सोमवार, 30 जून 2014

सूक्ति २०१-३०१ ÷सूक्ति-प्रकाश:-(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि-) |

                               ||श्रीहरिः||          

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                     -:@ तीसरा शतक (सूक्ति २०१-३०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |
उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |
इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |
इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
२०१-

कह , आँ काँई बाकी छोडिया है ?
कह , मेह और मौत बाकी छोडिया है |

सूक्ति-
२०२-

मरग्यो कुत्तेरी मौत |

सूक्ति-
२०३-

बगत नहीं है मरणेरी (भी) |

सूक्ति-
२०४-

सांस खावणनेईं बगत कौनि |

सूक्ति-
२०५-

जाणै लाल बुझक्कड़ और न जाणै कोय |
पगके चक्की बाँधिकै हिरणा कूदा होय ||

शब्दार्थ-
चक्की (चाकी , जिससे गेहूँ , बाजरी आदि पीसा जाता है ,घट्टी | - चक्कीका एक भाग , पुड़िया पैरके बाँधकर हरिण कूदा होगा)

कथा-

एक गाँवमें जानकार समझे जानेवाले एक सज्जन रहते थे | जिनको लोग लालबुझक्कड़ कहते थे | कोई बात समझमें नहीं आती तो लोग उनसे पूछते थे | वो भी पूरे जानकार न होते हुए भी लोगोंकी दृष्टिमें जानकार बने रहते थे | किसी बातका जवाब न आनेपर भी वो कुछ बनाकर कह देते थे |

एक बार वहाँ हाथीके पैरोंके निशान देखकर लोगोंने आश्चर्य  करते हुए पूछा कि ये इतने बड़े-बड़े पैरोंके निशान किसके हैं ? जब उनके पैर भी इतने बड़े हैं तो वो स्वयं कितना बड़ा होगा ? तब उन्होने कहा कि इस बातको हम (लालबुझक्कड़) जानते हैं , दूसरा कोई नहीं जानता | फिर उन्होने बताया-
लगता है कि पैरके चाकी (चक्कीका पुड़िया) बाँधकर कर कोई हरिण कूदा है -
जाणै लाल बुझक्कड़ और न जाणै कोय |
पगके चक्की बाँधिकै हिरणा कूदा होय ||

सूक्ति-
२०६-

सिर धुनिकै हँसिकै कह्यो कहूँ सो साँची मानियो |
लै गयौ सियानें रावण तिनकी यह सुरमादानियो ||

शब्दार्थ-
सुरमादानी (काजल रखनेकी वस्तु , डिब्बी , कुप्पी ,कूंपला ) |

कथा-

एक दिन लोगोंने जंगलमें एक घाणी और घाणीका लाठ (एक विशाल लकड़ी , जिसका एक छौर घाणीके लगा  रहता है और दूसरे छौरसे बैल घाणी चलाते हैं ) देखा | समझमें न आनेपर लोगोंने लालबुझक्कड़जीसे पूछा (जिनका परिचय ऊपर सूक्ति नं.२०५ में बताया गया है ) | तब उन्होने सिर धुनकर कि मैं हूँ तब आप लोगोंको बता देता हूँ , नहीं तो कौन बताता।
(अगर मैं नहीं रहा-मर गया ! तो आपलोगोंको कौन बतायेगा , आपकी क्या दशा होगी ?) फिर हँसकर कहने लगे कि मैं जौ कहूँगा , उसको आपलोग सत्य मानें | फिर उन्होने बताया कि जब सीताजीको वनमेंसे रावण हरण करके लंका लै गया था  , तब उनकी सुरमादानी यहाँ जंगलमें ही रह गयी थी | यह उन्ही सीताजीकी सुरमादानी है | (यहाँ लाठको सुरमा-अञ्जन आञ्जनेकी श्लाका समझना चाहिये ) |

सूक्ति-
२०७-

मारग-मारग जावतो मारगमें पड़ी गोह |
पूँछ उठाकर देखियो होळी आडा तीन दिन ||

वार्ता-

एक ……कवि थे जो कविता बढिया करते थे परन्तु दोहे आदिके अन्तवाला तुक नहीं मिलाते थे | शायद उनके लिये यह तै था कि तुक न मिलावें और अगर मिला दिया तो जीवित नहीं रहेंगे | किसी कारणवश वो तुक मिल गया , जिससे वो शान्त हो गये |
प्रस्तुत पहेली उन्ही कविकी है कि मैं रास्ते-रास्ते चला जा रहा था | उस रास्तेमें एक गोह पड़ी थीं | उसकी पूँछ उठाकर देखा गया तो पता लगा कि होली आड़े तीन दिन ही बाकी है ; वो था टीपणा (पंचांग) |
कई लोग पंचागको कपड़े या कपड़ेकी बुगची आदिमें रखकर और रस्सीमें लपेट कर साथमें रखते हैं |
ऐसे इनकी कुछ पहेलियाँ और  कविताएँ आगेवाली सूक्तियोंमें भी हैं |

सूक्ति-
२०८-

परबत ऊपरसूँ गोळो गिरियो म्हें जाण्यों बडबौर |
लेय हाथमें चाखियो वाहवारे म्हारा ऊँनाँ खीच कालोका |

