैं। वो मनुष्य- शरीर हमारे को मिला हुआ है और मिला हुआ समय, समय जा रहा है, मौत नजदीक आ रही है। अच्छा- अच्छा समय जा रहा है, 

आछा दिन पाछा गया (आछे दिन पाछे गये)
- संतों ने कहा है , कियो न हरि से हेत ।
अब पिसतायाँ क्या हुए
(अब पछतायै होत का , जब)
चिङिया (चिङियाँ) चुग गई खेत ।।

आच्छा दिन जावे छै जी दियाँ रे दगो । 

तो दिन दगा नहीं दे रहा है स्वयं हम दगा ले रहे हैं, तो बहुत- सा समय तो चला गया है और रहा हुआ समय भी (01:00) तेजी से जा रहा है, जिस दिन को कोई नहीं चाहता , वो मौत का दिन बोहोत नजदीक आ रहा है।

बारी आपो- आपणी (आपरी) चले पियारे मित्त।
तेरी बारी रही है और नेड़ी आवे नित्त।। 

  वो नित्य ही नजदीक आ रहा है मौत का दिन। उस दिन ये हेकड़ी चलेगी नहीं, जाणा पड़ेगा , बिलकुल और अभी जो कुदृष्टी रखी है अर खराब- भाव भीतर , मन में भरे हैं , इसका बड़ा गहरा डण्ड मिलेगा ('मिलेगा' के 'गा' अक्षर पर जोर देर समझाया कि अवश्य मिलेगा)। ये भगवान् के यहाँ पर पोल नहीं है । इस वास्ते मैं प्रार्थना करता हूँ, आप कृपा करें । अभी तक बीता है जो . सो बीत गया , अब अगाड़ी हमारा समय है वो अच्छे- से अच्छे, उत्तम- से उत्तम काम में लगे , जिससे कि हमारा जीवन सुधर ज्याय  ।

कूवे(कुए) में लाव(रस्सी) चली ज्याती है । बाहर पुरष- दो- पुरष (एक दो पुरुषों की लम्बाई जितनी) रहती है, {01:01 (एकघंटा और एकमिनिटसे आगे–)}  जिससे वो सब की सब लाव [ खींचने पर वापस बाहर ] आ ज्याती है, कोष आ ज्याता है, जळ आ ज्याता है, अर वो भी हाथों से अगर निकळ गयी तो फिर एक पुरष , दो पुरष गयी है, वो एक- दो- पुरष नीचे नहीं मिलेगी, बोहोत नीचे चली ज्यायगी  पाणी के भी तळे चली ज्यायगी । निकालने में भी समय लगेगा। इसी तरह से अभी जी रहे हैं तो हमारे हाथमें ये , क्या कहें , कोषङी है , थोड़ी ऊमर है हमारी । इस ऊमर को अगर हम काम में लें- बची हुई उमरको , तो हमारा जीवन सुधर ज्याय , हमारा जलम(जन्म) सुधर ज्याय , मनुष्यजन्म सफल हो ज्याय और आपको , खुद को आणँद आयेगा, बिलक्षण आणँद आयेगा, अलौकिक आणँद आयेगा । इसमें मेरे सन्देह नहीं है, सच्ची बात है। और दुनियाँ  का लाभ आप ले लोगे , कितना क ले लोगे? दुनियाँमात्र् से अधिक धनी औरक  (01:02) अधिक भोगी हो जावेंगे(जायेंगे) तो भी कुछ नहीं मिलने का है। धोखा होगा, धोखा, धोखा, धोखा ; क्योंक अभी वो ऊँचा पद नहीं है, अर थोड़े दिन बाद भी नहीं रहेगा, तो क्या फायदा होगा?

