शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें।

                        ॥श्रीहरि:॥

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें।

××× ने बताया कि दि. 7-6-2001 के 4 बजे वाले प्रवचन में संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने की गर्ज की गयी है,सो उनका यह कहना गलत है।

क्योंकि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का यह 20010607_1600_Sab Kuch Bhagwan Ka Bhagwan Hi Hai_VV

प्रवचन मैंने सुना है।इस पूरे प्रवचन में कहीं भी संत श्री शरणानन्दजी महाराज का नाम नहीं लिया गया है।
(और दिनांक 19911215_0518_Jaane Hue Asat Ka Tyag वाला प्रवचन भी सुना है।इसमेंभी नाम नहीं लिया गया है)।

इसमें न तो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने के लिये गर्ज की गयी है और न अपनी बात मनवाने के लिये।

और ये गर्ज की बातें भी तब कही गयी है कि जब कोई व्यक्ति बीच में उठ गया।

इस में यह दृष्टि नहीं है कि तुम संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मानो।

इस प्रवचन में जो तीन बातें बतायी गयी है,उसकी तरफ ध्यान न देकर कोई बीच में ही उठ गया तब सुनने की प्रार्थना की गयी और फटकार भी लगायी गई है।

तीन प्रकार की धारणा वाली बातें इस प्रकार कही गयी- 
1-
सब कुछ भगवान का है
2-
सब कुछ भगवान ही हैं और
3-
इससे आगे वाली बात का वर्णन नहीं होता।
इनको स्वीकार कर लेने का बहुत बड़ा माहात्म्य भी बाताया। 

यहाँ परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का कहना है कि मेरे मनमें जो अच्छी बातें हैं, मार्मिक बातें हैं,वो कहता हूँ मैं  और (आप लोग) सुनते ही नहीं। उठकर चल देते हैं; शर्म नहीं आती।

यहाँ  सुन लेने का तात्पर्य है, श्री शरणानन्दजी महाराज की बात मनवाने तात्पर्य नहीं है। अगर होता तो उनका नाम लेकर साफ-साफ भी कह सकते थे।

इतना होते हुए भी  ××× का आग्रह अगर अनुचित ढंग से प्रचार करने का हो गया है तो इसका परिणाम भी समय बतायेगा।

इससे पहले वाला लेख यहाँ देखें-

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें। http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post.html?m=1

और यह भी देखें-

संतों के प्रति मनगढन्त बातें न फैलाएं।
http://dungrdasram.blogspot.in/2017/07/blog-post.html?m=1

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।

                     ॥श्रीहरिः॥

कृपया श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का गौरव कम न करें।

(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी  महाराज के नाम के सहारे संत श्रीशरणानन्दजी महाराज का अनुचित ढंग से प्रचार न करें)। 

[आज कल कुछ ऐसे लोग देखने में आते हैं जो लोभ के कारण संतों की वाणी का भी दुरुपयोग कर देते हैं।

(और कई ऐसे लोग भी देखने में आते हैं कि उस दुरुपयोग को देखकर भी कुछ प्रतिकार नहीं करते,असत का प्रचार होने देते हैं और सहते रहते हैं)।

जो लोग वास्तविकता से परिचित नहीं है वो ही ऐसी बातें कहते हैं और सुनते हैं तथा बिना जाने प्रचार भी कर देते हैं। उन लोगों से कहना है कि कृपया यह लेख पढ़ें-]

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी की कभी-कभी बड़ी प्रशंसा कर देते थे।

उन बातों को लेकर कई जने संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी का प्रचार करते हुए यह दिखाने लग गये कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज (जो कि इतने महान हो गये हैं वो) इनकी वाणी से ही हुए हैं(उनको तत्त्वज्ञान इनकी वाणी से ही हुआ है)। जबकि वास्तविक बात यह नहीं है।

(और इस प्रकार की कई ऐसी-ऐसी बातें भी लिखने और पढ़ने लग गये कि जो बड़ी अनुचित है तथा झूठी है। वो बातें यहाँ लिखना उचित नहीं लगता)।

यह बात प्रसिद्ध है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज शुरु में ही गीताप्रेस के संस्थापक  सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के पास आये और जब तक उनका शरीर रहा तब तक उनके साथ ही रहे और वहीं उनको वो लाभ प्राप्त हुआ जिस लाभ की प्राप्ति होनेके बाद कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता।