शब्दार्थ-
बडबौर (बड़ा बेर , बदरीफल) ऊँनाँ खीच कालोका !  (कलका गरम खीचड़ा ! ) |

(यह शायद प्याज था , जो किसी मालवाहक गाड़ेसे गिर गया था) |

सूक्ति-
२०९-

रिड़क भेंस पींपळ चढी कुत्ते तोड़ायो नाथ |
नीमड़ेसूँ डूम गिरियो टूटो ढेडरो हाथ ,
चटचटार ,साथळमेंसूँ जावतो |
मारियो बापड़े जतीनें , उपासरेमें बैठेनें ||

शब्दार्थ-
रिड़क (भेंसकी एक प्रकारकी आवाज) ,चटचटार (चट-चटसी आवाज करते हुए) , साथळ (जाँघ ,उरू)

[कुआ,लाव,चड़स आदि | जो चड़स टूटकर कूवेमें गिरा था , वो जती (जैनमुनि) का था , उस समय वो उपासरे (आश्रम) में बैठा था , बेचारे वहाँ बैठेके ही नुक्सान कर दिया गया ] |

सूक्ति-
२१०-

जैयाँरी जराजर माँचे फर्र्र मचेली भाटाँरी |
अखो कहै अजमालराँ (अब) शर्म रेवैला ह्नाटाँरी ||

शब्दार्थ-
जैई (लकड़ीके एक लम्बे डण्डेके सिरे पर दो तीखी लकड़ियाँ मजबूतीसे बाँधी हुई होती है , जिससे किसान लोग काँटोंवाली पाई आदि उठाते हैं ,  बेई , जेळी) , जराजर (बार-बार वार करने पर जराजर-जराजर के समान सुनायी देनेवाली आवाज ) , फर्र्र (जोरसे पत्थर फेंकने पर होनेवाली ध्वनि ) , ह्नाटाँरी (भाग जाने वालोंकी ) |

(लगता है कि कोई लड़ाई होनेवाली थी ; यह उक्ति उस समयकी है ) |

सूक्ति-
२११-

तिलकी ओटमें पहाड़ |

सूक्ति-
२१२-

भूखो तो धायाँ पतीजै |

शब्दार्थ-
धायाँ (धापने पर , अन्नसे तृप्त होने पर) , पतीजै (आश्वस्त होता है , विश्वास करता है)  |

सूक्ति-
२१३-

धरण ठिकाणैं आगी |

शब्दार्थ-
धरण …(पेटकी स्वस्थ अवस्था , धरण टल जाने पर दस्त आदि लगने लगती हैं , हालत बिगड़ जाती है ;  जब वो अपनी जगह पर-ठिकाने आ जाती है तो स्वास्थ्य ठीक हो जाता है ) |
जब किसीकी अकल(बुध्दि) ठिकानै आ जाती है तो उदाहरण दिया जाता है कि 'धरण ठिकाणै आगी'-आ गई |

सूक्ति-
२१४-

बन्दो जावै गुजरात ,
कर्म छाँवळी [साथो] साथ |

शब्दार्थ-
छाँवळी (छाया) |

सूक्ति-
२१५-

जाणैं ,न बूझै ; अर हूँ लाडेरी भूआ |
ठा नीं , ठिकाणौं नीं , अर हूँ लाडेरी भूआ |

शब्दार्थ-
ठा नीं (पता नहीं) |

सूक्ति-
२१६-

आ ए राँडी ! राड़ कराँ ,
निकमा बैठा काँई कराँ |

शबदार्थ-
निकमा ( निकम्मा , निष्क्रिय , खाली) |

सूक्ति-
२१७-

थोथा चणा, बाजै घणा |

सूक्ति-
२१८-

हम बड़ा गळी साँकड़ी |

शब्दार्थ-
हम (अहम , अहंकार) |

सूक्ति-
२१९-

पहले रहता यूँ , तो तबला जाता क्यूँ |

सूक्ति-
२२०-

काळा चाब्या है केइरा |

भावार्थ-

किसीका कोई हक मारता है , कोई वस्तु लै ले-लेता है और वापस देता नहीं है तो उसको इस जन्ममें अथवा आगेके जन्ममें ब्याज सहित वो सब वापस चुकाना पड़ता है -

मूण्डैसूँ खायौड़ा फुण्णनासूँ निकळसी |

चाहे उस समय उसके पास चुकानेके लिये वो वस्तु आदि न भी हो तो भी दुख पाकर अथवा उसके घरका पशु आदि बनकर चुकाना पड़ता है | इसलिये किसीका हक खाना दुखदायी होता है ,परन्तु काळा (ठगाई करके , झूठ-कपट करके , धोखा देकर) खाना तो बहुत दुख देनेवाला होता है | लोगोंकी मान्यता है किसीके काळे तिल नहीं खाने चाहिये | अगर परवश होकर कोई बड़ा दुख पाता है तो कहा जाता है किसीके काले चबाये हैं-'काळा चाब्या है केईरा' |

सूक्ति-
२२१-

ऐरे गैरे , नत्थूखैरे |

सूक्ति-
२२२-

खाड़ैतीरो काँई भार (है) ! |

शब्दार्थ-
खाड़ैती (गाड़ी आदिको चलानेवाला) |

सूक्ति-
२२३-

देखै न कुत्तो भुसै |

सूक्ति-
२२४-

कह कबीर मैं कहता डरूँ ,
पर गोरख कहै सो मैं क्या करूँ ?