सुपनो सो हो ज्यावसी (जावसी) सुत कुटुम्ब धन धाम।
हो सचेत बलदेव नींदसे जप ईश्वरका नाम।।
मनुष तन फिर फिर नहिं होई । 

ये बार- बार नहीं मिलता । इस वास्ते सज्जनों ! कृपा करो। मेरे पर मेहरवानी करो । आप सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ लग ज्याओ। नफो भजन में केतो रे ।   सहजराम जी महाराज की बाणी में आता है , कि भजन में कितना नफा है , कितना लाभ है जिसका कोई अन्त नहीं है।

चेतो रे चेतो रे दुनियाँ  जन्म जाय है चेतो रे।
बैरी काळ ताळ नहीं लावे बाळ बृद्ध कूँ लेतो रे।।

भूलो कहा  (01:03)  भरममें भोळा कछु क सुकृत लेतो रे। 
क्या भोळा भूला हुआ है तू ।

चेतो रे चेतो रे दुनियाँ जनम जाय है चेतो रे।
ये बैरी काळ ताळ(समय) नहीं लावे  ।
  
ये काळ , मौत है , देरी(ताळ) नहीं लाती । ये तो

बाळ बृद्ध कूँ लेतो रे।

सगरामा संसार में बडो कसाई काळ ।
राजा गिणे न बादशाह र बूढ़ो गिणे न बाळ।।

ये सबको भक्षण - काल भक्ष सबको करे  ।

नव ग्रह चौसठ जोगणी  बावन वीर प्रजन्त।
काळ भक्ष सबको करे हरिशरणै डरपन्त।।

भगवान् के शरणै  -

काळ डरे अणघङ सूँ भाई , ता सूँ संताँ सुरत लगाई। 

ता मूरत पर रामदास बार बार बलि जाइ।
भजन करे गुरुदेव को ताको काळ न खाइ।। 

भगवान् का भजन करे , आश्रा (आश्रय) ले लेता है, तो उसको काळ नहीं खाता , नहीं तो काळ तो सबको खा ज्याता है अर वो खा रहा है बड़ी (01:04) तेजीसे । हमारा जीवन कहते हैं वो  मौतमें जा रहा है । 'जी रहे हैं'- ये(यह) तो है 'बहम' और 'मर रहे हैं'- ये बात है 'सच्ची'। चाहे लगे बुरी , परन्तु मर रहे हैं। जितनी ऊमर आ गयी , इतने बरस तो मर ही गये, अब बाकी कितना है , इसका पता नहीं , परन्तु मर गये- इसका बिलकुल पता है। इतनी ऊमर चली गयी, चली गयी, चली ही गयी और रही हुई भी जा रही है, वो जाणे में बन्द नहीं हुई है। ये रुकी हुई नीं है - अटकी नहीं है। आप काम करें न करे(करें) , भजन करें न करे , आप सोवें- आराम करें , न करें। आपकी तरफ देखता ही नहीं , काळ तो धना- धन, धना- धन, धना- धन जा रहा है। अपणी  अर  सबकी आयु को खतम कर रहा है। ये खर्च नित्य- निरन्तर हो रहा है और ये समाप्त हो जायेगा, तब उसी क्षण जाणा पङेगा। (01:05) यहाँ जोर नहीं चलता किसीका ई । ऊमर भगवान् ने दी है , उतने दिन भाई ! जैसे-  तैसे बिता(बीता) दो , परन्तु एक दिन ये खतम हो ज्यायगा काम। कुछ हाथ लगेगा नहीं, अर

सो परत्र दुख पावइ र सिर धुनि धुनि पछिताइ । 

    (रामचरितमानस ७|४३)

फिर परलोक में रोवेगा , सिर धुन- धुन के - हाय- हाय मैंने कुछ नहीं किया। अब रोणे से क्या हो भाई? अभी अगर चेत करले तो बड़ी अच्छी बात है। नहीं तो पीछे रोणा(रोना) होगा , कोई फायदा नहीं होगा। उस रोणे का फल रोणा ही निकळेगा। आज अगर चेतकर के भगवान् की तरफ चल दें, तो बिशेष लाभ हो ज्याय हमारे , बहुत बड़ा लाभ हो ज्याय अर भगवान् इतने कृपालु , इतने कृपालु , इतने कृपालु है क

