सीखने की बात(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)। लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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सोमवार, 29 जुलाई 2019

सीखने की बात(-श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)

                ।। श्री हरिः ।।
                  ● (पहला प्रवचन- ) ● 
               ■ सीखने की बात ■
  (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज )
{  दिनांक २०|०३|१९८१_ दुपहर २ बजे  खेङापा (जोधपुर) वाले प्रवचन
                                 का 
                       यथावत् लेखन -   } 

(1 मिनिट से) ●•• मनुष्यको एक बिशेष(विशेष) बुद्धि दी है।  निर्वाहकी बुद्धि तो पशु-पक्षियोंको भी है, और वृक्षों में भी है। जिससे अपना जीवन निर्वाह हो ज्याय(जाय), उसके लिये अपणा (अपना) प्रयत्न करणा(करना) , ऐसी बुद्धि तो वृक्ष, लता, घास- इसमें (इनमें) भी है। बेल होती है ना, वहाँ, जिस तरफ उसको जगह मिलती है उधर चढ़ ज्याती(जाती) है ऊपर और बर्षा(वर्षा) बरसे तो घास, पौधे- सब खुश हो ज्याते(जाते) हैं।, गर्मी पड़े और जळ नहीं मिले , तो कुम्हला ज्याते(जाते) हैं। तो अनुकूलता में राजी र प्रतिकूलता में नाराजी(नाराजपना) , उनमें भी है। (2 मिनिट.)  अगर यही हमारे - मनुष्यों में रही, तो मनुष्यों के बुद्धिका क्या उपयोग हुआ ? वो पशु भी कर लेते हैं अपना । घाम तपता है, तावड़ो(घाम) तपे जोरदार। गाय, भेंस, भेड़, बकरी, ऊँट - ये भी छायामें चले जाते हैं , और अच्छी चीज मिलती है तो वो ही खा लेते हैं, बुरी चीज नहीं खाते । उनका भी कोई प्यार करे, आदर करे, तो उनको अच्छा लगता है। उनका तिरस्कार करे, मारे , तो उनको बुरा लगता है। कुत्तेका भी आदर करो तो राजी हो ज्याता है, अर निरादर करो तो उसको गुस्सा आ ज्याता है, काटनेको दौड़ता है। उसके चेहरे पर फर्क पड़ ज्याता है, अगर यही हमारेमें हुआ तो फिर मनुष्यकी बुद्धिका उपयोग क्या हुआ? (3 मिनिट.) मानो मिनखपणों कठे काम आयो ? पशुपणों ही हुयो (मनुष्यपना कहाँ काम आया ? पशुपना ही हुआ)। । मनुष्य भी अपणेको (अपनेको) अच्छा देखणा(देखना) चाहता है कि मेरेको लोग अच्छा मानें। ऐसे हमारे भाई- बहन भी चौखा ओढ़- पहर र(कर) तैयार हो जाय क(कि) मने(मेरेको) लोग अच्छा मानें। तो फिर मनुष्यों में र(और) पशुओं में  क्या फर्क आया(हुआ) भाई ? वो मनुष्यपणा नहीं है। जकेने(जिसको) मानखो कहे, मिनखपणो कहे र(आदि), मिनखपणो नहीं है। मिनखपणो तो तभी है कि जब जीते- जी आणँद(आनन्द) हो ज्याय । जिसमें दुःख का असर ही न पड़े।
युद्धमें जाणेवाळे(जानेवाले) कवच पहना करते थे , बड़ा- बड़ा बखतर लोहेका, जिणसे(जिससे कि)  (4 मिनिट.) उसके चौट न लगे, घाव न लगे। इसी तरहसे हम संसारमें आकर ऐसे रहे(रहें ), जो हमारे , प्रतिकूल- से- प्रतिकूल का भी घाव हमारे लगे ही नहीं । हम ठीक साबत– साबत (बिना किसी टूट- फूटके , जैसे पहले थे वैसे ही) बच जायँ। तब तो है मिनखपणो और चौट लग जाती है तो मिनखपणा कहाँ भाई? मिनखपणा नहीं हुआ और इसी बात को ही वास्तव में सीखणा(सीखना) है, समझणा(समझना) है। मनुष्यके लिये यह, इस बात की बड़ी भारी आवश्यकता है, जरुरत है और मनुष्य ऐसा बण(बन) सकता है, भाई हो, चाहे बहन हो, वे ऐसे बण सकते हैं। हर दम खुश रहें।
पूरे हैं मर्द वही जो हर हाल में खुश है (रहे),