सूक्ति-
२२५-

एकै कही दूजै मानी , गोरख कहै दौनों ही ज्ञानी |
एकै कही दूजै उथापी , गोरख कहै दौनों ही पापी ||

शब्दार्थ-
उथापी (जैसे , किसीने किसीको कोई काम करनेके लिये कहा कि अमुक काम करदो ; तो उसको  सुनकर उस कामको खुदने तो किया नहीं और दूसरेको कह दिया कि तुम यह (जिस कामके लिये उसको कहा गया था) काम करदो | इसको'उथापना' कहते हैं | ऐसे उथापनेवालेको कहना भी पाप बताया है कि ऐसे आदमीको अथवा ऐसी परिस्थितिवालेको कहा ही क्यों ?  |

कोई काम करनेके लिये कहे , तो अगर वो धर्मयुक्त है और करनेकी हमारेमें सामर्थ्य हो तो कहने पर उसको करना चाहिये |

जो बात  युक्तियुक्त हो , शास्त्रसम्मत हो और अनुभव की हुई हो , वो बात माननेयोग्य होती है |

भगवान् ,संत-महात्मा और शास्त्र जो बात कहते हैं उसको मानना चाहिये |
(नहीं तो वो पापी है ) |

सूक्ति-
२२६-

सन्मुख हुवै सुथार करै बाँकारा पाधरा |

सूक्ति-
२२७-

टाबरिया घर बसावै ,
तो बाबो बूढी क्यूँ लावै |

सूक्ति-
२२८-

बूढा भाथड़ै घालीजै |

शब्दार्थ-
भाथड़ै (भाथड़ा , चमड़ेका बना हुआ एक बड़ा थैला)

कथा-

एक बारात जानेवाली थी , उसमें सब युवा लोग थे | उनका विचार था कि सब जनान-जवान ही जायेंगे , बूढोंको नहीं लै जायेंगे  , (बूढे तो बेकार होते हैं , बूढे काम नहीं सकते, काम तो जवान लोग ही कर सकते हैं , बूढोंकी क्या जरूरत है, ये तो व्यर्थमें जगह रोकते हैं | कोई काम करना होता है तो उलटे उसमें ये टाँग अड़ाते हैं , काम सफल होने नहीं देते , हुक्म चलाते हैं , काम तो होता नहीं इनसे आदि आदि) |

एक समझदार वृध्दने सोचा कि बारातमें कोई वृध्द आदमी नहीं है ,कोई जरूरी काम पड़ गया तो कैसे होगा  ये सब जवान हैं ,इनमें उत्साह और ताकत तो है ,परन्तु अनुभव नहीं है ,  समझ नहीं है | इसलिये एक वृध्द को साथमें जाना चाहिये | उसने एक युवाको पटाया और सामानकी तरह थैलेमें डालकर उस वृध्दको साथमें रख लिया गया |

बारात जब ससुराल पहुँची तो देखा गया कि सब जवान ही जवान हैं ,साथमें किसी वृध्दको नहीं लाये हैं , वृध्दोंकी आवश्यकता नहीं समझी गयी है , ये अपनेको बलवान और बुध्दिमान समझते हैं कि कोई भी काम होगा तो हम कर लेंगे , बूढोंकी क्या जरूरत है ? आदि आदि |
इन 'जवान लोगोंमें समझ कितनीक है ' यह सामने लानेके लिये ससुरालवालोंने एक युक्ति रची | वो बोले - आप किसी बूढे-बड़ैरेको नहीं लाये ? जवाब मिला-   बूढोंकी क्या जरूरत है , कोई काम हो तो हमको बताओना ! हम करेंगे | तब एक तलाई दिखाकर वो बोले कि इस तलाईको दूधसे भरना है | विवाह बादमें करेंगे , पहले हमारी यह मांग पूरी करो | यह सुनकर सब जवान असमञ्जसमें पड़ गये कि अब क्या करें ? तलाईको दूधसे भरना सम्भव है नहीं और बिना भरे विवाहकी बारी ही नहीं आयेगी और अगर विवाह नहीं हुआ तो वापस कौनसा मुँह लेकर जायेंगे | अगर बूढे लोगोंने पूछ लिया कि आप जवान लोग तो सब काम कर सकते हो , फिर विवाह क्यों नहीं करा सके ? तो उनको क्या उत्तर दैंगे ? आदि आदि | किसी भी जवानको समझमें नहीं आ रहा था कि अब क्या करना चाहिये |
अभी तक किसीको पता नहीं था कि हमारे साथ एक वृध्द हैं | इस बातको एक जवान ही जानता था | अब उस जवानके मनमें आया कि क्यों नहीं उस बूढेसे ही पूछलें कि अब क्या करें ? उसने जाकर परिस्थिति जनायी और पूछा कि अब क्या करें , बड़ी समस्या आ गई है | तब उस वृध्दने युक्ति बतायी कि इन लोगोंसे कहो कि आपकी माँग हमें मंजूर है , हम तलाईको दूधसे भर रहे हैं ; पहले आप इसको जल्दी ही खाली करो | यह सुनकर वो समझ गये कि इनके साथमें कोई वृध्द हैं |
रहस्य खुलने पर सबको यह समझमें आया कि वृध्दोंकी कितनी आवश्यकता होती है | बारातके सारे के सारे जवान जिस कामको नहीं कर पाये थे , उस कामको एक बूढेने कर दिया |  बूढेकी तरकीबसे उनको न तो दूधसे तलाई भरनी पड़ी और न इज्जत गँवानी पड़ी | तभी तो कहा जाता है कि बूढे भाथड़ै घाले जाते हैं |

