शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

गले में कैंसर कभी हुआ ही नहीं था। (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके उम्रभरमें कभी कैंसर हुआ ही नहीं था।)

                      ।।श्रीहरि:।।

गले में कैंसर कभी हुआ ही नहीं था।  

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके उम्रभरमें कभी कैंसर हुआ ही नहीं था।)

   आजकल कई लोगोंमें यह बात फैली हुई है कि श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके गलेमें कैंसर था। 

   इसके जवाबमें निश्चयपूर्वक यह निवेदन है कि उनके उम्र भरमें कभी कैंसर नहीं हुआ था।

    यह बात खुद श्रीस्वामीजी महाराजके सामने भी आई थी कि लोग ऐसा कहते हैं (कि स्वामीजी महाराजके गलेमें कैंसर है)। तब श्रीस्वामीजी महाराज हँसते हुए बोले कि एक जगह सत्संग का प्रोग्राम होनेवाला था और वो किसी कारणसे नहीं हो पाया। तब किसीने पूछा कि स्वामीजी आये नहीं? उनके आनेका प्रोग्राम था न? 

   तब किसीने जवाब दिया कि वो तो कैंसल हो गया। तो सुननेवाला बोला कि अच्छा ! कैंसर हो गया क्या? कैंसर हो गया तब कैसे आते?

{उसने कैंसल (निरस्त) की जगह कैंसर सुन लिया था}।

   इस प्रकार कई लोग बिना विचारे ही, बिना हुई बातको ले दोङते हैं। जो घटना कभी घटी ही नहीं,* ऐसी-ऐसी बातें कहते-सुनते रहते हैं और वो बातें आगे चलती भी रहती है। सही बातका पता लगानेवाले और कहने-सुनने वाले बहुत कम लोग होते हैं। 

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  (टिप्पणी– * आज फेसबुक पर भी किसीने एक अखबार की फोटो प्रकाशित की है जिसमें गलेके कैंसरकी बात कही गई है। ऐसे बिना सोचे-समझे ही लोग आगे प्रचार भी कर देते हैं।

     कैंसर के भ्रमवाली एक घटना तो मेरे सामनेकी ही है–

एक बार लोगोंको मैं श्री स्वामी जी महाराज की रिकॉर्ड- वाणी (प्रवचन) सुना रहा था। प्रवचनकी आवाज कुछ लोगोंको साफ सुनाई नहीं दी। (श्रीस्वामीजी महाराज जब सभामें बोलते थे तो उन प्रवचनोंकी रिकॉर्डिंग होती थी। उस समय गलती के कारण कभी-कभी आवाज साफ रिकॉर्ड नहीं हो पाती थी। वैसे तो साफ आवाजमें उनके बहुत-सारे प्रवचन है, पर कुछ प्रवचनोंकी रिकॉर्डिंग साफ नहीं है, अस्पष्ट है)। इसलिये समाप्ति पर उन लोगोंमेंसे किसीने पूछा कि आवाज साफ नहीं थी (इसका क्या कारण है?)

   उस समय मेरे जवाब देनेसे पहले ही एक भाई उठकर खङा हो गया और लोगोंकी तरफ मुँह करके, उनको सुनाते हुए बोला कि सुनो-सुनो! (फिर वो बोला-) स्वामीजीके गलेमें कैंसर था, इसलिये आवाज साफ नहीं थी।

   मैंने आक्रोश करते हुए उनसे पूछा कि आपको क्या पता? तब उसने जवाब दिया कि आपलोगोंसे ही सुना है?– ऋषिकेशके संतनिवासमेंसे ही किसीने ऐसा कहा था(मैं उनको जानता नहीं)।} फिर मैंने कहा कि कैंसर उनके हुआ ही नहीं था। मेरे को पता है, मैं उनके साथ में रहा हुआ हूँ।

   लोगोंमें एक बात यह भी फैली हुई है कि एक डॉक्टर ने (यन्त्र के द्वारा) श्री स्वामी जी महाराज के गलेकी जाँच की, तो उसमें, डॉक्टर को ब्रह्माण्ड दिखायी दे गया। कोई कहते हैं कि डॉक्टर को वहाँ, भगवान् के दर्शन हो गये।

    कुछ लोग ऐसे भी देखने-सुनने में आये हैं कि श्री स्वामी जी महाराज के विषय में, अपने मनसे ही गढ़कर कोई बात बना देते हैं और लोगों में कह देते हैं तथा लोग उस बात को आगे चला देते हैं। कोई तो महापुरुषोंकी किसी सत्यबात को लेकर उसमें असत्य बात जोङ देते हैं, सत्यके सहारे असत्य कह देते हैं, उसमें अपनी बात भी मिला देते हैं। कोई तो श्री स्वामी जी महाराज की किसी बात या व्यवहार को लेकर उसको अपनी प्रशंसा में जोङ देते हैं। कोई अपनी हल्की सोचके के अनुसार श्री स्वामी जी महाराज और श्री सेठजी जैसे महापुरुषोंको साधारण मनुष्यकी तरह बता देते हैं, अपनी सांसारिक बुद्धि के अनुसार श्री स्वामी जी महाराज के लिये भी वैसी ही बात कह देते हैं। सोचते नहीं कि श्री स्वामी जी महाराज जैसे महापुरुषके लिये यह कैसे सम्भव है। कोई तो श्री स्वामी जी महाराज के लिये वो बात कह देते हैं जो उनके स्वभाव में ही नहीं है। उनके सिद्धान्तों की तरफ भी नहीं देखते।

