बुधवार, 3 सितंबर 2014

१-७५१ सूक्ति-प्रकाश.श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि(सूक्ति सं.१ से ७५१ तक)।

                                                            ||श्रीहरिः||
       

                                       ÷सूक्ति-प्रकाश÷



                        (सूक्ति संख्या १ से ७५१  तक)।

                           


-:@पहला शतक (सूक्ति १-१०१)@:-




श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनकर लिखी हुई जो कहावतें आदि थीं,वो यहाँ लिखी जा रहीं है।




( प्रसंग-


एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |
उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें।

उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |
इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |
इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -)


 

                       ||श्रीहरिः||        





                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷





(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |





     •संग्रह-कर्ता और भावार्थ-कर्ता-
 
                          डुँगरदास राम•

……………………………………………………………………



सूक्ति-०१.

[रातमें] दूजा सोवे,अर साधू पोवे |
अर्थ-

[रात्रिमें]दूसरे सोते हैं और साधू पोते हैं
भावार्थ-

रातमें दूसरे तो सोते हैं और साधू-संत,गृहस्थी संत,साधक आदि पोते हैं अर्थात् भगवद्भजन आदि करते हैं और जिससे दूसरोंका हित हो,कल्याण हो,वो उपाय करते हैं|

सूक्ति-०२.

बेळाँरा बायोड़ा मोती नीपजे|

शब्दार्थ-

बेळाँ(समय).

अर्थ-

समय (अवसर) पर बोया हुआ मोती उत्पन्न होता है|

भावार्थ-

समय पर जो काम किया जाता है,वो बहुुत कीमती होता है| जब वर्षा होती है तब खेती करनेवाले जल्दी ही बीज बोनेकी कोशीश करते हैं और कहते हैं कि देर मत करो;गीली,भीगी हुई धरतीमें बीज बो दोगे तो मोतीके के समान कीमती और बढिया फसल होगी|
अगर एक-दो दिनकी भी देरी करदी जाय,तो वैसी फसल नहीं होती;ज्यों-ज्यों देरी होती है,त्यों-त्यों कम होती जाती है|

इसी प्रकार भगवद्भजन,सत्संग आदि शुभ कामोंमें भी देरी नहीं करनी चाहिये|समय पर करनेसे बहुत बड़ा लाभ (परमात्मप्राप्तिका अनुभव) हो जायेगा|

सूक्ति-३.

घेरा घाल्या नींदड़ी, अर भागण लागा अंग|
साधराम अब सो ज्यावो राँड बिगाड़्यो रंग||

सूक्ति-४.

खारियारे खारिया! (थारी) ठण्डी आवे लहर|
लकड़ाँ ऊपर लापसी (पण) पाणी खारो जहर||

शब्दार्थ-

खारिया(एक गाँव),लकड़ाँ ऊपर लापसी(पीलू-पीलवाण,'जाळ' वृक्षके फल).

भावार्थ-

अरे खारिया गाँव ! तुम्हारी लहर(हवा) तो ठण्डी आती है(खारा पानी  ठण्डा होता है और ठण्डेकी हवा भी ठण्डी होती है),लकड़ियों पर लापसी है
(जाळ-पीलवाणके पक्के हुए फल(पीलू) लापसीकी तरह मालुम होते हैं ,पीलवाण पेड़के सहारे पेड़ पर चढ जाती है,अगर वो पेड़ सूखकर लकड़ा जाता है तो भी पीलवाणके कारण हरा दीखता है )|

सूक्ति-५.

मौत चावे तो जा मकोळी,
हरसूँ मिले हाथरी होळी,
पीहीसी नहीं तो धोसी पाँव,
मरसी नहीं तो आसी(चढसी) ताव |

शब्दार्थ-

मकोळी(एक गाँव,जिसका पानी भयंकर-बिराइजणा है,पीनेसे ऐसी शिथिलता आ जाती है कि मृत्यू भी हो सकती है.),हाथरी होळी(अर्थात् हाथकी बात).

सूक्ति-६.

घंट्याळी घोड़ घणाँ आहू घणा असवार |
चाखू चवड़ा झूँतड़ा पाणी घणो पड़ियाळ ||

(यहाँ चार गाँवोंकी विशेषता बताई गई है)

शब्दार्थ-

झूँतड़ा(मकान).

सूक्ति-७.

गारबदेसर गाँवमें सब बाताँरो सुख |
ऊठ सँवारे देखिये मुरलीधरको मुख||

शब्दार्थ-

मुरलीधर(भगवान).

सूक्ति-८.

आयो दरशण आपरै परा उतारण पाप |
लारे लिगतर लै गयो मुरलीधर माँ बाप ! ||

शब्दार्थ-

लिगतर(जूते).

कथा-

एक चारण भाई इस मन्दिरमें दर्शनके लिये भीतर गये,पीछेसे कोई उनके पुराने जूते(लिगतर) लै गया.तब उन्होने मुरलीधर(सबके माता पिता) भगवानसे यह बात कहीं;इतनेमें किसीने नये जूते देते हुए कहा कि बारहठजी ! ये जूते पहनलो ; मानो भगवानने दुखी बालककी फरियाद सुनली |

सूक्ति-९.

कुबुध्द आई तब कूदिया दीजै किणने दोष |
आयर देख्यो ओसियाँ साठिको सौ कोस ||

कथा-

साठिका गाँवके एक जने(शायद माताजीके भक्त,एक चारण भाई)ने सोचा कि इस गाँवको छोड़कर ओसियाँ गाँवमें चले जायँ (जो सौ कोसकी तरह दूर था)तो ज्यादा लाभ हो जायेगा,परन्तु वहाँ जाने पर पहलेसे भी ज्यादा घाटा दीखा; तब अपनी कुमतिके कारण पछताते हुए यह बात कहीं .

सूक्ति-१०.

आप कमाया कामड़ा दीजै किणने दोष |
खोजेजीरी पालड़ी काँदे लीन्ही खोस ||

कथा-

पालड़ी गाँववाले ठाकुर साहबके यहाँ एक काँदा(प्याज) इतना बड़ा हुआ कि उन्होने उस काँदेको ले जाकर लोगोंके सामने ही दरबारके भेंट चढाया;सबको आश्चर्य आया कि पालड़ीमें इतना बड़ा काँदा पैदा हुआ है,लोग उस गाँवको 'काँदेवाली पालड़ी' कहने लग गये; इससे पहले उसका नाम था 'खोजेजीरी पालड़ी'| अगर खोजोजी ऐसा नहीं करते तो उनका यही अपना नाम रहता;परन्तु अब किसको दोष दें |  

सूक्ति-११.

बोरड़ीरे चौर बँधियो देखि पिणियारी रोई |
थारे सगो लागे सोई?
म्हारे सगो लागे नीं सोई |
इणरे बापरो बहनोई म्हारे लागतो नणदोई.
(यह चौर उसका बेटा था ).

सूक्ति-१२.

रामजी घणदेवाळ है .

शब्दार्थ-

घणदेवाळ(ज्यादा देनेवाले,सुख देते हैं तो एक साथ ही खूब दे देते हैं और दुख देते हैं तो भी एक साथ ज्यादा दे देते हैं.).

सूक्ति-१३.

गई तिथ बाह्मणही कोनि बाँचे.

शब्दार्थ-

तिथ(तिथि,दिन,).

सूक्ति-१४.

साँचे गुरुके लागूँ पाँय,झूठे गुरुकी मूँडूँ माय ||
शब्दार्थ-
मूँडूँ माय(माँ को मूँडूँ,शिष्या बनाऊँ).

सूक्ति-१५.

रैगो चाले रग्ग मग्ग,तीन माथा दस पग्ग.
(खेतमें बैलोंके द्वारा हल चलाता किसान).
शब्दार्थ-
रैगो(  ?). तीन माथा(तीन सिर,एक सिर तो किसानका और दौ बैलोंके-३ ). दस पग्ग(दस पैर,दौ पैर तो किसानके और आठ पैर दौनों बैलोंके-१०).

सूक्ति-१६.

गहलो गूंगो बावळो,तो भी चाकर रावळो.

शब्दार्थ-

रावळो(आपका,मालिकका,राजमहलक).

सूक्ति-१७.

बाँदी तो बादशाहकी औरनकी सरदार.

शब्दार्थ-

बाँदी(दासी).

सूक्ति-१८.

बाई! बिखमी बार जेज ऊपर कीजै नहीं |
शरणाई साधार कुण जग कहसी करनला ! ||

शब्दार्थ-

बिखमी बार(संकटकी घड़ी).

सूक्ति- १९.

धोरे ऊपर बेलड़ी ऊगी थूळमथूळ |
पहले लागी काकड़ी पाछे लागो फूल ||

सहायता-

शायद लाँकीमूळा,जो धोरा-पठार पर फोग आदिकी जड़से पैदा होकर डण्डेकी तरह रेतके ऊपर निकलता है,उसके सब ओर पत्तियाँसी लगी रहती है,वो बादमें विकसित होती है,जिससे वो पुष्पकी तरह दीखता है.

सूक्ति-२०.

तन्त्री तार सुझाँझ पुनि जानु नगारा चार |
पञ्चम फूँकेते बजे शब्द सु पाँच प्रकार ||

सूक्ति-२१.

बैरागी,अर बान्दरा बूढापैमें बिगड़ै (है).

सूक्ति-२२.

बैरागी अर बावरी मत कीजै करतार |
यो नितरा बाँधे गूदड़ा वो नित हिरणाँरे लार ||

सूक्ति-२४.

साधू होणो सोरो भाई दोरो होणो दास |
गाडर आणी ऊनणै ऊभी चरै कपास ||

भावार्थ-

साधू वेष धारण करके साधू हो जाना तो सुगम है,पर दास होना कठिन है अर्थात् जैसे दास(सांसारिक नौकर) मेहनत करके सेवा करता है,अभिमान छोड़ता है,नीचा(छोटा) बनकर मालिकका काम करता है,मालिकके परिवारका भी मालिककी तरह आदर करता है,आराम छोड़कर,सबकी सेवा करके उनको सुखी करता है,फिर भी एहसान नहीं जताता और न चाहता है,वो एहसान नहीं माने तो भी अपना स्वार्थ(वेतन) समझ कर सेवा करता ही रहता है,अपमान भी सहता है,खाने-पीनेकी परवाह न करता हुआ परिवारसे दूर रहकर रात-दिन कमाई करता है और कमाईको भी अपने पास नहीं रखता आदि आदि| वो सांसारिक दास इस प्रकार जैसे परिवारके लिये करता है;इसी प्रकार पारमार्थिक दास(भगवानका भक्त या मुक्ति चाहनेवाला) भगवानके लिये करता है या मुक्तिके लिये करता है | अगर ऐसा नहीं है तो दशा उस गाडर(भेड़)वालेकी तरह है | जैसे कोई नफा चाहनेवाला भेड़से ऊन काटनेके लिये भेड़को घर पर लावे और ऊन काटे नहीं:अब वो भेड़ उसके रूईके लिये जो कपास था,उसको ही खा रही है;वो लाया तो इसलिये था कि नई कमाई हो जाय,परन्तु भेड़ पहलेकी की हुई कमाई(कपास) खा रही है;इसी प्रकार साधू होते तो नई कमाई(परमात्मा) के लिये हैं;परन्तु दासकी तरह काम(कर्तव्य) नहीं करे,तो पहलेकी कमाई भी खान-पान और आराममें चली जाती है;नई कमाई तो की नहीं और पुरानी थी वो भी गई|इसलिये कहा गया कि साधू होना तो सुगम है,पर दास होना कठिन है |

सूक्ति-२५.

कह,बाबाजी! संसार कैसा(है)?
कह,बेटा ! आप(स्वयं) जैसा.

सहायता-

स्वयं अच्छा है तो संसार भी उसके लिये अच्छा है,स्वयं बुरा है तो संसार भी बुरा है।

सूक्ति-२६.

सब जग ईश्वररूप है भलौ बुरौ नहिं कोय |
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय ||

सूक्ति-२७.

तन कर मन कर बचन कर देत न काहुहि दुक्ख |
तुलसी पातक झरत(झड़त) है देखत उसके मुक्ख ||

सूक्ति-२८.

साध रामरा पौळिया साध रामरा पूत |
साध न होता रामरा राम जातो अऊत ||
(जातो राम अऊत).

शब्दार्थ-

अऊत(जिसके पीछे वंशमें कोई न रहा हो,बिना औलादका).

सूक्ति-२९.

सोता साधु जगाइये ऊठ जपै हरि जाप |
ये सूता नहिं छेड़िये सिंघ संसारी साँप ||
(सोता साधु जगाइये ऊठ जपै हरि नाम |
ये तीनों सोते भलै साकट सिंघ रु साँप||).

सूक्ति-३०.

समय पधारै 'कूबजी' साध पावणा मेह |
अणआदर कीजै नहीं कीजै घणौं सनेह ||

सूक्ति-३१.

साध सरावै सो सती जती जोखिता जाण |
'रज्जब' साँचै सूरका बैरी करत बखाण ||

शब्दार्थ-

सती(पतिव्रता,सदाचारिणी).जती(ब्रह्मचारी,सदाचारी).जोखिता(योषिता-स्त्री).

सूक्ति-३२.

बरसारो रिपु बायरो बाह्मणरो रिपु भाण्ड |
भाण्डरो रिपु साध है साधूरो रिपु राँड ||

शब्दार्थ-

रिपु(शत्रु,जिससे नुक्सान होता हो,बर्बाद करनेवाला,बेमैल)।

सूक्ति-३३.

साधाँ सेती प्रीतड़ी परनारी सूँ हँसबो |
दौ दौ बाताँ बणै नहीं आटो खाबो भुसबो ||

सूक्ति-३४.

साधाँ सेती प्रीत पळे तो पाळिये |
राम भजनमें देह गळे तो गाळिये ||

सूक्ति-३५.

सत्य बचन आधीनता परतिय मातु समान |
एतै पर हरि ना मिलै (तो) तुलसीदास जमान ||

शब्दार्थ-

आधीनता(शरणागति). जमान (जमानत,जिसकी जमानत चलती हो,जिम्मेदारी लेनेवाला)।

सूक्ति-३६.

भला घराँमें भूख चौराँरे घर चूरमा |
चतुराननरी चूक चौड़ै दीखे 'चकरिया' ||

शब्दार्थ-

चतुरानन(ब्रह्माजी).

सूक्ति-३७.

भिणिया माँगै भीख अणभिणिया घौड़ाँ चढै |
आ ही गुराँरी सीख भाई बन्दाँ! भिणज्यो मति ||

शब्दार्थ-

अणभिणिया(अनपढ).

सूक्ति-३८.

पल-पलमें करे प्यार(रे) पल-पलमें पलटै परा |
लाँणत याँरे लार(रे) रजी उड़ावो राजिया ||

शब्दार्थ-

लाँणत(धिक्कार). रजी(धूल).

सूक्ति-३९.

कूड़ा निलज कपूत हिंयाफूट ढाँडा असल |
इसड़ा पूत कपूत राँडाँ जिणै क्यों राजिया ||

शब्दार्थ-

हिंयाफूट (मूढ,बिना सद्बुध्दिवाला,असंयमी, हिंयौ हुवै हाथ कुसंगी मिलौ किता| चन्दन भुजँगाँ साथ काळो न लागै …(? ).

शब्दार्थ-

ढाँडा (पशु)।

सूक्ति-४०.

रोजीनारी राड़ आपसरी आछी नहीं |
बणै जठै तक बाड़ चटपट कीजै चकरिया ||

शब्दार्थ-

राड़(लड़ाई,खटपट,कहासुनी).

सूक्ति-४१.

पीर तीर चकरी पथर और फकीर अमीर |
जोय-जोय राखो पुरुष ये गुण देखि सरीर ||

भावार्थ-

काम करनेवाले (नौकर अथवा सेवक) छः प्रकारके होते हैं - १)पीर -इसे कोई काम कहें तो यह उस बातको काट देता है, २)तीर -इसे कोई काम कहें तो तीरकी तरह भाग जाता है,फिर लौटकर नहीं आता,३)चकरी-यहचक्रकी तरह चट काम करता है,फिर लौटकर आता है,फिर काम करता है|यह उत्तम नौकर होताहै,४)पथर-यह पत्थरकी तरह पड़ा रहता है,कोई काम नहीं करता,५)फकीर-यह मनमें आये तो काम करता है अथवा नहीं करता,६)अमीर-इसे कोई काम कहें तो खुद न करके दूसरेको कह देता है| (इसलिये मनुष्यको सेवकमें ये गुण देखकर रखना चाहिये)| श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी पुस्तक 'अनन्तकी ओर'(से इसका यह अर्थ लिखा गया).

सूक्ति-४२.

बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस |
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास ||

शब्दार्थ-

पसारा(विस्तार).

सूक्ति-४३.

साधू होय संग्रह करै दूजै दिनको नीर |
तिरै न तारै औरको यूँ कहै दास कबीर ||

सूक्ति-४४.

जोरि-जोरि धन कृपनजन मान रहै मन मोद |

मधुमाखी ज्यूँ मूढ मन गिरत कालकी गोद ||

शब्दार्थ-

कृपनजन(कंजूस व्यक्ति).मोद (हर्ष).

सूक्ति-४५.

कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय |
यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौ आय ||

शब्दार्थ-

पट्टन( .नगर).

सूक्ति-४६.

सब जग डरपै मरणसे मेरे मरण आनन्द |
कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द ||

शब्दार्थ-

कब मरियै (कब मरें !). भेटियै (मिलें,प्राप्त करें ).

सूक्ति-४७.

जहाँमें जब तू आया सभी हँसते तू रोता था |
बसल कर जिन्दगी ऐसी सभी रोवै तू हँसता जा ||

शब्दार्थ-

जहाँमें (जगतमें).

सूक्ति-४८.

बैठौड़ैरे ऊभौड़ो पावणों।

सूक्ति-४९.

कपटी मित्र न कीजिये पेट पैठि बुधि लेत |
आगै राह दिखायकै पीछै धक्का देत ||

शब्दार्थ-

पैठि (प्रवेश करके).

सूक्ति-५०.

तब लगि सबही मित्र है जब लगि पड़्यो न काम |
हेम अगिनि सुध्द होत है पीतल होत है स्याम ||

शब्दार्थ-

हेम (सोना).स्याम (काला).

सूक्ति-५१.

आखी गुञ्ज  न आखिये होइ जो मित्र सुप्यार |
दूधाँ सेती पित्त पड़े आधी आधी बार ||

भावार्थ-

अगर अपना अच्छा,प्यारा मित्र हो तो भी अपनी रहस्यकी सारी गुप्त बातें तो उनसे भी नहीं कहनी चाहिये ; (क्योंकि उन शत(सौ)-प्रतिशत बातोंमें से पचास प्रतिशत हानि हो जाती है | जैसे,किसीको खूब दूध पिलाया जाता है तो) दूधसे भी आधी आधी बार(सौ बारमेंसे आधी-पचास बार) पित्त पड़ जाता है।

सूक्ति-५२.

आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||

भावार्थ-

अपनोंको छोड़ कर परायोंमें बसनेसे और स्त्रीको गुप्त रहस्य बतानेसे पुँडरीक नागको देखो कि वह (गरुड़जीके) पैरोंमें बुरी तरहसे लूँमता,लटकता जा रहा है।

शब्दार्थ-

बिड़ बसण (परायोंमें बसना).गुञ्ज (रहस्यकी बात)।

कथा-

एक 'पुण्डरीक' नामका नाग गरुड़जीके डरसे (दूसरा रूप धारण करके) कहीं जाकर रहने लग गया (वहाँ विवाह भी कर लिया,परन्तु यह रहस्य किसको भी नहीं बताया था)| एक बार नागपञ्चमीके दिन उस नागकी पत्नि नागदेवताकी पूजा करनेके लिये कहीं जाने लगी तो पुँडरीक नागके पूछने पर उसने बताया कि नागदेवताकी पूजा करने जा रही हूँ | तब उसने हँसकर बताया कि वो तो मैं ही हूँ , जब मैं साक्षात नाग तुम्हारा पति हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो किसकी पूजा करने जा रही हो? यह सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ | नागने कहा कि यह बात  किसीको भी बताना मत; परन्तु उसकी पत्निके यह बात  खटी नहीं और अपनी पड़ोसिनको बतीदी तथा मना कर दिया कि वो किसीको न बतावे; उसके भी वो बात खटी नहीं और उसने आगे बतादी | इस प्रकार चलते-चलते यह बात गरुड़जीके पास पहुँच गयी और गरुड़जी तो उसको खोज ही रहे थे | तब गरुड़जी  वहाँ आये और पुँडरीक नागको पकड़ कर लै गये (पंजोंसे उसको पकड़ कर उड़ गये)| इसलिये कहा गया कि- आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय | देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||

सूक्ति-५३.

पत्र देणों परदेसमें मित्रसे होय मिलाप |
देरी होय दिन दोयकी तो करणो पड़े कलाप ||

सूक्ति-५४.

*नासत दूर निवारज्यो आसत राखो अंग |
कलि झोला बहु बाजसी रहज्यो एकण रंग ||

शब्दार्थ-

नासत (नास्तिकता-ईश्वरको न मानना).आसत (आस्तिकता-ईश्वरको मानना).झोला (एक प्रकारकी हवा,जिससे खेती जल जाती है).

(*यह दोहा श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके गुरुजीने किसीको पत्र लिखवाते समय पत्रमें लिखवाया था ).

सूक्ति-५५.

राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत |
दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त ||

खुलासा-

(इस दोहेकी रचना स्वयं श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है |
इसमें श्रीमहाराजजीने परोक्षमें अपना नाम-(१)साधू (२)राम(३)सुख(४)दास लिखा है |

सूक्ति-५६.

आसाबासीके चरन आसाबासी जाय |
आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय ||

इस दोहेकी रचना करके श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है |

शब्दार्थ-

आसा (दिग,दिसाएँ).बासी (वास,वस्त्र,अम्बर).आसाबासी (बसी हुई आशा).आशाबाशी (आ-यह,शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही).आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती,तुरन्त मिटती है ,बाकी नहीं रहती). भावार्थ- विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती है (कि वाह  वा आप आशारहित हो गये -चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह -बादशाहोंका भी बादशाह हो जाता है,वो आप होगये,शाबाश | ) आशा बाशी नहीं रहती , अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती,गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है,बाकी नहीं रहती ,दु:खोंकी कारण आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह| सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ).| विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी,वास)+आनन्द(आ शाबाशी,आशाबाशी नाँय)-दिगम्बरानन्दजी महाराज | शिष्य श्री साधू रामसुखदासजी महाराज-
रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत |
दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत ||

इसके अलावा श्री स्वामीजी महाराजने एक दोहा कवि शालगरामजी सुनारके विषयमें बनाया था,(उनकी पुत्रीका नाम मोहनी था)
जो इस प्रकार है-

सूक्ति-५६.

तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे |
मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये ||
भावार्थ-

तेरा(तो) और मेरा (मो+) मिटादो(+हन देह), भगवानका नाम मोहन मोहन कहनेसे (भगवान्नाम लेनेसे) मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे),भगवान (मोहन) से प्रेम करो और उनको पुकारो (मोहन मोहन कीजिये).

सूक्ति-५७.

राम भगति भूषण रच्यो साळग सुबरनकार |
हरिजन अरिजन दोउ मिलि मानेंगे हियँ हार ||

भावार्थ-

कवि शाळगरामजी सुनारने 'रामभक्ति भूषण'नामक ग्रंथकी है,जिसके कारण हरिजन (रामभक्त) और अरिजन (रामविमुख,शत्रु) - दौनों मिल कर हृदयमें हार मानेंगे (रामभक्त तो इसको कीमती हारके समान मानेंगे और रामविमुख हृदयसे हार मान लेंगे,हार जायेंगे ).

सूक्ति-५८.

चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह |
जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह ||

शब्दार्थ-

शाहनपति(बादशाह).शाहनपति शाह (बादशाहोंका भी बादशाह ).'बेपरवाह'माने दूसरी वस्तुओंके बिना तो काम चल सकता है;परन्तु अन्न,जल वस्त्र,औषध आदि तो चाहिये ही !- इसको 'परवाह' कहते हैं इस चिन्ताका भी त्याग कहलाता है- 'बेपरवाह' |

सूक्ति-५९.

ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह |
सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ||

(तृष्णारूपी आगका वर्णन आगेकी सूक्तिमें पढें )|

सूक्ति-६०.

जौं दस बीस पचास भयै सत होइ हजार तौ लाख मँगैगी |
कोटि अरब्ब खरब्ब भयै पृथ्वीपति होनकी चाह जगैगी ||
स्वर्ग पतालको राज मिलै तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी |
'सुन्दर'एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगैगी ||

सूक्ति-६१.

तनकी भूख इतनी बड़ी आध सेर या सेर |
मनकी भूख इतनी बड़ी निगल जाय गिरि मेर || शब्दार्थ-
निगल जाय (गिट जाय,मुखमें समालेना, बिना चबाये पेटमें लै जाना ).गिरि मेर (सुमेरु पर्वत ).

सूक्ति-६२.

मृग मच्छी सज्जन पुरुष रत तृन जल संतोष |
ब्याधरु धीवर पिसुनजन करहिं अकारन रोष ||

शब्दार्थ-

रत (लगे रहते हैं ) ब्याध (मृग मारनेवाला,शिकारी ).धीवर (मच्छली पकड़नेवाला ).पिसुनजन (चुगली करनेवाले,निन्दा करनेवाले ).

सूक्ति-६३.