सूक्ति-
२२९-

बूठै-बूठै हळौत्यो |

शब्दार्थ-
बूठै-बूठै (वर्षा होते ही , तत्काल , अवसर पर ) ,  हळौत्यो (हल चलानेकी शुरुआत )  |

सूक्ति-
२३०-

अकल शरीराँ ऊपजै दियाँ आवै डाम |

भावार्थ-
मनुष्य जब स्वयं विचार करता है , बुध्दि लेना चाहता है , तब अकल(बुध्दि) आती है | अगर स्वयं न सोचे ,न चाहे और दूसरा कोई अकल देता है तो डाम ( गर्म लोहा शरीरसे चिपका कर जला देनेके ) के समान लगती है |
(बुध्दि स्वयंके शरीरमें पैदा होती है ,स्वयं सोचनेसे आती है, देनेसे नहीं आती , देनेसे तो डाम आते हैं ) |

सूक्ति-
२३१-

पाँच-सात रोटी आई एक आयो खाखरो |
दानराम साँची कहवै आसन ऊपर जापरो ||

शब्दार्थ-
खाखरो (मोठौंकी रोटी , कड़ी रोटी ) |

सूक्ति-
२३२-
ओ$म सो$म ऊमरा हरिया खाली औड़ |
नाम बिना निपजै नहीं पचि पचि मरो करौड़ ||

शब्दार्थ-
ऊमरा (हल चलानेसे बनी हुई लंकीर , जिसमें बीज बौये जाते हैं ) , औड़ …(हळाव?) |

सूक्ति-
२३३-

मोठनें अर ठोठनें मूँडै नहीं लगावणो |

शब्दार्थ-
ठोठ (अशिक्षित , अनुभवहीन ,मूर्ख ) |

सूक्ति-
२३४-

डार भारमें भार |
डाल भाड़में भार |

शब्दार्थ-
भार (बौझ) , भाड़ (भट्ठी , चूल्हा) |

सूक्ति-
२३५-

कह, पड़ग्या आप |
लागी तो कौनि ?
कह, लागी नहीं तो पड़्या रोवणनें हा  ! |

सूक्ति-
२३६-

बिगड़्यौड़ो बैरागी भी मांस नहीं खावै |

सूक्ति-
२३७-

चोर-चोर माँसियाही भाई |

शब्दार्थ-
माँसियाही (मौसीके बेटा भाई ही ) |

सूक्ति-
२३८-

नागनाथ साँपनाथ दौनों भाई-भाई |

सूक्ति-
२३९-

ठाकर कहै ठकुराणी ! इणही गाँवमें रहणौ |
ऊँट बिलैया लै गई हाँजी-हाँजी कहणौ ||

भावार्थ-
ठाकुर साहब कहते हैं कि हे ठकुरानी ! इसी गाँवमें रहना है | अगर कहा जाय कि ऊँटको  बिल्ली लै गयी ; तो भी हाँ जी ! हाँ जी ! ही कहना है | यह नहीं कि बिल्ली ऊँटको कैसे लै जा सकती है ? |

सूक्ति-
२४०-

हंसाँरी हंसणी कागलाँनें ब्याहासी,
(तो) बाँरा पितर तो अठे (नरकाँमें ) ही आसी ||

(घटना ठीकसे तो याद नहीं आयी , पर थोड़ीसी बता देते हैं-किसीने अपने पितरोंको नरकोंमें पड़े देखकर पूछा कि ये यहाँ कैसे आ गये ? जवाब मिला कि जौ हंसोंकी हंसिनीका विवाह कौओंके साथमें करेंगे , उनके तो पितर यहीं , नरकोंमें ही आयेंगे | इससे सिध्द हुआ कि यह अन्याय पूछनेवालेने ही पूर्वमें किया है , जिसके फलस्वरूप उनके पितर नरकोंमें गिरे ) |

[ कौओंको अन्न देनेसे तो वो अन्न पितरोंके पास पहुँचता है , उनको  फायदा होता है , परन्तु  परायी स्त्री कौओंको देनेसे या दिलानेसे तो अधर्म(गीता१/४१-४२)के कारण पितरोंका पतन ही होता हैं ] |

सूक्ति-
२४१-

काचो पारो ब्रह्मधन शिवनिर्माल्य जो खाय |
नाथ कहैरे बाळकाँ वो जड़ाँमूळसूँ जाय ||

शब्दार्थ-
ब्रह्मधन (ब्राह्मणका धन) , शिवनिर्माल्य (शिवलिंग पर चढी हुई वस्तु ) , जड़ाँमूळसूँ (जड़समेत अर्थात् इन तीनों चीजोंमेंसे किसी एकको भी जो खाता है वो जड़सहित नष्ट हो जाता है ) |

सूक्ति-
२४२-

दास मनोहर चेला मूँड्या कूड़ा कपटी सोधा |
बळ पताणें बखियाँ आवै ज्यूँ साँवणमें गोधा ||

सूक्ति-
२४३-

दास मनोहर चेल्याँ मूँडी छोटी मग्गी दोय |
दफतर चढगी राजरे छानी रही न कोय ||

सूक्ति-
२४४-

दास मनोहर चेल्याँ मूँडी चेला मूँड्या च्यार |
उणमेंसूँ तो एक न सुधर्यो ताते खाई हार ||