    कुछ लोगों की तो ऐसी बात सामने आयी है कि श्री सेठजी और श्री स्वामी जी महाराज जैसे महापुरुषोंके लिये घटिया बात कहने में भी उनको शर्म नहीं आयी। किसीने तो श्री सेठजी के लिये घटिया और झूठी बात पुस्तक में भी लिख दी। किसीने बिल्वमङ्गलकी घटनाको श्री तुलसीदास जी महाराज की घटना बता दिया। ऐसे लोग दूसरे किसीकी की घटना को महापुरुषोंकी घटना बता देते हैं, दूसरे के व्यवहारको महापुरुषोंका व्यवहार और दूसरे की बात को महापुरुषोंकी बात बता देते हैं। झूठ साँच का भी ध्यान नहीं रखते। असत्य से भी परहेज नहीं करते। कोई तो श्री स्वामी जी महाराज की प्रशंसा करते हुए भी झूठीबात बोल देते हैं। कोई श्री स्वामी जी महाराज का नाम लेकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। इस प्रकार और भी कई बातें हैं, विचारवान लोग समझ सकते हैं।

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   इस प्रकार लोग सुनी-सुनाई बातें कहते-सुनते रहते हैं और आगे चलाते भी रहते हैं जो कि बिल्कुल झूठी है।

साधारण लोगोंकी तो बात ही क्या है जाने-माने उत्तराखण्ड के एक डाॅक्टर ने भी ऐसी बात कहदी। 

श्रीस्वामीजी महाराजके सिरपर एक फोङा हो गया था और उसका ईलाज कई जने नहीं कर पाये थे। उस समय भी डाॅक्टर आदि कई जनोंने उसको कैंसर कह दिया था। 

फिर एक कम्पाउण्डरने साधारण इलाजसे ही उसको ठीक कर दिया(वो विधि आगे लिखी गई है)।अगर कैंसर होता तो साधारणसे इलाजसे ठीक कैसे हो जाता? परन्तु बिना सोचे-समझे ही कोई कुछका कुछ कह देते हैं। अपनेको तो चाहिए कि जो बात प्रामाणिक हो, वही मानें। 

    लोगोंने तो ऐसी झूठी खबर भी फैलादी कि श्री स्वामी जी महाराज ने शरीर छोङ दिया। ऐसे एक बार * ही नहीं, अनेक बार हो चुका। 

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   (टिप्पणी *  एक बार की बात है कि मैं अपने गाँव जाकर आया था और श्री स्वामी जी महाराज को वहाँकी बातें सुना रहा था। श्री स्वामी जी महाराज बोले कि वहाँ और कोई नई बात हुई क्या? सुनते ही मेरेको वहाँ घटित हुई एक घटना याद आ गई। मैंने कहा– हाँ, एक नई बात हुई थी। फिर मैंने वो घटना सुनादी। श्री स्वामी जी महाराज के सामने ऐसी बातें पहले भी कई बार आती रही थी। उनके लिये वो कोई नई बात नहीं थी।

   वो घटना इस प्रकार थी— मैं गाँव में एक वृद्ध माता जी से मिलने गया। वो माताजी अन्दर से आई और घूँघट निकाल कर दूसरी तरफ मुँह किये हुए बैठ गई। वैसे तो पुरानी माताएँ लज्जाके कारण बालक को देखकर भी घूँघट निकाल लेती है, पर बालक से बात कर लेती है। श्री स्वामी जी महाराज ने भी बताया कि घूँघट निकाले हुए एक वृद्ध माताजी से मैंने कहा कि माजी! मैं तो आपके सामने पौते के समान हूँ। ऐसे ही एक बार एक वृद्ध माताजी श्री स्वामी जी महाराज से कोई बात पूछ रही थी, उनके घूँघट निकाला हुआ देखकर श्री स्वामी जी महाराज ने आदरपूर्वक मेरेको भी बताया कि देख! (माँजी के घूँघट निकाला हुआ है)। ऐसे कई माताएँ दादी, परदादी बन जानेपर भी घूँघट निकालना नहीं छोङती। यह उनके स्वभाव में होता है। हमारे यहाँ की एक यह आदरणीय रीति है, मर्यादा है। जगज्जननी सीता जी के भी घूँघट निकालनेकी बात आई है। हमारे भारतवर्ष की यह पुरातन रिवाज रही है। माताएँ लज्जाके अवसर पर तो घूँघट निकालती ही है, शोकके अवसर पर भी घूँघट निकाल लेती है। यहाँ, ये माताजी शोक का अवसर जानकर घूँघट निकाले बैठी थी।

   जब वो माताजी बोली नहीं, तब मैंने पूछा कि क्या बात है माजी! तो वो शोक जताती हुई बोली कि क्या करें, श्री स्वामी जी महाराज ने तो समाधि ले ली अर्थात् शरीर छोङ दिया। तब मेरे समझ में आया कि इनके पास कोई झूठी खबर पहुँच गई है। मैंने कहा कि (नहीं माजी! ऐसी बात नहीं है), श्री स्वामी जी महाराज ने शरीर नहीं छोङा है, मैं वहीं से आया हूँ, वे राजीखुशी हैं। तब उन माताजी ने शोक छोङा और सामान्य हुई, नहीं तो वो झूठी बात को ही सच्ची मानकर शोक पालने में लग गई थी। ऐसी और भी कई बातें हैं।

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१(सिरवाले फोङेका ईलाज इस प्रकार किया गया–)