हर समय में प्रसन्न रहे, मौजमें रहे, मस्तीमें रहे, आणँदमें रहें (5 मिनिट.) ऐसे हम और आप - सब बण सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं है। 
बाहरकी घटना मन- सुहावती(मन- सुहाती) हो, चाहे बेसुहावती(बिना मन- सुहाती) हो, ये तो होती रहेगी। बाहर की घटनाओं को ही सुधार ले , अपणे लिये सुखदायी ही सुखदायी हो, ये किसी के हाथ की बात नहीं है ।
भगवान् रामजी अवतार लेकर आते हैं, उनके सामने भी सुखदायी और दुःखदायी घटना आई है। [जब] ये विचार हुआ क(कि) रामजी को राजगद्दी दी ज्यायगी(जायेगी) और राजगद्दीके बदळे(बदले) बनवास(वनवास) हो गया। कितनी बिचित्र(विचित्र) बात। प्रसन्नतां या न गताभिषेकतः (२|२) ( रामचरितमानस मं॰२|२) ,  अभिषेककी बात सुणी(सुनी), राजतिलक की बात सुणी हो[ऽऽ]  तो उनके मुखाम्बुजश्री-  उनके मुखकमल की शोभा & (6 मि.) कोई प्रसन्न नहीं हुई और तथा न मम्ले वनवास दुखतः  और बनवास(वनवास) की बात सुणादी क( सुनादी कि) तुम्हारेको चौदह बरस(वर्ष) तक बन में रहणा(रहना) पड़ेगा। किसी गाँवमें जा नहीं सकते, पैर नहीं रख सकते। चौदह बरस तक किसी गाँव में नहीं जा सकते। ऐसा बनवास हो गया , तो उससे कोई दुःखी नहीं हुए- तथा न मम्ले वनवास दुखतः । मुखाम्बुजश्री,  ऐसी वो जो शोभा है , वो हमारा मङ्गल करे अर(और जो) स्वयं सुखी और दुःखी होता है (वो) हमारे मंगळ क्या करेगा ? वो हमारी सहायता क्या करेगा ? [ जैसे ] हम सुखी- दुःखी होते हैं [ वैसे ]  वो भी सुखी- दुःखी होता है। 
रामायणमें तो बड़ी सुन्दर बात आई है। (7) मन्त्री जब गये हैं रामजी को बुलाणे(बुलाने) के लिये, दशरथजी महाराज बरदान देणेके(वरदान देनेके) लिये , वो तैयार नहीं हुए, कैकेयी ने हठ कर लिया। दशरथजी दुःखी हुए । उस समय मन्त्री गये तो सुबह हो गया , बात क्या है? उठे नहीं भूपति । तो कैकेयी ने कहा क राम को बुला लाओ , उसको सुणाएँगे(सुनाएँगे)।  बुलानेके लिये गये तो वहाँ आया है- 'रघुकुलदीपहि चलेउ लिवाई (लेवाई) ' ,  तो 'रघुकुलदीप' हुआ- दीपक, दीपक की तरह , रघुवँशियों में  दीपक की तरह, उसको(उनको) लेकर चले। 
जब रघुनाथजी महाराज दशरथजी के सामने जाते हैं, वहाँ  देखे हैं (देखा है) , (8) तो गोस्वामीजी कहते हैं-
जाय'(जाइ) दीख रघुबंसमणि(रघुबंसमनि)'
(रामचरितमानस २|३९)
वहाँ  दीपकसे मणि हो गये और जब बनवास की बात सुणाई(सुनाई) तो 'मन  मुसकाय(मुसुकाइ) भानुकुल भानू'    समझे ! , अब सूरज(सूर्य) हो गये। बुलाया जब(तब) तो दीपक था, देखा जब मणि हो गया अर(और) बनवास की बात सुणी(सुनी) तो सूरज हो गये, तो तेज बढ़ गया। मानो बिपरीत(विपरीत) बात सुणणे (सुनने) से तेज बढ़ा है।   मलीन और दुखी तो होवे ही क्या, विपरीत- से- विपरीत बात सुण करके खुश हो रहे हैं, प्रसन्न हो रहे हैं।  हाँ,  वो जो 'मुखाम्बुजश्री'  है न,(9) वो हमारा कल्याण करे, हमारेको आणँद देवे (आनन्द दें)- 'सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा' (२|२) ।  तो , क्योंकि उसके (समतायुक्त , मनुष्यपन वाले के) तो मंगळ ही मंगळ है।
मणि होती है उसकी बात सुणी है क उसको शाण (कसौटी वाले पत्थर) पर लगा करके रगड़ते हैं तो वो एकदम चमक उठती है, राजाओंके मुकुट में चढ़ ज्याती है, तो विपरीत अवस्थामें (वो मनुष्य) चमक  उठता है, असली संत होते हैं, महात्मा होते हैं , वो चमक उठते हैं। और ये स्थिति मनुष्यमात्र् प्राप्त कर सकता है। ऐसा बड़ा सुन्दर अवसर मिला है, मौका मिला है।