सनमुख होइ जीव मोहि जबही (जबहीं) । क
जन्म कोटि अघ नासहिं तबही (तबहीं) ।। 

(रामचरितमानस ५|४४|२) ।

देरीका काम नहीं। सच्चे हृदयसे भगवान् के सनमुख हो ज्यायँ।

बाळक को चुप (01:06) रखो भाई ! प्यारसे , स्नेहसे लेकर खड़े हो ज्याओ । 
भइया ! टाइम हो जायेगा एक दिन खट सा, सच्ची बात है, आप ध्यान देकर के सुणें, मानें न मानें, ख्याल करे न करें , आप की मर्जी, परन्तु सच्ची बात यह है। आप बुरा न मानें  क्षमा माँग लेता हूँ ।  जिन लकङों में बळोगे(जलोगे) ना , वो लकड़े अब ऊगेंगे नहीं , त्यार(तैयार) है, वे बाँसङा ई(बाँसङे भी) त्यार है होऽऽ ,  जिनमें सीढी गूँथी ज्यायगी  न , वे बाँसङा त्यार है। मूँज भी बण गई है, कफ़ण का कपड़ा भी बहुतों के त्यार हो गया है अर दूजों के त्यार हो रहा है, और उठाणे(उठाने) वाले आदमी अब नहीं जलमेंगे (जन्मेंगे) । केवल थाँरी आ धौंकणी(आपकी यह धौंकनी- श्वास) चलती है ना , इसको अडिके है वे (प्रतीक्षा कर रहे हैं वे) । आ(यह) बन्द होताँ(होते) ही चटा- चट सामग्री मिल ज्यायगी अर उठ(उठे- वहाँ अर्थात्  श्मशान में) ले जाकर फूँक देंगे । ये सामग्री (01:07) त्यार है, अब नहीं होगी सामग्री। ये जरा याद रखो । कृपा करो ! सिवाय भगवान् के और कोई बचाणे वाळा नहीं है। सब काल के गाल में जा रहा है, क्या बचावेगा? वो खुद बिचारा मरणे वाळा है , क्या सहायता करेगा? सहायता तो अमर है वो ही करेगा , जो सदा रहणे वाळे भगवान् हैं , हमारे, प्रभु हैं। उसके चरणोंका शरणा(शरण) लो और कोई रक्षा करणे वाला नहीं है, सहायता करने वाला नहीं है, सुपने(स्वप्न) में भी कोई निहाल करदे-  ये बात है नहीं। बहम आपको पड़ गया है, उसका तो भई ! कोई इलाज नहीं है, परन्तु हानि बड़ी भारी हो जायेगी-

अबके चूकाँ राम दास होगी बहुत ही हाँण।।

बड़ी हाणि(हानि) हो ज्यायगी । इस वास्ते अब चूको मत , अब तो सरळता से भगवान् की तरफ लग ज्याओ । और (01:08) सीधी बात , बहुत सरल , संतों ने ये रस्ता बताया है, कि

राम राम राम राम राम राम राम राम।
सीधा , सरल अन्तःकरण  रख करके , सीधा हो करके राम राम करो। तेरे पर जो विपत्ति  आवे, आफत आवे, कोई कपट करे, झूट(झूठ) कपट करे, ठगाई करे, करणे दो , बेचारे को , करणे दो। 

बोहोत बरसों की बात है-
मैंने एक अच्छे महापुरुष से बात पूछी थी, कि मेरे को लोग मूर्ख बणा करके अनुचित लाभ लेते हैं, तो मेरे अकल में आ ज्याती है कि ये बिलकुल मेरी मूर्खता से लाभ ले रहे हैं। तो मैंने पूछा क्या करणा चाहिये? कहते(उन्होंने कहा-) कुछ नहीं करणा, लेणे दो उनको । यही उत्तर मिला था मेरे को।, वे लोग समझते [ हैं कि यह ] मूर्ख है, समझता नहीं , बेसमझ है। उसमें नुकसाण नहीं है। समझदारी में नुकसाण है। अपणे बेसमझे समझे तो हमारे को क्या हर्ज हुआ? लाखों - करोड़ों रुपये जिसके पास में है र लोग कँगला समझते हैं  तो क्या हर्ज है? (01:09) रुपये है नहीं र रुपये वाळे समझे , तो सब तरह की आफत आ गयी; चोर भी, डाकू भी, राज भी- सब पीछे पड़ा(पङे) रहे। गरीब से गरीब साधु और ब्राह्मण , वे भी तुम्हारे पीछे पड़ेंगे, परन्तु पासमें कुछ नहीं है तो क्या होगा? अर है सब कुछ र लोगों को पता नहीं है तो बड़ी बढ़िया बात है। आप झूठी इज्जत के लिये लालाइत मत होवो(होओ), बेइज्जती होणे दो, अपणी बेइज्जतीके लायक काम कोई मत करो। कैसा भी , छोटा- से- छोटा भी , बेइज्जती का काम नहीं करेंगे भाई। हमारे वर्ण- आश्रम से , मर्यादासे बिरुद्ध(विरुद्ध) है वो काम नहीं करेंगे, नहीं करेंगे, नहीं करेंगे । इस पर पक्के रहो।