जो जाके शरणै बसै ताकी ता कहँ लाज |
उलटे जल मछली चढै बह्यो जात गजराज ||

शब्दार्थ-

उलटे जल… (ऊपरसे परनाल आदिकी गिरती हुई धाराके सामने चढ जाना,उसीके सहारे ऊपर चढ जाना ).

सूक्ति-६४.

…[माया] गाडी जिकी गमाणी |
बीस करौड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी || …
खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||

कथा-

अजमेरके राजाजीके भाईका नाम बीसळदेव था | दौनों भाई परोपकारी थे | राजाजी रोजाना एक आनेकी सरोवरसे मिट्टी बाहर निकलवाते थे (सरोवर खुदानेका,उसमें पड़ी मिट्टी बाहर निकालनेका बड़ा पुण्य होता है ).ऐसे रोजाना खुदाते-खुदाते वो 'आनासागर'(बड़ा भारी तालाब) बन गया,जो अभी तक भी है | बीसळदेवजीने विचार किया कि मैं तो एक साथ ही  बड़ा भारी दान, पुण्य करुँगा (एक-एक आना कितनीक चीज है ) और धन-संचय करने लगे | करते-करते बीस करोड़से ज्यादा हो गया;किसी महात्माने उनको एक ऐसी जड़ी-बूंटी दी थी कि उसको साथमें लेकर कोई पानीमें भी चलै तो पानी उसे रास्ता दे-देता था;उस जड़ीकी सहायतासे बीसळदेवजीने वो बीस करोड़वाला धन गहरे पानीमें लै जाकर सुरक्षित रखा | संयोगवश उनकी रानी मर गई; तब दूसरा विवाह किया (कुछ खर्चा उसमें हो गया ); जब दूसरी रानी आई तो उसने देखा कि राजा पहलेवाली रानीके पसलीवाली हड्डीकी पूजा कर रहे हैं (वो जड़ी ही पसलीकी हड्डी जैसी मालुम पड़ रही थी ) ; रानीने सोचा कि पहलेवाली रानीमें राजाका मोह रह गया | इसलिये जब तक यह हड्डी रहेगी,तब तक राजाका प्रेम मेरेमें नहीं होगा ; ऐसा सोचकर रानीने उस हड्डीके समान दीखनेवाली बूंटीको पीसकर उड़ा दिया | राजाने पूछा कि यहाँ मेरी बूंटी थी न ! क्या हुआ ? तब रानी बोली कि वो बूंटी थी क्या ? मैंने तो उसको पीसकर उड़ा दिया | अब राजा क्या करे , उस बूंटीकी सहायताके बिना वो उस गहरे पानीके अन्दर जा नहीं सकते थे; इसलिये बीस करोड़की सम्पति उस गहरे पानीमें ही रह गयी ; इसलिये कहा गया कि माया को जो यह गाड़ना है वह उसको गमाना ही है-
…गाडी जिकी गमाणी |
बीस करौड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी ||

सूक्ति-६५.

खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै |
दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै ||

सूक्ति-६६.

खादो सोई ऊबर्यो दीधो सोई साथ |
'जसवँत' धर पौढाणियाँ माल बिराणै हाथ ||

शब्दार्थ-

खादो (जो खा लिया ).ऊबर्यो (उबर गया,बच गया ).दीधो (जो दै दिया ).

कथा-

एक राजाने सोचा कि मेरे इतने प्रेमी लोग है,इतनी धन-माया है ; अगर मैं मर गया तो पीछे क्या होगा ? यह देखनेके लिये राजाने [विद्याके प्रभावसे] श्वासकी गति रोकली और निश्चेष्ट हो गये ; लोगोंने समझा कि राजा मर गये और उन्होने राजाको जलानेसे पहले धन-मायाकी व्यवस्था करली,कीमती गहन खोल लिये,कपड़े उतार लिये,एक सोनेका धागा गलेमेंसे निकालना बाकी रह गया था,तो उसको तोड़ डालनेके लिये पकड़कर खींचा,तो वो धागा चमड़ीको काटता हुआ गर्दनमें धँस गया गया,तो भी राजा चुप रहे; फिर पूछा गया कि कोई चीज बाकी तो नहीं रह गयी ? इतनेमें दिखायी पड़ा कि राजाके दाँतोंमें कीमती नग (हीरे आदि) जड़े हुए हैं और वो निकालने बाकी है,औजारसे निकाल लेना चाहिये; कोई बोला कि अब मृत शरीरमें पीड़ा थोड़े ही होती है,पत्थरसे तोड़कर निकाल लो ; राजाकी डोरा (सोनेका धागा ) तोड़नेके प्रयासमें कुछ गर्दन तो कट ही गयी थी ,अब राजाने देखा कि दाँत भी टूटनेवाले है; तब राजाने श्वास लेना शुरु कर दिया; लोगोंने देखा कि राजाके तो श्वास चल रहे हैं,हमने तो इनको मरा मान कर क्या-क्या कर दिया ; कह, घणी खमा, घणी खमा (क्षमा कीजिये,बहुत क्षमा कीजिये). | अब राजा देख चूके थे कि मेरे प्रेमी कैसे हैं और क्या करते हैं तथा धनकी क्या गति होती है | उन्होने आदेश और उपदेश दिया कि धन संग्रह मत करो, काममें लो और दूसरोंकी भलाई करो; दान,पुण्य आदि करना हो तो स्वयं अपने हाथसे करलो (तो अपना है); नहीं तो बिना दिये ये सोना,चाँदी आदि  मरनेपर साथमें नहीं जाते;ऐसा नहीं देखा गया है कि बिना दिये सोना चाँदी साथमें चले गये हों ; इसलिये कहा गया कि - खादो सोई …माल बिराणै हाथ || (कोई कहते हैं कि ये जसवँतसिंहजी जोधपुर नरेश स्वयं थे,जो कवि भी थे)|

सूक्ति-६७.

दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय |
घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय ||

शब्दार्थ-

दीया (दीपक,दिया हुआ,दान).कर दिया न…(हाथसे दिया न हो,हाथमें दीपक न हो… तो घरमें रखी हुई चीज भी नहीं मिलती,न यहाँ मिलती है, न परलोकमें मिलती है )।

सूक्ति-६८.

माँगन गये सो मर चुके(मर गये) मरै सो माँगन जाय |
उनसे पहले वो मरे जो होताँ [थकाँ] ही नट जाय ,

उनसे पहल वो मरे होत करत जै नाँय ||

सूक्ति-६९.

आँधे आगे रोवौ , अर नैण गमाओ . |

सूक्ति-७०.

जठे पड़े मूसळ ,बठे ही खेम कुसळ.

सूक्ति-७१.

पाणी पीजै छाणियो,
गुरु कीजै जाणियो.

शब्दार्थ-

जाणियो(जाना-पहचाना हुआ; तत्त्वज्ञ ).

सूक्ति-७२.

गुरु लोभी सिख लालची दौनों खेले दाँव |
दौनों डूबा परसराम बैठि पथरकी नाव ||
- ÷ - .आँधे केरी डाँगड़ी आँधे झेली आय | दौनों डूबा … ?… …काळकूपके माँय ||

सूक्ति-७३.

जाणकारको जायकै मारग पूछ्यो नाँय |
जन 'हरिया' जाण्याँ बिना आँधा ऊजड़ जाय ||

शब्दार्थ-

ऊजड़ (बिना रास्ते,जंगलमें ).

सूक्ति-७४.

कह,गुरुजी ! बिल्ली आगी (घरमें ). कह, आडो बन्द* करदे .

शब्दार्थ-

आडो बन्द करदे ( किंवाड़ बन्द करदे - यहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं और दूसरी जगह जा सकेगी नहीं;)

*आजकल भी जो आकर चेला बन जाते हैं ,उनको गुरुजी आज्ञा दे-देते हैं कि दूसरी जगह सुनने मत जाना,तो उस शिष्यकी भी दशा उस बिल्लीकी तरह होती है  कि वहाँ तो कुछ (परमात्म-तत्त्व )मिलता नहीं और दूसरी जगह जा सकते नहीं |

सूक्ति-७५.

आकोळाई ढाकोळाई,पाँचूँ रूंखाँ एक तळाई.
दै रे चेला धौक, कह रुपयो धरदे रोक.

सूक्ति-७६.

कान्यो-मान्यो कुर्र्र्र्र्  , कह तूँ चेलो अर हूँ (मैं) गुर्र्र्र्र |

शब्दार्थ-

हूँ (मैं,स्वयं ).

सूक्ति-७७.

(कोई) मिलै हमारा देसी,
गुरुगमरी बाताँ केहसी .

शब्दार्थ-

केहसी (कहेगा ).

सूक्ति-७८.

कह,मिल्यो कौनि कोई काकीरो जायो .

सूक्ति-७९.

कह,ओ तो म्हारे खुणींरो हाड है .

शब्दार्थ-

खुणीं (कोहनी,कोहनीकी हड्डी मजबूत,बड़े कामकी और प्रिय होती है ; अपने भाई आदि नजदीक-सम्बन्धीके लिये कहा जाता है कि 'यह तो मेरे कोहनीकी हड्डी है').

सूक्ति-८०.

कह, किणरी माँ सूंठ खाई है ! .

सहायता-

(सूंठ खानेवाली माँ का दूध तेज होता है और वो दूध पीनेवाला भी तेज हो जाता है |
ऐसे ही धनियाँके लड्डू खानेवाली माँ के दूध बढ जाता है और जिस मनुष्यके गला बड़ा होता है,कोई चीज आसानीसे निगल ली जाती है , तो उसकी माँके दूध ज्यादा , पर्याप्त आता था (यह पहचान मानी जातीहै )।

सूक्ति-८१.

अकलसे खुदा पहचानो।

शब्दार्थ-

अकल(बुध्दि).खुदा(भगवान). (भगवद्आज्ञाका पता कैसे लगे? कि अकलसे खुदा पहचानो.बुध्दिसे विचार करो कि भगवान सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद हैं- सुहृदं सर्व भूतानाम्.(गीता 5/29) और महात्मा,भगवानके भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद हैं-सुहृद:सर्व देहिनाम्। इसलिये जिसमें दूसरोंका हित हो,वो भगवानकी आज्ञा है-ऐसा समझो)।

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.1991-07-31,8.30 बजेके सत्संग-प्रवचनसे।

सूक्ति-८२.

पारकी पूणीं कातणौ सीखणौं है.

शब्दार्थ-

पारकी(पराई,दूसरोंकी).पूणी(ऊन कातनेसे पहले और चूँकेके बाद बनायी हुई ऊनकी पूळी). जैसे कोई कातनेके लिये मिली हुई दूसरोंकी ऊनसे कातनेका प्रयास करता है तो कातनेकी अटकल(विद्या) मुफ्तमें सीख जाता है,ऐसे ही मिली हुई शरीर आदि वस्तुसे (परहितके द्वारा) कल्याण करना सीखना है-

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.1991-07-31,8.30 बजेके सत्संग-प्रवचनसे।

सूक्ति-८३.

आज कि काल परार कि पौर।
आपाँ बाताँ कराँ औराँरी आपाँरी करसी कोइ और ।।

शब्दार्थ-

पौर(गई साल).परार(गई सालसे पहले बीती हुई साल).

सूक्ति-८४.

लेताँ तो बदतो लेवै देताँ कसर पावरी।
पीपा प्रत्यक देखिये बाजाराँमें बावरी।।
शब्दार्थ-

बदतो(बढकर,ज्यादा).प्रत्यक(प्रत्यक्ष,सामने).बावरी(जीव-हत्यारा, शिकारी).

सूक्ति-८५.

कह,खाटू जास्याँ।
कह,खाटू बड़ी जास्यो क (या) छोटी? कह,जास्याँ तो बड़ी ही जास्याँ,छोटी क्यूँ जास्याँ।।

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.1993-10-01.20.00 बजेके सत्संगसे) ।

शब्दार्थ-

खाटू(खाटू गाँव,'छोटी खाटू' और 'बड़ी खाटू' नामके दो गाँव). [जब एक साथ दो काम उपस्थित होते हैं तब ज्यादा लाभ वाला काम चुनना समझदारी कहलाता है]।

सूक्ति-८६.

मड़ो भूत बाकळाँसूइँ राजी.

शब्दार्थ-

मड़ो(दुर्बल,भूख आदिसे दुखी).बाकळा(मोठोंको उबालकर बनायी हुई गूघरी). भूत(मरनेपर मिलनेवाली भूत-प्रेतकी योनिवाला प्राणी).

सूक्ति-८७.

साध हजारी कापड़ो रतियन मैल सुहाय।
साकट काळी कामळी भावै तहाँ बिछाय।।

शब्दार्थ-

साध (सज्जन पुरुष,सदाचारी,भला कहलानेवाला).साकट(संसारी,विषयी,विपरीतगामी,बदनाम)।

सूक्ति-८८.

(भगवत्सम्बन्ध)

धौयाँ उतरे है काँई?

( भगवानके तो हैं हम पहले से ही)
धोयाँ उतरे है काँई?(नहीं उतरते,नहीं मिटते).

शब्दार्थ-

धौयाँ (धोनेसे)।

सूक्ति-८९.

रोजीनारी राड़ आपसरी आछी नहीं।
बणै जहाँ तक बाड़ चटपट कीजै चकरिया।।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दिये गये दि. 1997-07-31,20.00 बजेके सत्संग-प्रवचनसे)

शब्दार्थ-

चकरिया(चकरिया-कवि).राड़(लड़ाई,कहासुनी).बाड़(सुरक्षा,जिससे लड़ाई न हो-ऐसा उपाय,कहावत-राड़ आडी बाड़ भली).चटपट(जल्दी,तुरत).

सूक्ति-९०.

अकलमें कुत्ता मूतग्या.

शब्दार्थ-

अकल(समझ,बुध्दि). (जब किसीकी बुध्दी भ्रष्ट हो जाती है या कोई नीच-कर्म करता है अथवा नीच-कर्मका समर्थन करता है,उसीको ठीक समझता और कहता है तब कहा जाता है कि इसकी बुध्दिमें कुत्ते पेशाब करके चले गये (अकलमें कुत्ता मूतग्या). ।।

सूक्ति-९१.

सूँठरो गाँठियो लेर पंसारी बणग्या.

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि. 19920816/5.18 बजेके सत्संग-प्रवचनसे।

(एक थोड़ीसी बात जानली और अभिमान कर लिया)

सूक्ति-९२

मिलता मावै परसराम रहै खाटमें सोय।
अणमिलता मावै नहीं ब्रह्माण्डमें दोय।।

सूक्ति-९३

थब्बे चढग्या |

- श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.  19900111/5.18 बजेके सत्संग-प्रवचनसे।

शब्दार्थ-

थब्बा (जब कोई गेंद आदि गोळ वस्तु ढलानमें लुढकती है और ज्यों-ज्यों ज्यादा आगे  बढतीहै , दौड़ती है ; तब कोई खड्डे आदिका छोटासा अवरोध आता है तो भी जोरसे कूदती हुई आगे बढती है | उसको कहते हैं कि थब्बे चढगई | ऐसे यह जीव भी संसारकी परिस्थितियोंमें दौड़ता हुआ थब्बे चढ गया ||

सूक्ति-९४.

काळजे  हाथ घाल्यो है |

सूक्ति-९५.

पाणी पिवौ प्रभात दोफाराँ पाणी पवौ ।
मत करो अन्नरी बात साँझाँ ही पाणी पिवौ ।।

सूक्ति-९६.

अनुभव भगवद्भजनका भाग्यवानको होय ।

सूक्ति-९७.

सीर सगाई चाकरी राजीपैरो काम ।।

सूक्ति-९८.

घरमें ऊँदराई राजी ह्वै ज्यूँ करो ।।

सूक्ति-९९.

गाँव गिणै नहिं गहलैने,अर,गहलौ गिणै नहिं गाँवनें ।

सूक्ति-१००.

करै न अक्कल काम अधगहलाँ ढिग आपरी ।।

                                         

                                               ||श्रीहरिः||        

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                             -:@दूसरा शतक (सूक्ति १०१-२०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

सूक्ति-
१०१-

कलियुग आयो कूबजी भागी धरमरी की धुर |
पहले चेला आवता अब पधारै गुर ।|

शब्दार्थ-
धुर (धुरी,रथ आदिके पहियेका मजबूत धुर ) |

सूक्ति-
१०२-

कलियुग आयो कूबजी बाजन्ताँ ढ़ोलाँ |
पहले बाह्मण बाणियाँ पीछे आयौ  गोलाँ।

सूक्ति-
१०३-्

काँदा खादा कमधजाँ (अर) घी खादो गोलाँ |
चूरू चाली ठाकराँ बाजन्ताँ ढोलाँ ||

शब्दार्थ-
कमधज (युध्दमें जूझनेवाले वो प्रचण्ड वीर , जो मस्तिष्क कटने पर भी युध्द करते रहते हैं , जूझते रहते हैं ,जुझार ,कबन्ध ) |

सूक्ति-
१०४-

जिसके लागी है सोई  जाणे
दूजा क्या जाणेरे भाई ।
दूजा क्यूँ जाणेरे भाई |

सूक्ति-
१०५-

भूमा अचल शाश्वत अमल
सम ठोस है तूँ सर्वदा |
यह देह है पोला घड़ा
बनता बिगड़ता है सदा ।|

शब्दार्थ-
भूमा (महान) , शाश्वत (सदासे) |

सूक्ति-
१०६-

प्रहलाद कहता राक्षसों !
हरि हरि रटौ संकट कटे |
सदभाव की छौड़ो समीरण
विपतिके बादळ फटे ।|

शब्दार्थ-
समीरण (हवा ,पवन ; सद्भावरूपी हवासे विपतिरूपी बादल छिन्न-भिन्न होजाते हैं , नष्ट हो जाते हैं ) |

सूक्ति-
१०७-

स्वारथ शीशी काँच की पटकै जासी फूट |
परमारथ पाको रतन परतन दीजै पूठ ।|

शब्दार्थ-
पटकै ( १.तुरन्त , जैसे काँचके बर्तनके चौट लगते ही पट फूट जाता है | २.पटकने पर )|

सूक्ति-
१०८-

तिलकी औटमें पहाड़ |

सूक्ति-
१०९-

करणी आपौ आपकी।
नहीं किसीके बापकी।।

सूक्ति-
११०-

आजा राम हबौळाँमें ।

शब्दार्थ-
हबौळा (तरंग,लहर) |

सूक्ति-
१११-

रामजी की चिड़ियाँ रामजी का खेत |
खावो (ये) चिड़ियाँ भर भर पेट ।|

सूक्ति-
११२-

बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस।
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास।।

शब्दार्थ-
पसारा (विस्तार) |

सूक्ति-
११३-

कपटी मित्र न कीजियै पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखायकै पीछे धक्का देत।।

शब्दार्थ-
पैठि (प्रवेश करके) |

सूक्ति-
११४-

बाबा तेरे द्वारे देखा मैंने एक नजारा।
देनेवाला देता जाये लेनेवाला हारा।।

शब्दार्थ-
नजारा (दृश्य ) |

सूक्ति-
११५-

भगवानकी विचित्र कृपा-
(भगवान् कहते हैं-)
कि जो मेरा भजन करता है,उसका मैं सर्वनाश कर देता हूँ,पर फिर भी वह मेरा भजन नहीं छोड़ता तो मैं उसका दासानुदास (दासका भी दास) हो जाता हूँ-

जे करे अमार आश,तार करि सर्वनाश |
तबू जे ना छाड़े आश,तारे करि दासानुदास ||

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी 'अनन्तकी ओर'पुस्त्कसे |

(जे कोरे आमार आश।
तार कोरि आमि सर्वनाश।।
तारपोरेओ जे ना छाड़े आमार आश।
तार होई आमि दासेर दास।। ) |

सूक्ति-
११६-

दो (देवो) खीरमें हाथ।

सूक्ति-
११७-

जठै पड़े मूसळ। बठेई खेम कुसळ।।

सूक्ति-
११८-

आँधे आगे रोवो अर नेण गमावो।

सूक्ति-
११९-

पाणी पीजै छाणियो।
गुरु कीजै जाणियो।।

शब्दार्थ-
जाणियो (जाना-पहचाना हुआ , परिचित ) |

सूक्ति-
१२०-

भाटी ! तूँ भाटे जैसो मोटे परबत माँयलो।
कर राखूँ काटो शिवजी कर सेवूँ सदा।।

सूक्ति-
१२१-

………गुरु मोती दरियाव।
लाज न मारे इष्टको भावै जहाँ (तहाँ) फिरि आव।।

सूक्ति-
१२२-

हरि भजरे हरिदासिया ! हरिका नाम रतन।
पाँचूँ पाण्डू तारिया कर दागियौ करण।।

शब्दार्थ-
कर दागियौ (हाथ पर दाह क्रिया की ) , करण (कर्ण , कुन्तिपुत्र ) |

कथा-

अन्त समयमें कर्णनें भगवान् श्री कृष्णसे यह वरदान माँगा था कि मेरी अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) अदग्ध-भूमिमें हो अर्थात् मेरे को वहाँ जलाया जाय , जहाँ पहले किसीको भी न जलाया गया हो | उसके अनुसार भगवानने जहाँ भी अदग्ध-भूमि देखकर दाहक्रिया करनी चाही , वहाँ पता लगा कि यह अदग्ध नहीं है | यहाँ तो सौ वार भीष्म जल चूके हैं , तीनसौ वार द्रोणाचार्य जल चूके और हजार वार दुर्योधन जल चूका तथा कर्णके जलनेकी तो गिनती ही नहीं थी |
अब भगवान विचार करने लगे कि इनको कहाँ जलावें ? पृथ्वी पर तो कोई जगह बिना जली हुई मिली नहीं मेरा दाहिना हाथभी राजा बलीसे दान लेनेके कारण जला हुआ है |
( जैसे-
जिह्वा दग्धा परान्नेन हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् |
परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कथं सिध्दिर्वरानने ! ||
अर्थात्  पराये अन्नसे  जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | अब हे पार्वती !  सिध्दि कैसे हो ! अर्थात् इसलिये मनोरथसिध्दि नहीं होती , (कोई अनुष्ठान किया जाता है तो मन लगाकर , जीभके द्वारा जपकरके या बोल करके तथा हाथोंके द्वारा ही तो किया जाता है ! और ये तीनों ही जले हुए हैं तो कार्यसिध्दि कैसे हों? नहीं होती) |

इससे लगता है कि पार्वतीजीने भगवान शंकरसे पूछा है कि महाराज ! अपने मनकी चाहना पूरी करनेके लिये , मनोरथ पूरा करनेके लिये लोग मन लगाकर जप करते हैं , शुभकाम करते हैं ; परन्तु उनका मनोरथ पूरा क्यों  नहीं होता , उनको सिध्दि क्यो नहीं मिलती ? |
तब शंकर भगवानने जवाब दिया कि
पराये अन्नसे (उनकी) जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | इसलिये हे पार्वती ! अब सिध्दि कैसे हो ! मन, वाणी और हाथ जल जानेके कारण उनके मनचाही पूरी नहीं होती) |
तब भगवानने अपने बायें हाथ पर कर्णकी दाह क्रिया की |
इस प्रकार भगवानने जो काम पाण्डवोंके लिये  भी नहीं किया , वो कर्णके लिये किया | पाण्डवोको भवसागरसे पार कर दिया , पर कर्णको तो अपनी हथैलीमें दागा | इसलिये कोई भी रतनस्वरूप  भगवानका नाम लेता है , भगवानको भजता है , तो भगवान उनको वो सौभाग्य दे-देते हैं जो पाणडव जैसे भक्तोको भी नहीं मिला )|

सूक्ति-
१२३-

कबीरो बिगड़्यो राम दुहाई।
थे मत बिगड़ो म्हारा भाई।।

सूक्ति-
१२४-

बगतरा बाजा है।

शब्दार्थ-
बगत (अवसर ,समय ) |

सूक्ति-
१२५-

मोटे भाई काढी कार।
सोही बीरा लारो लार।।

शब्दार्थ-
कार (मर्यादा ; कामकी शुरुआत ; कानून ,रीति ) , सोही (सभी , सारे ) |

सूक्ति-
१२६-

भाई जिताई घर।

सूक्ति-
१२७-

हींगकी गर्ज भी कौनि सधै।

सूक्ति-
१२८-

चार खुणाँरी बावड़ी भरी हबोळा खाय।
हाथी घोड़ा डूबग्या पिणियारी खाली जाय।।

(पहेलीका अर्थ-
दर्पण,आरसी)।

सूक्ति-
१२९-

कभी घी घणा , अर कभी मूठी चणा।

सूक्ति-
१३०-

रामजीरी चिड़ियाँ रामजीरो खेत।
खावौये चिडियाँ ! भर भर पेट।।

सूक्ति-
१३१-

(चोपड़ चापड़ रोटी खाले) औलण खेंचाताणी।
लक्खण तो मँगतीरा दीसै नाम धर्यो सेठाणी।।

शब्दार्थ-
औलण (लगावण ,  जिसकी सहायतासे रोटी खायी  जाती है , रोटीके साथमें खाया जानेवाला घी , दूध , साग आदि ) |

सूक्ति-
१३२-

दूध दहीरी बग बोलावै घी बरते ज्यूँ पाणी।
एक जाटणी ऊपरै वारूँ लाख सेठाणी।।

सूक्ति-
१३३-

चोपड़ चापड़ रोटी घालै ढाळै कीकर ढूके।
अखो कहे अजमालराँ कोरीने कुण कूके।।

सूक्ति-
१३४-

सूताई सिंवरण करै राली माँहीं राम।
दुनियाँरे दोजख घणो साधाँरे ओइ काम।।

शब्दार्थ-
राली (फटे-पुराने कपड़ों द्वारा बनायी हुई सौड़ ,गूदड़ी) |

सूक्ति-
१३५-

साधु विचार कर भली समझिया दिवी जगतको पूठ। पीछे देखी बिगड़ती (तो) पहलेहि बैठा रूठ।।