भाईयों ! बहनों ! यहाँ थोड़ी- सी क चीज मिल ज्याय, थोड़ा- सा शृङ्गार कर लिया - थोड़ा [ कि लोग ] मेरेको चौखा- अच्छा , अच्छा  देखे । महान्  मूर्ख है, महान्  मूर्ख, (१0) महान् मूर्ख। लोग अच्छा देखे र, बुरा देखे, तुम अच्छे बण ज्याओ भीतरसे, श्रेष्ठ बण ज्याओ(बन जाओ) । चाहे लोग बुरा देखे, अच्छा देखे, निन्दा करे, स्तुति करे, आदर करे, निरादर करे , तुम्हारे पर कोई असर न हो।  इतना बखतर पहरा (पहना) हुआ है , ऐसा जो मस्त- ही- मस्त है, आणँद ही आणँद है। ऐसे बण ज्याओ तो मौत में भी दुःखी नहीं होंगे । 
मरणे(मरने) की तो इच्छा नईं(नहीं) और जीणे(जीने) की भी इच्छा नीं(नहीं), भई (भाई !) मैं जी उठूँ- येइ(यह भी) इच्छा नीं और कुछ मिल ज्याय - ये बिलकुल ही भीतरमें भाव नहीं - मेरे को मिल ज्याय। तो जीणे की इच्छा क्यों नहीं होती है कि वो सदा के लिये जी गया, अब मरणा है ई(ही) नहीं । तो मरणे की बात कहाँ हो? मरणे की सम्भावना (11) होती है तब न डरता है ! तो मरेगा कौण? कह, शरीर। अर शरीर के साथ एक हुआ– हुआ है तो वो तो मरेगा भाई ! कितनी वार मरेगा-  इसका पता नहीं है। और मरणे का डर लगता है तब जीने की इच्छा होती है।
संतों ने कहा - 
‘अब हम अमर भये न मरेंगे '  
अब मरेंगे नहीं 
‘राम मरै तो मैं मरूँ नहिं तो मरे बलाय ।
अबिनासी रा (का) बालका र मरे न मारा जाय’।।, 
अर इसकी प्राप्ति में सब स्वतन्त्र हैं, पर धन मिल ज्याय क, मान मिल ज्याय क, सुन्दर शरीर मिल ज्याय क, भोग मिल ज्याय क, रुपये मिल ज्याय- इसमें(इनमें) कोई स्वतन्त्र नहीं है। रामजी भी स्वतन्त्र नहीं है क राज मिल ज्याय । (हल्की हँसी) कोई स्वतन्त्र नहीं और मौज में सब स्वतन्त्र है, और उसमें जितना आणँद है, (12) [ उतना ] उन पराई चीजसे सुखी होणे वाळा कभी सुखी हो नहीं सकता क्यों(कि)
  'पराधीन सुपनेहुँ(सपनेहुँ) सुख नाहीं' ।। '
(रामचरितमानस १|१०२|५)।
धन के अधीन हुआ तो पराधीन हो गया, राज्य मिला तो पराधीन हो गया, पराधीनको सुख नहीं। सदा स्वतन्त्र हो ज्याय । किसी बात की पराधीनता न रहे । उस स्वतन्त्रता का अर्थ यह नहीं क उच्छृङ्खल हो ज्याय (और) मन मानें ज्यूँ(ज्यों) करे। उद्दण्डता करे- ये अर्थ नहीं है। अपणे सुख के लिये, अपणे आराम के लिये, अपणे आणँद के लिये, कभी किसी चीज की गरज(गर्ज़) किंचित् मात्र् रहे ही नहीं,  भीतरसे  खाता ही उठ ज्याय। 
सज्जनों ! मैं बात तो कहता हूँ, आप लोग कृपा करें, मेरी बात की तरफ ध्यान दें। ऐसे हम बण सकते हैं, ऐसा बड़ा भारी लाभ हम ले सकते हैं, बिलकुल ले सकते हैं, अर बड़ी सुगमता से ले सकते हैं। (13) ऐसा धन हम इकट्ठा कर सकते हैं, जिसमें सदा तृप्ति रहे, मौज ही मौज रहे। मृत्युके समयमें भी दुःखी न होवें । कबीर साहब ने कहा है-
सब जग डरपे मरणसे अर मेरे मरण आणँद ।
कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द।। 
दुनियाँमात्र् मरणे से डरती है, हमारे तो मरणे में आणँद है। यहाँ से मरे तो बहुत ही आणँद ही में- आणँद में जायेंगे डर किस बात का , मौज है यहाँ ।  डरता वही है जो शरीर के आधीन हो गया- शरीरको 'मैं' अथवा 'मेरा' मानता है , अपणेको शरीर मानणा अथवा शरीरको अपणा मानणा। अपणेको शरीर मानणा हुआ 'मैं- पन' -- 'अहंता' (14) और शरीरको अपणा मानणा हुआ 'ममता' । तो 'मैं' 'यह हूँ' र ये 'मेरा है'- ऐसा बिचार रखणे(रखने) वाला तो मरेगा र डरेगा , संसार का कोई दुःख ऐसा है नहीं जो शरीरको 'मैं' और 'मेरा' मानणे वाळे को न मिले। ऐसा 'दुःख' है ई(ही) नीं(नहीं)। कोई ऐसा 'दुःख' नहीं है जो उसको न मिले। सब तरह का 'दुःख' मिलेगा और मिलेगा अर मिलता ही जायेगा, जब तक 'मैं' और 'मेरा' मानेगा तब तक मिलता जायेगा 'दुःख' - 