     कम्पाउण्डरजीने पट्टी बाँधनेवाला कपङा(गोज) मँगवाया और उसके कैंचीसे छोटे-छोटे कई टुकङे करवा लिये। फिर वे उबाले हुए पानीमें डाल दिये गये; बादमें उनको निकालकर निचौङा और उनको थोङी देर हवामें रख दिया। उसके बाद फोङेको धोकर उसके ऊपरका भाग(खरूँट) हटा दिया गया। फिर फोङेको साफ करके उसपर वे कपड़ेके टुकङे रख दिये। उस कपङेकी कतरनने फोङेके भीतरकी खराबी (दूषित पानी आदि) सोखकर बाहर निकाल दी। फिर वे गोज हटाकर दूसरे गोज रखे गये। इस प्रकार कई बार करनेपर जब अन्दरकी खराबी बाहर आ गयी तब फोङेपर दूसरे स्वच्छ गोज रखकर उसपर पट्टी बाँधदी।

    शामको जब पट्टी खोली गयी तो वे कपड़ेके टुकड़े भीगे हुए मिले; उन टुकड़ोंने अन्दरकी खराबीको खींचकर सोख लिया था, इसलिये वे भीग गये थे, गीले हो गये थे।

    तत्पश्चात उन सबको हटाकर फिरसे नई पट्टी बाँधी गई जिस प्रकार कि सुबह बाँधी थी।

दूसरे दिन सुबह भी उसी विधिसे पट्टी की गई। ऐसा प्रतिदिन किया जाने लगा।

    बीच-बीच में यह भी ध्यान रखा जाता था कि घावका मुँह बन्द न हो। अगर कभी बन्द हो भी जाता तो उसको वापस खोला जाता था जिससे कि दूषित पानी आदि पूरा बाहर आ जाय।

    इस प्रकार सोखते-सोखते कुछ दिनोंके बाद वो गोज(कपङेकी कतरनें) भीगने बन्द हो गये, फोङेके भीतरकी खराबी बाहर आ गयी तथा महीनेभर बादमें वो फोङा ठीक हो गया। उस जगह साफ, नई चमङी आ गई।

    इसके बाद ऐसी ही विधि दूसरे लोगोंके घाव आदिको ठीक करनेके लिये की गई और उन सबके घाव भी ठीक हुए।

    इससे एक बात यह समझमें आयी कि ऊपरसे दवा लगानेकी अपेक्षा भीतरकी खराबी बाहर निकालना ज्यादा ठीक रहता है।

    डॉक्टर आदि कई लोगोंने ऊपरसे दवा लगा-लगा कर ही इलाज किया था, भीतरसे विकृति निकालनेका, ऐसा उपाय उन्होंने नहीं किया था। तभी तो उनको सफलता नहीं मिली।

(गलेके कफका इलाज इस प्रकार किया गया–)

    सेवाकी कमी आदि के कारण कई बार श्री स्वामी जी महाराज के सर्दी, जुकाम आदि हो जाता था, जिससे गलेमें कफ होनेके कारण लोगोंके सत्संग सुननेमें दिक्कत आती थी।

    सत्संग सुननेमें बाधा न हो– इसके लिये कभी-कभी श्री स्वामी जी महाराज के गले में कपङेकी पट्टी लपेटी जाती थी और कफ डालनेके लिये दौने आदि में मिट्टी रखी जाती थी; लेकिन इसका भी इलाज कम्पाउण्डरजीने साधारणसे उपाय द्वारा कर दिया।

    वे बोले कि स्वामीजी महाराजके सामनेसे यह (कफदानी वाला) बर्तन हटाना है और उसका उपाय यह बताया कि लोटा भर पानीमें एक दो चिमटी(चुटकी) नमक डालकर उबाल लो तथा चौथाई भाग जल रह जाय तब अग्निसे नीचे उतार लो। ठण्डा होनेपर इनको पिलादो।

    उनके कहनेपर ऐसा ही किया गया और कुछ ही दिनोंमें श्री स्वामी जी महाराज का गला ठीक हो गया और कफ चला गया तथा कफ डालनेके लिये रखा जानावाला, मिट्टीका बर्तन भी हट गया। नहीं तो वर्षोंतक यह कफवाली समस्या बनी ही रही थी।

    किसीने गलेमें लपेटी हुई उस कपड़ेकी पट्टी को देखकर कैंसर समझ लिया होगा अथवा, कैंसरवाली गलतफहमीकी पुष्टि की होगी तो वो भी बिना जाने, अज्ञानता के कारण की थी। वास्तव में, गलेमें पट्टी कैंसर के कारण नहीं लपेटी जाती थी। इस प्रकार जब कफ चला गया, तब गला ठीक हो गया और सिरवाला फोड़ा भी ठीक हो गया था। न तो कभी गलेमें कैंसर हुआ था और न सिरपर।

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   वास्तवमें उनके कैंसर न तो कभी गलेमें हुआ था और न कभी सिरपर हुआ था। किसी भी अंग में कैंसर नहीं हुआ था। 

उनके साथमें रहनेवाले, सत्संग करनेवाले अनेक जने ऐसे हैं, जो इस बातको जानते हैं।

तथा मैंने भी वर्षोंतक श्री स्वामी जी महाराज के पासमें रहकर देखा है और बहुत नजदीक से देखा है– उम्रभर में उनके किसी भी अंग में, कभी कैंसर हुआ ही नहीं था। 

लोग झूठी-झूठी कल्पना कर लेते हैं। 

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे।।

जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।। (रामचरितमानस 1।115)

जय श्री राम।।

विनीत- डुँगरदास राम

http://dungrdasram.blogspot.com/

१.कुछ आवश्यक और उपयोगी​ बातें।

                         ।।श्री हरि।।

१.कुछ आवश्यक और उपयोगी​ बातें

महान भजन क्या है?