लोगों ने समझ रखा है क भजनसे, अच्छे आचरणों से लाभ होता है , परन्तु दुर्गुण- दुराचारों से जितना नुकसाण होता है , उतना लाभ नहीं होता है। नुकसाण से बच ज्याय, दुराचारों से, दुर्गुणों से, झूठ , कपट, बेईमानी , व्यभिचार, अनाचार, अत्याचार, (01:10) दुराचार से बच ज्याय और इनको अपणे न आणें दे(न आनें दें)  , तो बहुत बड़ी- उन्नति होगी। दुर्गुण- दुराचार से रहित होणे से बहुत लाभ होगा, विशेष लाभ होगा। इस तरफ लक्ष्य नहीं होता है। मनुष्य अच्छा काम तो करता है ,पण बुरे कर्मों का त्याग नहीं करता। अर त्यागका माहात्म्य है उतना उनके ग्रहण करने का माहात्म्य नहीं है। इस वास्ते इन दोनों को ही करें अपणे। अच्छे काम करें, बुरे काम न करें , पण बुरा काम तो आज ही छोड़ दे(छोङदें)।

एक अच्छे महात्मा मिले थे, उन्होंने कहा क भजन- स्मरण करणे में, अच्छे कामों को करणे में, संग्रह करणे में तो देरी लगी, पण बुरे कर्मों के छोड़ने में मेरे को देरी लगी ही नहीं। कह, अब नहीं करणा है , कह,  नहीं करणा , बस । सुगमता से छूट ज्याता है (क्योंकि) करणा नहीं पड़ता न उसमें, उसमें तो 'नहीं करणा' ही है- हमें पाप करणा नहीं है , अन्याय करणा नहीं है।, (01:11)  इतने से आसुरी- सम्पत्ति छूट ज्याती है। दैवी- सम्पत्ति के लाणे में समय लगे , (पण) आसुरी- सम्पत्ति छूटते ही क्या है क नहीं करणा है , बस !  [ इसमें समय नहीं लगता ] करणा ही नहीं है और इस पक्के- विचार के करणे पर , जितने संत हो गये , वे संत- महात्मा अर आज हैं जितने र अगाड़ी होंगे जे (जो )-  वे सब- के- सब हमारे साथ में है। शास्त्र हमारे साथ में है, धर्म हमारे साथ में है, सर्वोपरि परमात्मा हमारे साथ में है। प्रकृति- भगवान् की माया , वो हमारी सहायता करणे के लिये तैयार है। हम सच्चे- हृदय से दुर्गुण- दुराचारों का त्याग करके और पक्का बिचार करके भगवान् की तरफ लग ज्याय(जायँ) तो मात्र् दुनियाँ हमारी सहायता करणे वास्ते तैयार है। अभी पता लगे , न लगे - अलग बात है , परन्तु बात एकदम सच्ची है। सब सहायता करेंगे अर दुर्गुण- दुराचार करेंगे तो भाई ! कोई सहायता करणे वाला नहीं है। अपणे , आपके होणे वाले माँ- बाप, भाई , सम्बन्धी,  कुटुम्बी - वे भी जबाब (01:12) दे देंगे। कपूत का कोई नहीं है, सपूत के सब कुछ है। इस वास्ते सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ लग ज्याय(जायँ) ये मेरी प्रार्थना है। सरल हृदयसे भगवान् की तरफ लगें। बस , भगवान् की तरफ ही लगणा है हमें।

ये दो चीज बाधक है- एक तो रुपया , पईसों का संग्रह हो जाय र एक सुख भोगलूँ । 

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।

(गीता २|४४) ।

इनमें जिसका चित अपहृत हो गया है , वो परमात्मा हैं और वो (उनसे) मेरे को मिलणा है- इस बातको निश्चय में ही नहीं ला सकते, मिलणा तो दूर रहा। इस वास्ते इन भोगों में और संग्रह के लोभ में न फँसे(फँसें) ।