मैं मेरे की जेवड़ी गळ बँधियो संसार।
दास कबीरा क्यों  बँधे जिसके राम आधार।। 
उसका शरीर आधार नहीं है, उसके रामजी आधार है, तो कबीरजी कहते हैं- हमारेको किसका भय भाई? ये 'मैं' - 'मेरे' की जेवङी बँधी है ना-  गळ बँधियो संसार।  संसार एक गळेमें फाँसी है - 'मैं' - 'मेरे' की। सच्ची पूछो तो (15) बात ये है, कह, मनुष्य 'मैं' और 'मेरा' - ये मिटा सकता है। 'मैं' और 'मेरे' को बढ़ा ले पूरा [ ये ] किसी के हाथ में नईं(नहीं) । कितना ही ऊँचा 'मैं' बण ज्यायगा तो उससे ऊँचा और रह ज्यायगा कोई , बाकी और ऊँचा रह ज्यायगा , और ऊँचा रह ज्यायगा । और सर्वोपरि हो ज्यायगा । दुनियाँमात्र् में,  कहीं भी उससे बड़ा नहीं रहा है तो एक होगा। दो तो  हो इ नईं सकते। दोनों बराबर हो जायेगें, 'सबसे बड़े' कैसे होगा? अर वो(जो) , सबसे बड़ा होगा  सबसे अधिक भयभीत होगा वो ; क्योंकि सबके ऊपर आधिपत्य करता है तो आधिपत्य करणे वालेको सुख नहीं मिलता है। ये बहम है।  एक मिनिस्टर बणता है क मैं मालिक हूँ। वो मालिक नहीं , दुनियाँ का गुलाम है, गुलाम, गुलाम। अपणे को बड़ा मानता है, है दुनियाँ के आधीन। [ दुनियाँ ] सबकी सब बदल जाय तो जय रामजी री(जय रामजी की) , कुछ नहीं। बोट(वोट) नहीं दे तो? (16) क्या दशा हो? पराधीन है पराधीन। संतो ने इस पट्टे को बढ़िया नहीं (बताया) है,
राम पट्टा है रामदास, दिन– दिन दूणा थाय। 
पट्टा तो भई ! ये है जो
राम पट्टा है राम . दिन दिन दूणा थाय।। 
तो पट्टा मिल ज्याय तो दूणा(दूना)- ही- दूणा बढ़े, कभी घाटा पङे ही नहीं । अर वो पट्टा सब को मिल ज्याय । एक- एक सर्वोपरि होजायेंगे, सब के सब सर्वोपरि हो जायेंगे और किसी को ही दखल नहीं होगी, किसी के भी दूखेगा नहीं। जिनको मिल गया वे भी राजी अर जिसको(जिनको) नहीं मिला वे भी राजी अर मिलना(पाना) चाहते हैं , वे भी राजी हैं । सब- के- सब प्रसन्न हो ज्याय । ऐसी बात है, अर सीधी बात है भाई। सीधी, सरल बात - कह, 
राम राम राम राम राम राम राम राम राम
राम राम राम राम राम राम राम राम राम ।।  
आप कई तरह का(के) उद्योग करते हो, कई तरह का मनोरथ करते हो, कई तरह का संग्रह करते हो, (17) जो कि अपणे हाथ की बात नहीं है । बिद्वान (विद्वान) बण्णा हाथकी (बात) नाहीं(नहीं), धनवान बनना हाथकी बात नहीं, मान पा ज्याणा हाथकी बात नहीं, सब लोग प्रशंसा करे, हाथकी बात नहीं, राम राम राम राम करे जणा(तब) पराधीन की बात ही नहीं, इनमें क्या पराधीन है भाई? हरदम राम राम करे।  जबानसे नहीं हो तो भीतर- भीतर से करे।  अर शक्ति नहीं (है) तो पड़ा- पड़ा ही , भगवान् के चरणों में पड़ा हूँ (ऐसा मानले)। केवल इतनीज (इतनी- सी) बात ।
  मैं दुनियाँ में पड़ा हूँ , दुनियाँ में क्यों पड़ा [ है ] रे ? भगवान् के चरणों में हूँ [ - ऐसा मान ] ' सर्वतःपाणिपादं तत् ' (गीता १३|१३)    - भगवान् के सब जगह चरण है । तो जहाँ आप पड़े हो, हम पड़े हैं, वहाँ  चरण नहीं है क्या भगवान् के?  नहीं तो 'सर्वतःपाणिपादम् '  कैसे कहा? सब जगह भगवान् के चरण हैं, तो हम भगवान् के चरणों में पड़े हैं, हमारेको क्या भय है? क्या चिन्ता है? 