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि-

किसी को किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो- यह भाव महान भजन है।  

ऐसे व्यक्ति का तो मुख देखने से ही पाप झड़ जाते हैं, मिट जाते हैं (देखने वाले व्यक्ति के पाप मिट जाते हैं)-

तन कर मन कर बचन कर देत न काहुहि दुःक्ख।
तुलसी पातक झरत है देखत उसके मुक्ख।।

भलाई करने वाला चाहे संसार की कितनी​ ही बड़ी सेवा करदे, भलाई करदे; वो सीमित ही होगी; परन्तु बुराई छोड़ देने पर, बुराई रहित हो जाने पर दुनियाँ की असीम सेवा होगी। बुराई रहित होना इतनी बड़ी सेवा है कि जिसका कोई पारावार नहीं। यह दुनियाँ की सबसे बड़ी सेवा है, अपार सेवा है। बुराई रहित होने वाले का कल्याण हो ही जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।

बुराई रहित होने के लिए श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने मुख्य तीन उपाय बताये हैं-

१.(बुद्धि के द्वारा) किसी को बुरा न समझना। २.(मन के द्वारा) किसी का बुरा न चाहना और ३.(शरीर के द्वारा) किसीका बुरा न करना। 

इनके अलावा कानों के द्वारा बुरा न सुनना, आँखों के द्वारा बुरा न देखना और मुख के द्वारा बुरा न कहना। किसी को भी बुरा न समझना। न दूसरों को (बुरा समझना) और न अपने को बुरा समझना। ये भी बुराई रहित होने में सहायक हैं।

सब जग ईश्वर रूप है भलो बुरो नहिं कोय।
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।।

हमेशा यह सावधानी रखनी चाहिये कि हमारे द्वारा किसी को कष्ट तो नहीं​ हो रहा है। हमेशा दूसरों का दुःख दूर करने की मन में रहनी चाहिये, कोशिश रहनी चाहिये। हम कुछ सावधानियाँ रखें तो दुनियाँ की बड़ी भारी सेवा हो जाय और हम अनेक बुराईयों​ से बच जायँ।

जैसे -

कूड़े- कचरे के आग न लगावें; क्योंकि इसके साथ में अनेक जीव- जन्तु जिन्दे ही जल जाते हैं। किसीने आग लगा भी दी हो तो उसे बुझादें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज इसका बड़े जोर से निषेध करते थे और इसको बड़ा भारी पाप मानते थे। कहीं  कचरे के आग लगी देखते तो तुरन्त संतों को कहकर वो आग बुझवाते थे।

चूल्हा या गैस आदि जलाने से पहले उसको झाड़लें। अचानक जला देने से वहाँ के जीव जन्तु जल जाते हैं।

रात्रि में जहाँ रोशनी (प्रकाश) को देखकर जीव जन्तु,पतिंगे आदि आते हों तो वो रोशनी (लाइट) न जलाएँ। जलाना जरूरी हो जाय तो (जीव जन्तुओं की रक्षा करते हुए) जल्दी ही वापस बन्द कर देवें।

सांप, बिच्छू, छिपकली, खटमल, जूँ, मच्छर  आदि जीवों को मारें नहीं। ये घर में आ जायँ तो इनको सावधानी पूर्वक पकड़ कर बाहर छोड़दें। 

मच्छरों को 'धुआँ करना' 'उड़ा कर बाहर ले जाना' आदि उपायों के द्वारा  सुरक्षित बाहर निकाल दें, मारें नहीं।

जब कमरे में से मच्छरों को बाहर निकालने के लिए धुआँ किया जाय तो एक दरवाजा या खिड़की खोल​दें,जिससे वो मच्छर बाहर जा सके। भीतर ही दम घुटकर मर न जाय।

बिना धुएँ के भी अगर मच्छर जाली वाली खिड़की में अटक रहे़ हों, बाहर नहीं जा पा रहे हों तो खिड़की को खोल कर उनको बाहर करदें और खिड़की को वापस बन्द करलें।

मकड़ी, तिलचट्टा, चींटी, दीमक (उदाई), घुन, इल्ली, चूहे आदि जीवों को मारें नहीं।

घर में पहले से ही साफ-सफाई आदि सावधानी रखें कि जिससे​ घर में ऐसे जीव जन्तु पैदा ही न हों। ज़हरीले पाउडर आदि का प्रयोग करके जीव जन्तुओं को मारें नहीं। खेती में भी जहर छिड़क कर जीवों को मारें नहीं। यह तो इतना बड़ा भारी पाप है कि कह नहीं सकते।

घरकी साफ-सफाई आदि करते समय पहले ही ध्यान से देखलें कि यहाँ चींटी आदि कोई बहुत छोटे-छोटे​ जीव जन्तु तो नहीं है? अगर चींटी आदि जानवर हो तो पहले​ कोमल, फूलझाडू आदि से धीरे-धीरे उनको वहाँ से दूर करदें और उनके वापस आने से पहले ही भीगे कपड़े आदि से सफाई करलें। ध्यान रखें कि पौंछा लगाते समय जीव जन्तु साथ में ही न मसल दिये जायँ।