रुपयों का लोभ छोड़ने पर रुपये आते हैं।  ध्यान दो आप । एक बात कह दूँ,  फिर समाप्त करता हूँ। ध्यान दें मेरी बात की तरफ । रुपयों की चाहना छोड़ने पर रुपये (01:13) खुल्ले आते हैं- ये बात सच्ची है। भगवान् के धाम में कह रहा हूँ। मैंने देखा है, आप(आपने) रुपये लेकर के देखा है तो मुफ्त में पचास हजार साथ में नहीं आये होंगे । मेरे पास पचास- पचास हजार दो वार आये हैं। एक साथ पचास हजार यहाँ (इधर) , ये पचास हजार है - [ लोग ] पीछे पड़े हैं और भाईयों ने मेरे से पूछा है क स्वामीजी ! कहीं लगाओ। मैंने पूछा कितने क रुपये लगाओगे ? हजार- दसहजार, पनरै(पन्द्रह) हजार , बीस हजार- ऐसे मैंने प्रश्न किया है। उन्होंने कहा एक लाख । ऐसे दो आदमी मेरे को मिले हैं। मैंने वो , उसको एक हजार भी लगाणे का कहा नहीं है ,  पर मिले हैं क एक लाख रुपये लगा दूँगा मैं , जहाँ आप कहो ज्याँ ही (जैसे ही)  लगा दूँगा। आप रखणे वाले बताओ- कितनेक आदमी मिले (हैं )  आपको? लेणे वाळों को कितनेक आदमी (01:14) मिले हैं पचास- पचास साथ में दे दे , पचास हजार ।
मिले होंगे , मैं अभाव नहीं कहता हूँ , पण बिना उद्योग, बिना माँगे, बिना इच्छा, बिना आशा रखे हुए, आग्रह किया है उन लोगों ने। 

ये भोग और रुपये- ये कोई चीज नहीं है, मानव जीवन की जो महिमा है, उस महिमा के सामने ये क्या चीज है? ये कोई बड़ी चीज नहीं है। जितना- जितना आप इसको बड़प्पन दोगे, आदर कर(करके) देखोगे - बड़ी भारी है, बड़ी भारी चीज है , उतना आपका पतन हो ज्यायेगा महान्- इसमें सन्देह नहीं है।

आप चेतन होते हुए, कमाणेवाळे होते हुए , फिर रुपयों के गुलाम होते हो ! बगत(वक्त) पर क्या कहे(कहते हो) - काँई है , रुपयो तो हाथ रो मैल है , (क्या है , रुपया तो हाथ का मैला है)  थाँरे हाथ रो मैल है क काळजे री कौर है ? (आपके हाथ का मैला है या कलेजे की कौर है ?)  जरा देखो। ये(यह) जड़ है, ये आपका कल्याण नीं (नहीं) करेगा। आपके हृदय में चाहना न होणे पर गर्ज होगी गर्ज ; क्योंकि रुपये सफल मनुष्यके पास में आकर होते हैं, मनुष्य सफल नहीं (01:15) होता है रुपयों से। मनुष्य- जीवन रुपयों से सफल नहीं होता है। मनुष्य- जीवन परमात्मा से सफल होता है। जिन रुपयों के लेणे से सफलता मानते हो , वे रुपये अच्छे संतों की कृपामें लग ज्याय , उनकी सेवामें लग ज्याय तो रुपये सफल होते हैं। हम कितना(कितने) गळती में , नीचे चले गये। उन रुपयों से अपणी सफलता मानते हैं क अबकी या(यह) यात्रा अच्छी हुई,  जो हमारे[ को ]  इतने रुपये मिल गये। परन्तु रुपये अच्छे काम में लग ज्याय तो रुपये सफल हो ज्याते हैं सज्जनों ! ये बात आपके , हमारी बिलकुल है ऐसी बात। 

मानव- शरीर की बड़ी भारी महिमा है- भगत मेरे मुगुटमणि (मुकुटमणि) ।  भगवान् कहते हैं- भगत मेरा मुगुटमणि है । भगवान् जिसको मुगटमणि बणावे(बनावे) , उसकी कितनी महिमा है, पण महिमा [ के लिये ] , मुगुट बण्णे के लिये इच्छा न करे । सच्चे हृदयसे भगवान् के चरणों में लग ज्याय । ज्यों- ज्यों  वो सच्चे हृदयसे लगता है, त्यों- ही- त्यों  भगवान् के दरबारमें उसका आदर बढ़ता है -  (01:16) 