सूक्ति-
१३६-

तीतर ऊपर तोप नहीं दीठी दगती नराँ।
कीड़ी ऊपर कोप धारै काँई मोटा धणी।।

सूक्ति-
१३७-

हिंयो हुवै हाथ कुसंगी मिलौ किता।
चन्दन भुजंगाँ साथ काळो न लागै किसनियाँ।।

सूक्ति-
१३८-

तपेश्वरी राजेश्वरी ।
राजेश्वरी नरकेश्वरी।।

सूक्ति-
१३९-

कौन सुनै कासौं कहौं सुनै तौ समुझै नाहिं।
कहना सुनना समझना मनहीकै मन माहिं।।

सूक्ति-
१४०-

करै करावै रामजी मैं कुछ करता नाहिं।
जौ अपनेको करता मानै बड़ी चूक ता माहिं।।
(जौं अपनेको करता मानूँ बड़ी चूक मुझ माहिं )।।

सूक्ति-
१४१-

धान नहीं धीणौं नहीं नहीं रुपैयौ रोक।
जीमण बैठा रामदास आन मिलै सब थोक।।

सूक्ति-
१४२-

एक रती बिनु पाव रतीको।

शब्दार्थ-
रती (भगवत्प्रीति) |

सूक्ति-
१४३-

धजाबँध वै खेजड़ी काटि सकै ना कोय।
रामा राम प्रतापसूँ क्यों नहिं पूज्यसु होय।।

शब्दार्थ-
धजाबन्ध (जिस खेजड़ी-शमीवृक्षके ध्वज बन्धा हो ,देवस्थानवाले देवताके नाम किया हुआ वृक्ष ) |

सूक्ति-
१४४-

वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।

शब्दार्थ-
रज (वृन्दावनकी धूलि , ब्रजरज) |

कथा-

एक राजाने देखा कि एक बाबाजी वृन्दावनसे आये हैं  और उनके पास ब्रजरजसे सनी हुई गूदड़ी है | राजाने सोचा कि गूदड़ी खरीदलें | बाबाजीके ना करनेपर ज्यादा रुपये देनेके लिये कहा ; फिर भी इन्कार करते गये और राजा मौल बढाते गये | अन्तमें दौ लाख रुपये देनेके लिये तैयार हो गये | बाबाजीने सोचा कि गूदड़ी धूलसे भरी है ; अगर इसको धो लेंगे तो कीमत ज्यादा मिलेगी | बाबाजीने गूदड़ी धोकर राजासे कहा कि अब कितने रुपयोंमें खरीदेंगे ? राजाने खरीदनेसे इनकार कर दिया कि मैं तो ब्रजरजके कारण ही खरीद रहा था ; वो नहीं है तो चाहे गूदड़ी कितनी ही बढिया और धुली हुई है तो क्या हुआ ? |
महिमा तो ब्रजरजकी है -
वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।

सूक्ति-
१४५-

टका धरमें टका करमें टका ही परमं पदम्।
यस्य गेहे टका नास्ति हा टका! टकटकायते।।

शब्दार्थ-
टका (रुपये-पैसे) |
यस्य गेहे……(जिस घरमें रुपये न हो… तो हा टके ! हाय रुपये ! , -इस प्रकार रुपयेकी तरफ टकटकी लग जाना |

सूक्ति-
१४६-

कोइ लठधारी कोइ मठधारी
कोइ पाँचूँ इन्द्री घसमारी।
कोइ बेलणगिरि कोइ ठेलणगिरि
खोपड़ी खोपड़ी बुधि न्यारी।।

सूक्ति-
१४७-

भेंसरा सींग भैंसनैं भारी।
तूँ तो भरले दूधरी पारी।।

शब्दार्थ-
पारी (मिट्टीकी बनी हुई एक बिना कानौंकी कलाकृति  युक्त हँडिया-हाँडी)|

सूक्ति-
१४८-

मजाल क्या है जीवरी जौ राम नाम लेवै।
पाप देवै थापरी जौ मूँडो फोर देवै।।

शब्दार्थ-
मूँडो फोर देवै (मुँह फेर देता है ,दिशा बदल देता है; मुँह फौड़ देता है ) |

सूक्ति-
१४९-

बेळाँ नहीं बिणजै सो तो बाणियोंई गिंवार |

शब्दार्थ-
बेळाँ (अवसर पर , समय पर)|

सूक्ति-
१५०-

चार दिनाँकी चाँदनी फेर अन्धेरी रात |

सूक्ति-
१५१-

अगम बुध्दि बाणियो पिच्छम बुध्दि जाट |
तुरत बुध्दि तुरकड़ो बाह्मण सपनपाट ||

शब्दार्थ-
अगम (आगे-भविष्यकी समझ , सूझ ) , पिच्छम (पश्चात , समय बीतने पर , पीछे) , सपनपाट (सीधा ,सरल ,समतल , निश्छल , न आगेवाली न पीछेवाली |

सूक्ति-
१५२-

ओ तो घररो हळ है ,
कणाँई चलाओ |

सूक्ति-
१५३-

अलूणी शिला कुण चाटे ? |

सूक्ति-
१५४-

कागाँरे बागा ह्वै तो उड़ताँरेइ दीसेनी ! |

शब्दार्थ-
बागा (पोशाक) |

सूक्ति-
१५५-

भाँगणों भाखर , अर काढणों ऊँदरो |

सूक्ति-
१५६-

माँगणेसूँ तो मौत भी कौनि मिले |

सूक्ति-
१५७-

संसाररो बायरो लेवै है |

शब्दार्थ-
बायरो (हवा , सुख , आराम) |

सूक्ति-
१५८-

कह, बोळा राम राम !
कह, बाजार गियो हो |
कह, टाबर-टोळी राजी-खुशी (है) ?
कह, भूँजाँ हाँ, अर खावाँ हाँ |

शब्दार्थ-
बोळा (जिसको कानोंद्वारा सुनायी न देता हो , बधिर)|

सूक्ति-
१५९-

एक आँख, अर बीम्हेभी फूलो |

शब्दार्थ-
बीम्हेभी (उसमेंभी) ,
फूलो  (आँखकी एक बिमारी , जिससे आँखमें सफेद-सफेदसा एक गाढा विकार चिपका हुआ दीखता है , जिससे बड़ी तकलीफ होती है , आँसू झरते रहते हैं | ऐसा कई गाय आदि पशुओंकी आँखोंमें देखनेको मिलता है , अगर कोई उसमें सुबह उठते ही आचमन करनेसे भी पहले बासी थूक लगायें तो वह फूला (रोग) मिट जाता है |

सूक्ति-
१६०-

राम राम राम राम ,
कीड़ीनगरे आग लागगी |

शब्दार्थ-
कीड़ी नगरा (चींटियोंका नगर , बिल , घर) |
कीड़ीनगरा सींचनेका , दाना-पानी देनेका बड़ा पुण्य  होता है और कीड़ीनगरेको तोड़नेका एक नगरको ,गाँवको मारनेके समान  बड़ा भारी पाप होता है |  उसमें आग लग जाय तो बड़ी दुखदायक बात है | घरमें अगर चींटियाँ आती हो , तो कीड़ीनगरा सींचनेसे वो चली जाती है |

सूक्ति-
१६१-

कह, बाबाजी !
आप और तो सब ठीक हो;
पण एक कमी (कसर)है |
कह, कौनसी कमीरे बदमाश ! ?
कह, यही | (गुस्सेवाली)|

सूक्ति-
१६२-

दो हाथाँ बीचै एक पेट है |

(पेटके लिये क्या चिन्ता करना) |

सूक्ति-
१६३-

तिल घटै, न राई बधै  |

शब्दार्थ-
बधै (बढना ) |

सूक्ति-
१६४-

साँडेमें कुसाँडो (जैसे) एवड़में ढ़ाँडो ।

शब्दार्थ-
साँडो (साथ) , एवड़ (भेड़ोंका समूह) , ढाँडो (गाय भैंस आदि बड़े पशु) |

(सूक्ति-
१६५-

आप मरौ र ठरौ (पण) म्हारे जीवरो तो भलौ करो |

(आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के 26/10/1993.3.00 बजेके सत्संगसे।

कथा-

एक खेती करनेवाली जाटनी थी । वो एक साहूकार (सेठ) के यहाँ काम करती थी ।
एक बार उसने देखा कि सेठके यहाँ सँत आये हैं। उनका बड़ा आदर किया गया है। गायका गौबर-गौमूत्र जलमें डालकर और उस पतले-पतले लेपसे मसौता लेकर सारा आँगन लीपा गया है।
सत्कार, पूजा आदि करके बड़े आदरसे भोजन परौसा गया है और घरवाले हवा कर रहे हैं।
यह देखकर जाटनीने पूछा कि आपलोग ये सब क्या कर रहे हैं?
तो घरवाले बोले कि हम अपने जीवका भला कर रहे हैं, संतोंकी सेवा करनेसे, संतोंका संग करनेसे-सत्संग करनेसे अपना(जीवात्माका) कल्याण होता है, मुक्ति होती है।
संत-महात्मा भी गीतीजीके पन्द्रहवें अध्यायका पाठ कर रहे हैं-

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

*अथ पञ्चदशोऽध्यायः*

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१५- १॥

आदि पाठ पूरा करके (ब्रह्मार्पणम्…पत्रं पुष्पं फलं तोयम्…गीता(४/२४;९/२६;) आदि बोलकर भगवानके भोग लगा रहे हैं और प्रसाद पा रहे हैं)
प्रसाद पाकर 'जटाकटाह0'(श्री शिव ताण्डवस्तोत्रम्) आदि बोलकर, (आचमन आदि करके) संत-महात्मा वापस पधार गये।
वो जाटनी भी अपने घर आ गई।

एक दिन शीतकालमें उसके घरपर भी संत पधारे। तब उसने भी गौबर-गौमूत्रसे गाढा-गाढा आँगन लीपा (जिससे ठण्डी भी बढ गयी और संतोंको शीत लगने लग गई)।
बाकी काम करके जाटनी संतोंके हवा करने लगी (जिससे संतोंको ठण्ड ज्यादा लगने लग गई)।
संत बोले कि हमको ठण्डी लग रही है, ठण्डसे मर रहे हैं-शीयाँ मराँ हाँ । तो जाटनी बोली कि आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-थे मरौ र ठरौ, पण म्हारे जीवरो तो भलौ करो ।

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के

दि.19931026/3.00 बजेके सत्संग-प्रवचनके आधार पर

सूक्ति-
१६६-

राख पत , अर रखवाय पत |

शब्दार्थ-
पत (इज्जत, प्रतिष्ठा ) |

सूक्ति-
१६७-

तिलकी औटमें पहाड़ |

सूक्ति-
१६८-

दौनों हाथ भेळा कर्याँही धुपै (है) |

सूक्ति-
१६९-

मनराही लाडू तो घी कम क्यूँ ? |

शब्दार्थ-
मनराही (मनकेही, कल्पित) ।

सूक्ति-
१७०-

मिणियेसूँ मिणियो पोईजग्यो |

भावार्थ-
दौनों एक जैसेही आपसमें मिल गये ।

सूक्ति-
१७१-

जैसेको तैसा मिला ज्यूँ बाह्मणको नाई |
उण बताई आरसी ,(अर) इण तिथि वार बताई ||

शब्दार्थ-
आरसी (दर्पण) ।

सूक्ति-
१७२-

आगेतो बाबाजी फूटरा घणाँ,
अर ऊपरसूँ लगाली भभूत |

शब्दार्थ-
आगेतो (पहलसे) , फूटरा (सून्दर)।

सूक्ति-
१७३-

रब्बदा कि पाणाँ ?
इतै पट्टणा, अर इतै लाणाँ |

शब्दार्थ-
रब्ब (ईश्वर) ।

घटना-
एक पंजाबी संत (बुल्लेशाह) खेतमें क्यारीका काम कर रहे थे ,पहली क्यारीको रोककर दूसरी क्यारीमें जल ला रहे थे।
उस समय किसीने पूछा कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये कौनसा उपाय करना चाहिये?
तब वो संत क्यारी और जलका ही उदाहरण देते हुए बोले कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये कौनसी कठिनता है ! उनकी प्राप्तिके लिये अपनेको इधर(संसार) से  तो रोकना है और इधर(परमात्माकी तरफ)  लगाना है।

सूक्ति-
१७४-

डूबखातो है |

सूक्ति-
१७५-

आ तो छाछ ढुळणवाळी ही है |

सूक्ति-
१७६-

मूँडा देख-देखर टीका काढै है |

शब्दार्थ-
मूण्डा (मुख)।

सूक्ति-
१७७-

हींग लगै नहिं फिटकड़ी (अर) रंग झकाझक  आय।

सूक्ति-
१७८-

घिरत भिरतरी छाँवळी है |

सूक्ति-
१७९-

एक गुणाँ दान, अर सहस गुणाँ पुन्न |

सूक्ति-
१८०-

नंगा क्या धोवै ,
अर क्या निचौवै (निचौड़ै ?) |

सूक्ति-
१८१-

आप बाबाजी बैंगण खावै |
औराँनें प्रबोध बतावै ||

सूक्ति-
१८२-

कह, तिल किताक खा लेही?
काँईं सेर भर ?
कह, सेर भर तो साँगणियाँ समेत खालूँ |

शब्दार्थ-
साँगणियाँ (तिलवाले पौधेके लगनेवाला फल-जिसमेंसे तिलके दाने निकलते हैं,सिट्टा । साँगणियाँ खानेकी वस्तु नहीं होती है;यहाँ खानेके लिये कहनेका तात्पर्य है कि तिल तो मैं बहुत सारे खा सकता हूँ  ; सेर भरके लिये क्या पूछते हो ! सेर भरतो  सिट्टो(साँगणियाँ) समेत खा सकता हूँ। इसमें अपनी ज्यादा सामर्थ्यका परिचय दिखाया गया है)।

सूक्ति-
१८३-

बैठौड़ेरे ऊभोड़ौ पाँवणो है |

सूक्ति-
१८४-

तूँ तूँ करत मिले तूँकारो
जीकारै जीकार जुड़ै |

भावार्थ-
अगर किसीको कोई 'तूँकारा' देता है-'तूँ' कहता है तो बदलेमें 'तूँकारा' ही मिलता है और अगर 'जीकारा' देता है-'जी' कहता है तो बदलेमें 'जीकारा' मिलता है । 'जी' के बदले 'जी' कहनेसे ही तुक मिलता है 'तूँ' कहनेसे नहीं।एक तो 'जी' कहे और दूसरा 'तूँ' कहे , तो 'जी' और 'तूँ' जुड़ता नहीं , 'जी' के बदले 'जी' कहनेसे ही जुड़ता है  , तुक बैठता है ।
इसलिये कोई 'जी' कहलाना चाहे  , (आदर चाहे) , तो  पहले स्वयं 'जी' कहें (आदर करें) क्योंकि 'जी' के बदले ही 'जी' मिलता है 'तूँ' के बदले नहीं। 'जी' के बदले 'जी' ही जुड़ता है।

सूक्ति-
१८५-

पहलाँ आई दाढी ,
तो मूछाँरी जड़ बाढी।
  पहलाँ आई मूछाँ ,
तो दाढीरो काँई पूछाँ ||

शब्दार्थ-
बाढी (काटी) ।

सूक्ति-
१८६-

ढळियो घाँटी ,
अर हूग्यो माटी |

शब्दार्थ-
घाँटी (गला , भोजन नली) ।

सूक्ति-
१८७-

खरचरो भाग मोटो है |

सूक्ति-
१८८-

नित बड़ी है |

सूक्ति-
१८९-

घाटो नफो दौनों भाई है |

सूक्ति-
१९०-

अठैई एवड़रो एवाड़ो,
अर अठैई नाररी घुरी |

शब्दार्थ-
एवड़ (भेड़ोंका समूह ) , एवाड़ो (भेड़ोंके  रहनेका स्थान ,बाड़ा)। नार (भेड़िया) । घुरी (भेड़ियेके रहनेका स्थान )।

सूक्ति-
१९१-

कुण पीळा चावळ दिया हा !

सूक्ति-
१९२-

भाग फूटौड़ैनें करम फूटौड़ौई मिलै |

सूक्ति-
१९३-

पल-पलमें करे प्यार(रे) पल-पलमें पलटै परा | लाँणत याँरे लार रजी उड़ावौ राजिया ||

शब्दार्थ-
लाँणत (धिक्कार ) । याँरे लार (इनके पीछे) । रजी (धूल) ।

सूक्ति-
१९४-

घरमेंहीं चौक पूर लियौ |

सूक्ति-
१९५-

हार खादी ,अर झगड़ो मिट्यो |

शब्दार्थ-
हार खादी (हार मानी,  हार खायी) ।

सूक्ति-
१९६-

दो ठगाँ ठगाई कौनि हुवै |

सूक्ति-
१९७-

माईसूँ खाई प्यारी ह्वै |

शब्दार्थ-
माईसूँ खाई …(माँ से अधिक खानेयोग्य वस्तु प्रिय है) ।

सूक्ति-
१९८-

सागेई करसी, अर सागेई डाँडो |

शब्दार्थ-
करसी (खेत निरानेका एक उपकरण , जिसमें लकड़ीके लम्बे डण्डेके छौरपर लोहेकी एक छोटी खुरपी लगी रहती है , खेत निरानेकी खुरपी ) ।

[कोई प्रयत्न करनेपर भी अपना सुधार नहीं  करता है, वापस पूर्ववत् करने लगता है , तब ऐसी कहावत कही जाती है] ।

सूक्ति-
१९९-

ऊँट, अर भेंसका का घरवासा |

शब्दार्थ-
घरवासा (विवाह , गृहस्थपना) ।

सूक्ति-
२००-

खावौ भलाँही मण ,
ढोळो मति कण |

                               ||श्री हरिः||        

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                     -:@ तीसरा शतक (सूक्ति २०१-३०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |



सूक्ति-
२०१-

कह , आँ काँई बाकी छोडिया है ?
कह , मेह और मौत बाकी छोडिया है |

सूक्ति-
२०२-

मरग्यो कुत्तेरी मौत |

सूक्ति-
२०३-

बगत नहीं है मरणेरी (भी) |

सूक्ति-
२०४-

सांस खावणनेईं बगत कौनि |

सूक्ति-
२०५-

जाणै लाल बुझक्कड़ और न जाणै कोय |
पगके चक्की बाँधिकै हिरणा कूदा होय ||

शब्दार्थ-
चक्की (चाकी , जिससे गेहूँ , बाजरी आदि पीसा जाता है ,घट्टी | - चक्कीका एक भाग , पुड़िया पैरके बाँधकर हरिण कूदा होगा) ।

कथा-

एक गाँवमें जानकार समझे जानेवाले एक सज्जन रहते थे | जिनको लोग लालबुझक्कड़ कहते थे | कोई बात समझमें नहीं आती तो लोग उनसे पूछते थे | वो भी पूरे जानकार न होते हुए भी लोगोंकी दृष्टिमें जानकार बने रहते थे | किसी बातका जवाब न आनेपर भी वो कुछ बनाकर कह देते थे |

एक बार वहाँ हाथीके पैरोंके निशान देखकर लोगोंने आश्चर्य  करते हुए पूछा कि ये इतने बड़े-बड़े पैरोंके निशान किसके हैं ? जब उनके पैर भी इतने बड़े हैं तो वो स्वयं कितना बड़ा होगा ? तब उन्होने कहा कि इस बातको हम (लालबुझक्कड़) जानते हैं , दूसरा कोई नहीं जानता | फिर उन्होने बताया-
लगता है कि पैरके चाकी (चक्कीका पुड़िया) बाँधकर कर कोई हरिण कूदा है -
जाणै लाल बुझक्कड़ और न जाणै कोय |
पगके चक्की बाँधिकै हिरणा कूदा होय ||

सूक्ति-
२०६-

सिर धुनिकै हँसिकै कह्यो कहूँ सो साँची मानियो |
लै गयौ सियानें रावण तिनकी यह सुरमादानियो ||

शब्दार्थ-
सुरमादानी (काजल रखनेकी वस्तु , डिब्बी , कुप्पी ,कूंपला ) |

कथा-

एक दिन लोगोंने जंगलमें एक घाणी और घाणीका लाठ (एक विशाल लकड़ी , जिसका एक छौर घाणीके लगा  रहता है और दूसरे छौरसे बैल घाणी चलाते हैं ) देखा | समझमें न आनेपर लोगोंने लालबुझक्कड़जीसे पूछा (जिनका परिचय ऊपर सूक्ति नं.२०५ में बताया गया है ) | तब उन्होने सिर धुनकर कि मैं हूँ तब आप लोगोंको बता देता हूँ , नहीं तो कौन बताता।
(अगर मैं नहीं रहा-मर गया ! तो आपलोगोंको कौन बतायेगा , आपकी क्या दशा होगी ?) फिर हँसकर कहने लगे कि मैं जौ कहूँगा , उसको आपलोग सत्य मानें | फिर उन्होने बताया कि जब सीताजीको वनमेंसे रावण हरण करके लंका लै गया था  , तब उनकी सुरमादानी यहाँ जंगलमें ही रह गयी थी | यह उन्ही सीताजीकी सुरमादानी है | (यहाँ लाठको सुरमा-अञ्जन आञ्जनेकी श्लाका समझना चाहिये ) |

सूक्ति-
२०७-

मारग-मारग जावतो मारगमें पड़ी गोह |
पूँछ उठाकर देखियो होळी आडा तीन दिन ||

वार्ता-

एक ……कवि थे जो कविता बढिया करते थे परन्तु दोहे आदिके अन्तवाला तुक नहीं मिलाते थे | शायद उनके लिये यह तै था कि तुक न मिलावें और अगर मिला दिया तो जीवित नहीं रहेंगे | किसी कारणवश वो तुक मिल गया , जिससे वो शान्त हो गये |
प्रस्तुत पहेली उन्ही कविकी है कि मैं रास्ते-रास्ते चला जा रहा था | उस रास्तेमें एक गोह पड़ी थीं | उसकी पूँछ उठाकर देखा गया तो पता लगा कि होली आड़े तीन दिन ही बाकी है ; वो था टीपणा (पंचांग) |
कई लोग पंचागको कपड़े या कपड़ेकी बुगची आदिमें रखकर और रस्सीमें लपेट कर साथमें रखते हैं |
ऐसे इनकी कुछ पहेलियाँ और  कविताएँ आगेवाली सूक्तियोंमें भी हैं |

सूक्ति-
२०८-

परबत ऊपरसूँ गोळो गिरियो म्हें जाण्यों बडबौर |
लेय हाथमें चाखियो वाहवारे म्हारा ऊँनाँ खीच कालोका |

शब्दार्थ-
बडबौर (बड़ा बेर , बदरीफल) ऊँनाँ खीच कालोका !  (कलका गरम खीचड़ा ! ) |

(यह शायद प्याज था , जो किसी मालवाहक गाड़ेसे गिर गया था) |

सूक्ति-
२०९-

रिड़क भेंस पींपळ चढी कुत्ते तोड़ायो नाथ |
नीमड़ेसूँ डूम गिरियो टूटो ढेडरो हाथ ,
चटचटार ,साथळमेंसूँ जावतो |
मारियो बापड़े जतीनें , उपासरेमें बैठेनें ||

शब्दार्थ-
रिड़क (भेंसकी एक प्रकारकी आवाज) ,चटचटार (चट-चटसी आवाज करते हुए) , साथळ (जाँघ ,उरू)

[कुआ,लाव,चड़स आदि | जो चड़स टूटकर कूवेमें गिरा था , वो जती (जैनमुनि) का था , उस समय वो उपासरे (आश्रम) में बैठा था , बेचारे वहाँ बैठेके ही नुक्सान कर दिया गया ] |

सूक्ति-
२१०-

जैयाँरी जराजर माँचे फर्र्र मचेली भाटाँरी |
अखो कहै अजमालराँ (अब) शर्म रेवैला ह्नाटाँरी ||

शब्दार्थ-
जैई (लकड़ीके एक लम्बे डण्डेके सिरे पर दो तीखी लकड़ियाँ मजबूतीसे बाँधी हुई होती है , जिससे किसान लोग काँटोंवाली पाई आदि उठाते हैं ,  बेई , जेळी) , जराजर (बार-बार वार करने पर जराजर-जराजर के समान सुनायी देनेवाली आवाज ) , फर्र्र (जोरसे पत्थर फेंकने पर होनेवाली ध्वनि ) , ह्नाटाँरी (भाग जाने वालोंकी ) |

(लगता है कि कोई लड़ाई होनेवाली थी ; यह उक्ति उस समयकी है ) |

सूक्ति-
२११-

तिलकी ओटमें पहाड़ |

सूक्ति-
२१२-

भूखो तो धायाँ पतीजै |

शब्दार्थ-
धायाँ (धापने पर , अन्नसे तृप्त होने पर) , पतीजै (आश्वस्त होता है , विश्वास करता है)  |

सूक्ति-
२१३-

धरण ठिकाणैं आगी |

शब्दार्थ-
धरण …(पेटकी स्वस्थ अवस्था , धरण टल जाने पर दस्त आदि लगने लगती हैं , हालत बिगड़ जाती है ;  जब वो अपनी जगह पर-ठिकाने आ जाती है तो स्वास्थ्य ठीक हो जाता है ) |
जब किसीकी अकल(बुध्दि) ठिकानै आ जाती है तो उदाहरण दिया जाता है कि 'धरण ठिकाणै आगी'-आ गई |

सूक्ति-
२१४-

बन्दो जावै गुजरात ,
कर्म छाँवळी [साथो] साथ |

शब्दार्थ-
छाँवळी (छाया) |

सूक्ति-
२१५-

जाणैं ,न बूझै ; अर हूँ लाडेरी भूआ |
ठा नीं , ठिकाणौं नीं , अर हूँ लाडेरी भूआ |

शब्दार्थ-
ठा नीं (पता नहीं) |

सूक्ति-
२१६-

आ ए राँडी ! राड़ कराँ ,
निकमा बैठा काँई कराँ |

शबदार्थ-
निकमा ( निकम्मा , निष्क्रिय , खाली) |

सूक्ति-
२१७-

थोथा चणा, बाजै घणा |

सूक्ति-
२१८-

हम बड़ा गळी साँकड़ी |

शब्दार्थ-
हम (अहम , अहंकार) |

सूक्ति-
२१९-

पहले रहता यूँ , तो तबला जाता क्यूँ |

सूक्ति-
२२०-

काळा चाब्या है केइरा |

भावार्थ-

किसीका कोई हक मारता है , कोई वस्तु लै ले-लेता है और वापस देता नहीं है तो उसको इस जन्ममें अथवा आगेके जन्ममें ब्याज सहित वो सब वापस चुकाना पड़ता है -

मूण्डैसूँ खायौड़ा फुण्णनासूँ निकळसी |

चाहे उस समय उसके पास चुकानेके लिये वो वस्तु आदि न भी हो तो भी दुख पाकर अथवा उसके घरका पशु आदि बनकर चुकाना पड़ता है | इसलिये किसीका हक खाना दुखदायी होता है ,परन्तु काळा (ठगाई करके , झूठ-कपट करके , धोखा देकर) खाना तो बहुत दुख देनेवाला होता है | लोगोंकी मान्यता है किसीके काळे तिल नहीं खाने चाहिये | अगर परवश होकर कोई बड़ा दुख पाता है तो कहा जाता है किसीके काले चबाये हैं-'काळा चाब्या है केईरा' |

सूक्ति-
२२१-

ऐरे गैरे , नत्थूखैरे |

सूक्ति-
२२२-

खाड़ैतीरो काँई भार (है) ! |

शब्दार्थ-
खाड़ैती (गाड़ी आदिको चलानेवाला) |

सूक्ति-
२२३-

देखै न कुत्तो भुसै |

सूक्ति-
२२४-

कह कबीर मैं कहता डरूँ ,
पर गोरख कहै सो मैं क्या करूँ ?