आसन आदि बिछाते समय, बिछाने से पहले उस जगह को झाड़कर बिछावें जिससे कि कोई जीव जन्तु उसके नीचे दबकर न मर जाय।

शौचाचार और सदाचार का सदा पालन करें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि कम-से-कम अन्न और जल के तो हाथ धोकर (ही) लगावें। बिना धोये अन्न और जल के हाथ न लगावें।

अन्न और जल को व्यर्थ बर्बाद न होने दें। जो अन्न को व्यर्थ, बर्बाद करता है तो उसको बिना अन्न के भूखों मरना पड़ेगा। जो जल को बर्बाद करता है,टूँटी खोलदी और जल एसे ही गिर रहा है; तो अगाड़ी उसको बिना जल के प्यासे मरना पड़ेगा। उसको अगाड़ी जल नहीं मिलेगा।

इसी प्रकार दूसरी बातों​ (समय, अच्छा नौकर, सज्जन मालिक, सन्तान, मनुष्य शरीर, संत- महात्मा और सन्त महात्माओं​ से लाभ, सत्संग आदि के विषय) में भी समझ लेना चाहिये।

जल में बहुत सूक्ष्म जीव होते हैं,आँखों से दीखाई नहीं देते। इसलिए पानी को हमेशा गाढ़े दुपट (डब्बल) कपड़े से छानकर काम में लें। जल छानने के बाद में युक्ति से जीवाणूँ करें, उस कपड़े पर अटके जीवों को बहते हुए पानी में या पर्याप्त स्थायी पानी में छोड़ें अर्थात् उस कपड़े के जिस तरफ जीव अटके हुए हैं, लगे हुए हैं, उसके ऊपर वाले दोनों किनारों पर, एक (पहले) छोर से शुरू करके दूसरे छोर तक और दूसरे छोर से शुरू करके वापस पहले छोर तक , इस प्रकार सावधानी से छने हुए जल की धारा गिरावें कि जिससे वो अटके हुए सभी सूक्ष्म जीव वापस पानी में चले जायँ। (इस काम को 'जीवाणूँ करना' कहा जाता है)।

 इस प्रकार अगर जीवाणूँ नहीं की गई अर्थात् उन अटके हुए सूक्ष्म जीवों को छना हुआ जल डालकर वापस पानी में नहीं छोड़ा गया तो वो जीव (शीघ्र ही) मर जायेंगे​। इसलिए जल छानने के बाद में सदा उन जीवों के बचाव​ का उपाय जरूर करें। हमेशा छना हुआ जल ही काम में लावें। 

श्री स्वामीजी महाराज बताते हैं कि-

जल में झीणा जीव लखे नहिं कोय रे।
अणछाण्यो जल पियै पाप बहु होय रे।।
गाढ़ो पट करि दुपट छाणकर पीजिये।
जीवाणूँ जल माँय जुगत से कीजिये।।

छ: घंटे के बाद छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं, इसलिये उसको दुबारा छानना चाहिये। चातुर्मास में तो चार घंटे के बाद में ही उसमें जीव पैदा होने लगते हैं। इसलिये उस पानी को दुबारा छानना चाहिये और अन्य समय में छः घंटे के बाद में दुबारा छानना चाहिये। इसमें दो घंटे की छूट ली जा सकती है अर्थात चार घंटे की जगह छः घंटे और छः घंटे की जगह आठ घंटे बाद में दुबारा जल छान सकते हैं।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज तो सब कामों में इस प्रकार छना हुआ जल ही काम में लेते थे, खान-पान और शौच-स्नान आदि सब में छना हुआ जल ही काम में लाते थे।

दूध को भी छानकर काम में लेवें। उसमें रोआँ (गाय का बाल) न आ जाय; क्योंकि रोआँ गाय को दुख देकर आया (टूटा) है।

(भोजन में तो गाय के अलावा दूसरों का बाल आ जाय तो भी वो भोजन त्याज्य हो जाता है, करने योग्य नहीं रहता, उसका त्याग कर देना चाहिये। भोजन में ऊपर से गिरा हुआ बाल तो निकाला जा सकता है; पर अगर बाल भोजन के साथ में ही सीझ गया हो तो वो भोजन त्याज्य है)।

गाय के सूई लगा कर उसका दूध न दूहें। सूई लगाने से गाय को बड़ा भारी दुःख होता है, गाय परवश हो जाती है। गाय के अंग-अंग ढ़ीले पड़ जाते हैं जिससे गाय के शरीर में रहने वाला दूध (गाय के न चाहने पर भी) थनों में आ जाता है। यह बड़ा भारी पाप है। जो दूध गाय के सूई लगाकर दूहा जाता है, वो दूध खरीदें भी नहीं। 

सूई लगाकर दूहा हुआ दूध, दूध नहीं है। वो तो गाय का खून माना गया  है।

 यथा-

आपसे आया दूध बराबर माँग कै लिया पाणी।
खैंचाताणी खून बराबर यह संतों की बाणी।।

इसके सिवाय मनुष्य को चाहिये कि दसों दोषों का और सभी व्यसनों का त्याग करदें।

दस दोष ये हैं-

(शरीर के तीन दोष-) १.चोरी, २.जारी (परस्त्री गमन,परपुरुष गमन- व्यभिचार), ३.जीव हिंसा, (वाणी के चार दोष-) ४.निन्दा (किसी के दोष को दूसरे के आगे प्रकट करके दूसरों में उस के प्रति दुर्भाव पैदा करना। गीता साधक-संजीवनी १६/२ की व्याख्या से), ५.झूठ, ६.कठौर बोलना आदि,७.वाचालता (आवश्यकता से अधिक बोलना,बकवाद), (मन के तीन दोष-) ८.चिन्ता, ९.तृष्णा,और १०.द्वेष।