एहि दरबार दीन को आदर रीति सदा चलि आई ।  

(विनयपत्रिका १६५)

सदा की रीति है। इस वास्ते सज्जनों ! क्यों दुत्कार पाते हो? क्यों तिरस्कार पाते हो? दुनियाँ की गरज करके क्यों गुलाम बणते हो? सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ चलो ना। एष निष्कण्टकाः पन्था ।   ये रस्ता(रास्ता) बहुत ही बढ़िया है, बड़ा लाभ का है। इस वास्ते सच्चे हृदय से भगवान् की तरफ लग ज्यायँ , कितनी बढ़िया बात है, कितनी उत्तम बात है, कितनी ऊँचे दर्जे की बात है। आप कृपा करके , लग करके देखें।

आज ही आप लग करके , आज ही आप फल- चाहणा(फल- चाहना) चाहें- यह नहीं होगा, हो भी ज्याय , परन्तु आप डट करके रह ज्याओ र पक्के बण ज्याओ इधर । फिर ये दुनियाँ भी न मिले तो आपको गरज ही नहीं है, गरज ही नहीं है, गरज ही नहीं है बिलकुल, किंचित् मात्र् (भी) ।

राम नाम धन पायो प्यारा । जनम जनम के मिटे विकारा ।। (01:17) 

कितनी बढ़िया बात है।

यो धन तन मन साटै लीजे प्रेम प्रीति [सहित] लिव लाई।।
राम धन ऐसा है मेरा भाई।। 

पायो री मैंने राम रतन धन पायो । 

ये बोहोत विलक्षण धन है, जिन संतों ने पाया है , वे मस्त हो गये। वे [ही] नहीं , उनके नाम से दुनियाँ मस्त हो रही है, दुनियाँ के लाभ हो रहा है।

आप , आज हम लोग यहाँ बैठे हैं  और लाभ की दृष्टि से आये हैं। ये कौण(कौन)- सा राज्य था क, सम्पत्ति थी क, वैभव था क, कोई बड़े भारी ऊँचे विद्वान थे क, क्या थे? भगवान् का नाम लेणे वाळे थे। इसके सिवाय क्या सामर्थ्य थी सा ? उसी(भजन) की यह सामर्थ्य है र सैकड़ों बरसों तक दुनियाँ का उद्धार होता है। इतना कोई धन खर्च करके कर सकता है उपकार? है किसी की ताकत ? अरबों धन खर्च करणे पर भी क्या [ कोई ] इतना लाभ ले सकता है? नहीं ले सकता। और भजन करके (01:18) आप बड़ा भारी लाभ ले लेंगे - इसमें सन्देह नहीं है। 

मेरे मन में बोहोत आती है तरँगें । इस वास्ते कभी- कभी आप लोगों के सामने अपणी भाप निकाळ लेता हूँ। अपणे मन री निकाळ लूँ बस। आप कृपाकर मानलें , तो बोहोत कृपा मानूँगा आपकी कि मेरे पर बड़ा अनुग्रह किया , आपने बड़ी कृपा की। अपणी भाषा में- बोहोत बङो माइतपणों कियो थे ,   जो अठीनें लग ज्याओ । { (अगर आप इधर , भगवान् की तरफ लग जायँ,  तो मैं मानूँगा कि ) बहुत बङा , माता पिता के समान बङप्पन, निःस्वार्थ हित किया आपने , जो इधर जाओ }  
।  इतरा(इतना) दिन करके देख ही लिया संसारका, कितनाक रस है? वो कोई आपसे अपरिचित नहीं है, नमूना तो देख लिया है न । ऐसा ई और है, और क्या है ? और जाती थोड़े ही है, अब अठीलो ही (इधर का भी) देखो तो सही, ओ(यह) भी देखो। जो संत- महात्माओं ने लिया है , वो लाभ भी लेकर देखो। 