सूक्ति-
२२५-

एकै कही दूजै मानी , गोरख कहै दौनों ही ज्ञानी |
एकै कही दूजै उथापी , गोरख कहै दौनों ही पापी ||

शब्दार्थ-
उथापी (जैसे , किसीने किसीको कोई काम करनेके लिये कहा कि अमुक काम करदो ; तो उसको  सुनकर उस कामको खुदने तो किया नहीं और दूसरेको कह दिया कि तुम यह (जिस कामके लिये उसको कहा गया था) काम करदो | इसको'उथापना' कहते हैं | ऐसे उथापनेवालेको कहना भी पाप बताया है कि ऐसे आदमीको अथवा ऐसी परिस्थितिवालेको कहा ही क्यों ?  |

कोई काम करनेके लिये कहे , तो अगर वो धर्मयुक्त है और करनेकी हमारेमें सामर्थ्य हो तो कहने पर उसको करना चाहिये |

जो बात  युक्तियुक्त हो , शास्त्रसम्मत हो और अनुभव की हुई हो , वो बात माननेयोग्य होती है |

भगवान् ,संत-महात्मा और शास्त्र जो बात कहते हैं उसको मानना चाहिये |
(नहीं तो वो पापी है ) |

सूक्ति-
२२६-

सन्मुख हुवै सुथार करै बाँकारा पाधरा |

सूक्ति-
२२७-

टाबरिया घर बसावै ,
तो बाबो बूढी क्यूँ लावै |

सूक्ति-
२२८-

बूढा भाथड़ै घालीजै |

शब्दार्थ-
भाथड़ै (भाथड़ा , चमड़ेका बना हुआ एक बड़ा थैला)

कथा-

एक बारात जानेवाली थी , उसमें सब युवा लोग थे | उनका विचार था कि सब जनान-जवान ही जायेंगे , बूढोंको नहीं लै जायेंगे  , (बूढे तो बेकार होते हैं , बूढे काम नहीं सकते, काम तो जवान लोग ही कर सकते हैं , बूढोंकी क्या जरूरत है, ये तो व्यर्थमें जगह रोकते हैं | कोई काम करना होता है तो उलटे उसमें ये टाँग अड़ाते हैं , काम सफल होने नहीं देते , हुक्म चलाते हैं , काम तो होता नहीं इनसे आदि आदि) |

एक समझदार वृध्दने सोचा कि बारातमें कोई वृध्द आदमी नहीं है ,कोई जरूरी काम पड़ गया तो कैसे होगा  ये सब जवान हैं ,इनमें उत्साह और ताकत तो है ,परन्तु अनुभव नहीं है ,  समझ नहीं है | इसलिये एक वृध्द को साथमें जाना चाहिये | उसने एक युवाको पटाया और सामानकी तरह थैलेमें डालकर उस वृध्दको साथमें रख लिया गया |

बारात जब ससुराल पहुँची तो देखा गया कि सब जवान ही जवान हैं ,साथमें किसी वृध्दको नहीं लाये हैं , वृध्दोंकी आवश्यकता नहीं समझी गयी है , ये अपनेको बलवान और बुध्दिमान समझते हैं कि कोई भी काम होगा तो हम कर लेंगे , बूढोंकी क्या जरूरत है ? आदि आदि |
इन 'जवान लोगोंमें समझ कितनीक है ' यह सामने लानेके लिये ससुरालवालोंने एक युक्ति रची | वो बोले - आप किसी बूढे-बड़ैरेको नहीं लाये ? जवाब मिला-   बूढोंकी क्या जरूरत है , कोई काम हो तो हमको बताओना ! हम करेंगे | तब एक तलाई दिखाकर वो बोले कि इस तलाईको दूधसे भरना है | विवाह बादमें करेंगे , पहले हमारी यह मांग पूरी करो | यह सुनकर सब जवान असमञ्जसमें पड़ गये कि अब क्या करें ? तलाईको दूधसे भरना सम्भव है नहीं और बिना भरे विवाहकी बारी ही नहीं आयेगी और अगर विवाह नहीं हुआ तो वापस कौनसा मुँह लेकर जायेंगे | अगर बूढे लोगोंने पूछ लिया कि आप जवान लोग तो सब काम कर सकते हो , फिर विवाह क्यों नहीं करा सके ? तो उनको क्या उत्तर दैंगे ? आदि आदि | किसी भी जवानको समझमें नहीं आ रहा था कि अब क्या करना चाहिये |
अभी तक किसीको पता नहीं था कि हमारे साथ एक वृध्द हैं | इस बातको एक जवान ही जानता था | अब उस जवानके मनमें आया कि क्यों नहीं उस बूढेसे ही पूछलें कि अब क्या करें ? उसने जाकर परिस्थिति जनायी और पूछा कि अब क्या करें , बड़ी समस्या आ गई है | तब उस वृध्दने युक्ति बतायी कि इन लोगोंसे कहो कि आपकी माँग हमें मंजूर है , हम तलाईको दूधसे भर रहे हैं ; पहले आप इसको जल्दी ही खाली करो | यह सुनकर वो समझ गये कि इनके साथमें कोई वृध्द हैं |
रहस्य खुलने पर सबको यह समझमें आया कि वृध्दोंकी कितनी आवश्यकता होती है | बारातके सारे के सारे जवान जिस कामको नहीं कर पाये थे , उस कामको एक बूढेने कर दिया |  बूढेकी तरकीबसे उनको न तो दूधसे तलाई भरनी पड़ी और न इज्जत गँवानी पड़ी | तभी तो कहा जाता है कि बूढे भाथड़ै घाले जाते हैं |

सूक्ति-
२२९-

बूठै-बूठै हळौत्यो |

शब्दार्थ-
बूठै-बूठै (वर्षा होते ही , तत्काल , अवसर पर ) ,  हळौत्यो (हल चलानेकी शुरुआत )  |

सूक्ति-
२३०-

अकल शरीराँ ऊपजै दियाँ आवै डाम |

भावार्थ-
मनुष्य जब स्वयं विचार करता है , बुध्दि लेना चाहता है , तब अकल(बुध्दि) आती है | अगर स्वयं न सोचे ,न चाहे और दूसरा कोई अकल देता है तो डाम ( गर्म लोहा शरीरसे चिपका कर जला देनेके ) के समान लगती है |
(बुध्दि स्वयंके शरीरमें पैदा होती है ,स्वयं सोचनेसे आती है, देनेसे नहीं आती , देनेसे तो डाम आते हैं ) |

सूक्ति-
२३१-

पाँच-सात रोटी आई एक आयो खाखरो |
दानराम साँची कहवै आसन ऊपर जापरो ||

शब्दार्थ-
खाखरो (मोठौंकी रोटी , कड़ी रोटी ) |

सूक्ति-
२३२-
ओ$म सो$म ऊमरा हरिया खाली औड़ |
नाम बिना निपजै नहीं पचि पचि मरो करौड़ ||

शब्दार्थ-
ऊमरा (हल चलानेसे बनी हुई लंकीर , जिसमें बीज बौये जाते हैं ) , औड़ …(हळाव?) |

सूक्ति-
२३३-

मोठनें अर ठोठनें मूँडै नहीं लगावणो |

शब्दार्थ-
ठोठ (अशिक्षित , अनुभवहीन ,मूर्ख ) |

सूक्ति-
२३४-

डार भारमें भार |
डाल भाड़में भार |

शब्दार्थ-
भार (बौझ) , भाड़ (भट्ठी , चूल्हा) |

सूक्ति-
२३५-

कह, पड़ग्या आप |
लागी तो कौनि ?
कह, लागी नहीं तो पड़्या रोवणनें हा  ! |

सूक्ति-
२३६-

बिगड़्यौड़ो बैरागी भी मांस नहीं खावै |

सूक्ति-
२३७-

चोर-चोर माँसियाही भाई |

शब्दार्थ-
माँसियाही (मौसीके बेटा भाई ही ) |

सूक्ति-
२३८-

नागनाथ साँपनाथ दौनों भाई-भाई |

सूक्ति-
२३९-

ठाकर कहै ठकुराणी ! इणही गाँवमें रहणौ |
ऊँट बिलैया लै गई हाँजी-हाँजी कहणौ ||

भावार्थ-
ठाकुर साहब कहते हैं कि हे ठकुरानी ! इसी गाँवमें रहना है | अगर कहा जाय कि ऊँटको  बिल्ली लै गयी ; तो भी हाँ जी ! हाँ जी ! ही कहना है | यह नहीं कि बिल्ली ऊँटको कैसे लै जा सकती है ? |

सूक्ति-
२४०-

हंसाँरी हंसणी कागलाँनें ब्याहासी,
(तो) बाँरा पितर तो अठे (नरकाँमें ) ही आसी ||

(घटना ठीकसे तो याद नहीं आयी , पर थोड़ीसी बता देते हैं-किसीने अपने पितरोंको नरकोंमें पड़े देखकर पूछा कि ये यहाँ कैसे आ गये ? जवाब मिला कि जौ हंसोंकी हंसिनीका विवाह कौओंके साथमें करेंगे , उनके तो पितर यहीं , नरकोंमें ही आयेंगे | इससे सिध्द हुआ कि यह अन्याय पूछनेवालेने ही पूर्वमें किया है , जिसके फलस्वरूप उनके पितर नरकोंमें गिरे ) |

[ कौओंको अन्न देनेसे तो वो अन्न पितरोंके पास पहुँचता है , उनको  फायदा होता है , परन्तु  परायी स्त्री कौओंको देनेसे या दिलानेसे तो अधर्म(गीता१/४१-४२)के कारण पितरोंका पतन ही होता हैं ] |

सूक्ति-
२४१-

काचो पारो ब्रह्मधन शिवनिर्माल्य जो खाय |
नाथ कहैरे बाळकाँ वो जड़ाँमूळसूँ जाय ||

शब्दार्थ-
ब्रह्मधन (ब्राह्मणका धन) , शिवनिर्माल्य (शिवलिंग पर चढी हुई वस्तु ) , जड़ाँमूळसूँ (जड़समेत अर्थात् इन तीनों चीजोंमेंसे किसी एकको भी जो खाता है वो जड़सहित नष्ट हो जाता है ) |

सूक्ति-
२४२-

दास मनोहर चेला मूँड्या कूड़ा कपटी सोधा |
बळ पताणें बखियाँ आवै ज्यूँ साँवणमें गोधा ||

सूक्ति-
२४३-

दास मनोहर चेल्याँ मूँडी छोटी मग्गी दोय |
दफतर चढगी राजरे छानी रही न कोय ||

सूक्ति-
२४४-

दास मनोहर चेल्याँ मूँडी चेला मूँड्या च्यार |
उणमेंसूँ तो एक न सुधर्यो ताते खाई हार ||

सूक्ति-
२४५-

एक बार भगभोगमें जीव हतै नौ लाख |
मनोहरदास नारी तजी सुण गोरखरी साख ||

सूक्ति-
२४६-

गन्दमगन्दा मूताखाड,पड़-पड़ पशुआ तौड़े हाड |
दिन कर धन्धो रात्यूँ भोग , चरपट कहै बिगाड़्यो जोग ||

सूक्ति-
२४७-

नदी नाळा लाँघिया कीया समँदर पार |
करड़ी …लाँघणी खाडी आँगळ चार ||

सूक्ति-
२४८-

धण साँगी पति मोगरी मैं थी बथुआ माँय |
तब तैं हेलो मारियो ताते बोली नाँय ||

गूढार्थ -
धण-धनिया (पत्नि). साँगी-साँगरी (पतिके संग ). पति-पत्ती (पति). मोगरी-मूळीफल (पतिको खुश कर रही थी) बथुआ-बथुवा (बाथमें) .||

सूक्ति-
२४९-

ओ तो आँडाँसूँही भारयाँ मरे है |

सूक्ति-
२५०

घूसा खोस्याँ किसा मर्दा हळका हुवै है ! |

सूक्ति-
२५१-

(हिंसा) करूँ नहीं , करवाऊँ नहीं और
करणवाळेरो भलो मानूँ नहीं (जाणू नहीं )|

सूक्ति-
२५२-

गाळ्याँसूँ किसा गूमड़ा ह्वै है ! |

उदाहरण-
जैसे किसी कठौर वस्तुकी सिर आदिमें चौट लग जाती है तो चमड़ी आदि समतल न रहकर , उभरकर ऊँची हो जाती है , उसको कहते हैं कि गूमड़ा हो गया | कोई गाळी देता है तो उससे कोई गूमड़े थोड़े ही होते हैं , कुछ नहीं होता | इसलिये कोई गाली देता है तो न चिन्ता करनी चाहिये और न गुस्सा करना चाहिये |

आवत गाळी एक है उथलत होय अनेक |
जै गाली उथलै नहीं (तो) रहै एककी एक ||

सूक्ति-
२५३-

बिधाता तूँ बावळी बाढूँ थारो नाक |
जौड़ाँरा कुजौड़ा करै आँबे भेळो आक ||

सूक्ति-
२५४-

(पति-पत्निमेंसे ) एक साध ,अर एक थूल |
घर जावणरो मूळ ||

शब्दार्थ-
साध (साधुस्वभाव ; साधू अर्थात् श्रेष्ठ स्वभाव वाला , अच्छे स्वभाव वाला ) , थूल (स्थूल अर्थात् मोटी बुध्दिवाला , जिद्दी , कम समझवाला) |

भावार्थ-
पत्नि अगर साधू-स्वभाववाली है और पति स्थूलबुध्दि वाला है , तो समझना चाहिये कि यह घर जानेका अर्थात् बर्बाद होनेका मूल है , ऐसे बेमेल स्वभावसे घर उजड़ सकता है | ऐसे ही अगर पति साधुस्वभाव वाला है , परन्तु पत्नि स्थूलस्वभाव वाली है तो भी समझ लेना चाहिये कि घर जानेका मूल है , इससे भी घर नष्ट हो सकता है | इसलिये पति-पत्निको मेल रखना चाहिये , बेमेल नहीं होना चाहिये |

सूक्ति-
२५५-

डेढ चावळरी खीचड़ी न्यारी ही पकावै है |

सूक्ति-
२५६-

जाणर बोला रेवौ |

शब्दार्थ-
जाणर (जानते हुए भी , जैसे किसीके घरका कोई सदस्य मर जाता है तो बड़ा दुःख होता है , घरवाले रोने लगते हैं , समझाने पर भी उनका रोना बन्द होता नहीं , तब यह कहा जाता है कि ( आपका रोना है तो उचित ही , यह  दुःख है तो ऐसा ही कि रोना बन्द नहीं हो सकता ; परन्तु यह) सब समझते हुए भी आप चुप रहो , हमको तो अब चुप होना है-यह निश्चय करके चुप रहो,  रोवौ मत -जाणर बोला रैवौ |

सूक्ति-
२५७-

चौरीरो धन मोरीमें जावै |

शब्दार्थ-
मोरी (आळेमें आळा ) घरकी दिवालमें कोई वस्तु आदि रखने के लिये जो आला होता है ,ऐसे किसी-किसी आलेके भीतर कौनेमें एक गुप्त आला और  होता है | उसमें रखी हुई वस्तुको हरेक देख नहीं पाता है | उसमें रखी हुई वस्तु कभी-कभी गुम हो जाती है | या तो कोई चुपकेसे लै-लेता है अथवा वो इधर-उधर हो जाती है , दिवालके भीतर गहराईमें चली जाय ,या बाहरकी तरफ निकलकर दूसरोंके हाथ लग जाय तो वो वापस मिलती नहीं | रखनेवालेने तो खूब ऊँडी रखी थी , पर हाथ कुछ नहीं लगा , व्यर्थ ही गई | ऐसे चौरीका धन व्यर्थ ही चला जाता है , काम नहीं आता |

सूक्ति-
२५८-

कात्याँ बिना धुन्यो पीञ्ज्यो कपास हूग्यो |

सूक्ति-
२५९-

गाँव गियो सूतो जागै |

भावार्थ-
जैसे सोया हुआ मनुष्य कब जगैगा , कुछ पता नहीं ; ऐसे ही किसी गाँव गया हुआ मनुष्य वापस कब आयेगा , कुछ पता नहीं |

सूक्ति-
२६०-

काजळकी कोठरीमें कैसोहूँ सयानो होय,
काजळकी रेख एक लागे है पण लागे है |

सूक्ति-
२६१-

कह,बूढा मरग्या |
कह, (आतो) ब्याव जैड़ी बात है |

भावार्थ-
कोई जवान मरता तो दुःख और चिन्ताकी बात थी , पर बूढे मरे हैं तो क्या दुःख करना ;यह तो विवाह जैसी-खुशीकी बात है | विवाहमें भोजन आदि होते हैं , लोग राजी रहते हैं , ऐसे ही बूढोंके मरने पर हो जायेगा |

सूक्ति-
२६२-

ठोलेरो मार्यो ऊपरनें देखे, अर कवैरो मार्यो नीचानें देखे |

शब्दार्थ-
ठोलेरो मार्यो (एक अँगुलीको मौड़कर और उसके तीखे कौनेसे जिसको चौट लगाई जाती है तो उसको  ठोलेका मारा हुआ कहते हैं , वह सिर ऊपर उठाता है कि मेरेको किसने और क्यों मारा ? | , कवैरो मार्यो ( ग्रासका मारा हुआ , किसीका रुपये ,अन्न आदि कुछ देकर उपकार कर दिया जाता है तो फिर उसका वह थौड़ा-बहुत नुक्सान भी कर देता है तो भी  वो नीचे देखता है , उपकारसे दबा हुआ वह सिर ऊपरको नहीं करता ) |

सूक्ति-
२६३-

सांपाँरे किसी मास्याँ (ह्वै है ) !  |

सूक्ति-
२६४-

कान्यो-मान्यो कुर्रर्र ,
तूँ चेलो ,अर हूँ गुर्रर्र |

सूक्ति-
२६५-

गुरु कीजै जाणियो ,
पाणी पीजै छाणियो |

शब्दार्थ-
जाणियो (जाना-पहचाना , परिचित ; तत्त्वज्ञ) |

सूक्ति-
२६६-

पीळा पान झड़णवाळा ही ह्वै है |

सूक्ति-
२६७-

आपरो बळद कुँवाड़ियेसूँ नाथसी |

भावार्थ-
अपनी वस्तुको कोई कैसे भी काममें लैं , आप एतराज करनेवाले कौन होते हो ? बैल अपना खुदका है , वो अगर चाहेगा तो कुल्हाड़ेसे नाथेगा , आप आपत्ति करनेवाले कौन होते हो! |
(बैलके नाकमें नाथ कुल्हाड़ेके द्वारा नहीं डाली जाती ; यह अव्यवहार्य ,अनुचित , कष्टदायक , नुक्सानप्रद , पापात्मक , निर्दयतायुक्त , अमानवीय , असफल ,
आशंकायुक्त और महान दुःखदायी है ) |

सूक्ति-
२६८-

बस्ती चेतावणनें जावै |

सूक्ति-
२६९-

भोळो सैण दुशमणरी गर्ज साजै |

शब्दार्थ-
गर्ज साजै (आवश्यकता पूरी करता है अर्थात् जैसा  काम बैरी-दुश्मन कर सकता है , वैसा ही काम अपना सम्बन्धी , भोळा(बावळा) आदमी कर सकता है , भोळा सैण दुश्मनकी आवश्यकता पूरी करता है , उसकी जरूरत नहीं रखता |

सूक्ति-
२७०-

नाक पर मारना |

सूक्ति-
२७१-

रोज-रोजरो रोज |

शब्दार्थ-
रोज (१.रोजाना , प्रतिदिन | २. रोना |

सूक्ति-
२७२-

चाम प्यारो नहीं काम प्यारो है |

सूक्ति-
२७३-

अबखी बेळाँमें माँ याद आवै |

शब्दार्थ-
अबखी बेळाँ (संकटकी घड़ीमें , दुःखदायी परिस्थितिमें ) |

सूक्ति-
२७४-

पाँचाँरी लकड़ी , अर एकरो भारो |

सूक्ति-
२७५-

राण्डी ढाण्डी बाउड़ो मायासेती नेह |
राम रूठै तब देत है बैरागीको येह ||

शब्दार्थ-
ढाँडी (गाय भेंस आदि पशु) , बाउड़ो (बायोड़ो , बोया हुआ खेत ) |

सूक्ति-
२७६-

गुड़ बिना ही कोई चौथ हुवै है ! |

सूक्ति-
२७७-

हुड़ हुड़ ! दो सेड [देदे ]
ठाकर लूखी खावै |

शब्दार्थ-
हुड़ (मेंढेकी पत्नि , भेड़) , सेड (दूधकी धार) |

(यहाँ भेड़से निवेदन किया गया है कि हे भेड़ ! दूधकी  दौ धार तो दे-दे ; क्योंकि ठाकुर साहब रूखी खा रहे हैं |
अब भेड़ क्या समझे ? ऐसे ही कोई किसी भेड़ जैसे आदमीको आवश्यकताके लिये प्रार्थना करे तो वो क्या समझे ? ) |

सूक्ति-
२७८-

बाई हाँतीरी हकदार है, पाँतीरी नहीं |

भावार्थ-
बहन , बेटी आदि हाँती लेनेकी तो अधिकारिणी है , पर पाँती लेनेकी अधिकारिणी नहीं है | विवाह आदिके अवसर पर बँटवारा करके जो मिठाई आदि दी जाती है कि यह अमुकको दी जाय , यह अमुकके वहाँ भेजी जाय आदि ; उसको हाँती कहते हैं और भाईयोंकी सम्पत्तिके बँटवारेको पाँती कहते हैं | सम्पति(पाँती)के हकदार तो भाई ही होते हैं , बाई (बहन) नहीं | बाई तो हाँतीकी हकदार ही होती है | बाईकी पाँती तो वहाँ है जहाँ उसका विवाह हुआ है अथवा होनेवाला है |

सूक्ति-
२७९-

आखर जिताई पाखर |

सूक्ति-
२८०-

ऊभी आई हूँ ,अर आडी जास्यूँ |

सूक्ति-
२८१-

भाग दूह लेहि काँई ! |

सूक्ति-
२८२-

तणर तीरियो बावणो |

शब्दार्थ-
तणर (तानकर ; तत्परता पूर्वक निशाना लगाकर ) |

सूक्ति-
२८३-

गोधा गोधा लड़े , अर बूँठाँरो खोगाळ |

शब्दार्थ-
बूँठा (बाजरी आदिके पौधोंका समूह) | खोगाळ  (खेजड़ी आदिका तना भीतरसे थौथा हो जाता है अथवा उसमें बड़ी क्षति या बड़ा छेद  दिखायी देने लगता है , तो उसको खोगाळ कहते हैं | गोधा-गोधा (साँड़) आपसमें लड़ते हैं तो बाजरी आदि  पौधोंकी सघनता नष्ट हो जाती है , खोगाळ हो जाता है ; ऐसे ही बड़े लोग आपसमें लड़ते हैं तो अपना और दूसरोंका नुकसान कर देते हैं |