सूक्ति-
२४५-

एक बार भगभोगमें जीव हतै नौ लाख |
मनोहरदास नारी तजी सुण गोरखरी साख ||

सूक्ति-
२४६-

गन्दमगन्दा मूताखाड,पड़-पड़ पशुआ तौड़े हाड |
दिन कर धन्धो रात्यूँ भोग , चरपट कहै बिगाड़्यो जोग ||

सूक्ति-
२४७-

नदी नाळा लाँघिया कीया समँदर पार |
करड़ी …लाँघणी खाडी आँगळ चार ||

सूक्ति-
२४८-

धण साँगी पति मोगरी मैं थी बथुआ माँय |
तब तैं हेलो मारियो ताते बोली नाँय ||

गूढार्थ -
धण-धनिया (पत्नि). साँगी-साँगरी (पतिके संग ). पति-पत्ती (पति). मोगरी-मूळीफल (पतिको खुश कर रही थी) बथुआ-बथुवा (बाथमें) .||

सूक्ति-
२४९-

ओ तो आँडाँसूँही भारयाँ मरे है |

सूक्ति-
२५०

घूसा खोस्याँ किसा मर्दा हळका हुवै है ! |

सूक्ति-
२५१-

(हिंसा) करूँ नहीं , करवाऊँ नहीं और
करणवाळेरो भलो मानूँ नहीं (जाणू नहीं )|

सूक्ति-
२५२-

गाळ्याँसूँ किसा गूमड़ा ह्वै है ! |

उदाहरण-
जैसे किसी कठौर वस्तुकी सिर आदिमें चौट लग जाती है तो चमड़ी आदि समतल न रहकर , उभरकर ऊँची हो जाती है , उसको कहते हैं कि गूमड़ा हो गया | कोई गाळी देता है तो उससे कोई गूमड़े थोड़े ही होते हैं , कुछ नहीं होता | इसलिये कोई गाली देता है तो न चिन्ता करनी चाहिये और न गुस्सा करना चाहिये |

आवत गाळी एक है उथलत होय अनेक |
जै गाली उथलै नहीं (तो) रहै एककी एक ||

सूक्ति-
२५३-

बिधाता तूँ बावळी बाढूँ थारो नाक |
जौड़ाँरा कुजौड़ा करै आँबे भेळो आक ||

सूक्ति-
२५४-

(पति-पत्निमेंसे ) एक साध ,अर एक थूल |
घर जावणरो मूळ ||

शब्दार्थ-
साध (साधुस्वभाव ; साधू अर्थात् श्रेष्ठ स्वभाव वाला , अच्छे स्वभाव वाला ) , थूल (स्थूल अर्थात् मोटी बुध्दिवाला , जिद्दी , कम समझवाला) |

भावार्थ-
पत्नि अगर साधू-स्वभाववाली है और पति स्थूलबुध्दि वाला है , तो समझना चाहिये कि यह घर जानेका अर्थात् बर्बाद होनेका मूल है , ऐसे बेमेल स्वभावसे घर उजड़ सकता है | ऐसे ही अगर पति साधुस्वभाव वाला है , परन्तु पत्नि स्थूलस्वभाव वाली है तो भी समझ लेना चाहिये कि घर जानेका मूल है , इससे भी घर नष्ट हो सकता है | इसलिये पति-पत्निको मेल रखना चाहिये , बेमेल नहीं होना चाहिये |

सूक्ति-
२५५-

डेढ चावळरी खीचड़ी न्यारी ही पकावै है |

सूक्ति-
२५६-

जाणर बोला रेवौ |

शब्दार्थ-
जाणर (जानते हुए भी , जैसे किसीके घरका कोई सदस्य मर जाता है तो बड़ा दुःख होता है , घरवाले रोने लगते हैं , समझाने पर भी उनका रोना बन्द होता नहीं , तब यह कहा जाता है कि ( आपका रोना है तो उचित ही , यह  दुःख है तो ऐसा ही कि रोना बन्द नहीं हो सकता ; परन्तु यह) सब समझते हुए भी आप चुप रहो , हमको तो अब चुप होना है-यह निश्चय करके चुप रहो,  रोवौ मत -जाणर बोला रैवौ |

सूक्ति-
२५७-

चौरीरो धन मोरीमें जावै |

शब्दार्थ-
मोरी (आळेमें आळा ) घरकी दिवालमें कोई वस्तु आदि रखने के लिये जो आला होता है ,ऐसे किसी-किसी आलेके भीतर कौनेमें एक गुप्त आला और  होता है | उसमें रखी हुई वस्तुको हरेक देख नहीं पाता है | उसमें रखी हुई वस्तु कभी-कभी गुम हो जाती है | या तो कोई चुपकेसे लै-लेता है अथवा वो इधर-उधर हो जाती है , दिवालके भीतर गहराईमें चली जाय ,या बाहरकी तरफ निकलकर दूसरोंके हाथ लग जाय तो वो वापस मिलती नहीं | रखनेवालेने तो खूब ऊँडी रखी थी , पर हाथ कुछ नहीं लगा , व्यर्थ ही गई | ऐसे चौरीका धन व्यर्थ ही चला जाता है , काम नहीं आता |