संत श्री शरणानन्दजी महाराज का तो परिचय ही बहुत देरी से हुआ था।

(संत श्री शरणानन्दजी महाराज भी सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका को 'पिताजी' कहते थे)।

ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज को जो प्राप्ति हुई, जो लाभ हुआ वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की वाणी से हुआ।

जो लोग वास्तविकता से परिचित नहीं है वो ही ऐसी बातें कहते हैं और सुनते हैं तथा बिना जाने प्रचार भी कर देते हैं। उन लोगों से कहना है कि कृपया वास्तविक बात को समझें

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज किसी व्यक्ति के अनुयायी नहीं थे,वो तत्त्व के अनुयायी थे। यह बात " "मेरे विचार"(श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" नामक लेख के तीसरे सिद्धान्त में उन्होंने स्वयं लिखवायी है

यथा-

★-: मेरे विचार :-★

( श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक त्तत्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा त्तत्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग...

http://dungrdasram.blogspot.in/2014/07/blog-post_0.html?m=1
...

×××
आप जिस ढंग से श्री स्वामीजी महाराज का नाम लेकर लिखते हो,उससे ऐसा लगता है कि श्री स्वामीजी महाराज को जो प्राप्ति हुई है वो संत श्री शरणानन्दजी महाराज की पुस्तकों से ही हुई है और वे उनसे ही सीखे हैं,उनके अनुयायी हैं, आदि; परन्तु ऐसी बात है नहीं।

यह उन महापुरुषों की महानता है कि वे अपनी बातकी प्रशंसा न करके दूसरों को आदर देते हैं और उनकी प्रशंसा कर देते हैं। संत श्री शरणानन्दजी महाराज की बुद्धि की प्रशंसा कर देते हैं।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज तो गीता,रामायण भागवत आदि की भी बड़ी प्रशंसा करते हैं और इनसे लाभ होने की बात भी कहते हैं।

इसी प्रकार संत श्री तुलसीदासजी महाराज, कबीरदासजी महाराज, सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दका और मीराँबाई आदि संतों की भी वे प्रशंसा करते हैं और उनसे लाभ होने की बात बताते हैं।

फिर सिर्फ एक संत श्री शरणानन्दजी महाराज की प्रशंसा की बातों को लेकर ही उनके अनुयायी या उनसे ही लाभ लेने वाले बाताना कहाँ तक उचित है?।

उचित की तो बात ही क्या यह अनुचित है और इससे कई लोगों को आपत्ति है।

इस प्रकार का प्रचार तो स्वयं संत श्रीशरणानन्दजी महाराज को भी पसन्द नहीं  होता जिसमें अपनी वाणी के प्रचार के लोभ से श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज को एक साधारण आदमी की तरह उनसे लाभ लेने वाला बताया गया हो।

कृपया इस प्रकार संतों के अपराध से बचें। ऐसा न हो कि आप लाभ के भरोसे अपनी हानि करलें।

श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के सत्संग प्रेमियों को आपका ऐसा लिखना अखरता है। अतः उनके तकलीफ के कारण आप न बनें। 

इसका अर्थ यह नहीं है कि हम संत श्रीशरणानन्दजी महाराज की वाणी का प्रचार नहीं चाहते।

हमने तो खुद उनकी पुस्तकें लोगों को दी है ; परन्तु आप जिस प्रकार उनकी वाणी-प्रचार के लोभ से श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का दर्जा घटाते हो,यह हमें स्वीकार नहीं है और लोगों को भी यह बुरा लगता है।

हम आपके हित की सलाह देते हैं कि अब आइन्दा ऐसा न करें।

कृपया यह भी पढ़ें-

संतवाणी का प्रचार करने के लिये भी अनुचित ढंग का सहारा न लें। http://dungrdasram.blogspot.in/2016/12/blog-post_16.html?m=1 

महापुरुषोंके नामका,कामका और वाणीका प्रचार करें तथा उनका दुरुपयोग न करें , रहस्य समझनेके लिये यह लेख पढें - http://dungrdasram.blogspot.in/2014/01/blog-post_17.html?m=1