सूक्ति-
२८४-

थूकरा चेप्या किताक ठहरसी ! |

शब्दार्थ-
चेप्या (चिपकाये हुए ) |

सूक्ति-
२८५-

धरती बीज नहिं खोवै |

सूक्ति-
२८६-

हाडपाणी मेलै है |

सूक्ति-
२८७-

मिनखा देही जब मिली पाँच कोश रह्यो पंथ |
लख चौरासी माँयनें अन्तर पड़ै अनन्त ||

सहायता-

मनष्य शरीर मिल गया तो अब मुक्ति पाँच कोश ही दूर रह गई है , पाँच कोश पार करते ही मुक्ति मिल जायेगी ; नहीं तो चौरासी लाख योनियोंमें मुक्ति इतने कोश दूर हो जायेगी कि जिसकी गिनती नहीं कर सकते , अनन्त कोश दूर रह जायेगी |

पाँच कोश-
अन्नमय कोश (पाँच तत्त्वोंका स्थूल शरीर ) , प्राणमय  कोश (पाँचप्राण ) , मनोमय कोश (मन ) , विज्ञानमय कोश (बुध्दि ) ,आनन्दमय कोश (अज्ञान , कारण शरीर  , आदत , प्रकृति ) |

पाँच कोशोंका विस्तृत वर्णन गीता 'साधक-संजीवनी' (लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) के तेरहवें अध्यायके पहले श्लोककी व्याख्यामें (१३/१ )में देखें |

सूक्ति-
२८८-

एक ननो सौ दुःख हरै चुपको हरै हजार | अणबोल्याँरो लाख फळ (जाको) वार न पार ||

शब्दार्थ-
ननो (ना करना , नहीं कर देना , अस्वीकार करना , जैसे किसीने गाली दी और उसको ली नहीं- बदलेमें गाली देना अस्वीकार कर दिया , ना कर दिया ; तो ऐसे एक 'ना' करना सैंकड़ों दुःख मिटा देता है |

सूक्ति-
२८९-

भेड़ चाल संसार है एक एकके लार |
भिष्ठा पर भागी फिरै कैसे होय उध्दार ||

सूक्ति-
२९०-

देखि पराई चौपड़ी मत तरसावै (ललचावै) जीव | रूखी सूखी खायकै ठण्डो पाणी पीव ||

सूक्ति-
२९१-

दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय |
घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय ||

शब्दार्थ-

दीया (१.दीपक;२.दिया हुआ , दान ) , चानणा (१.
प्रकाश ; २. शुभ , सुखदायी ) |

भावार्थ-

जैसे कोई चीज घरमें रखी हुई है और घरमें  अन्धेरा है ; उस समय अगर हाथमें दीपक-प्रकाश न हो , तो घरमें पड़ी हुई , रहते हुई भी चीज मिलती नहीं | ऐसे ही घरमें सुख-सम्पत्ति है , परन्तु अगर दूसरोंके हितमें नहीं लगायी , दूसरोंको दी नहीं ;  तो वो रहते हुए भी अगाड़ी मिलती नहीं , वैसे ही रह जाती है | इसलिये सबको चाहिये कि दिया करो-दो , शुभ काम किया करो ; नहीं तो रहते हुए भी मिलेगी नहीं |

सूक्ति-
२९२-

मारग सब ही सत्त है नहिं मारगमें दोष |
पैण्डो कोस करौड़को करै न पैण्डो कोस ||

शब्दार्थ-

पैण्ड़ो (पैदल चलना ; रास्ता तै करना ) |

हमारे लिये बढिया रास्ता (साधन) वही है जिसमें एक कोशका भी पैण्डा न हों , तत्काल पहुँच जायँ |

सूक्ति-
२९३-

करम जिन्हाका चीकणा देत है शबद उछाँट |
जन हरिया लागे नहीं घड़ै चौपड़ै (चीकणै) छाँट ||

भावार्थ-

जैसे चिकने घड़े पर वर्षा हो अथवा कोई जलके छींटे डाले तो ठहरते नहीं ; वो उसको फेंक देता है ,छींटे ठहरते नहीं | ऐसे ही जिनके चिकने-कर्म (कुकर्म) हैं , उनके भी सत्संगकी बातें (शब्द) सुननेपर भी ठहरती नहीं ,लगती नहीं | घड़ेके तो छींटा चिकनाहटके कारण नहीं लगता और इसके शब्द  कुकर्मोंके कारण नहीं लगता |

सूक्ति-
२९४-

काणों काणों मत कहो कड़वा लागै बैण |
धीरे धीरे पूछणो (थारा) किणविध फूटा नैण ||

शब्दार्थ-
काणो ( जिसकी एक आँख फूटी हुई हो ,काना) |

सूक्ति-
२९५-

राम भजै सो राजवी बाकीरा रजपूत |
एक हरिके नाम बिना काँगा फिरे कपूत ||

सूक्ति-
२९६-

गायाँ गोबिन्द ना मिलै कहयाँ सरै न काज |
सुनमें धुन लागी रहै तब मिलसी महाराज ||

सहायता-
सुनमें धुन अर्थात् अनन्यभावसे एक परमात्माकी ही चाह , लगन | महाराज अर्थात् परमात्मा |

सूक्ति-
२९७-

ऊँडे गाँव ऊँडो पाणी है पाणीरो काळ |
किरपा करसी रामजी देसी झूँपड़ा बाळ ||

घटना शायद ऐसे है कि ये कवि वचनसिध्द थे अर्थात् ये जैसा बोल देते भगवान वैसा ही कर देते थे | एक बार ये ऊँडेगाँव वाले स्थानमें  पहुँचे ; वहाँ पानीकी तंगी थी | इनको प्यास लगी थी , वहाँके झौंपड़ों (घरों )में रहने वालोंने पानी पिलाया नहीं ; तब उन्होने ऊपर वाली बात कहदी कि रामजी झौंपड़े जला देंगे | फिर वो झोंपड़े जल गये | इसी प्रकार जाटोंकी बकरियाँ इनके यहाँ आकर काचरे (काकड़ीके समान बेलमें लगनेवाले छोटे फल ) खा जाया करती थी | उकताकर उन्होने बकरियोंको समूळ नष्ट हो जानेके कह दिया जिससे वो नष्ट हो गई |
(यह आगेकी सूक्तिमें बताया गया है ) |

सूक्ति-
२९८-

जाटनका टाटा बुरा नित्त काचरा खाय |
(शायद-अखो कहै अजमालराँ) …जड़ामूळसूँ जाय ||

सूक्ति-
२९९-

नितरा छोडा छोलता नितरा मारता लटाँ |
रामजीरी कृपा हुई बैठा राम रटाँ ||

सहायता-
एक सुथार (खाती) थे , फिर वो साधू हो गये | उनका कहना है कि रोजाना छोडा (वृक्षके तनेके ऊपरी भागवाला छिलका) छोलते थे , (लकड़ियोंमें  रहनेवाली) रोजाना लटें मारते थे ; अब रामजीकी कृपा हो गई ; इसलिये बैठे-बैठे भगवानका नाम लेते हैं , राम राम रटते हैं |

सूक्ति-
३००-

वेही नाळे मूत है वेही नाळे पूत |
राम भजै तो पूत है नहीं (तो) मूतरो मूत ||

       
                                               ||श्री हरिः||        

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                     -:@ चौथा शतक (सूक्ति ३०१-४०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |



सूक्ति-
३०१-

पहले जैसो मन करले भाया |
रज्जब रस्सा मूंजका पाया , न पाया ||

घटना-

एक बार संत रज्जबजी महाराज कहींसे आ रहे थे | मार्गमें एक मुञ्जका रस्सा पड़ा था जो किसी गाड़ीवानकी गाड़ीसे गिर गया होगा | रज्जबजी महाराजने सोचा कि इसको उठाकर लै चलें ; गाड़ीवाला मिल गया तो उसको दे-देंगे ; नहीं तो कपड़े ही फैलायेंगे (सुखायेंगे) | इस प्रकार रस्सा उठाकर कन्धे पर रख लिया और भजन करते हुए चलने लगे | भजनकी मस्तीमें रस्सा खिसकते-खिसकते नीचे गिर गया | बादमें पता लगा कि रस्सा तो गिर गया | रस्सेका गिरना मनको अच्छा नहीं लगा | तब वो बोले कि हे भाई ! रस्सा मिलनेसे पहले जैसा मन था , वैसा करले | यह समझले कि मूंजके रस्सेका  मिलना न मिलना ही था | पहले रस्सा था नहीं , आखिरमें रस्सा रहा नहीं | बीचमें आया और बीचमें ही चला गया ; इसमें तुम्हारा क्या गया ? |
(यह युक्ति कोई सब जगह लगालें , तो कितनी मौज हो जाय ) |

सूक्ति-
३०२-

सत मत छोड़ो हे नराँ सत छोड़्याँ पत जाय |
सतकी बाँधी लिच्छमी फेर मिलेगी आय ||

सूक्ति-
३०३-

कह, पढाई कितनीक करी ?
कह, घर खोवै जितनी |

सहायता-

जैसे कोई कपटसे किसीका घर अपने नाम कराले और उसको कहे कि हस्ताक्षर(दस्तखत) करदो और अगर वो दस्तखत  कर देता है तो अपना घर खो देता है | उसको पढना तो आता नहीं कि इसमें क्या लिखा है? क्योंकि उसने पढाई इतनी ही की है कि अपना नाम लिख सके(दस्तखत कर सके) | हस्ताक्षर(दस्तखत) कर देनेसे वो घर उसका हो जाता है और यह अपना घर खो बैठता है |

सूक्ति-
३०४-

सगळा बैठर सोवै (है) |

सूक्ति-
३०५-

छोटै कवै ज्यादा जीमणो (ह्वै) |

सूक्ति-
३०६-

बेमातानें सांसो पड़ियो |
जणाँ मिनखरूपमें ढाँडो घड़ियो | |
लगावती तो ही सींग अर पूँछ |
पण लगादी दाढी और मूँछ ||

सहायता-

बेमाता (विधाता,ब्रह्माजी) | सांसो (संशय-सन्देह,भूल) |

सूक्ति-
३०७-

पेट मोटो करोसा |

भावार्थ-

किसीका कोई नुक्सान हो जाता है तब उसको सहन करनेके लिये या माफ करनेके लिये कहा जाता है कि पेट बड़ा करो-पेट मोटो करोसा |

सूक्ति-
३०८-

सौरो जिमायौड़ो ,
अर दौरो कूट्यौड़ो भूलै कौनि |

सूक्ति-
३०९-

काँई काँटाँमें हाथ जावै है ? |

सूक्ति-
३१०-

भिणिया पण गुणिया कौनि |

भावार्थ-

पढा है, सीखा है; पर अनुभव नहीं किया है , ठीकसे विचार करके समझा नहीं है |

सूक्ति-
३११-

देखै न कुत्तो भुसै |

सूक्ति-
३१२-

रोयाँ राज कौनि मिलै |

सूक्ति-
३१३-

आज्या घट्टीवाळे घरमें ! |

सूक्ति-
३१४-

घोड़ा गणगौरनेंई नहीं दौड़सी तो कद दौड़सी ? |

सूक्ति-
३१५-

नर नानाणैं जाय (है) |

जैसे-

माँ पर पूत पिता पर घौड़ा |
बहुत नहीं तो थौड़ा थौड़ा ||

सूक्ति-
३१६-

पूत कपूत हू ज्यावै ,
पण माईत कुमाईत कौनि हुवै |

सूक्ति-
४१७-

घणाँई ऊँचा नीचा लिया ,
( पण बात मानी कौनि ) |

सूक्ति-
३१८-

मियाँ बीबी राजी ,
तौ क्या करेगा पाजी |

सूक्ति-
३२०-

काँखमें कटारी , अर चौरनें घूताँसूँ मारै |

सूक्ति-
३२१-

कमाऊ पूत बहाळा लागै |

शब्दार्थ-

बहाळा(प्यारा,बाळा,बाला ) |

सूक्ति-
३२२-

कह , धोळा आग्या (बड़ा-बूढा है ) |
कह ,टल्डाँरे घणाँही है (धौळा केश तो ) |

शब्दार्थ-

टल्डा (भेड़ें ) |

सूक्ति-
३२३-

जीवती माखी कियाँ गिटीजै ? |

सूक्ति-
३२४-

बाह्मण कह छूटै , अर बैल बह छूटै |

सूक्ति-
३२५-

राधमें छुरी चलावणो (ह्मारेसूँ नहीं हुवै ) |

सहायता-

राध (मवाद,जब घाव पक जाता है,तो उसमें रस्सी-मवाद भर जाती है , उस समय बड़ी पीड़ा होती है और उसमें कोई छुरी चलाता है तो यह बड़ी निर्दयता कहलाती है , भले आदमीसे ऐसा नहीं हो सकता,वो ऐसा नहीं कर सकता |

सूक्ति-
३२६-

घाटो अकलरो है |

सूक्ति-
३२७-

बड़ो टाबर आपरै घरैही आछो |

सूक्ति-
३२८-

कह , धूड़ बाउँ थारे लारै |
कह , हूँ काँई चीणी मौलासूँ ? ||

सूक्ति-
३२९-

ए लोहरा चिणा है |

सूक्ति-
३३०-

गुड़ गोबर हू ज्यासी |

सूक्ति-
३३१-

काँजररी कुत्ती कठै ब्यावै ? |

सूक्ति-
३३२-

चाटतोई लोई काढै है |

सूक्ति-
३३३-

मूँडैसूँ खायोड़ौ फुण्णाँसूँ निकळसी |

शब्दार्थ-

फुण्णासूँ ( नाकसे ) |

सूक्ति- ३३४-

ऐतो लेणिया देणिया है |

सूक्ति-
३३५-

कपूत बेटो खाँदमें काम आवै |

शब्दार्थ-

खाँदमें (काँधमें,मर जाने पर अर्थी उठानेके लिये कँधा देनेमें) |

सूक्ति-
३३६-

हर डावा हर जीवणा हर ही रूपारेळ |
राम भरोसै रामदास ठूँठाँ माहीं ठेल ||

शब्दार्थ-

रूपारेळ (एक कबरी चिड़िया, सकुनचिड़ी) |

सूक्ति-
३३७-

पान सड़ै घोड़ो अड़ै बिद्या बीसर जाय |
रोटी बळै अंगारमें कहो चेला किण भाय ||

(कह, गुरुजी ! उथली कौनि ) |

भावार्थ-

बिना उथलै पान सड़ जाता है, बिना उथलैे (बिना आवृत्ति किये ) विद्या विस्मृत हो जाती है और बिना उथलै अंगार पर रखी हुई रोटी जल जाती है ) |

सूक्ति-
३३८-

डीगो बड़ डगमगै मऊ माळवै जाय |
लिखिया खत झूठा पड़ै कहो चेला किण भाय ||

(कह, गुरुजी ! शाखा कौनि ) |

शब्दार्थ-

मऊ (माँ) | बिना शाखा (डालियों) के ऊँचा (लम्बा) बड़(वटवृक्ष) डगमगाता है , बिना शाखा (औलाद,बेटा पौता)के माँ को अकाल पड़ने पर मालवै जाना पड़ता है , बिना शाख (गवाह)के लिखा हुआ खत झूठा पड़ जाता है |

सूक्ति-
३३९-

जिनके पाँव न फटी बिवाई |
सो क्या जानै पीर पराई ||

सूक्ति-
३४०-

कह , पेट लियो थारो कठौतो ह्वै ज्यूँ |
कह, म्हारे तो अन्न इणमें ही पचै है,
काँई कराँ थारो घणो चौखो है तो ? ||

सूक्ति-
३४१-

कह , राण्डाँ रोवौ क्यूँ हो ये ?
कह , माँटीड़ा मरग्या |

कह ,म्हे हाँ नी ?
कह , मिनख कठै ?

सूक्ति-
३४२-

राज जाज्यो , पण रीत मत जाज्यो |

सूक्ति-
३४३-

हाकम चल्यो जाय (है), पण हुकम नहीं जावै (हुकम रह ज्यावै) |

सूक्ति-
३४४-

लाम्बी पहरा देस्यूँ !

भावार्थ-

लम्बी पहना दूँगा अर्थात् विधवा कर दूँगा |
(यहाँ कोई अभिमान और गुस्सेमें बोल रहा है ) |

सूक्ति-
३४५-

ठीकरी घड़ैनें फौड़े |

सूक्ति-
३४६-

माठो बळद तो बुचकारो ही चावै (है) |

सूक्ति-
३४७-

भूखाँरे भूखा पाँवणा बे माँगे , अर ए दै नहीं |
धायाँरे धाया पाँवणा ए देवै अर बे लै नहीं ||

सूक्ति-
३४८-

कही थी छानी कानमें मानी नहिं महाराज |
बानी पड़ी विवेकमें याँरे कारण आज ||

शब्दार्थ-

बानी (राख) |

सूक्ति-
३४९-

रुपयो स्वादनैं , कै बादनैं |

शब्दार्थ-

बादनैं (वाद विवादके लिये , लड़ाई-झगड़ेके लिये) |

सूक्ति-
३५०-

पाका पान तो झड़ण वाळा ही हुवै है |

सूक्ति-
३५१-

गरज थकाँ मन और है गरज मिटै मन और |
संतदास मनकी प्रकृति रहत न एकण ठौर ||

सूक्ति-
३५२-

खीच गळेरो , अर घी तळैरो (चौखो ह्वै है ) |

सूक्ति-
३५३-

कह , ओ तो बचन हैटोई कौनि पड़ण देवै |

शब्दार्थ-

हैटो (नीचो) |

सूक्ति-
३५४-

बाँट कर खाणा , अर बैंकुण्ठाँमें जाणा |

सूक्ति-
३५५-

अणहूत भाड़ै इण्डियोई रूंख |

शब्दार्थ-

अणहूत (अभाव) | भाड़ै (बदलेमें) |

सूक्ति-
३५६-

अणहूत (-अभाव ) भाटेसूँभी काठी |

सूक्ति-
३५७-

[औ संसार तो ]
काजीजीरी कुत्ती है |

घटना-

एक काजीजी थे | उनके एक कुतिया थीं | एक दिन वो मर गयी तो लोग बैठनेके लिये आये कि आपकी कुतिया मर गयी और जब काजीजी मर गये ,तो कोई नहीं आया | जब काजीजी थे , उनके पासमें अधिकार था , तब स्वार्थ सधनेकी आशासे कुतियाकी मौतके लिये भी शौक जताया,सहानुभूति दिखायी और अब काजीजी मर गये तो स्वार्थ सधनेकी आशा नहीं रही | अब आनेसे क्या फायदा? ऐसे ही संसारके स्वार्थी लोग हैं | पासमें कुछ होता है , तब तक तो मतलब रखते हैं और जब पासमें कुछ नहीं होता तब कोई मतलब नहीं रखते |

सूक्ति-
३५८-

बूरयौड़ो मतीरो है |

सूक्ति-
३५९-

गूदड़ीके लाल |

सूक्ति-
३६०-

शंख , अर खीर भरियौड़ो |

सूक्ति-
३६१-

घी तो अँधेरेमें भी छानो कौनि रेवै |

सूक्ति-
३६२-

माजनों खोयो है (गमायो है ) |

सूक्ति-
३६३-

भागते चौररा झींटा |

शब्दार्थ-

झींटा (बाल,केश,जटा) |

सूक्ति-
३६४-

गोहरी मौत आवै जणा थौरीरी खाल खड़खड़ावै |

शब्दार्थ-

थौरी (भील) |

सूक्ति-
३६५-

किया किया हरिजीरा देखो |
अर पीछे तुम कर लेणा लेखो ||

सूक्ति-
३६६-

घुरियो तो घमंड , अर फरियो तो फतै |

सूक्ति-
३६७-

गाजररी पूंगी है ,
बाजी जितै (तो) बजाई , नहीं तो तौड़ खाई |

सूक्ति-
३६८-

जोगीवाळा जटा है |

सूक्ति-
३६९-

पनघट ऊपर पनघटै पनघट वाको नाम |
कह कवि पन कैसे रहै जहाँ पनहारिनको धाम ||

शब्दार्थ-

पन (प्रण,प्रतिज्ञा) |

सूक्ति-
३७०-

मरै टार (-घोड़ा) या लाँघे खाई |

सूक्ति-
३७१-

पौर मरी सासू , अर ऐस आया आँसू |

शब्दार्थ-

पौर (गई साल) | ऐस (इस साल-वर्ष) |

सूक्ति-
३७२-

चिड़ियाँसूँ खेत छानो थौड़ोही है |

सूक्ति-
३७३-

मँगताँसूँ गळी छानी थौड़ेही है |

सूक्ति-
३७४-

(माँ-बेटा,भक्त-भगवन्त आदिका सम्बन्ध)
काँई धौयाँ ऊतरै है ?

सूक्ति-
३७५-

कंथो एक , अर दिसावराँ घणी |

शब्दार्थ-

दिसावर (देश-विदेश) | कंथ (कन्त,पति) |

सूक्ति-
३७६-

हूँई राणी तूँई राणी ,
कुण घाले चूल्हैमें छाणी |

सूक्ति-
३७७-

पहले आवै उणरे गौरी गाय ब्यावै |

सूक्ति-
३७८-

ऊँखळमें सिर दियो है तो धमकेसूँ काँई डरणो |

सूक्ति-
३७९-

भौगना फूटा है सावणरे महीनें गधेरा फूटे ज्यूँ |

शब्दार्थ-

भौगना (मष्तिष्क,दिमागका तिरस्कार सूचक नाम) |

सूक्ति-
३८०-

केई पड़े केई तीसळै केइयक लंघे पार |
किण किण अवगुण ना किया वय चढन्ती बार ||

शब्दार्थ-

तीसळै (फिसल गये) | वय (अवस्था) |

सूक्ति-
३८१-

रातै जम्बुक बोलियो पिया जो मानी रीस |
जे कौवेरो कहयो करूँ (तो) नौ तेरह बाईस ||

शब्दार्थ-

जम्बुक (सियार,स्याळ) | घटना शायद ऐसे है कि एक स्त्री पशु-पक्षियोंकी बोली (भाषा) समझती थीं | एक बार रातमें सियार बोला | उसकी बोली समझकर वो बाहर गई और नौ मुहरें आदि लै आयीं; परन्तु रातमें बाहर निकल जानेसे पतिने गुस्सा कर लिया | दूसरे दिन कौएकी बोली समझ कर वो कहती है कि अगर इसका कहना मानूँ तो तेरह मुहरें और मिल जाय | इस प्रकार नौ और तेरह - बाईस मुहरें हो जाय ) |

सूक्ति-
३८२-

भूवारे मिस दैणो ,
अर भतीजैरे मिस लैणो |

सूक्ति-
३८३-

साँची कहवै जणाँ माँ भी माथैमें देवेै |

सहायता-

एक विधवाको काजल,टीकी आदिसे शृंगार करते देख कर उसके बेटेने कहा कि माँ ! विधवा तो काजल आदि नहीं लगाया करती है ; फिर आप क्यों लगा रही हो? यह सच्ची बात सुन कर माँ ने बालकके सिरमें मारी (थप्पड़ लगायी) |

तीतर पंखी बादळी विधवा काजळ रेख |
बा(आ) बरसै बा घर करै इणमें मीन न मेख ||

सूक्ति-
३८४-

खरचरो भाग मोटो है |

सूक्ति-
३८५-

थारो मन है तो म्हारो काँई धन है
[जो खर्च हो जाय] |

सूक्ति-
३८६-

खार समँद बिच अमरित बेरी |

शब्दार्थ-

अमरित (अमृत) | बेरी (छौटा कुआँ,कुईं,बेरी ) |

सूक्ति-
३८७-

लंकामें बिभीषणरो घर |

सूक्ति-
३८८-

कोरो हिरणाँ लारे दौड़ै है |

सूक्ति-
३८९-

अन्धेरो ढौवे है |

सूक्ति-
३९०-

ऊछळ पाँती छौटेरी |

सूक्ति-
३९१-

गोतरी गाळ तो भेंसनेंई भारी |

सूक्ति-
३९२-

उदळतीनें दायजो कुण देवै |

भावार्थ-

ऊदळती (माता पिताकी बिना मर्जीके जब कन्या अपनी मर्जीसे जल्दीमें किसीके साथ जाती है,शादी करती है ,तब उसको दहेज थौड़े ही दिया जाता है ! क्योंकि ऊदळतीको दहेज कौन दे ! ) |

सूक्ति-
३९३-

घाततेरो (-घालतेरो) घी लूखो |

सूक्ति-
३९४-

घणी भेळी करके काँई राबड़ी राधस्याँ |

सूक्ति-
३९५-

कोई गावै होळीरा कोई गावै दिवाळीरा |

सूक्ति-
३९६-

तुम जो निशिदिन देतहौ द्वार द्वार सब अयन |
साधू पूछे सेठसे नीचे किसविध नयन ||

सूक्ति-
३९७-

देनेवाला और है पूरत है दिन रैन |
लोग नाम मेरो धरै यातें नीचे नैन ||

सूक्ति-
३९८-

गृहस्थ तो टके बिना टकैरो ,
अर साधू टकेसूँ टकैरो |

सूक्ति-
३९९-

सूधी (या सोरी) बैठी डूमणी घरमें घाल्यो घौड़ो |

सूक्ति-
४००-

छाछ तो छाँई माँईं ,
अर राबड़ी फिळै ताँईं |
घाट पाँवडा साठ ,
अर, रोटीरी ऊमर मोटी ||




                                ||श्रीहरिः||        

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                         

-:@पाँचवाँ शतक (सूक्ति- ४०१-५०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।