धिन शरणों महाराजको निशदिन करिये मौज। (18) 
तो भगवान् रो शरणो है (भगवान् का आधार है)।
निशदिन करिये मौज  (ज्यूँ - वैसे ही)
संतदास संसार सुख दई दिखावे नौज (नहीं ) ।। 
ऐसा है हो ऽऽ ! -  दई(भगवान्) कभी सुख न दिखावे  , संसारका सुख न दिखावे, कृपा करे भगवान्। कह, 'सुख के माथै सिल पङो'।  ये नहीं दिखावे ।
अब संत तो आ(यह) बात कैवे(कहते हैं) र आपाँ चावाँ(अपने चाहते हैं) क(कि) - सुख मिले।
जो बिषिया संतन तजी, ताही नर लिपटाय।
ज्यौं नर डारे वमनको र स्वान स्वाद सौं खाय ।। 
उल्टी(वमन) हो जाती है न , उल्टी होती है तब अपणी भाषामें  - 'जी दोरो ह्वे है' कह (कहते हैं)  (जीव- अन्दर से दुखी हो रहा है)  जी दोरो ह्वे जणा उल्टी ह्वे है क। , जी दोरो ह्वे जणा उल्टी ह्वे है न ! कोई सोरे में ह्वे है?  (अन्दर से दुखी होता है तब उल्टी होती है न , कोई सुखी रहने में होती है ? )  जी दोरो ह्वे जब(तब) उल्टी ह्वे,(19) उल्टी हू ज्याय जणा सोरो हू ज्याय (जीव- अन्दर से दुखी होता है तब उल्टी होती है और जब उल्टी हो जाय , तब सुखी हो जाता है)  , ठीक, साफ उल्टी हो ज्याय, तो जी सोरो हू ज्याय। तो संताँ(संतों) ने उल्टी करदी- संसारको छोड़ दिया, भोग छोड़ दिया, तो उल्टी हो गयी। उल्टी कैसे है?  कह, सुल्टी तो खाणे- खाणे(खाने- खाने) में है , वह (छोङना) तो उल्टी ही है। लोग खाणो चावे र, वेरे लिये वो उल्टी  {लोग खाना चाहते हैं आदि और उन (संतों) के लिये वो विषय आदि  है उल्टी}  , लोग विषय भोगणो चावे (भोगना चाहते हैं) , संसार चावे (संसार को चाहते हैं) , मिल ज्याय रुपया पैसा र मान र  सत्कार, भोग मिल ज्याय । अर संतों के वो हुई उल्टी । 
उल्टी हो जाणेपर कुल्ला भी करें तो और ज्यादा [उल्टी की सम्भावना ] , मक्खियाँ भिणके (भिनके ) र नाक र (आदि)  देखेंगे तो और उल्टी हो ज्यायगी, इस वास्ते (इसलिये) उसकी तरफ देखते ही नहीं, अर कुत्ते लड़ते हैं - वो तो कह , मैं खाऊँ, वो कहते- मैं खाऊँ । 'स्वान स्वाद सौं खाय '   ( हँसते हुए [- समझे? ] ) एक- एक लड़कर खाते हैं। ऐसे (20) लोग संसार के भोगोंके लिये, रुपयों के लिये र  पदार्थोंके लिये, मान के लिये, बडाई के लिये लड़ते हैं कि मेरेको मिल ज्याय , वो कहता- मेरेको मिल ज्याय, वो कहते- मेरेको मिल ज्याय, तो कुत्ते से भी नीची दशा है भई, समझदार होकर ऐसा करे। कुत्ता बिचारा बेसमझ और अपणे समझते हैं। 
  अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नाति पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ।।
(भर्तृहरिवैराग्यशतक)। (गीता साधक- संजीवनी 11/29)।  
 
 
मूढ़ता , हद हो गयी।
अजानन् दाहार्तिं पतति शलभस्तीव्र॰
(अजानन् दाहात्म्यं पतति शलभो दीपदहने )
, पतंगा जाणता नहीं कि मैं जळ(जल) ज्याऊँगा , ऐसा जाणता नहीं है र आग में पड़ ज्याता है अर मर ज्याता है बिचारा । ये कीट , पतंग, मछली भी जाणती नहीं, (21) वो टुकड़ा है, जो काँटा है, वो (उसको) निगळ जाती है अर मर ज्याती है बिचारी(बेचारी)। वे तो जाणते नहीं - अजानन् दाहार्तिं, न मीनोऽपि अज्ञात्वा ।  