मेरे मन में था क वो ऐसे बात पहले होती है (थी) , आज ऐसा नहीं है , परन्तु अब मेरे मन में ये नहीं है , आज तो बोहोत सस्ती - सी ई (01:19) चीज मिलती है । इस वास्ते कृपा करें , सच्चे हृदयसे भगवान् में लग ज्यायँ । ये दुनियाँ का भरोसा नहीं है, क्षणभँगुर है- एक क्षण भी नहीं रहता [ संसार ] । इसका क्या भरोसा। 

राऽऽमा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा ,
(लोग- रामा श्री राऽऽमा रामा श्रीरा ऽऽमा),
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा,
( रामा श्री राऽऽमा रामा श्रीरा ऽऽमा), (01:20) 
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा,
( रामा श्री राऽऽमा रामा श्रीरा ऽऽमा),
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राऽऽमा रामा ऽऽ श्री राऽऽ मा,
( रामा श्री राऽऽमा, (01:21) रामा श्रीरा ऽऽमा),
रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

हे रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म,
(रामा श्री राम राम रा ऽऽ म सीतारा ऽऽ म),

श्रीराम गुरुदेवजी महाराज की जय,
सियावर रामचन्द्र की जय,
मोरमुकुट बँशी वाले की जय..,।

[ यहाँ शुरुआत की रिकोर्डिंग छूट(कट) गई है । यहाँ श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज एक भूल- सुधार करने के लिये कह रहे हैं-  ]

(••• आप भगवान् के नाम का जप- कीर्तन करते हैं वो बहुत बढ़िया बात है पर )
••• उसके साथ- साथ , भगवान् यहाँ नहीं है, भगवान् तो भविष्य में कभी मिलेंगे , भगवान् अभी यहाँ नहीं है, नहीं है, नहीं , (01:22) है। ये अभ्यास कर रहे हैं। भगवान् के नाम का जप- कीर्तन करते हुए इस बात को दृढ़ करते हैं क अभी भगवान् नहीं मिलेंगे। अभी भगवान् है नहीं यहाँ , वे आयेंगे तब मिलेंगे। भजन करते हुए उल्टा अभ्यास करते हैं।

ख्याल किया कि नीं आपने? अभी भगवान् कैसे मिल सकते हैं? अभी भगवान् यहाँ थोड़े ही हैं। हम दूर है (हैं ), भगवान् दूर है (हैं )। हम योग्य बणेंगे, कभी अधिकारी बणेंगे, तो भगवान् कभी मिलेंगे । वो ही कृपा करके आ ज्याय तो मिल ज्याय । शरीर तो हमारे साथ है , ये तो मिला हुआ है। अर परमात्मा मिले हुए नहीं है। बात तो वास्तवमें , शरीर आपको मिला हुआ है ही नहीं, , (01:23) ये तो हरदम बहता है, ज्यूँ गंगाजी का प्रवाह बहे ,  ज्यूँ(ऐसे यह शरीर) हरदम नाश की तरफ जा रहा है। ये मिला हुआ कैसे हैं? मिला हुआ है तो[ पहले आप ] बच्चे थे और आज सफेद बाल हो गये, शरीर तो बदल गया न- ये प्रत्यक्ष में। [ तो यह शरीर  ] बदलने वाला है हरदम , हमारे साथ से बियुक्त(वियुक्त) हो रहा है, अलग हो रहा है, उसको तो साथ मानते हैं और परमात्मा नित्य- निरन्तर हमारे साथ हैं  ,  उनको अपणे पास नहीं मानते। इस(उलटी मान्यता) को दूर करने के लिये एक बात बताता हूँ, उसको आप अगर पकड़ लें और याद रख लें और करणे लग ज्याय  तो बहुत ही लाभकी बात है, बहुत ही लाभकी बात है , बहुत ही लाभकी बात । 

कहते (हैं ) वो क्या है ? क नामजप करते हुए , समझे कि जहाँ जप हो रहा है भीतर - राम राम राम राम राम राम- ऐसा जप हो रहा है, उस जप में (01:24)  परमात्मा हैं  । "रा ऽ म"  उस 'र' में भगवान् हैं , 'रा - आ' में भगवान् हैं , 'म' में भगवान् हैं,  'म' में 'अ' है , उसमें भगवान् हैं , राम- राम- राम इस ध्वनि में भगवान् है, इस जीभ में भगवान् है, इस चिन्तन में भगवान् है, शरीर में भगवान् है, कुछ भी याद आ ज्याय - उसमें भगवान् है। जो याद आता है , वो तो रहता नहीं र भगवान् उसमें रहते हैं। बुरी बात आ ज्याय तो उसमें ई(भी) भगवान् रहते हैं, कुछ भी स्मरण हो ज्याय , स्फुरणा  हो ज्याय  , उसमें भगवान् हैं- इस बातको मानलें । 