सूक्ति-
४०१-

भीखमेंसूँ भीख देवै , तीन लोक जीत लेवै |

सूक्ति-
४०२-

बानाँ पूज नफो लै भाई !
उणरा औगुण उणरे माहीं |

शब्दार्थ-
बाना (साधूवेष)।

सूक्ति-
४०३-

जौ सिर साँटै हरि मिलै तौ पुनि लीजै दौर |
ना जानें इस देरमें ग्राहक आवै और ||

सूक्ति-
४०४-

माजनौ गमायौ है |

सूक्ति-
४०५-

लिख दिया बिधाता लेख नहीं टलनेका |
राई घटै नहिं तिल नहीं बढनेका ||

सूक्ति-
४०६-

चन्दनकी चुटकी भली गाडा भला न काठ |
चतुर नर एकही भलौ मूरख भला न साठ ||

सूक्ति-
४०७-

निरमल नैण कड़कड़ी काया |
कह कबीर कोइ हरिजन आया ||

भावार्थ-

(जिनकी आँखें निर्मल और शरीर कड़कड़ा है तो समझो कि कोई संत आ गये)।

सूक्ति-
४०८-

हाकम जिण दिन होय बिधि षट मेख बणावै |
दोय श्रवणके माँय शबद नहिं ताहि सुणावै ||
दोय मेख चख माँय सबळ निरबळ नहिं सूझै |
एक मेख चख माँय बिपति नहिं किणरी बूझै ||
पद हीन होय हाकम पर्यो छठी मेख तलद्वारमें|
पाँचोंही मेख छिटकै परी सरल भये संसारमें ||

सूक्ति-
४०९-

असी बरसरो डोकरो जाय जगतरी जान |
ब्यायाँरी गाळ्याँ सुणै कर कर ऊँचा कान ||
कर कर ऊँचा कान मानरो मार्यो मरहै |
जौ नहिं देवै गाळ उणाँसूँ जायर लड़है ||
टको पईसो खरचकै राखै अपनौ मान ||
असी बरसरो डोकरो जाय जगतरी जान ||

सूक्ति-
४१०-

बीराँ ! तूँ मीराँ जैसी इणमें फरक न कोय |
उण मीराँनें नहिं देखी तौ इण मीराँनें जोय ||
बीराँ ! तूँ मीराँ जैसी इणमें मीन न मेख |
उण मीराँनें नहिं देखी (ह्वै) तौ इण बीराँनें देख ||

सूक्ति-
४११-

वा मीराँ तूँ बीरकी … (उणरी हौड करै |
उण मीराँ तो जहर पियौ तूँ पीवै तो मरै||)
बाळूँ मूँडो बीरकी तूँ मीराँरी होड करे ! ||

सूक्ति-
४१२-

काँटो करचो काँकरो गोधा गिँडक गिँवार |

साधू आवत देखिकै एता ह्वै हुँसियार ||

सूक्ति-
४१३-

(आजकल तो)

धूड़ बिना धड़ौ नहीं ,
अर कूड़ बिना बौपार नहीं।।

सूक्ति-
४१४-

आँधै आगे रोवौ ,
अर नैण गमावौ |

सूक्ति-
४१५-

घर बिना धर नहीं |

सूक्ति-
४१६-

घाणीरो तेल पग धौवणनें थौड़ौही हुवै (है) |

सूक्ति-
४१५-

ओ तो बाड्यौड़ी माथै भी कौनि मूतै |

सूक्ति-
४१६-

बेळाँ नहिं बिणजे सो तो बाणियोंई (भी) गिँवार |

सूक्ति-
४१७-

जीमणौं तो माँ रे हाथरो हुवौ भलाँहीं जहर ही |
बसणौं भायाँमें हुवौ भलाँहीं बैर ही |
बैठणौ छायामें हुवौ भलाँहीं केर ही |
घी तो गायरो हुवौ भलाँ हीं सेर ही |
चालणौं रस्ते-रस्ते हुवौ भलाँ हीं फेर ही |
लेवणौ हकरो हुवौ भलाँ हीं ढेर ही |

सूक्ति-
४१८-

पहलाँ आवै, झकैरी गौरी गाय ब्यावै |

सूक्ति-
४१९-

देखै $न्न कुत्तो भुसै |

(अगर कुत्ता किसी नापसन्दको देखेगा ही नहीं, तो क्यों भौंकेगा? न देखेगा,न भौंकेगा)।

सूक्ति-
४२०-

झकी हाँडीमें खावै , बीनेही फौड़ै |

सूक्ति-
४२१-

कुछ कुँवाड़ा मोडा ,
अर कुछ धव चीकणा |

सूक्ति-
४२२-

(अणूत करै ) तो नानी राण्ड हू ज्यावै |

सूक्ति-
४२३-

ए राफाँ है ?

सूक्ति-
४२४-

आँ राफाँनें , अर आ खीर ! |

सूक्ति-
४२५-

आमरा आम , अर गुठलीरा दाम |

सूक्ति-
४२६-

आपरै घररा ऊँदराभी राजी ह्वै ज्यूँ करो |

सूक्ति-
४२७-

भिणिया है , पण गुणिया कौनि |

सूक्ति-
४२८-

घड़ी घड़ीरा बिघ्न रामजी टाळै है |

सूक्ति-
४२९-

बात बीत जायगी , रीत रह जायगी |

सूक्ति-
४३०-

मिन्नीरे आशीशसूँ छींको नहिं टूटै (है) |

शब्दार्थ-

मिन्नी (बिल्ली,बिलाई)।

सूक्ति-
४३१-

घर तो घौष्याँरा बळही , पण सौरा ऊँदराही हू ज्याही |

सूक्ति-
४३२-

सोनेरी थाळीमें लोहरी मेख ! |

सूक्ति-
४३३-

चिड़ियाँमें भाटो पड़ग्यो |

सूक्ति-
४३४-

रातमें बोलै कागलो (अर) दिनमें बोलै स्याळ |
कै धरतीरो धणी नहीं (अर) कै अणचीत्यो काळ ||

शब्दार्थ-
धरतीरो धणी (राजा)।

सूक्ति-
४३५-

भावौ भाव बेची है |

सूक्ति-
४३६-

कह, मरग्या क्यूँ ?
कह, श्वास नहिं आया |

सूक्ति-
४३७-

राम नाम सत है !
सत बोल्याँ गत है |

सूक्ति-
४३८-

ऊछळ पाँती छोटैरी |

सूक्ति-
४३९-

खौजत खौजत खौजैगा ,
तीन लोककी सौजैगा |
गाया गाया गायेगा ,
दबा गेबका खायेगा ||

सहायता-
गेब (शून्य)।

सूक्ति-
४४०-

जै साँईं सँवळा हुवै तौ (चाहे) अँवळा हुवौ अनेक ||

सूक्ति-
४४१-

राम नामसूँ लाज मरत है प्रगट खेलै होळी , दुनियाँ है भोळी , है भोळी |

सूक्ति-
४४२-

घी माँयनें घोटो जैसे सुखसूँ सोवै सुन्दरदास |

सूक्ति-
४४३-

क्यूँ दाँत्य्या करै है ! |

सूक्ति-
४४४-

खा गुड़ तेरा ही |

घटना-

एक ठाकुर रातमें चुपकेसे एक बनियेकी दुकानसे गुड़ लै आया और सुबह जाकर उसी बनियेसे बोला कि लौ सेठसाहब! गुड़ मौल लेलो।बनियेने परीक्षा के बहाने गुड़ चखते हुए एक डली उसमेंसे उठाकर खायी और इस प्रकार चखनेके बहाने वो बनिया गुड़ खाता जा रहा था। तब वो ठाकुर कहने लगा कि खा गुड़ तेरा ही-गुड़ खाता जा भले ही,  यह है तो तेरा ही। अर्थात् मेरेको तो जितना मूल्य (पैसा) मिलेगा, वो मुफ्तमें ही मिलेगा। मेरे घरसे क्या जायेगा? सेठ अपनी जानकारीमें दूसरोंका गुड़ खा कर मुफ्तमें लाभ लै रहा है और गुड़को खा कर उसका वजन  भी कम कर रहा है जिससे पैसे भी ज्यादा देने नहीं पड़ें,बच जायँ:परन्तु यह खर्चा भी उसीका हो रहा है।इसी प्रकार जब किसीको कोई चीज मुफ्तमें मिलती है तो वो राजी होकर उसका खूब उपभोग करता है; परन्तु यह भी है तो उसीका।उसको पहले किये हुए पुण्य-कर्मोंके फलस्वरूप वो चीज मिली है।वो जितना उपभोग करेगा,सुख भौगेगा,उतना पुण्यखर्च उसीका होगा।

सूक्ति-
४४५-

सती श्राप देवै नहीं ,
अर, कुसतीरो लागै नहीं |

सूक्ति-
४४६-

बधू ! तूँ जाणै छै |

घटना-

एक बार श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके सामने किसीने कहा कि महात्मा ईसाका सिध्दान्त (ईसाई धर्म)बड़ा ऊँचा था जो मारनेवालेके लिये भी उन्होने ईश्वरसे प्रार्थना की कि इसको सद्बुध्दि दो।

तब श्री स्वामीजी महाराज ( तेज होकर) बोले कि आप किसी भी धर्मकी श्रेष्ठ बात बतादो,मैं सनातन धर्ममें उससे भी श्रेष्ठ,ऊँची बात बता दूँगा।
(फिर बताया कि)
गुजराती भाषाकी एक पुस्तकमें एक संतोंका चरित्र लिखा है कि
कोई चौर चौरी करके दौड़े तो लोग उनके पीछे दौड़े।चौरोंने चौरीका माल एक संतकी कुटिया पर रखा और भाग कर कहीं छिप गये।संत उस समय भगवानके ध्यानमें लगे हुए थे,उन्होने चौरोंको देखा नहीं।वे इस विषयमें कुछ नहीं जानते थे।पीछेसे भागते हुए लोग आये और माल वहाँ पड़ा हुआ देखकर उन्होने उन संतोंको ही चौर समझा और लगे मारने-पीटने कि चौरी करके लै आया और अब यहाँ आकर साधू बना बैठा है।बिना कारण ही जब वो लोग पीटने लगे,मार पड़ने लगी,तो वो संत(ऊपरकी तरफ हाथ जौड़कर) भगवानसे कहने लगे कि बधू!  तूँ जाणै छै, बधू!  तू जाणै छै।
अर्थात् हे प्रभु!  आप जानते हो।मैंने अपनी जानकारीमें कोई अपराध तो किया नहीं और मार पड़ रही है तथा  बिना अपराधके मार पड़ती नहीं।इसलिये लगता है कि मेरे पहलेके कोई अपराध बने हुए हैं जिनको मैं जानता नहीं।अब कौनसे अपराधके कारण यह मार पड़ रही है-इसको मैं नहीं जानता प्रभु! आप जानते हो।
उन संतोंने चौरोंको अपराधी और दुर्बुध्दि नहीं माना तथा न भगवानको दोष दिया।उन्होने तो माना कि यह तो मेरे ही कोई कर्मोंका फल है।
बोलो,कितनी ऊँची बात है!
माहात्मा ईसाने सद्बुध्दि देनेकी प्रार्थना की तो उनको दुर्बुध्दि माना है ना!।ये संत ऐसा नहीं मानते हैं।
(ये तो ऐसा मान रहे हैं कि भगवानके राज्यमें जो हो रहा है, वो ठीक ही हो रहा है, बेठीक दीखनेवाला भी ठीक ही हो रहा  है।बेठीक हमको दीख रहा है, पर बेठीक है नहीं।हम जानते नहीं,भगवान जानते हैं आदु आदि)।

सूक्ति-
४४७-

आई बलाय , दी चलाय |

सहायता-

रामा माया रामकी मत दै आडी पाऴ।
आयी ज्यूँ ही जाणदे परमारथरे खाऴ।।

विशेष-

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि हमारे गुरुजी (१००८ श्री श्री कन्नीरामजी महाराज) ऐसा कहते थे और ऐसा ही करते थे कि आयी बलाय, दी चलाय।रुपये-पैसे लेते थे और परोपकारके लिये आगे दे देते थे।संग्रह नहीं रखते थे।वो कहते थे कि -(सूक्ति नं.४४८ देखें)।

सूक्ति-
४४८-

पूत सपूत तौ क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तौ क्यों धन संचै ?

सहायता-

अगर आपका पुत्र सुपुत्र (सपूत) है तो क्यों धनका संग्रह करते हो,वो धन कमा लेगा और अगर आपका पुत्र कुपुत्र है तो क्यों धनका संग्रह करते हो, वो धन बर्बाद कर देगा।

सूक्ति-
४४९-

भूवाके मिस देणो ,
अर भतीजैके मिस लेणो |

सूक्ति-
४५०-

राँध्येरो काँई राँधै ?

सूक्ति-
४५१-

घररा होका , बाँरे घररा हळ |

सूक्ति-
४५२-

सासरो सुख बासरौ ।
दिनाँ तीनरो आसरौ ।।
कह , रहस्याँ षटमास।
कह , देस्याँ खुरपी
अर कटास्याँ घास ।।

वार्ता-

एक बार अकाल पड़ा हुआ जानकर एक व्यक्ति ससुराल चला गया।उसके साथमें कुछ और भी लोग थे।सासूजीने आदर किया।अच्छा भोजन करवाया।वो वहीं रहने लग गये।धीरे-धीरे अच्छा भोजन बनाकर करवाना कम होने लगा,फिर भी रोटी तो घी से चुपड़ी हुई ही मिलती थी।साथवालोंने कहा कि अब यहाँसे चले चलें?तो वो बोला कि नहीं,यहीं ठीक है।घरकी अपेक्षा तो अच्छा ही मिल रहा है,सास रोटी चुपड़ कर देती है,घर पर तो यह भी नहीं मिलती थी।ससुराल सुखका आश्रय है-

सासरो सुख बासरो।

सालेने देखा कि इन्होने तो यहाँ डेरा ही लगा दिया।तब उन्होने कहा (या लिखा) कि

दिनाँ तीनरो आसरो।

अर्थात् ससुराल सुखका आश्रय तो है,परन्तु ससुरालमें तीन दिन तक ही रहना चाहिये।
तब इन्होने लिखा कि

रहस्याँ षट मास।

अर्थात् हम तो छ: महीने तक रहेंगे।

तब उत्तरमें सालेने लिखा कि-

देस्याँ खुरपी और कटास्याँ घास।

अर्थात् इतने दिनों तक रहोगे तो हाथमें खुरपी देंगे और घास कटायेंगे।

सूक्ति-
४५३-

जाओ बाढियोड़े तिलाँमें |

सूक्ति-
४५४-

बैठौड़ैरे ऊभौड़ा पाँवणाँ (ह्वै है)।

सूक्ति-
४५५-

क्यूँ थूक बिलौवै (है) ? |

सूक्ति-
४५६-

ऊगै सो ही आँथवै फूल्या सो कुम्हलाय |
चिणिया देवळ ढह पड़ै जाया सो मर जाय ||

सूक्ति-
४५७-

मारग सबही सत्त है नहिं मारगमें दोष |
पैंडो कोस करौड़को करै न पैंडो कोस ||

सूक्ति-
४५८-

स्वारथ शीशी काँचकी पटकै जासी फूट |
परमारथ पाको रतन परत न दीजै पूठ ||

सूक्ति-
४५९-

जगमें बैरी कोइ नहीं सब सैणाँरो साथ |
केवळ कूबा यूँ कहै चरणाँ घालूँ हाथ ||

सूक्ति-
४६०-

बाह्मण कह छूटै, अर बैल बह छूटै |

सूक्ति-
४६१-

प्रभातै गहडम्बराँ सांझाँ सीळा वाय |
डंक कहै सुण भडळी ये काळाँरा सुभाव ||

सहायता-

ज्योतिष विद्याके महान जानकार कवि डंक अपनी पत्नि भडळीसे कहते हैं कि अगर सबेरे खूब बादल छाये हुए हों और शामको ठणडी हवा चलती हो तो(समझना चाहिये कि अकाल पड़ेगा) ये अकालोंके स्वभाव हैं अर्थात् जब दुष्काल पड़ने वाला होता है तो पहले ऐसे लक्षण घटते हैं।इसलिये अबकी बार काल (दुष्काल,दुर्भिक्ष) पड़ेगा।

सूक्ति-
४६२-

दारु मांस दपट्ट अमल अणमाप अरौगै |
चमड़पौषनें चेंट माल मादक मुख भौगै ||
परणींनें परिहरै गैरसुत गोदी धारै |
जवानीपणमें जोध सटक सुरलोक सिधारै ||
सस सिआर तीतर सुभट कुरजाँ चिड़ी कबूतरा |
भायाँसूँ नित उठ भिड़ै (ए) परम धरम रजपूतरा ||

सहायता-

यहाँ व्यंग्यके द्वारा परम धर्मके नामसे क्षत्रियों (राजपूतों) के पाप बताये हैं और दुष्परिणाम भी बताया गया है।

सूक्ति-
४६३-

गुड़ खळ एकण भाव बुस्ताँरा ब्यौरा नहीं |
नगरीमें नहिं न्याव रोही भलीरे राजिया ! ||

शब्दार्थ-

रोही (निर्जन स्थान,जंगल)।

सूक्ति-
४६४-

बात बीत जायगी , रीत रह जायगी |

सूक्ति-
४६४-

उठाया कुत्ता किताक शिकार करे है? |

सूक्ति-
४६५-

नैण सलूणा ना मिलै बाळ अलूणी बत्थ |
काँई हुवै आगा कियाँ हेत बिहूणा हत्थ ||

शब्दार्थ-

बत्थ (बात)। हत्थ (हाथ)।

सूक्ति-
४६६-

मोटाँरा पग ऊपरे मत कोइ मानो रीस |
और देवता पग पूजावे लिंग पुजावे ईस ||

शब्दार्थ-

पग (पाँव पैर)। लिंग (पुरुषकी मूत्रेन्द्रिय,निसान,चिह्न,शिवलिंग)। ईस (ईश,ईश्वर,शक्तिशाली,समर्थ)।

सूक्ति-
४६७-

नहीं भरौसो भागरो नहीं भरौसो राम |
थळिया सबही करत है सगुन भरौसै काम ||

सूक्ति-
४६८-

बाळपणाँ बाळाँसंग खेल्यो तरुणाँ पै हळ हाँक्यो |
बूढापैमें माळा फेरी राम ! तेरो ही (भी) मन राख्यो ||

सूक्ति-
४६९-

घर खोयौ पराई जाई |

सूक्ति-
४७०-

करै न अक्कल काम अधगहलाँ ढिग आपरी ।।

सूक्ति-
४७१-

दै भेंस पाणीमें |

सूक्ति-
४७२-

रामजी सींग देवै तो भी सहणा है |

सूक्ति-
४७३-

सज्जन हंस बिदेस गये मिलै न महँगै मौल |
दिन कटणीं अब कीजिये बुगलाँसूँ हँस बोल ||

सूक्ति-
४७४-

कह , धौळा धाड़ आईरे !
कह , अभाग धणींरा |

शब्दार्थ-
धौळा (बैल)। धाड़ (जबरदस्ती छीनकर लै जानेवालोंका समूह)।

सूक्ति-
४७५-

सहन्दो सामी सूंठरो गाँठियो |

शब्दार्थ-

सहन्दो (परिचित)। सामी (स्वामी,साधू)।

सूक्ति-
४७६-

साँवणरे आँधैनें हरियो ही हरियो दीसै |

सूक्ति-
४७७-

तूँ राण्ड रोवै (है) रोटीनें ,
अर , हूँ रन्धासूँ दाळ |

सहायता-

एक स्त्री दु:ख करने लगी कि रोटी कैसे बना पाऊँगी,रेटीमें तो बहुत देरी लगती है आदि आदि।तब उसके घरवाला (पति) गुस्सा करता हुआ बोला कि राँड़!  तू तो रोती है रोटीके लिये और मैं तुम्हारेसे रन्धवाऊँगा दाळ।दाळ बनानेमें समय ज्यादा लगता है।

सूक्ति-
४७८-

मिन्नीरे कहयाँसूँ छींको थौड़ो ही टूटै (है! ) |

शब्दार्थ-

मिन्नी (बिल्ली)।

सूक्ति-
४७९-

[ फेराँमें ] छोरी गिड़कै चढी ही थी कि बाप कहयो ह्वा (- बस) |

सूक्ति-
४८०-

कह , जीमरे भाई !
कह , किणरेये बाई !
हाँ , साँची कहवे है लाई |

शब्दार्थ-

लाई (बेचारा)।

सूक्ति-
४८१-

कह , देरे पाँड्या आशीस ;
कह , हूँ काँई देऊँ , म्हारी आँतड्याँ देसी |

सूक्ति-
४८२-

(किसान अपने बैलसे- )
थारो धणी मरेरे |
कह , आ गाळ किणने लागी ?
कह , समझे बीनें |

सूक्ति-
४८३-

(अबभी)
काँई मियाँ मरग्या ,
अर काँई रोजा घटग्या |

सूक्ति-
४८४-

चौरने मारदो , चौररी माँनें मारदो |

सूक्ति-
४८५-

धी मुई जँवाई चौर |

शब्दार्थ-

धी (धीव,बेटी)।मुई (मरी)।

सूक्ति-
४८६-

थारी जूती ,
अर , थारो ही सिर |

सूक्ति-
४८७-

रो थारे गोडाँनें |

सूक्ति-
४८८-

मान , न मान ;
मैं तेरा मेहमान |

सूक्ति-
४८९-

करै सेवा , मिले मेवा |

सूक्ति-
४९०-

भूखाँरे भूखा पाँवणा बे माँगे , अर , ए दै नहीं |
धायाँरे धाया पाँवणा , बे देवै , अर ए लै नहीं ||

सूक्ति-
४९१-

सगाँरे घर सगा आया लागी खैंचाताण | राबड़ीसूँ नीचा उतर्या (तो) थाँनें इष्टदेवरी आण ||

घटना-

एक बार किसीके घर पर सगे-सम्बन्धी आ गये।अब घर वाले (घरके अन्दर)आपसमें विचार-विमर्श करने लगे कि इनके लिये भोजन कौनसा बनाया जाय।किसीने कहा कि सगोंके लिये तो बढिया हलुवा आदि बनाना चाहिये।किसीने कहा कि हलुएके लिये गेहूँका आटा तो पीसा हुआ ही नहीं है (अब अगर पीसेंगे तो सगेलोग क्या सोचेंगे कि इनके तो आटा पीसा हुआ ही नहीं है)।अच्छा, तो बाजरेके आटेकी रोटी घी में चूर कर और चीनी डाल कर, चूरमा बना कर भोजन कराया जाय (हलुवेमें भी तो घी,चीनी और गेहूँका आटा ही तो होता है!)। कह,चीनी तो बाजारसे लायी हुई ही नहीं है आदि आदि। … तो (छाछमें आटा राँधकर) राबड़ी बनायी जाय। …
उनकी ये बातें कच्चे मकान होनेके कारण जहाँ सगे-सम्बन्धी ठहरे हुए थे वहाँ सुनायी पड़ रही थी।राबड़ी तक आये जानकर वो सगे-सम्बन्धी (पाहुने) बोले कि सगोंके घर सगे आये तो (भोजनके लिये) खींचातानी होने लग गई।अब अगर आपलोग राबड़ीसे भी नीचे उतर गये तो आपको अपने इष्टदेवकी सौगन्ध है(पेटमें कुछ अन्न तो जाने देना! ऐसा न हो कि साफ दलिया ही पिलादें) -

सगाँरे घर सगा आया लागी खैंचाताण |
राबड़ीसूँ नीचा उतर्या (तो) थाँनें इष्टदेवरी आण ||

सूक्ति-
४९२-

केई दिन सासूरा , तो केई दिन बहूरा |

सूक्ति-
४९३-

सासू सूधी ही (भी) लड़ै ,
फोग आलो ही बळै |

सूक्ति-
४९४-

ज्ञानी स्वार्थी , अर , भगत पागल |

सूक्ति-
४९५-

घरबीती कहैं , या परबीती ? |

सूक्ति-
४९६-

पूतरो मूत पिरागरो पाणी |

शब्दार्थ-

पिराग (प्रयाग,तीर्थराज)।

(यहाँ मोहमें डूबे हुए लोगोंकी बात बताई गई)।

सूक्ति-
४९७-

घर फाटाँनें कारी नहीं |

भावार्थ-

जैसे कोई कपड़ा फट जाता है,उसमें बड़े या छौटे छेद हो जाते हैं, तो उस फटे हुए कपड़े पर दूसरे कपड़ेका टुकड़ा सील कर कारी लगादी जाती है तो इस उपायसे सुरक्षा हो जाती है,कुछ ठीक हो जाता है ; परन्तु अगर आपसमें फूट पड़ जाती है, घर फट जाता है तो इसके कारी नहीं लगायी जा सकती।इसलिये पहलेसे ही सावधानी रखें कि घर न फट जाय,घरमें फूट न पड़ें।

सूक्ति-
४९८-

भागते भूतरी लँगोटी भी चौखी |

सूक्ति-
४९९-

बाईरा फूल बाईनें ही |

सूक्ति-
४९९-

माँ राँड सिखाई कोनि |

शब्दार्थ-

जब बहूको काम-धन्धा करना नहीं आता तो सासू गुस्सेमें आकर उस बहूकी माँ को गाली देती हुई कहती है कि इसकी माँ ने इसको सिखायी नहीं।

सूक्ति-
५००-

बाई कहताँ राँड आवै (है) |



                                ||श्रीहरिः||        

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                         
-:@छठा शतक (सूक्ति- ५०१-६०१)@:-



(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।



सूक्ति-
५०१-

भाटो आयो है भाटो |

भावार्थ-

जब घरमें कन्याका जन्म होता है और कोई बूढी माँजीसे पूछता है कि आपके घरमें पुत्र आया है कि पुत्री? तब वो कहती है कि भाटा (पत्थर) आया है भाटा- भाटो आयो है भाटो | (पत्थर जन्मा है)।