सूक्ति-
२५८-

कात्याँ बिना धुन्यो पीञ्ज्यो कपास हूग्यो |

सूक्ति-
२५९-

गाँव गियो सूतो जागै |

भावार्थ-
जैसे सोया हुआ मनुष्य कब जगैगा , कुछ पता नहीं ; ऐसे ही किसी गाँव गया हुआ मनुष्य वापस कब आयेगा , कुछ पता नहीं |

सूक्ति-
२६०-

काजळकी कोठरीमें कैसोहूँ सयानो होय,
काजळकी रेख एक लागे है पण लागे है |

सूक्ति-
२६१-

कह,बूढा मरग्या |
कह, (आतो) ब्याव जैड़ी बात है |

भावार्थ-
कोई जवान मरता तो दुःख और चिन्ताकी बात थी , पर बूढे मरे हैं तो क्या दुःख करना ;यह तो विवाह जैसी-खुशीकी बात है | विवाहमें भोजन आदि होते हैं , लोग राजी रहते हैं , ऐसे ही बूढोंके मरने पर हो जायेगा |

सूक्ति-
२६२-

ठोलेरो मार्यो ऊपरनें देखे, अर कवैरो मार्यो नीचानें देखे |

शब्दार्थ-
ठोलेरो मार्यो (एक अँगुलीको मौड़कर और उसके तीखे कौनेसे जिसको चौट लगाई जाती है तो उसको  ठोलेका मारा हुआ कहते हैं , वह सिर ऊपर उठाता है कि मेरेको किसने और क्यों मारा ? | , कवैरो मार्यो ( ग्रासका मारा हुआ , किसीका रुपये ,अन्न आदि कुछ देकर उपकार कर दिया जाता है तो फिर उसका वह थौड़ा-बहुत नुक्सान भी कर देता है तो भी  वो नीचे देखता है , उपकारसे दबा हुआ वह सिर ऊपरको नहीं करता ) |

सूक्ति-
२६३-

सांपाँरे किसी मास्याँ (ह्वै है ) !  |

सूक्ति-
२६४-

कान्यो-मान्यो कुर्रर्र ,
तूँ चेलो ,अर हूँ गुर्रर्र |

सूक्ति-
२६५-

गुरु कीजै जाणियो ,
पाणी पीजै छाणियो |

शब्दार्थ-
जाणियो (जाना-पहचाना , परिचित ; तत्त्वज्ञ) |

सूक्ति-
२६६-

पीळा पान झड़णवाळा ही ह्वै है |

सूक्ति-
२६७-

आपरो बळद कुँवाड़ियेसूँ नाथसी |

भावार्थ-
अपनी वस्तुको कोई कैसे भी काममें लैं , आप एतराज करनेवाले कौन होते हो ? बैल अपना खुदका है , वो अगर चाहेगा तो कुल्हाड़ेसे नाथेगा , आप आपत्ति करनेवाले कौन होते हो! |
(बैलके नाकमें नाथ कुल्हाड़ेके द्वारा नहीं डाली जाती ; यह अव्यवहार्य ,अनुचित , कष्टदायक , नुक्सानप्रद , पापात्मक , निर्दयतायुक्त , अमानवीय , असफल ,
आशंकायुक्त और महान दुःखदायी है ) |

सूक्ति-
२६८-

बस्ती चेतावणनें जावै |

सूक्ति-
२६९-

भोळो सैण दुशमणरी गर्ज साजै |

शब्दार्थ-
गर्ज साजै (आवश्यकता पूरी करता है अर्थात् जैसा  काम बैरी-दुश्मन कर सकता है , वैसा ही काम अपना सम्बन्धी , भोळा(बावळा) आदमी कर सकता है , भोळा सैण दुश्मनकी आवश्यकता पूरी करता है , उसकी जरूरत नहीं रखता |

सूक्ति-
२७०-

नाक पर मारना |

सूक्ति-
२७१-

रोज-रोजरो रोज |

शब्दार्थ-
रोज (१.रोजाना , प्रतिदिन | २. रोना |

सूक्ति-
२७२-

चाम प्यारो नहीं काम प्यारो है |

सूक्ति-
२७३-

अबखी बेळाँमें माँ याद आवै |

शब्दार्थ-
अबखी बेळाँ (संकटकी घड़ीमें , दुःखदायी परिस्थितिमें ) |

सूक्ति-
२७४-

पाँचाँरी लकड़ी , अर एकरो भारो |

सूक्ति-
२७५-

राण्डी ढाण्डी बाउड़ो मायासेती नेह |
राम रूठै तब देत है बैरागीको येह ||

शब्दार्थ-
ढाँडी (गाय भेंस आदि पशु) , बाउड़ो (बायोड़ो , बोया हुआ खेत ) |

सूक्ति-
२७६-

गुड़ बिना ही कोई चौथ हुवै है ! |

सूक्ति-
२७७-

हुड़ हुड़ ! दो सेड [देदे ]
ठाकर लूखी खावै |

शब्दार्थ-
हुड़ (मेंढेकी पत्नि , भेड़) , सेड (दूधकी धार) |

(यहाँ भेड़से निवेदन किया गया है कि हे भेड़ ! दूधकी  दौ धार तो दे-दे ; क्योंकि ठाकुर साहब रूखी खा रहे हैं |
अब भेड़ क्या समझे ? ऐसे ही कोई किसी भेड़ जैसे आदमीको आवश्यकताके लिये प्रार्थना करे तो वो क्या समझे ? ) |