शिकायत करते हैं क भगवान् में मन नहीं लगता, मन में तो संसार की बात याद आती है, तरह- तरह की बातें याद आती है , तो जो याद आती है , वे चीजें अभी नहीं है यहाँ और परमात्मा अभी हैं [ यहाँ ] । 
'है' उसको तो नहीं मानते र  (01:25) 'नहीं है' उसको 'है' मानते  हैं । कितनी बड़ी गलती करते हैं  । बहुत बड़ी गलती । इसको आज से ही छोड़ दें ।

हम जप कर रहे हैं वो  जप में भगवान् है । जिस 'जबान' से 'जप' करते हैं उस 'जबान' के भीतर ओत- प्रोत "भगवान्" मिले हुए हैं। जैसे बर्फ में पाणी रहता है, ऐसे जीभ में भगवान् है । मनसे हम भगवान् को याद करें तो मन में भगवान् है। ध्वनि सुणाई देती है राम राम राम राम राम- ऐसे सुणाई दे , तो उस सुणणे में भगवान् हैं । सुणणे के साधन- कान है - उनमें भगवान् है। 'मैं' जप करता हूँ, सुणता हूँ , उस 'मैं' में भी भगवान् है। सुणता हूँ , उसमें भी भगवान् है। देखता हूँ , उसमें भी भगवान् है। (01:26) जो दीखता है उसमें भी भगवान् है। जिसके द्वारा देखता हूँ , उस आँख में भी भगवान् है और आँख के द्वारा जिसको देख रहा हूँ, उधर जो आँख की बृत्ति(वृत्ति) जा रही है , उसमें भी भगवान् हैं । आपना(अपना) जो फुरणा (स्फुरणा) है , वो जो देखना , सुण्णा , जो देखा ज्याता है , उसमें- सबमें परमात्मा परिपूर्ण हैं । इस बात को मान लें आप, बड़ी दृढ़ता से, तो बहुत बड़ा भारी फर्क पड़ ज्यायगा । अर फर्क पड़े चाहे न पड़े, फायदा दीखे चाहे न दीखे, लाभ दीखे चाहे न दीखे, परन्तु इस बातको आज आप मान लें। ये मेरा बिशेष कहणा है आप लोगों से । इस बातको मानलें। तो 

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा (01:27) सुदुर्लभः । 

(गीता ७|१९) ।

सब कुछ वासुदेव है - ऐसा जाण्णे (जानने) वाला महात्मा है, वो बड़ा दुर्लभ है, वो ई हम , महात्मा(वही महात्मा हम और) आप हो ज्यायेंगे। क्योंकि सबमें परमात्मा है , तो सभी परमात्मा ही तो होंगे  और क्या होगे(होंगे) । तो सब , जितना दीखता है र सुणता है , ये तो रहेगा नहीं, र परमात्मा परमात्मा रहेगा अर उसको हमने पहले ही पकड़ लिया।

क्या जची? तो इसको भूलना नहीं है और भूलें क्या , ये तो बात है ही ऐसी ई, भूले क्या? भूले , कोई याद करणे से थोङी ही पैदा हुई है, इधर ध्यान नहीं देणे से लक्ष्य नहीं था, परमात्मा तो अभी(तभी) वैसे- के- वैसे ही थे। जब तक ध्यान नहीं दिया तब , ध्यान देतें हैं तब तक और भूल ज्याते हैं तब, भगवान् तो वही रहते हैं ।  वे तो हैं ही- (01:28) ऐसा आप मानलें और इसमें आपके शंका हो तो पूछलो(पूछलें) ।  

- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज 

( दिनांक  २०|०३|१९८१ _१४०० बजे आदि वाले प्रवचन का यथावत् लेखन )

लेखनकर्ता - डुँगरदास राम आदि 

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