अगर कोई उनसे पूछे कि आप आये (जन्मे)  थे,तब हीरो आये थे क्या? अर्थात् आप भी तो भाटा ही आये थे! (फिर कन्याका इतना तिरस्कार क्यों?)।

सूक्ति-
५०२-

बाई ! तूँ आक छा$सी क मांढो ?।

शब्दार्थ-

मांढो (मण्डप)।

सहायता-

जब छोटी बच्चीका लाड़-प्यार किया जाता है तो कइ जने ऐसे बोलते हुए लाड़  करते हैं कि बाई! तू आक छायेगी या मण्डप (मांढो)? अर्थात् तू मरैगी या जीयेगी? मानो मरैगी तो आकके नीचे गाड़दी जायेगी,आकको सुशौभित करैगी और नहीं मरैगी तो विवाह किया जायेगा,विवाह मण्डपको सुशौभित करैगी।

(ये लाड़-प्यार बाईके हैं,भाईके नहीं)।

सूक्ति-
५०३-

छौरीके तो रामजी रुखाळा है |

सहायता-

छौटे बच्चेके गलेमें बघनखा आदि रक्षाकी सामग्री बन्धी देख कर कोई माँजीसे पूछता है कि माँजी! छौरेके तो आपने रक्षाके उपाय कर दिये,पर छौरीके? (छौरीके तो आपने छौरेकी तरह रक्षाके उपाय नहीं किये?)
तब माँजीका जवाब होता है कि छौरीके तो रामजी रुखाळा है अर्थात् छौरीकी रक्षा तो रामजी करते हैं |

(सोचनेकी बात है कि छौरीकी रक्षा तो रामजी करते हैं और छौरेकी रक्षा आप (माँजी) करती हैं?
वास्तवमें रामजी तो रक्षा दौनोंकी करते हैं,परन्तु भेदभाव,विषमता करके दोषके भागी आप हो जाते हैं)।

सूक्ति-
५०४-

बेटासे बेटी भली जौ सुलच्छन होय |
बेटो तारे एक कुल बेटी तारे दोय ||

सूक्ति-
५०५-

खावणा पीवणा धापणा नहीं |
लोटणा पोटणा सोवणा नहीं ||
कहणा सुणणा बकणा नहीं |
चलना फिरना दौड़णा नहीं |

सूक्ति-
५०६-

डाकण बेटा लेवै क देवै? |

सूक्ति-
५०७-

लोभ लागो बाणियो चुड़खै लागी गाय |
बावड़ै तो बावड़ै (नहीं तो ) आगड़ाही जाय ||

सूक्ति-
५०८-

रामभजनमें देह गळै तौ गाळिये |
साधाँसेती प्रीति (नेह) पळै तो पाळिये ||

सूक्ति-
५०९-

साधाँ सेती प्रीतड़ी परनारीसूँ हँसबो |
दौ दौ बाताँ बणै नहीं आटो खाबो (अर) भुसबो ||

सूक्ति-
५१०-

बडाँरी ठोकर कौनि खायी |

(तथा भिणिया , पण गुणिया कौनि) |

सूक्ति-
५११-

अति लोभो नहिं कीजिये मासोहि लोभ मलीन।
एक लोभके कारणै कूप पड़्या नर तीन।।

कथा-

एक कूएके पास नरियलका पेड़ था।उसकी एक डाली कुएके ऊपर गयी हुई थी।उसमें एक नरियलका फल लगा हुआ था।कूएके ऊपर होनेके कारण वो तौड़ा नहीं जा रहा था।वहाँ हाथ भी नहीं पहुँच पा रहा था,जिससे कि हाथसे खींच कर तौड़लें।

कुछ लोगोंने नरियलके लोभसे एक युक्ति सौची कि घौड़े पर बैठ कर घौड़ेको कूएके  ऊपरसे कूदायेंगे।घौड़ा जब नरियलके पाससे होकर आगे जायेगा, तो उस समय नरियलके फलको तौड़ लिया जायेगा।ऐसा सौचकर एक जनेको घौड़ेपर बिठाया और घौड़ेको कूएके ऊपरसे कुदाया।घौड़ा जब कूदकर उस फलके पासमेंसे होकर और  कूएके ऊपरसे होकर आगे जा रहा था,तो घौड़े पर बैठे व्यक्तिने नरियलके फलको पकड़ लिया, परन्तु उसको तौड़ नहीं पाया।इतनेमें घौड़ा तो उस पार पहुँच गया और वो आदमी उस फलको पकड़े हुए कूए पर ही लटका रह गया।उसको बचानेके लिये दूसरे आदमीने उसको पकड़ा,लेकिन उसके पैर उखड़नेके कारण वो भी उसके साथ ही कूए पर लटकने लग गया।खतरा देखकर तीसरे आदमीने बचानेकी कोशीश की,लेकिन वो भी पैरों पर मजबूतीसे खड़ा नहीं रह पाया और वो भी उन दौनोंके साथमें लटकने लगा।इस प्रकार एक ही फलके आधार पर तीन आदमी कूएमें लटकने लग गये।उन तीन जनोंके बौझसे वो फल टूट गया और उसके साथ ही तीनों आदमी कूएमें गिर पड़े।

इसलिये कहा है कि

अति लोभो नहिं कीजिये मासोहि लोभ मलीन।
एक लोभके कारणै कूप पड़्या नर तीन।।

सूक्ति-
५१२-

नकटी घणी निराट नकटाँरे जायोड़ी |
भटका बेईमान झकाँरे लारे आयोड़ी ||

सूक्ति-
५१३-

मोरियाँरे तो बोलणो सारे है , बरसणोतो भगवानरे सारे है |

सूक्ति-
५१४-

भाँडाँरी भैंसतौ सोटाँरे ही स्वभावरी है |

सूक्ति-
५१५-

बातें तीन बिरोधरी जर जोरूँ अर जमीन |
सरूपदास साँची कहै मजहब रीति महीन ||

शब्दार्थ-

जोरूँ (स्त्री)। मजहब (धर्म)।

सूक्ति-
५१६-

कर अरु जीभ लँगोटड़ी ए तीनूँ बस रक्ख |
निरभै रम संसारमें बैरी मारो झक्ख ||

सूक्ति-
५१७-

साध हजारी कापड़ौ रतियन मैल सुहाय।
साकट काळी कामळी भावै तहाँ बिछाय।।

सहायता-

साकट (साक्त,आसक्त,विषयी,संसारी)।

सूक्ति-
५१८-

पड़वा महँ पैठन्तरे करड़ापण केती करै |
(पण) धारा माहिं धसन्तरे आँसू आवे एलिया ||

सहायता-

पड़वा (पहले,आरम्भ,शुरुआत)।धारा (सैना)।

जब तक युध्दसे काम नहीं पड़ता,तब तक,उससे पहले,शूरवीरता दिखाननवाले तो कई होते हैं,परन्तु जब काम पड़ता है,युध्दमें घुसते हैं, तब कठिनताका पता चलता है।

सूक्ति-
५१९-

मिनखाँरी माया अर बिरछाँरी छाया |

सूक्ति-
५२०-

रामजीरी माया
(अर) कठैई धूप अर कठैई छाया |

सूक्ति-
५२१-

घालै जितौई मीठो |

सूक्ति-
५२२-

थौड़ो जितेई मीठो |

सूक्ति-
५२३-

सी पोहै न माहै (मायै) ,
सी बाजन्ते बायै |

सूक्ति-
५२४-

अपणै अपणै स्वारथ कारण सब कोई धन खोवै |
परमारथरो काम पड़ै तब टुगमुग टुगमुग जोवै ||

सूक्ति-
५२५-

धाया थारी छाछसूँ कुत्ताँ कन्नेसूँ तो छुडा ! |

सूक्ति-
५२६-

हिम्मत मर्दाँ मदद खुदाह ,
बादशाहकी लड़की फकीरका ब्याह |

सूक्ति-
५२७-

आधो माहा,
अर कामळ बाहा |

सूक्ति-
५२८-

पोष , खालड़ी खोस |

सूक्ति-
५२९-

सावण मास सूरयो बाजै भादरवै परवाई |
आसोजाँमें पिछमी बाजै (तौ)काती साख सवाई ||

सूक्ति-
५३०-

(तौ) दौ खीरमें हाथ |

सूक्ति-
५३१-

गरज गधेनें बाप करे (है) |

सूक्ति-
५३२-

कितै जळेबी ऊँ: रुळै है ,
कितै खुरन्दा ऊँ: फिरे है |

शब्दार्थ-

खुरन्दा (खानेवाले)।

सूक्ति-
५३३-

अठै काँई केळा घौटे है ! |

सूक्ति-
५३४-

बीसाँ बाताँ एक बात है |
(बीसाँ बाताँ एक बात ,
मोहन पुकारे जात ,
…अपणौं भलो चाहे … तौ राम नाम लीजिये )|

सूक्ति-
५३५-

मूततेनें कौड़ी लाधी माधोशाही मोहर |

सूक्ति-
५३६-

भेख पहर भूलो मत भाई !
आथर और गधैड़ी बाही (वाई) |

शब्दार्थ-

भेख (साधूवेष)।

सूक्ति-
५३७-

(कुत्तो) अठार्यो अटकै,
बीसयो पटकै ,
(अर) इक्कीसियैरे मूँडैमें खरगोसियो लटकै |

सूक्ति-
५३८-

बिना पींदेरो लोटो |

सूक्ति-
५३९-

रोजीनाँरी राड़ आपसरी आछी नहीं |
बणै जठै तक बाड़ चट पट कीजै चकरिया ||

सूक्ति-
५४०-

भाई जिता ही घर |

सूक्ति-
५४१-

कुत्तो देख कुत्तो घुर्र्रायो ,
हूँ बैठो अर तूँ क्यूँ आयो? |

सूक्ति-
५४२-

आई बहू आयो काम ,
गई बहू गयो काम |

सूक्ति-
५४३-

रुपयो काँई आकड़ाँरे लागे है ! |

सूक्ति-
५४४-

क्यूँ भाटो उछाळर माथौ माँडे है ! |

सूक्ति-
५४५-

भगत बीज पलटै नहीं जै जुग जाय अनन्त |
ऊँच नीच घर अवतरै रहै संतको संत ||

सूक्ति-
५४६-

पड़ेगा काम दूतोंसे ,
धरेंगे मार जूतोंसे |

और

गुरजाँरी घमसाणसूँ टूट जायगी टाट।

सूक्ति-
५४७-

गूँगेरो गुड़ है भगवान ,
बाहर भीतर एक समान |

सूक्ति-
५४८-

(पता नहीं आगे कैसा समय आ जाय-)

घौड़ा दौड़ै घौड़ी दौड़ै |

सूक्ति-
५४९-

अकलरा टका नहीं हू ज्यावे ! |

सूक्ति-
५५०-

मायानें डर है ,
कायानें नहीं |

सूक्ति-
५५१-

थळ थेट , बेटी पेट ;
घर जँवाई बेगो आई |

सूक्ति-
५५२-

साधरामरे तीन लोक पटै,
कोई घाले अर कोई नटै |
सगळा घाले तो मावैई कठै ,
कोई नहीं घाले तो जावैई कठे ?।

सूक्ति-
५५३-

कह ,
तन्ने कूटर अळतो कर देहुँ |

सूक्ति-
५५४-

सियाळो सौभागियाँ दौरो दोजखियाँ |
आधो हाळी बालदि(याँ) पूरो पाणतियाँ ||

सूक्ति-
५५५-

सोनारी रहसी नहीं रहसी सुथारी |
बिणियाणी रहसी नहीं यूँ कहै कुम्भारी ||

सहायता-

सीताहरणके बाद कुम्भकर्णकी पत्नि रावणके लिये कहती है कि वह सीता रहेगी नहीं आदि…

दो-दो अर्थ-

सोनारी (१-सुनारी,सुनारकी पत्नि,सुलक्षणा स्त्री।२-वह स्त्री,सीता)।सुथारी (१-खातीकी पत्नि।२-तुम्हारी स्वयंकी,विवाहिता)।बिणियाणी (१-बनियेकी पत्नि,सेठाणी।२-बनी हुई,नकली,परायी)।कुम्भारी १-कुम्हार-कुम्भ(घट)कारकी पत्नि,कुम्हारी।२-कुम्भकर्णकी पत्नि)।

सूक्ति-
५५६-

आँधे आगे रोवणौं ,
(अर) नैण गमावणो है |

सूक्ति-
५५७-

गहला गाँव मति बाळीरे ! ,
कह ,भलो चितारयो |

सूक्ति-
५५८-

काँई काची लावे है रे |

सूक्ति-
५५९-

माँ पर पूत पिता पर घौडा ,
बहुत नहीं तो थौड़ा थौड़ा |

सूक्ति-
५६०-

माताजी मठ में बैठी बैठी मटका करया है ,
बाणियाँ ने बेटा नहीं दिया है |

कथा-

एक बनियेने भैरवजीके मन्दिरमें जाकर उनकी मूर्तिके सामने उनसे प्रार्थना की कि हे भैरवजी! मुझे पुत्र दे दो,(और मनौति की कि मेरेको पुत्र दे दोगे तो) आपको एक भैंसा चढा दूँगा।

प्रार्थनाके अनुसार भैरवजीने उनको पुत्र दे दिया।तब बनिया एक भैंसा लेकर भैरवजीके मन्दिर उसको चढानेके लिये गया।अब भैंसेको काट कर तो कैसे चढावे (बनिये भी ब्राह्मणकी तरह अहिंसक,शाकाहारी होते हैं) और काट कर चढानेके लिये वादा भी नहीं किया था,चढानेके लिये कहा था।इसलिये बनियेने भैंसेके कुछ किये बिना ही भैंसेको भैरवजीकी मूर्तिके बाँध दिया और स्वयं घर चला आया।अब भैंसा मूर्तिके बँधा हुआ कितनीक देर रहे।भैंसा बाहर जाने लगा तो मूर्ति उखड़ गई और भैंसा मूर्तिको घसीटता हुआ बाहर चला गया।

आगे जानेपर  देवी माताने भैरवकी यह दुर्दशा देख कर पूछा कि भैरव! आज तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? क्या बात है? तब भैरवजीने माताजीसे कहा कि आपने (माताजीने) मन्दिरमें बैठे-बैठे ही मौज की है,बनियेको बेटा नहीं दिया है- माताजी मठ में बैठा बैठा मटका करया है , बाणियाँ ने बेटा नहीं दिया है | (अगर बनियेको बेटा दे देती तो आपको भी पता चल जाता)।

सूक्ति-
५६१-

कह ,
चढ़सी झकोई चाढ़सी |

कथा-

एक आदमी नरियलके पेड़ पर नरियलके फल लगे हुए देख कर उस पेड़ पर चढ गया।जब ऊपर पहुँचा तो वायुके कारण पेड़ हिला।जब पेड़ हिला तो उसका हृदय भी हिल उठा।वो नीचे गिरनेके डरसे बड़ा भयभीत हो गया और फलकी आशा छौड़ कर नीचे उतरनेकी चाहना करने लगा।हनुमानजी महाराजसे प्रार्थना करता है कि हे हनुमानजी महाराज! मुझे सकुशल नीचे उतारदो,मैं आपके सवामणि (पचास किलोका भोग) चढाऊँगा।श्री हनुमानजी महाराजकी कृपासे वो धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा।
जब आधी दूर तक नीचे उतरा तो सोचा कि सवामणिका मैंने ज्यादा कह दिया,कम कहना चाहिये था।ऐसा विचार कर उसने आधा चढानेके लिये कहा कि सवामण तो नहीं,पच्चीस किलो चढा दूँगा।उससे नीचे आया तो और कम कर दिया।इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों नीचे आता गया,त्यों-त्यों हनुमानजीके भोग(चढावे) को कम करता गया।जब दौ-चार हाथ ही ऊपर रहा,तो देखा कि अब तो अगर नहीं उतर पाये और गिर भी गये,तो भी मरेंगे नहीं।तब तो वो वहाँसे नीचे कूद गया और कूदता हुआ बोला कि अब तो जो चढेगा,वही चढायेगा अर्थात् जो इस पेड़ पर चढेगा,वही हनुमानजी महाराजके भौग चढायेगा। मैं तो अब न इस पेड़ पर दुबारा चढूँगा और न हनुमानजीके भौग चढाऊँगा,अब तो जो इस पेड़ पर चढेगा,वही चढायेगा।

इस प्रकार उसने हनुमानजीके साथ भी ठगाईका,स्वार्थका व्यवहार कर लिया,लेकिन कभी-कभी हनुमानजी महाराज भी ऐसे लोगोंकी कसर निकाल लेते हैं-

कथा-

एक पण्डितजी मन्दिरमें कथा कर रहे थे।उन दिनों मन्दिरमें एक सेठ आये और परिक्रमा करने लगे।सेठने सुना कि निजमन्दिरमें हनुमानजी महाराज और भगवानके आपसमें बातचीत हो रही है-

भगवान-
हनुमान!

हनुमानजी-
जी,प्रभो।हुक्म (फरमाइये)।

भगवान-
ये जो पण्डितजी कथा कर रहे हैं ना!

हनुमानजी-
जी,सरकार।

भगवान-
इन पण्डितजीके एक हजार रुपयेकी व्यवस्था करनी है।

हनुमानजी-
जी,सरकार,व्यवस्था हो जायेगी।

ये बातें सुनकर सेठने सौचा कि पण्डितजीके कथामें हजार रुपयोंकी भैंट (चढावा) आयेगी,हनुमानजी महाराज इनके एक हजार रुपये पैदा करायेंगे।अब अगर हम पाँचसौ रुपये देकर पण्डितजीसे यह भैंट पहले ही खरीदलें तो हमारे पाँचसौ रुपयोंका मुनाफा हो जायेगा। यह सौचकर सेठ पण्डितजीसे बोले कि पण्डितजी महाराज! ये लो पाँचसौ रुपये और आपकी कथामें जितनी भैंट आयेगी,वो सब हमारी।आपको अगर यह सौदा मँजूर हो तो ये पाँचसौ रुपये रखलो। पण्डितजीने सौचा कि पाँचसौ रुपयोंकी भैंट आना तो मुश्किल ही लग रही है और ये सेठ तो प्रत्यक्षमें पाँचसौ रुपये दे रहे हैं।प्रत्यक्षवाले रखना ही ठीक है।ऐसा सौचकर पण्डितजीने वो रुपये रख लिये कि हमें सौदा मँजूर है।अब जितनी भैंट-पूजा आवे,वो सब आपकी।सेठने भी यह बात स्वीकार करली।

समय आनेपर भैंटमें उतनी पैदा हुई नहीं।अब सेठ कहे, तो किससे कहे? सेठने हनुमानजीकी मूर्तिके मुक्केकी मारी कि आपने हजार रुपयोंकी व्यवस्था करनेके लिये भगवानके सामने हाँ भरी थी और व्यवस्था की नहीं? मुक्की हनुमानजीकी मूर्तिके लगते ही मूर्तिसे चिपक गई।अब सेठ बड़े परेशान हुए कि लोग क्या समझेंगे? रुपये भी गये और इज्जत भी जायेगी।अब क्या करें? इतनेमें सेठको हनुमानजी और भगवानकी बातचीत सुनायी पड़ने लग गई।सेठ सुनने लगे।

भगवान-
हनुमान!

हनुमानजी-
जी,सरकार।

भगवान-
पण्डितजीके हजार रुपयोंकी व्यवस्था हो गई? (या हो रही है?)

हनुमानजी-
जी,सरकार! पाँचसौ रुपयोंकी व्यवस्था तो हो गई और बाकी पाँचसौ रुपयोंकी व्यवस्थाके लिये अमुक सेठको पकड़ रखा है,वो बाकी पाँचसौ रुपये दे देंगे तब छौड़ देंगे और इस प्रकार पण्डितजीके हजार रुपयोंकी व्यवस्था हो जायेगी।

सेठने सौचा कि अब रुपये देनेमें ही भलाई है।सेठने हनुमानजी महाराजसे प्रार्थना की कि हे हनुमानजी महाराज! मेरा हाथ छौड़दो,रुपये दे दूँगा।सेठने रुपये देनेकी हाँ भरी,तब चिपका हुआ हाथ छूटा।

सूक्ति-
५६२-

हलायाँ बिना औधीजै |

सूक्ति-
५६३-

सीर सगाई चाकरी राजीपैरो काम |

सूक्ति-
५६४-

ऊभी आई हूँ , अर आडी जाऊँला |

सूक्ति-
५६५-

बेटी हाँतीरी हकदार है ,
पाँतीरी नहीं |

सूक्ति-
५६६-

दो ठगाँ ठगाई कोनि ह्वै |

सूक्ति-
५६७-

मेह अर मौत तो परमात्मा रे हाथ है |

सूक्ति-
५६८-

हाथ थकाँ कर हाथसे हाथ ऊपरै हाथ |
हाथ रहे नहिं हाथमें (जब) हाथ परै पर हाथ ||

भावार्थ-

जब तक तुम्हारे पास हाथ है,मनुष्य शरीर मिला हुआ है,देनेका अधिकार मिला हुआ है,तभी तक अपने हाथसे दूसरोंको कुछ दान,सहायता आदि दे दो,दूसरोंके हाथके ऊपर हाथ करो,दो।जब तुम्हारे हाथ पराये हाथोंमें पड़ जायेंगे,पशु-पक्षी आदि बन जाओगे,हाथकी जगह पैर आ जायेंगे,मनुष्य शरीरमें मिला हुआ अधिकार चला जायेगा तो आपके हाथकी बात नहीं रहेगी,कुछ दे नहीं सकोगे।इसलिये जबतक देना आपके हाथमें है,वशमें है तभीतक,पहले ही दे दो।

सूक्ति-
५६९-

लोह लोह रहज्या ,
कीटी कीटी झड़ज्या |

सूक्ति-
५७०-

काळमें इधक मासो |

सूक्ति-
५७१-

झकी हाँडीमें खावै , उणीनें फौड़ै |

सूक्ति-
५७२-

आँधे कुत्तेरे तो खोळण ही खीर है |

सूक्ति-
५७३-

अबखी बेळामें माँ याद आवै |

शब्दार्थ-

अबखी बेळाँ (दुखकी घड़ी,संकटका समय)।

सूक्ति-
५७४-

सूखी शिला कुण चाटे ! |

सूक्ति-
५७५-

किणरी माँ सूँठ खाई है ! |

सूक्ति-
५७६-

मिलियो कोनि कोई काकीरो जायो |

सूक्ति-
५७७-

ओ तो म्हारे खुणीरो हाड है |

सूक्ति-
५७८-

कोई मिलै हमारा देसी ,
गुरुगमरी बाताँ केसी (कहसी) |

सूक्ति-
५७९-

ठाला भूला ठिठकारिया कूड़ा जोड़े हाथ |
पतर चीकणा तब हुवे जब आवै बायाँरो साथ ।।

शब्दार्थ-

पतर (भोजन करनेका बर्तन)।

सूक्ति-
५८०-

पौह फाटी पगड़ौ भयो जागी जिया जूण |
साईं सबको देत है चूँच पराणै चूण ।।

सूक्ति-
५८१-

सब काती पींजी रूई हूगी ।

सूक्ति-
५८२-

पीळा पान झड़णैवाळा ही है ।

सूक्ति-
५८३-

थौथो चणो बाजे घणो ।

सूक्ति-
५८४-

कबूतर ने कूवो ही सूझै।

सूक्ति-
५८५-

कुंभ करेवा कोचरी विषधर ने वाराह |
एता लीजे जीवणा और सब डावाह ।।

शब्दार्थ-

करेवा (बैल,साँड़)।

सूक्ति-
५८६-

जन्तर मन्तर ताँती डोरा अन्तर लक्खण भौपेरा ।
साधू होकर सुगन मनावे काळा मूण्डा डौफेरा ।।

सूक्ति-
५८७-

म्हारी हाँडी तो चढ़गी ।

कथा-

एक कुम्हारने शामको घर आकर घरवालीसे रोटी माँगी तो घरवाली बोली कि घरमें अन्न (बाजरी,गेहूँ आदि) नहीं है।तब कुम्हार अपनी घड़ी हुई एक हँडिया लेकर गाँवमें गया और उसके बदले अन्न लै आया और कुम्हारीने पीसकर रोटी [साग,कड़ी आदि] बनादी।सबने भोजन कर लिया।

कुम्हार जिसको हाँड़ी देकर अन्न लै आया था,दूसरे दिन वो आदमी मिला तो  बोला कि अरे यार यह क्या किया? कुम्हारने पूछा कि क्या किया? तब वो बोला कि तुम्हारी हाँड़ी तो चढी ही नहीं (फूटी हुई थी,चूल्हे पर चढाई तो आग और बुझ गई)।तब कुम्हार बोला कि (तुम्हारी हाँड़ी नहीं चढी होगी,)हमारी हाँड़ी तो चढ गई (भूखे बैठे थे,उस हाँड़ीके बदले अन्न मिल जानेसे हमारे घरकी हाँड़ी तो चढ गई,तुम्हारी नहीं चढी तो तुम जानो)।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज इस कहानीका उदाहरण देकर कहा करते थे कि हमने तो आपके हितकी बात कह कर अपनी हाँड़ी चढादी,अब आप काममें लाओ तो आपकी हाँड़ी भी चढ जाय।हमारी तो हाँड़ी चढ गई (हमारे कर्तव्यका पालन तो हो गया), अब आपकी हाँड़ी आप जानो।(काममें नहीं लाओ तो फूटी तुम्हारी, हम क्या करें)।