सूक्ति-
२७८-

बाई हाँतीरी हकदार है, पाँतीरी नहीं |

भावार्थ-
बहन , बेटी आदि हाँती लेनेकी तो अधिकारिणी है , पर पाँती लेनेकी अधिकारिणी नहीं है | विवाह आदिके अवसर पर बँटवारा करके जो मिठाई आदि दी जाती है कि यह अमुकको दी जाय , यह अमुकके वहाँ भेजी जाय आदि ; उसको हाँती कहते हैं और भाईयोंकी सम्पत्तिके बँटवारेको पाँती कहते हैं | सम्पति(पाँती)के हकदार तो भाई ही होते हैं , बाई (बहन) नहीं | बाई तो हाँतीकी हकदार ही होती है | बाईकी पाँती तो वहाँ है जहाँ उसका विवाह हुआ है अथवा होनेवाला है |

सूक्ति-
२७९-

आखर जिताई पाखर |

सूक्ति-
२८०-

ऊभी आई हूँ ,अर आडी जास्यूँ |

सूक्ति-
२८१-

भाग दूह लेहि काँई ! |

सूक्ति-
२८२-

तणर तीरियो बावणो |

शब्दार्थ-
तणर (तानकर ; तत्परता पूर्वक निशाना लगाकर ) |

सूक्ति-
२८३-

गोधा गोधा लड़े , अर बूँठाँरो खोगाळ |

शब्दार्थ-
बूँठा (बाजरी आदिके पौधोंका समूह) | खोगाळ  (खेजड़ी आदिका तना भीतरसे थौथा हो जाता है अथवा उसमें बड़ी क्षति या बड़ा छेद  दिखायी देने लगता है , तो उसको खोगाळ कहते हैं | गोधा-गोधा (साँड़) आपसमें लड़ते हैं तो बाजरी आदि  पौधोंकी सघनता नष्ट हो जाती है , खोगाळ हो जाता है ; ऐसे ही बड़े लोग आपसमें लड़ते हैं तो अपना और दूसरोंका नुकसान कर देते हैं |

सूक्ति-
२८४-

थूकरा चेप्या किताक ठहरसी ! |

शब्दार्थ-
चेप्या (चिपकाये हुए ) |

सूक्ति-
२८५-

धरती बीज नहिं खोवै |

सूक्ति-
२८६-

हाडपाणी मेलै है |

सूक्ति-
२८७-

मिनखा देही जब मिली पाँच कोश रह्यो पंथ |
लख चौरासी माँयनें अन्तर पड़ै अनन्त ||

सहायता-

मनष्य शरीर मिल गया तो अब मुक्ति पाँच कोश ही दूर रह गई है , पाँच कोश पार करते ही मुक्ति मिल जायेगी ; नहीं तो चौरासी लाख योनियोंमें मुक्ति इतने कोश दूर हो जायेगी कि जिसकी गिनती नहीं कर सकते , अनन्त कोश दूर रह जायेगी |

पाँच कोश-
अन्नमय कोश (पाँच तत्त्वोंका स्थूल शरीर ) , प्राणमय  कोश (पाँचप्राण ) , मनोमय कोश (मन ) , विज्ञानमय कोश (बुध्दि ) ,आनन्दमय कोश (अज्ञान , कारण शरीर  , आदत , प्रकृति ) |

पाँच कोशोंका विस्तृत वर्णन गीता 'साधक-संजीवनी' (लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) के तेरहवें अध्यायके पहले श्लोककी व्याख्यामें (१३/१ )में देखें |

सूक्ति-
२८८-

एक ननो सौ दुःख हरै चुपको हरै हजार | अणबोल्याँरो लाख फळ (जाको) वार न पार ||

शब्दार्थ-
ननो (ना करना , नहीं कर देना , अस्वीकार करना , जैसे किसीने गाली दी और उसको ली नहीं- बदलेमें गाली देना अस्वीकार कर दिया , ना कर दिया ; तो ऐसे एक 'ना' करना सैंकड़ों दुःख मिटा देता है |

सूक्ति-
२८९-

भेड़ चाल संसार है एक एकके लार |
भिष्ठा पर भागी फिरै कैसे होय उध्दार ||

सूक्ति-
२९०-

देखि पराई चौपड़ी मत तरसावै (ललचावै) जीव | रूखी सूखी खायकै ठण्डो पाणी पीव ||

सूक्ति-
२९१-

दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय |
घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय ||

शब्दार्थ-

दीया (१.दीपक;२.दिया हुआ , दान ) , चानणा (१.
प्रकाश ; २. शुभ , सुखदायी ) |

भावार्थ-

जैसे कोई चीज घरमें रखी हुई है और घरमें  अन्धेरा है ; उस समय अगर हाथमें दीपक-प्रकाश न हो , तो घरमें पड़ी हुई , रहते हुई भी चीज मिलती नहीं | ऐसे ही घरमें सुख-सम्पत्ति है , परन्तु अगर दूसरोंके हितमें नहीं लगायी , दूसरोंको दी नहीं ;  तो वो रहते हुए भी अगाड़ी मिलती नहीं , वैसे ही रह जाती है | इसलिये सबको चाहिये कि दिया करो-दो , शुभ काम किया करो ; नहीं तो रहते हुए भी मिलेगी नहीं |