मछली को पता नहीं और हम कैसे (हैं) क विजानन्तः -  बिशेषतासे जाणते हैं, ठीक- ठीक जाणते हैं, भोग भोगकरके देखा है, कई वार उथल- पुथल करके देखा है अर उससे ग्लानि हुई है, मन(में) पश्चात्ताप  हुआ है, दुःख पाया है। विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्   हम लोग ठीक तरहसे जाणते हुए विपत्तियों के जाल से जटिल , ऐसे भोगोंका , हम त्याग नहीं करते हैं। अहह गहनो मोह -  मूढ़ता की हद्द(हद) हो गयी। इस मूढ़ता को छोड़ दो भाई । ये ई तो काम है। सत्संग में आणा- करणा(आना- करना) , इसका अर्थ यही कि मूढ़ता को छोङदें। असली धन ले करके जावें (जायें) । वो धन क्या काम का जो अठे(यहीं) ही रह ज्याय र हम मर ज्यावें(जायँ) बीचमें ही ! ऐसा धन कमावें(कमायें) (22) जको(जो) मौज में , साथ में ही जाय, संतों का धन साथ रहता है सदा। ऐसा धन कमाया जको सदा ही साथमें रहे, कभी बिछुड़े ही नहीं, वो धन लेणेके (लेनेके) लिये हम लोग आये हैं। सच्चे ग्राहक बण ज्यायँ , केवल चाहना हमारी हो , उससे मिलते हैं भगवान्। 
परमात्मा चाहना मात्र् से मिलते हैं ; पण चाहना होणी चहिए (होनी चाहिये) एक ही, दूजी(दूसरी) नहीं । 
एक बाण(बानि)  करुणा(करुना)निधान की। सो प्रिय जाके गति न आन की ।। 
  (रामचरितमानस ३|१०|८)।
  और का सहारा न हो, वो उसको मिलता है क्योंकि और(दूसरा) सहारा रहणेसे उसका मन उस, और की तरफ चला जाता है, इस वास्ते वो(परमात्मा) मिलता नहीं । और (दूसरी) चाहना न होणे से एक चाहना होती है भगवान् की, तो भगवान् एकही है तो चाहना एक ही है बस, फेर(फिर) मिल ज्यायगा, खट मिल ज्यायगा । फेर देरी का काम नहीं। और (23) चाहना नहीं, चीज भले ई आपके पास रहो, शरीर आपके पास रहो, ऊमर रहे, पदार्थ रहे, परन्तु चाहना न रहे।
चाह चूहङी रामदास सब नीचोंसे नीच ।
तू तो केवल ब्रह्म था ये चाह न होती बीच ।।
  ये अगर तेरे पास नहीं होती तो तुम तो केवल ब्रह्म हो । इस चाहना के कारण से भाई ! ये दशा है अर बड़ी निन्दा होगी, बड़ा तिरस्कार होगा, बड़ा अपमान होगा, बड़ा दुःख होगा और मिलेगा कुछ नहीं भाई। अपणी सीधी भाषा में - कोरो माजणो गमावणो है (केवल इज्जत गमाना- खोना है) और कुछ नहीं । मिलणो- मिलणो कुछ नहीं है, माजणो खोवणो(खोना) है । तो माजणो खोवणने  आया हा क्या? (तो इज्जत खोने के लिये आये थे क्या?) मनुष्य बण्या(बने) हो, कि...(और) रामजी कृपा करी(की) है तो ऐड़ी(ऐसी) बेइज्जती करावण ने आया हाँ ?(करवाने के लिये आये हैं?) बड़ी भारी बेइज्जती, मिनख बणकरके र फेर(मनुष्य बन करके और फिर) भी सदा दुःखी(ही) रहे,  (24 बडी गलती (है)। 
महान् सुख की बात है ये -
मैं तो प्रार्थना करता हूँ भाईयोंसे, बहनों(से) और हमारे आदरणीय साधु समाजसे कि आप थोड़ा(थोङी) कृपा करें, हम लोग मिल करके बातें करें, क भई ऐसा हो सकता है क्या? अरे ऐसा ही हो सकता है । संसार का धन र विद्या र मान र बड़ाई-  ये मिल ज्याय हाथकी बात नहीं है। इसमें कोई स्वाधीन नहीं है और इसकी प्राप्तिमें कोई पराधीन नहीं है। आप कृपा करें, थोड़ी सी कृपा करें। मैं आपको धोखा नहीं देता हूँ। आपको ललचाता हूँ , कोई विपरीत- मार्ग में ले जाता हूँ, ठगाई करता हूँ, ऐसी बात, नियत हमारा(हमारी) नहीं है, (25) आपको महान् आणँद मिले(-ऐसी नियत है हमारी) और संत- महात्माओं ने कहा है वो बात कहणा चाहता हूँ, उस तरफ भी ले जाणा चाहता हूँ। तो सब संत कृपा करें और इकट्ठे होकर के इसका बिचार करें, बहुत लाभ की बात है, बहुत लाभ की बात है, बहुत ही लाभकी बात है। तो ये प्रार्थना है।