सूक्ति-
५८८-

ऊँट खौड़ावै ,
अर गधो डामीजै ।

सूक्ति-
५८९-

अकल शरीराँ ऊपजे दियाँ आवे डाम ।

सूक्ति-
५९०-

भौळाँरे भगवान है ।

सूक्ति-
५९१-

खीर में काँकरा मत नाखो ।

सूक्ति-
५९२-

बारी आयाँ बूढ़ियौई नाचे ।

सूक्ति-
५९३-

जठै पड़े मूसळ , बठै ही खेम कुशळ।

सूक्ति-
५९४-

हे रामजी !
एकली तो रोई में लकड़ी भी मत बणाई(ज्यो) ।

सूक्ति-
५९५-

देखा देखी साजे जोग ,
छीजै काया बढ़े रोग ।

सूक्ति-
५९६-

ऊदळतीने दायजो थौड़ो ही दियो जावै ।

भावार्थ-

ऊदळती (जो कन्या माता पिताकी अवहेलना करके अपनी मर्जीसे किसीसे शादी करके चली जाती है और उसके लिये कोई कहे कि दहेज दो, तो उस समय कहा जाता है कि ऊदळतीको दहेज थौड़े ही दिया जाता है)।

सूक्ति-
५९७-

ढळियो घाँटी ,
(अर) हूग्यो माटी ।

सूक्ति-
५९८-

काँई लंका ने मून्दड़ी बतावै है !।

सूक्ति-
५९९-

पूरे हैं मर्द वे जो हर हाल में खुश रहे ।

सूक्ति-
६००-

कह,
काणीछोरी ! तन्ने कुण ब्याहासी (परणीजसी) ?
कह ,
म्हारे ब्याव नहीं ही सही ,
हूँ म्हारे भाई बहनाँनें ही खिलास्यूँ |



                                ||श्रीहरिः||        

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                         

      -:@सातवाँ शतक (सूक्ति ६०१-७०१)@:-



(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।


सूक्ति-
६०१-

कुटी क्रोध (अरू) हँसी मुकुर बाल तिया मद फाग |
होत सयाने बावरे आठ ठौर चित्त लाग ।।

शब्दार्थ-

कुटी (घर)।मुकुर (दर्पण)।बाल (बालक,बच्चा)।तिया (तिरिया,स्त्री)।मद (मद्य,मदिरा)।

भावार्थ-

इन आठ ठौरों(जगहौं)मेंसे एक ठौर भी अगर किसीका मन लग जाता है तो समझदार भी बावले (बेसमझ,मूर्ख) हो जाते हैं।

सूक्ति-
६०२-

धौळो धौळो (सब) दूध ही है ।

सूक्ति-
६०३-

छाळी दूध तो देवै , पण मींगण्याँ रळार देवै ।

सूक्ति-
६०४-

अणहूत भाटेसूँईं काठी ।

शब्दार्थ-

अणहूत (अभाव)।

सूक्ति-
६०५-

पुन्नरी पाळ हरी है ।

सूक्ति-
६०६-

बिद्या कण्ठै , अर धन अण्टै ।

सूक्ति-
६०७-

भाग नहीं भैरून्दे जोगो टीले जोगी टाट ।

कथा-

एक बार किसी व्यक्ति पर रीझ कर दरबार (राजा) इनाममें एक गाँव देने लगे। उस व्यक्तिसे पूछा कि बता कौनसा गाँव लेगा- भैरूँदा या टीलगढ? तो वो बोला टीलगढ।
उसने टीलगढको गढ(बड़ा,कीमती) समझकर माँग लिया था, लेकिन भैरूँदेके सामने टीलगढ बहुत छौटा था।भैरुँदा बहुत बड़ा,कीमती शहर था।जानकारोंको तो उम्मीद थी कि यह भैरुँदा ही माँगेगा और यही माँगना चाहिये था,लेकिन उसने जब भैरूँदेको छौड़कर टीलगढ माँगा, तो कहा गया कि यह भैरूँदेके योग्य भाग्यवाला नहीं है,यह टाट तो टीलेके योग्य ही है-
भाग नहीं भैरून्दे जोगो टीले जोगी टाट ।

सूक्ति-
६०८-

आँ राताँरा तो एही झाँझरका है ।

सूक्ति-
६०९-

जठै देखे भरी परात , बठै नाचे सारी रात ।

सूक्ति-
६१०-

जग में बैरी को नहीं सब सैणाँरो साथ ।
केवल कूबा यूँ कहै चरणाँ घालूँ हाथ ||

सूक्ति-
६११-

कबीरो बिगड़्यो राम दुहाई ,
थे मत बिगड़ो म्हारा भाई ।

सूक्ति-
६१२-

खेल खतम, पैसा हजम ।

सूक्ति-
६१३-

भेड़ माथै ऊन कुण छोडै (है) ।

सूक्ति-
६१४-

कौडियैरो टको ठाकुरजीरे काम कौनि आवे ।

सूक्ति-
६१५-

भौळो सैण दुश्मणरी गर्ज साजै ।

सूक्ति-
६१६-

माँ मारे है , पण मारण कौनि देवै ।

सूक्ति-
६१७-

माँग्या मिले माल ,
ज्याँरे काँई कमीरे लाल ।

सूक्ति-
६१८-

माँग्यौड़ी तो मौत भी कौनि मिले ।

सूक्ति-
६१९-

रोयाँ राज थौड़ो ही मिले है ।

सूक्ति-
६२०-

माँग्या मिले नहिं कोयला  अणमाँग्या पकवान ।

सूक्ति-
६२१-

घी तो आडाँ हाथाँ ( ही घालीजै )।

सूक्ति-
६२२-

जारे राँडरा काचा ।

सूक्ति-
६२३-

माई बाई भाइली , भाग पसाड़ली ।

सूक्ति-
६२४-

घाले जितौई मीठो , ह्नावै जितौई पुन्न ।

सूक्ति-
६२५-

पापीरो धन परलै जाय ,
कीड़ी सँचै तीतर खाय ।

सूक्ति-
६२६-

धन धणीयाँरो ((है) ,
गेवाळियैरे हाथ में तो गैडियो है ।

सूक्ति-
६२७-

गायाँ ऊछरगी , अर पौटा पड़िया है ।

सूक्ति-
६२८-

आतो छाछ ढुलणवाळी ही है ।

सूक्ति-
६२९-

सब गुड़ गोबर हूग्यो ।

सूक्ति-
६३०-

एक आँख , झकीमेंई फूलो ।

सूक्ति-
६३१-

मूण्डे आडौ सौ मणरो ताळो है ।

सूक्ति-
६३२-

इण मूण्डैनें र आ खीर !।

सूक्ति-
६३३-

काँई मियाँ मरग्या ,
अर काँई रोजा घटग्या ।

सूक्ति-
६३४-

सती श्राप देवै नहीं ,
अर कुसती रो लागे नहीं ।

सूक्ति-
६४५-

हींग लगे नहिं फिटकरी रंग झखाझख आय ।

सूक्ति-
६३६-

कलबल-कलबल हाका हूकी बात सुणीथे राते |
भूतप्रेत संग लै आयौ चौंसठ जोगण साथै ।|
(बनौं तो भभूति वाळोये …
आछो बर पायो… गौराँ.)

सूक्ति-
६३७-

अपने रामसे लगि रहिये |
जो कोई बादी बाद चलावै दोय बात बाँकी सहिये ।

सूक्ति-
६३८-

गंगा गये गंगादास ,
जमुना गये जमुनादास ।

सूक्ति-
६३९-

बाँदी सो तो बादशाह की ओरन की सरदार ।

सूक्ति-
६४०-

पाँचाँरी लकड़ी , अर एक रो भारो ।

सूक्ति-
६४१-

जावताँरा टामा है ।

सूक्ति-
६४२-

आँधेरो तन्दूरो बाबो रामदेव बजावै।

सूक्ति-
६४३-

आँटा टूँटा गहुँआँरा रोटा है ।

सूक्ति-
६४४-

छाती माथै मूँग दळे है ।

सूक्ति-
६४५-

पैंडो भलौ न कोसको, बेटी भली न एक।
लैणो भलो न बाप को साहिब राखे टेक।।

शब्दार्थ-

लैणो (ऋण,कर्ज)।

सूक्ति-
६४६-

अकल जरक चढ़ी है ।

सहायता-

जरक (लक्कड़बग्घा)।

सूक्ति-
६४७-

एक घर तो डाकणई (भी) टाळे है ।

सूक्ति-
६४८-

करो राधाने याद ।

सूक्ति-
६४९-

रहसी रामजी रो नाम ।

सूक्ति-
६५०-

कह बाबाजी नमो नारायण !
कह आज धामो थारे ही ।

सहायता-

धामो (धाम,घर,निवास स्थान।आज तुम्हारे यहाँ ही रहेंगे)।

सूक्ति-
६५१-

आपरी रोटी आडा ही खीरा देवै ।

सूक्ति-
६५२-

कटकी कठेई , पड़ी कठेई ।

सूक्ति-
६५३-

पटकी पड़े थारे ऊपर ।

शब्दार्थ-

पटकी (बिजली,आकाशीय विद्युत)।

सूक्ति-
६५४-

बेळाँ देख नहिं बिणजे, सो तो बाणियोई गिंवार ।

सूक्ति-
६५५-

मणभर गेहूँ में उनचाळीस सेर काँकरा है ।

सूक्ति-
६५६-

आपतो दूधरा धौयौड़ा है ? ।

सूक्ति-
६५७-

आपरी माँने डाकण कुण कहवै ? ।

सूक्ति-
६५८-

भौगना फूटा है सावणरे महीनें गधेरा फूटै ज्यूँ ।

सूक्ति-
६५९-

पारकी पूणीसूँ कातणो सीखणो है ।

सूक्ति-
६६०-

भाई मरियो झको सौच कौनि  पण भाभीरो बट निकळग्यो ।

सूक्ति-
६६१-

मेह , अर मौत रामजीरे सारे है ।

सूक्ति-
६६२-

रोयाँ बिना माँ भी बोबो कौनि देवै ।

सूक्ति-
६६३-

अड़ँग बड़ँग स्वाहा ।

सूक्ति-
६६४-

भुट चिपग्यो ।

सूक्ति-
६६५-

सुण लेणा सीधेरी सोय,
लेणा एक न देणा दोय ।

सूक्ति-
६६६-

आ तो राबड़ी रोटी है ।

सूक्ति-
६६७-

(कह,)डोकरी ! पुष्कर देख्यो (काँई) ?
कह, खिणायो कुण हो ? ।

सूक्ति-
६६८-

औड़ खन्देड़े नीचे नहिं आवे ।

सूक्ति-
६६९-

असलीरी औलाद खून बिना खिजरै नहीं |
बावै बादौ बाद रोड दुलाताँ राजिया ||

शब्दार्थ-

रोड (औछा,निकृष्ट,छौटा,खौटा;नकली)।

सूक्ति-
६७०-

कहयाँ कुम्हार गधे कौनि चढ़े ।

सूक्ति-
६७१-

बहू उघाड़ी फिरे तो सुसरैरी फूटगी काँई ? ।

सूक्ति-
६७२-

(फलाणौ) काँई दूबळी सुवासणी है ? ।

सूक्ति-
६७३-

(भगवान) लाददे, लदवायदे, लादणवाळा साथ दे ।

सूक्ति-
६७४-

बिरखारा पग हरिया ।

सूक्ति-
६७५-

राबड़ी कहवै म्हनेई(भी) दाँता सूँ खावौ ।

सूक्ति-
६७६-

डोवौ कहवै म्हने भी ब्यावमें बरतो ।

सूक्ति-
६७७-

बाना पूज नफा लै भाई !
उनका औगुण उनके माहीं ।

सूक्ति-
६७८-

साँगेरे चाइजै गावड़ी,
घणमौली अर सुवावड़ी ।

सूक्ति-
६७९-

होका थैँसूँ हेत इतरो जै हरसूँ हुवै ।
तौ पूगावै ठेठ (नहिं तो) आदैटेसूँ आगो करै ।।

सूक्ति-
६८०-

आम खावणा है क पेड़ गिणणा है !।

सूक्ति-
६८१-

एक मेह , एक मेह, करताँ तो माईत ही मरग्या ।

सूक्ति-
६८२-

सब धापा तो सौवे है ,
अर भूखा ऊठे है ।

सूक्ति-
६८३-

बहनरे भाई , अर सासूरे जँवाई ।

सूक्ति-
६८४-

तप्यै  तवै रोटी पकाले ।

सूक्ति-
६८५-

दूध पीवै जैड़ी बात है ।

सूक्ति-
६८६-

क्यूँ पतळैमें पत्थर नाँखे है !।

सूक्ति-
६८७-

टाँटियैरो छत्तो है ।

सूक्ति-
६८८-

भाँगणो भाखर , अर काढणो ऊन्दरो ।

सूक्ति-
६८९-

धूड़ बिना धड़ौ नहीं, कूड़ बिना बौपार नहीं ।

सूक्ति-
६९०-

तौलीजे सोनो , अर लै दौड़ै ईंट ।

सूक्ति-
६९१-

काँई भींजी सूखे है ।

सूक्ति-
६९२-

कह , शुभराज !
(भाँड़का जवाब-)
कह , शुभराज सूँ घर भरियो है ।

सूक्ति-
६९३-

भोजन में अगाड़ी ,
(अर) फौजमें पिछाड़ी ।

सूक्ति-
६९४-

सौरो जिमायौड़ौ ,
अर दौरो कूटयौड़ौ भूलै कोनि ।

सूक्ति-
६९५-

फूल सारूँ पाँखड़ी ।

सूक्ति-
६९६-

मरे टार कै कूदे खाई ।

शब्दार्थ-

टार (घौड़ा)।

सूक्ति-
६९७-

खावे जितौई मीठौ ,
अगले भौ किण दीठौ ।

सूक्ति-
६९८-

आँधो अर अणजाण बरोबर हुवै है ।

सूक्ति-
६९९-

आपसूँ बळवान जम ।

सूक्ति-
७००-

राबड़ली थापर रौष कबिजन कदै न बीसरे ।
छौड़ी थी सौ कोस आय मिली तूँ आगरै ।।

कथा-

एक चारण (बारहठ) आगरे (शहर) चले गये।वहाँ किसीने उनके लिये राबड़ी बनवायी कि इनके वहाँ राबड़ी खायी जाती है,इसलिये इनको अच्छी लगेगी; लेकिन ये चारण भाई राबड़ीसे उकताये हुए थे।अब वही राबड़ी परौसी हुई देखकर वो बोले कि हे राबड़ी! तुम्हारे पर जो गुस्सा है,उसको कविलोग कभी नहीं भूलते।तेरेको सौ कोस दूर छौड़ी थी और तू अगाड़ी आकर आगरैमें (भी) मिल गई!




                                ||श्रीहरिः||        

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                         

      -:@आठवाँ (अर्ध) शतक ( सूक्ति ७०१-७५१ )@:-



(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।



सूक्ति-
७०१-

कागाँरे बागा हुवै तो उडताँरेई दीसै।

सूक्ति-
७०२-

ऊँचो ऊँचो खैंचताँ नीचो जाय निराट ।
कियौ चाहे देवता हुयौ चाहे जाट ।।

सूक्ति-
७०३-

बळगत भाड़ै ।

सूक्ति-
७०४-

एकै पाणी मीठौ ।

सूक्ति-
७०५-

शीरो साधाँने सुखदाई ।
जामें दूणी खाँड मिलाई ।
थौड़ो और पुरसरे भाई !।
म्हारे दाँताँरी अबखाई ।।

सूक्ति-
७०६-

शीरो साधाँ ने ,
भाजी भगताँ ने ,
(अर) दाळ दर्ज्यां ने ।

सूक्ति-
७०७-

सबकै सीजै ,
लबकै लीजै ,
ऐसा भोजन सदाईं कीजै ।

सूक्ति-
७०८-

आकोळाई ढाकोलाई,
पाँचूँ रूखाँ एक तळाई |
दैरे चेला धौक,
(कह ) रूपयौ धरदे रोक ।

सूक्ति-
७०९-

तणर तीरियो बावै।

सूक्ति-
७१०-

न ताळी मिले है ,
न ताळा खुले है ।

सूक्ति-
७११-

आधो तन तो आपरोई कौनि दीसे ।

सूक्ति-
७१२-

रोवतो जावे ,
अर मरयौड़ेरी खबर लावे ।

सूक्ति-
७१३-

ताव देर पेटुकी कुण लेवै ।

सूक्ति-
७१४-

ताव में ही पेटुकी ।

सूक्ति-
७१५-

काळ में इधक मासो ।

सूक्ति-
७१६-

मड़ौ भूत बाकळाँसूँईं राजी ।

सूक्ति-
७१७-

भूखाँ ने भालवो भाँव हू ज्याही ।

सूक्ति-
७१८-

आँधे कुत्तैरे किंवाड़ ही पापड़ ।

(ऐसेही आँधे कुत्तैरे खौळणही खीर)।

सूक्ति-
७१९-

सुवाड़ियाँरै लारे बाखड़ियाँनेईं मिल ज्याही ।

सूक्ति-
७२०-

दातारे धन नहीं , शूरवीररे शिर नहीं ।

सूक्ति-
७२१-

कँगाली में आटो गीलो ।

सूक्ति-
७२२-

सौ गोलाँही कौटड़ी सूनीं ।

सूक्ति-
७२३-

छौरा क्यूँ माथैरा खौज मांडे है ? ।

सूक्ति-
७२४-

छौरा मिनख हूज्यारे ! ।

सूक्ति-
७२५-

छौरा थारे माथैमें खाज हाले है काँई रे !।

सूक्ति-
७२६-

क्यूँ माथैमें राख घाली है ।

सूक्ति-
७२७-

क्यूँ अकल रो कादौ करे (है)।

सूक्ति-
७२८-

(अकल) धूड़रा दौ दाणा ही कौनि ।

सूक्ति-
७२९-

धणियाँ बिना धन सूनौ है ।

सूक्ति-
७३०-

आ कामळ शी रे आडी ,
अर घी रे ई आडी (है)।

सहायता-

एक आदमी पंगतमें बैठा भौजन कर रहा था।उसके शीत रोकनेके लिये औढी हुई कम्बल (दूसरोंकी अपेक्षा) अच्छी,कीमती नहीं थी।परौसनेवाले दूसरोंको तो मनुहार और आग्रह करके भी घी आदि परौस देते थे,पर उसको साधारण आदमी समझकर परौसने वालोंकी भी उधर दृष्टि नहीं जा रही थी।वो घी नहीं परौस रहे थे,आगे चले जाते थे।तब कहा गया कि यह कम्बल शीतके आड़ी है (आड़ लगा रही है) और घी के भी आड़ी है।

सूक्ति-
७३१-

डूमाँ आडी डौकरी , (अर) बळदाँ आडी भैंस ।

सूक्ति-
७३२-

कळहरो मूळ हाँसी ,
अर रोगरो मूळ खाँसी ।

सूक्ति-
७३३-

फिरे सो तो चरे , अर बाँध्यो भूखाँ मरे ।

सूक्ति-
७३४-

अकल बिना ऊँट उभाणा फिरै (है)।

सूक्ति-
७३५-

बींद रे मूँडैमेंईं लाळाँ पड़े ,
तो जानी बापड़ा काँई करै !।

सूक्ति-
७३६-

सभी भूमि गोपाल की यामें अटक कहा?।
जिसके मन में अटक है सोही अटक रहा।।

सूक्ति-
७३७-


बाईजीरा बन्धन कटग्या सहजाँ हूगी राण्ड ।

सूक्ति-
७३८-

भैंस चरावै भारौ लावै काम करै आखो।
ठाकर कहै ठकराणी ! ऐसो आदमी (आपाँरे भी) राखो ।।

सूक्ति-
७३९-

पिण्डताई पानैं पड़ी औ पूरबलो पाप ।
औराँने प्रबोधताँ खाली रह गया आप।।

सूक्ति-
७४०-

पढ़ै अपढ़ै सारखे जो आतम नहिं लक्ख।
सिल सादी चित्रित अखा दौनों डूबण पक्ख ।।

शब्दार्थ-

सिल (शिला,पत्थर)।सादी (बिना घड़ी हुई,सादा पत्थर)।(सिल) चित्रित (घड़ी हुई और चित्रकारी की हुई
शिला,पत्थर)।

डूबण पक्ख (डूबनेके पक्षमें अर्थात् पत्थर चाहे घड़ा हुआ हो और चाहे बिना घड़ा हुआ हो,डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता।घड़ा हुआ और चित्रित पत्थर दीखनेमें तो बढिया और सून्दर दीखता है और बिना घड़ा हुआ सून्दर नहीं दीखता,दौनोंमें बड़ा फर्क है,परन्तु दौनों पत्थर पानीमें रखे जायँ तो डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता,दौनों डूब जाते हैं।ऐसे ही एक तो पढे-लिखे आदमी हैं(वे अच्छे लगते हैं,शोभा पाते हैं) और एक अनपढ हैं (वो अच्छे नहीं लगते,शौभा नहीं पाते),दौनोंमें बड़ा फर्क रहता है,परन्तु डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता।दौनोंने अगर मुक्ति नहीं की तो दौनों डूबेंगे।पढा-लिखा हो, चाहे अनपढ हो, डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहेगा।

सूक्ति-
७४१-

नशा ऐसा कीजिए जैसा अँधाधुँध |
घर का जाणैं मर गया आप करै आणन्द ।।

सूक्ति-
७४२-

ढूँढा सब जहाँ पाया पता तेरा नहीं |
जब पता तेरा लगा(तो) अब पता मेरा नहीं।।

शब्दार्थ-

सब जहाँ (सब जगह,सारी दुनियाँमें)।

सूक्ति-
७४३-

कहणी प्रभु रीझै नहीं रहणी रीझै राम।
सपनेकी सौ मोहरसे कौड़ी सरै न काम।।

सूक्ति-
७४४-

आगे चलकर पीछै जौवे ,
काँटो काढ़ण ऐडी टौवे ।

सूक्ति-
७४५-

सिंघ नहिं दीठौ (तो) देख बिलाई।
जम नहीं दीठौ (तो) देख जँवाई ।।

सहायता-

यमराज आते हैं तो एक आदमी (व्यक्ति) को लै जाते हैं ऐसे ही जँवाईराज आते हैं तो वो भी एक व्यक्तिको लै जाते हैं।यमराजको नहीं देखा हो तो जँवाईराजको देखलो।सिंहको नहीं देखा हो तो बिल्लीको देखलो (बिल्ली व्याघ्र जातीकी होती है)।

सूक्ति-
७४६-

धन जौबन और चातुरी ये तो जाणो ठग्ग।
मती करोरे मानवियाँ ! थे पुटियैवाळा पग्ग।।

सूक्ति-
७४७-

हम जाना बहु खायेंगे बहुत जमीं बहु माल।
ज्यों के त्यों ही रह गए पकड़ लै गयौ काळ।।

सूक्ति-
७४८-

कहा कमी रघुनाथमें छाँड़ी अपनी बान।
मन बैरागी ह्वै गयौ सुन बँशी की तान।।

सूक्ति-
७४९-

संसारीरा टूकड़ा नौ-नौ आँगळ दाँत।
भजन करै तौ उबरै नहीं तो काढ़ै आँत।।

सूक्ति-
७५०-

रामजीकी चिड़ियाँ रामजीको खेत। खावौ (ये) चिड़ियाँ भर भर पेट।।

सूक्ति-
७५१-

प्रहलाद कहता राक्षसों ! हरि हरि रटौ संकट कटै।
सदभाव की छौड़ौ समीरण विपतिके बादळ फटै।।

शब्दार्थ-

समीरण (समीर,हवा,आँधी)।

प्रसंग-

हिरण्यकशिपुने जब राक्षसोंको आदेश दिया कि प्रह्लादको मार डालो और उसकी आज्ञाके अनुसार वो प्रह्लादको मारने लगे तो भगवानने रक्षा करली,प्रह्लादको मारने दिया नहीं।राक्षस जब उसको मार नहीं पाये,तब हिरण्यकशिपुने कोप किया कि तुम्हारेसे एक बच्चा नहीं मरता है?(तुम्हारेको दण्ड दैंगे)।तब डरते हुए राक्षस काँपने लगे।उस समय  प्रह्लादजी (हिरण्यकशिपुके सामने ही) राक्षसोंसे कहने लगे कि हे राक्षसों! तुम राम राम रटो,भगवानका नाम लो जिससे तुम्हारे संकट कट जायँ।
सद्भाव पैदा करो,जिससे तुम्हारी सब विपत्तियाँ नष्ट हो जायँ।

(इस प्रकार आया हुआ संकट कट जायेगा और आनेवाली विपत्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी)।

सद्भाव (जैसे, किसीको मारनेकी कौशीश मत करो,किसीका अनिष्ट मत चाहो,किसीको शत्रु मत समझो,सब जगह और सबमें भगवान परिपूर्ण हैं,सब रूपोंमें भगवान मौजूद हैं,इसलिये किसीसे डरो मत।सबका भला हो जाय,कल्याण हो जाय,सब सुखी हो जायँ,दुखी कोई भी न रहें)।

(ऐसे) सद्भाव रूपी आप हवा चलाओगे तो आपके विपत्तिरूपी बादल
नष्ट हो जायेंगे।

जैसे,बादल छाये हुए हौं और उस समय अगर  हवा (आँधी) चल पड़े, तो बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और वर्षा टिक नहीं पातीं।

इसी प्रकार जब संकट छाये हुए हों और उस समय अगर राम राम रटा जाता है और सद्भावकी हवा छौडी (चलायी) जाती है तो विपत्तिके बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और विपत्ति टिक नहीं पातीं।राम राम रटनेसे सब संकट मिट जाते हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:ख भाग्भवेत्।।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

10:45.02-09-2014

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