चोरी जारी जीव हत्या तन रा दोष है तीन।
निन्दा झूठ कठौरता वाकचाल वाचीन।
चिन्ता तृष्णा द्वेष [ये मन के दोष भी तीन]।
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के श्रीमुख से सुने हुए)।

सात व्यसन ये हैं-

जुआखेलना,मदिरापान,मांसभक्षण,वेश्यागमन, शिकार (हत्या) करना,चोरी करना और परस्त्रीगमन- ये सात व्यसन तो घोरातिघोर नरकों में ले जाने वाले हैं*। इनके सिवाय चाय, काफी, अफीम, बीड़ी-सिगरेट आदि पीना और तास-चौपड़, खेल-तमाशा, सिनेमा देखना,वृथा बकवाद,वृथा चिन्तन आदि जो भी पारमार्थिक उन्नतिमें और न्याय-युक्त धन आदि कमाने में बाधक हैं,वे सब-के-सब व्यसन हैं।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक 'साधन-सुधा-सिन्धु' , आवश्यक शिक्षा, पृष्ठ संख्या ९२१ से)।

इस प्रकार आजकल, आवश्यक और उपयोगी, इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये। 

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कुछ और उपयोगी बातें ये हैं- 

प्याज और लहसुन का तो कई जने सेवन नहीं करते,पर कई लोग गाजरका भक्षण कर लेते हैं।

लेकिन यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि 'श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' (बिना एकादशी के भी) गाजर खाने का निषेध करते थे।

श्री सेठजी एकादशीके दिन साबूदाना खानेका भी निषेध करते थे कि इसमें चावलों का अंश मिलाया हुआ होता है।

(आजकल साबूदाने भी नकली आने लग गये हैं)।

एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है ;  क्योंकि ब्रह्महत्या आदि बड़े-बड़े पाप एकादशी के दिन चावलों में निवास करते हैं, चावलों में रहते हैं । ऐसा ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।

जो एकादशी के दिन व्रत नहीं रखते,अन्न खाते हैं, उनके लिये भी एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है।

स्मृति आदि ग्रंथों को मुख्य मानने वाले "स्मार्त एकादशीव्रत" करते हैं और भगवानको,(तथा वैष्णवों, संन्तो-भक्तों को) मुख्य मानने वाले "वैष्णव एकादशीव्रत" करते हैं ।

एकादशी चाहे वैष्णव हो अथवा स्मार्त हो; चावल खाने का निषेध दोनों में ही है।

परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज "वैष्णव एकादशीव्रत", "वैष्णव जन्माष्टमीव्रत" आदि ही करते थे और मानते थे ।

×××

एकादशीको हल्दीका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि हल्दीकी गिनती अन्नमें आयी है (हल्दीको अन्न माना गया है)।

साँभरके नमक का प्रयोग भी एकादशी आदि व्रतोमें नहीं करना चाहिये ; क्योंकि साँभर झील (जिसमें नमक बनता है,उस) में कोई जानवर गिर जाता है,मर जाता है तो वो भी नमकके साथ नमक बन जाता है (इसलिये यह नमक अशुद्ध माना गया है)।

सैंधा नमक काममें लेना ठीक रहता है। सैंधा नमक पत्थरसे बनता है,इसलिये अशुद्ध​ नहीं माना गया।

एकादशीके अलावा भी फूलगोभी नहीं खानी चाहिये। फूलगोभी में जन्तु बहुत होते हैं।

[बैंगन भी नहीं खाने चाहिये। शास्त्र का कहना है कि जो बैंगन खाता है,भगवान उससे दूर रहते हैं]।

उड़द और मसूरकी दाळ भी वर्जित है।

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' बताते हैं कि नमक जल है (नमक को जल माना गया है और जल के छूत लगती है)। जिस वस्तु में नमक और जल का प्रयोग हुआ हो,ऐसी कोई भी वस्तु बाजार से न लें; क्योंकि इनके छूत लगती है।

(अस्पृश्यके स्पर्श हो गया तो स्पर्श दोष लगता है।

इसके अलावा पता नहीं कि वो किस घरका बना हुआ है और किसने, कैसे बनाया है)।

हींग भी काममें न लें; क्योंकि वो चमड़ेमें  डपट करके, बन्द करके रखी जाती है,नहीं तो उसकी सुगन्धी चली जाय अथवा  कम हो जाय ।

हींगकी जगह हींगड़ा काममें लाया जा सकता है।

सोने चाँदी के वर्क लगी हुई मिठाई नहीं खानी चाहिये; क्योकि ये (गाय या) बैलकी आँतमें रखकर बनाये जाते हैं। बैलकी आँतमें छौटासा सोने या चाँदीका टुकड़ा रखकर, उसको हथौड़ेसे पीट-पीटकर फैलाया जाता है और इस प्रकार ये सोने तथा चाँदीके वर्क बनते हैं।

इसलिये न तो वर्क लगी हुई मिठाई काम में लावें,न खावें और न मिठाईके वर्क लगावें।

इस के सिवाय अपना कल्याण चाहने वालों को (बिना एकादशी के भी) मांस,मदिरा तथा और भी अभक्ष्य खान-पान आदि नहीं करने चाहिये, इनसे बचना चाहिये और लोगों को भी ये बातें बताकर बचाना चाहिये ।