मैं साधु समाज में रह चूका हूँ । बच्चा था तबसे अभीतक इस साधूवेष में हूँ, तो मैंने देखी है , बहुत बातें देखी। अपणी मारवाड़ी भाषामें कह न- (कहते हैं न-) 'ऊँनी - ठण्डी के ई देखी (है)'  (गर्म - ठण्डी कई देखी है) अच्छी- भूण्डी(बुरी) केई(कई) बातें देखी है, तो मैं भुगत- भोगी(भुक्तभोगी) हूँ। 
आदमी एक तो सीख्योड़ो ह्वे(सीखा हुआ होता) है र एक भोग्योड़ो ह्वे(भोगा हुआ होता) है, इणमें,  दोनों  में बड़ा फर्क है । सीख्योड़ो तो भूल ज्याय पण भोग्योड़ो भूले कोनी (सीखा हुआ तो भूल जाता है पर भोगा हुआ भूलता नहीं) । (26) कहावत है क नीं(है कि नहीं) ! --
'दोरो कूट्योङो र सोरो जिमायौङो भूले कोनी' ,  याद रेवै। (बहुत दुखी करते हुए पीटा हुआ और बहुत सुखी करते हुए भोजन कराया हुआ - भूलता नहीं  , याद रहता है)
(तो) मनें(मेरेको) बातें याद है, मेरे(को) बोहोत बरस हुआ है(हुए हैं), इस बेष(वेष) में आये हुए, होश में आये हुए, समझ में आये हुए, और मैं भाई ! देखी है बातें। मैं हाथ जोड़के(जोङकर) कहता हूँ कि मेरी देखी हुई बातें है, 'ए पापङ पोयौङा है म्हारा' । (ये पापङ बेले हुए हैं मेरे) । देख्योड़ी ई(देखी हुई ही) बात है। नमूना देखा है सब, तरह–तरह का देखा। 
मेरे मन में आती है कि मैं भटका कई जगह और मैं [ जो ] चाहता था वो चीज नहीं मिली, जब(तब) भटकता रहा। उसके लिये मैंने गृहस्थोंका र साधुओंका कोई बिचार ई(ही) नहीं किया, कह, साधुके पास मिल ज्याय  कि, गृहस्थी के ई पास मिल ज्याय, कठे ही(कहीं भी) मिल ज्याय ।  भूख लगती है, भिक्षा माँगता है (27) तो कठे ही मिल ज्याय , ऐसी मन में रही और उससे लाभ हुआ है भाई।
और मेरे एक मन में आती है , आप क्षमा कर देंगे, मैं अभिमान से नहीं कहता हूँ । बहुत सुगमता से वो मार्ग मिल ज्याय हमारे को, बहुत सरलता से बड़ी भारी उन्नति हो ज्याय और थोड़े दिनों में हो सकती है, महिनों में , बरसों में हो ज्याय  और बिलकुल हो ज्याय- इसमें सन्देह नहीं। केवल इसकी चाहना आप जाग्रत करें और आप पूछें और वैसे ही चलें। थोड़ा(थोङे) दिन, पहले तो भई सहणा(सहना) भी पड़ता है, कष्ट भी सहणा पड़ता है। परन्तु कष्ट वो कष्ट नहीं होता । जब अगाड़ी चीज मिलने वाली होती है न , तो वो कष्ट कष्टदायी नहीं होता, दुखदायी नहीं होता । ऐसे आप लोग लग ज्यायँ तो बड़ी कृपा मानूँगा आपकी, बहुत बड़ी कृपा।  (28) एक, मेरे एक शौक लगी है , एक , भीतरमें है ऐसी एक, उसको जलन कहदें तो ई (तो भी)  कोई आश्चर्यकी [बात] ना(नहीं) है पण जलन है नहीं वैसी। जैसी जलन जलाती है, ऐसी नहीं जलाती है, पण जलन है । आप लोग कृपा करके मेरी बात मानें, सुणें, उस पर बिचार करें, उसको समझणे(समझने) का उद्योग करें, चेष्टा करें, शंका करें, मेरेसे पूछें,  अर मेरेसे ही क्यों ,  संतों की बाणी पढ़े(पढें) , संत- महात्माओं की बात है न , उनको देखे(देखें) , पढें,  सुणें, समझें  और जो समझणे वाले हैं उनसे आपस में बात करे (करें) । तो बोहोत(बहुत) बड़े लाभ की बात है । नहीं तो समय आज दिन का गया , वैसे और रहा हुआ समय भी हाथों से निकल ज्यायगा । और फेर कुछ नहीं। आज दिनतक का समय चला गया ऐसे ये चला जायगा और ले लो तो बड़ा भारी लाभ (29) ले लोगे, हो जायेगा लाभ- इसमें सन्देह नहीं, किंचित् मात्र् भी सन्देह नहीं। अब इसमें कोई शंका हो तो बोलो आप।