सूक्ति-
२९२-

मारग सब ही सत्त है नहिं मारगमें दोष |
पैण्डो कोस करौड़को करै न पैण्डो कोस ||

शब्दार्थ-

पैण्ड़ो (पैदल चलना ; रास्ता तै करना ) |

हमारे लिये बढिया रास्ता (साधन) वही है जिसमें एक कोशका भी पैण्डा न हों , तत्काल पहुँच जायँ |

सूक्ति-
२९३-

करम जिन्हाका चीकणा देत है शबद उछाँट |
जन हरिया लागे नहीं घड़ै चौपड़ै (चीकणै) छाँट ||

भावार्थ-

जैसे चिकने घड़े पर वर्षा हो अथवा कोई जलके छींटे डाले तो ठहरते नहीं ; वो उसको फेंक देता है ,छींटे ठहरते नहीं | ऐसे ही जिनके चिकने-कर्म (कुकर्म) हैं , उनके भी सत्संगकी बातें (शब्द) सुननेपर भी ठहरती नहीं ,लगती नहीं | घड़ेके तो छींटा चिकनाहटके कारण नहीं लगता और इसके शब्द  कुकर्मोंके कारण नहीं लगता |

सूक्ति-
२९४-

काणों काणों मत कहो कड़वा लागै बैण |
धीरे धीरे पूछणो (थारा) किणविध फूटा नैण ||

शब्दार्थ-
काणो ( जिसकी एक आँख फूटी हुई हो ,काना) |

सूक्ति-
२९५-

राम भजै सो राजवी बाकीरा रजपूत |
एक हरिके नाम बिना काँगा फिरे कपूत ||

सूक्ति-
२९६-

गायाँ गोबिन्द ना मिलै कहयाँ सरै न काज |
सुनमें धुन लागी रहै तब मिलसी महाराज ||

सहायता-
सुनमें धुन अर्थात् अनन्यभावसे एक परमात्माकी ही चाह , लगन | महाराज अर्थात् परमात्मा |

सूक्ति-
२९७-

ऊँडे गाँव ऊँडो पाणी है पाणीरो काळ |
किरपा करसी रामजी देसी झूँपड़ा बाळ ||

घटना शायद ऐसे है कि ये कवि वचनसिध्द थे अर्थात् ये जैसा बोल देते भगवान वैसा ही कर देते थे | एक बार ये ऊँडेगाँव वाले स्थानमें  पहुँचे ; वहाँ पानीकी तंगी थी | इनको प्यास लगी थी , वहाँके झौंपड़ों (घरों )में रहने वालोंने पानी पिलाया नहीं ; तब उन्होने ऊपर वाली बात कहदी कि रामजी झौंपड़े जला देंगे | फिर वो झोंपड़े जल गये | इसी प्रकार जाटोंकी बकरियाँ इनके यहाँ आकर काचरे (काकड़ीके समान बेलमें लगनेवाले छोटे फल ) खा जाया करती थी | उकताकर उन्होने बकरियोंको समूळ नष्ट हो जानेके कह दिया जिससे वो नष्ट हो गई |
(यह आगेकी सूक्तिमें बताया गया है ) |

सूक्ति-
२९८-

जाटनका टाटा बुरा नित्त काचरा खाय |
(शायद-अखो कहै अजमालराँ) …जड़ामूळसूँ जाय ||

सूक्ति-
२९९-

नितरा छोडा छोलता नितरा मारता लटाँ |
रामजीरी कृपा हुई बैठा राम रटाँ ||

सहायता-
एक सुथार (खाती) थे , फिर वो साधू हो गये | उनका कहना है कि रोजाना छोडा (वृक्षके तनेके ऊपरी भागवाला छिलका) छोलते थे , (लकड़ियोंमें  रहनेवाली) रोजाना लटें मारते थे ; अब रामजीकी कृपा हो गई ; इसलिये बैठे-बैठे भगवानका नाम लेते हैं , राम राम रटते हैं |

सूक्ति-
३००-

वेही नाळे मूत है वेही नाळे पूत |
राम भजै तो पूत है नहीं (तो) मूतरो मूत ||

सूक्ति-
३०१-

पहले जैसो मन करले भाया |
रज्जब रस्सा मूंजका पाया , न पाया ||

घटना-
एक बार संत रज्जबजी महाराज कहींसे आ रहे थे | मारगमें एक मुञ्जका रस्सा पड़ा मिला, जो किसी गाड़ीवानकी गाड़ीसे गिर गया होगा | रज्जबजी महाराजने सोचा कि इसको उठाकर लै चलें ; गाड़ीवाला मिल गया तो उसको दे-देंगे ; नहीं तो कपड़े ही फैलायेंगे (सुखायेंगे) | इस प्रकार रस्सा उठाकर कन्धे पर रख लिया और भजन करते हुए चलने लगे | भजनकी मस्तीमें रस्सा खिसकते-खिसकते नीचे गिर गया | बादमें पता लगा कि रस्सा तो गिर गया | रस्सेका गिरना मनको अच्छा नहीं लगा | तब वो बोले कि हे भाई ! रस्सा मिलनेसे पहले जैसा मन था , वैसा करले | यह समझले कि मूंजके रस्सेका  मिलना न मिलना ही था | पहले रस्सा था नहीं , आखिरमें रस्सा रहा नहीं | बीचमें आया और बीचमें ही चला गया ; इसमें तुम्हारा क्या गया ? |

(यह युक्ति कोई सब जगह लगालें , तो कितनी मौज हो जाय ) |

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/