लाखकी चूड़ियाँ काममें न लावें; क्योंकि लाखमें लाखों (अनगिनत) जीवोंकी हत्या होती है।

मदिरामें भी असंख्य जीवोंकी हत्या होती है। मदिरा बनाते समय पहले उसमें सड़न पैदा की जाती है,जो असंख्य जीवोंका समुदाय होता है। फिर उसको भभके से, गर्म करके उसका अर्क (रस) निकाला जाता है। उसको मदिरा कहते हैं। 

 इसकी गिनती चार महापापों (ब्रह्महत्या, सुरापान,सुवर्ण या रत्नोंकी चोरी और गुरुपत्निगमन) में आयी है

तीन वर्ष तक कोई महापापीके साथमें रह जाय,तो (पाप न करने पर भी) उसको भी वही दण्ड होता है जो महापापीको होता है।

जिस घर में एक स्त्री के भी अगर गर्भपात करवाया हुआ हो तो उस घर का अन्न खाने योग्य नहीं होता (और उस घर का जल भी पीने योग्य नहीं होता)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज उस घर का अन्न नहीं खाते थे (उस घर की भिक्षा का अन्न लेना छोड़ दिया था)। गर्भपात ब्रह्महत्या से भी दूना पाप है। 

अधिक जानने के लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक - "पहापाप से बचो" पढ़ें।

गर्भपात का प्रायश्चित्त- 

अगर कोई गर्भपात का पाप मिटाना चाहें तो श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने उसका यह उपाय (प्रायश्चित्त) बताया है -

बारह महीनों तक रोजाना (प्रतिदिन) भगवान् के सवा लाख नाम का जप करें। 

(ये जप बिना नागा किये रोजाना करने चाहिये। षोडस मन्त्र या चतुर्दश मन्त्र से जप जल्दी और सुगमतापूर्वक हो सकते हैं)। 

('सुहागिन स्त्री को एकादशी व्रत करना चाहिये या नहीं ? कह, करना चाहिये।
http://dungrdasram.blogspot.in/2016/08/blog-post_13.html?m=1' नामक लेख से)।

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■ सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

कुछ आवश्यक और उपयोगी​ बातें।

                         ।।श्री हरि।।

कुछ आवश्यक और उपयोगी​ बातें।

महान भजन क्या है?

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि-

किसी को किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो- यह भाव महान भजन है।  

एसे व्यक्ति के तो मुख देखने से ही पाप झड़ जाते हैं, मिट जाते हैं (देखने वाले के)-

तन कर मन कर बचन कर देत न काहुहि दुःक्ख।
तुलसी पातक झरत है देखत उसके मुक्ख।।

भलाई करने वाला चाहे संसार की कितनी​ ही बड़ी सेवा करदे, भलाई करदे; वो सीमित ही होगी; परन्तु बुराई छोड़ देने पर, बुराई रहित हो जाने पर दुनियाँ की असीम सेवा होगी। बुराई रहित होना इतनी बड़ी सेवा है कि जिसका कोई पारावार नहीं। यह दुनियाँ की सबसे बड़ी सेवा है, अपार सेवा है। बुराई रहित होने वाले का कल्याण हो ही जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।

बुराई रहित होने के लिए श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने मुख्य तीन उपाय बताये हैं-

१.(बुद्धि के द्वारा) किसी को बुरा न समझना। २.(मन के द्वारा) किसी का बुरा न चाहना और ३.(शरीर के द्वारा) किसीका बुरा न करना। इनके अलावा कानों के द्वारा बुरा न सुनना, आँखों के द्वारा बुरा न देखना और मुख के द्वारा बुरा न कहना। किसी को भी बुरा न समझना। न दूसरों को (बुरा समझना) और न अपने को बुरा समझना। ये भी बुराई रहित होने में सहायक हैं।

सब जग ईश्वर रूप है भलो बुरो नहिं कोय।
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।।

हमेशा यह सावधानी रखनी चाहिये कि हमारे द्वारा किसी को कष्ट तो नहीं​ हो रहा है। हमेशा दूसरों का दुःख दूर करने की मन में रहनी चाहिये, कोशिश रहनी चाहिये। हम कुछ सावधानियाँ रखें तो दुनियाँ की बड़ी भारी सेवा हो जाय और हम अनेक बुराईयों​ से बच जायँ।

जैसे -

कूड़े- कचरे के आग न लगावें; क्योंकि इसके साथ में अनेक जीव- जन्तु जिन्दे ही जल जाते हैं। किसीने आग लगा भी दी हो तो उसे बुझादें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज इसका बड़े जोर से निषेध करते थे और इसको बड़ा भारी पाप मानते थे। कहीं  कचरे के आग लगी देखते तो संतो को कहकर वो आग बुझवाते थे।

चूल्हा या गैस आदि जलाने से पहले उसको झाड़लें। अचानक जला देने से वहाँ के जीव जन्तु जल जाते हैं।

रात्रि में जहाँ रोशनी (प्रकाश) को देखकर जीव जन्तु,पतिंगे आदि आते हों तो वो रोशनी (लाइट) न जलाएँ। जलाना जरूरी हो जाय तो (जीव जन्तुओं की रक्षा करते हुए) जल्दी ही वापस बन्द कर देवें।