भगवान् के नाम का जप है सीधा, सरल। 
सुमित सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाह(लाहु) परलोक निबाहू ।। 
(रामचरितमानस १|२०|२)।
लोक र परलोक, दोनों में ईं(ही) काम ठीक हो ज्याय, 
वो ही राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम राम [ है यह ] ।
श्रीजी महाराज, श्रीरामदासजी महाराज को देषनिकाळा हुआ, देश निकाळा। जोधपुरसे हुक्म हो गया क हमारे देश (खेङापा गाँव) में मत रहो। आप बाहर, देवळों  के सामने है नीं(न) खेजड़ी, उसके नीचे दातुन कर रहे थे, (तो) हुकम आ गया। वहाँ से ही चल दिया(दिये) और कहा भई ! हमारे गुरु- महाराज की बाणी(वाणी) का गुटका(पुस्तक) और छड़ी, ये लियाओ (ले आओ) । (30) भीतर आकर नहीं देखा , बाहर ही । आ ज्याओ(जाओ) , राज का हुकम हो गया। चीज- बस्तु भण्डार भरे , है जैसे- के- जैसे छोड़के(छोङकर) , वहाँ से ही चल दिये। [ पीछे ] इस राज में बड़ी आफत आई, दुःख हुआ। [ उन संतों को ] बीकानेर दरबार ने बुला लिया, द्यालजी (दयालजी) महाराज भी साथ में ईं थे। तो लोगों ने [ जोधपुर दरबार से ] कहा - कह , तुमने साधुओं को तंग किया, दुःख दिया , तो अब सुख कैसे होगा? दुःख पाओगे तो उनको बुलाओ। यहाँ से बुलावा भेजा । तो सुणते हैं (सुना है) कि [ रामदास जी महाराज के पुत्र ] द्याल- महाराज ने पत्र लिखा क जिस अवगुण(भजन) के कारण से हम निकाले गये वो अवगुण बढ़ा है, घटा नहीं है। हम राम राम करते थे न, तो वो धन तो बढ़ा ही है घटा थोड़े ही है। जिस कारणसे आप(आपने) इस तरह   निकाळा है न , वो हमारा अवगुण कि  (31) कुछ भी मानलो उसको आप , ऐब मानो , औगुण(अवगुण) मानो, खराबी मानो, वो हमारी तो बढ़ी है। अब क्यों बुलाते हो? क्या , अब शुद्ध हो गये क्या हम?  (हँसते हुए बोल रहे हैं ) दयालजी महाराज थे वे, दयालजीके भी गुरुजी (श्री रामदासजी महाराज) और दयालु थे महाराज ,
उन्होंने केह्यो(कहा)  कि बुलावे(बुलाते हैं) तो चलो भाई । (हँसत हुए बोल रहे हैं- ) समझे ?
  अब तो यूँ थोङी ही है , अब कहे तो यूँ ही सही
[ 'देश निकाला' देने वाली गलती को लेकर अङे नहीं रहे कि अब हम वापस नहीं आयेंगे , दया करके 'बुलावे' वाली बात भी मानली ]
अर पधार गये, वो ऐसा पट्टा है महाराज, देश निकाळा देणे(देने) पर भी अपणा(अपना)  तो बढ़े- 'दिन दिन दूणा थाय', । 
  नारायण, नारायण, राऽऽम राऽऽम राऽम  ।। 
रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(पीछे बोलते लोग- रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम (32) राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।) (33) 
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
हे  रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा ऽ श्री राऽऽमा ।
(रामा ऽऽ श्री राऽऽमा रामा श्री राऽऽमा।)
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।। )
रामा श्री राम राम राऽऽऽम सीताराम ।।
(रामा श्री राम राम राऽऽऽम (34)  सीताराम ।। )
सियावर  रामचन्द्रकी जय,
मोरमुकुट बँशीवाले की (जय) । 
{  दिनांक २०|०३|१९८१_ दुपहर २ बजे  खेङापा (जोधपुर) वाले प्रवचन
                                 का 
                       यथावत् लेखन -   }
लेखनकर्ता- डुँगरदास राम आदि
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