सांप, बिच्छू, छिपकली, खटमल, जूँ, मच्छर  आदि जीवों को मारें नहीं। ये घर में आ जायँ तो इनको सावधानी पूर्वक पकड़ कर बाहर छोड़दें। 

मच्छरों को 'धुआँ करना' 'उड़ा कर बाहर ले जाना' आदि उपायों के द्वारा  सुरक्षित बाहर निकाल दें, मारें नहीं।

जब कमरे में से मच्छरों को बाहर निकालने के लिए धुआँ किया जाय तो एक दरवाजा या खिड़की खोल​दें,जिससे वो मच्छर बाहर जा सके। भीतर ही दम घुटकर मर न जाय।

बिना धुएँ के भी अगर मच्छर जाली वाली खिड़की में अटक रहे़ हों, बाहर नहीं जा पा रहे हों तो खिड़की को खोल कर उनको बाहर करदें और खिड़की को वापस बन्द करलें।

मकड़ी, तिलचट्टा, चींटी, दीमक (उदाई), घुन, इल्ली, चूहे आदि जीवों को मारें नहीं।

घर में पहले से ही साफ-सफाई आदि सावधानी रखें कि जिससे​ घर में ऐसे जीव जन्तु पैदा ही न हों। ज़हरीले पाउडर आदि का प्रयोग करके जीव जन्तुओं को मारें नहीं। खेती में भी जहर छिड़क कर जीवों को मारें नहीं। यह तो इतना बड़ा भारी पाप है कि कह नहीं सकते।

घरकी साफ-सफाई आदि करते समय पहले ही ध्यान से देखलें कि यहाँ चींटी आदि कोई बहुत छोटे-छोटे​ जीव जन्तु तो नहीं है? अगर चींटी आदि जानवर हो तो पहले​ कोमल फूलझाडू आदि से धीरे-धीरे उनको वहाँ से दूर करदें और उनके वापस आने से पहले ही भीगे कपड़े आदि से सफाई करलें। ध्यान रखें कि पौंछा लगाते समय जीव जन्तु साथ में ही न मसल दिये जायँ।

आसन आदि बिछाते समय, बिछाने से पहले उस जगह को झाड़कर बिछावें जिससे कि कोई जीव जन्तु उसके नीचे दबकर न मर जाय।

शौचाचार और सदाचार का सदा पालन करें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि कम-से-कम अन्न और जल के तो हाथ धोकर (ही) लगावें। बिना धोये अन्न और जल के हाथ न लगावें।

अन्न और जल को व्यर्थ बर्बाद न होने दें। जो अन्न को व्यर्थ बर्बाद करता है तो उसको बिना अन्न के भूखों मरना पड़ेगा। जो जल को बर्बाद करता है,टूँटी खोलदी और जल एसे ही गिर रहा है; तो अगाड़ी उसको बिना जल के प्यासे मरना पड़ेगा। उसको अगाड़ी जल नहीं मिलेगा।

इसी प्रकार दूसरी बातों​ (समय, अच्छा नौकर, सज्जन मालिक, सन्तान, मनुष्य शरीर, संत- महात्मा और सन्त महात्माओं​ से लाभ, सत्संग आदि के विषय) में भी समझ लेना चाहिये।

जल में बहुत सूक्ष्म जीव होते हैं,आँखों से दीखाई नहीं देते। इसलिए पानी को हमेशा गाढ़े दुपट (डब्बल) कपड़े से छानकर काम में लें। जल छानने के बाद में युक्ति से जीवाणूँ करें, उस कपड़े पर अटके जीवों को बहते हुए पानी में या पर्याप्त स्थायी पानी में छोड़ें अर्थात् उस कपड़े के जिस तरफ जीव अटके हुए हैं, लगे हुए हैं, उसके ऊपर वाले दोनों किनारों पर, एक (पहले) छोर से शुरू करके दूसरे छोर तक और दूसरे छोर से शुरू करके वापस पहले छोर तक , इस प्रकार सावधानी से छने हुए जल की धारा गिरावें कि जिससे वो अटके हुए सभी सूक्ष्म जीव वापस पानी में चले जायँ। (इस काम को 'जीवाणूँ करना' कहा जाता है)।

अगर इस प्रकार अगर जीवाणूँ नहीं की गई अर्थात् उन अटके हुए सूक्ष्म जीवों को छना हुआ जल डालकर वापस पानी में नहीं छोड़ा गया तो वो जीव (शीघ्र ही) मर जायेंगे​। इसलिए जल छानने के बाद में सदा उन जीवों के बचाव​ का उपाय जरूर करें। हमेशा छना हुआ जल ही काम में लावें। 

श्री स्वामीजी महाराज बताते हैं कि-

जल में झीणा जीव लखे नहिं कोय रे।
अणछाण्यो जल पियै पाप बहु होय रे।।
गाढ़ो पट करि दुपट छाणकर पीजिये।
जीवाणूँ जल माँय जुगत से कीजिये।।

छ: घंटे के बाद छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा हो जाते हैं, इसलिये उसको दुबारा छानना चाहिये। चातुर्मास में तो चार घंटे के बाद में ही उसमें जीव पैदा हो जाते हैं। इसलिये उस पानी को दुबारा छानना चाहिये और अन्य समय में छः घंटे के बाद में दुबारा छानना चाहिये। इसमें दो घंटे की छूट ली जा सकती है अर्थात चार घंटे की जगह छः घंटे और छः घंटे की जगह आठ घंटे बाद में दुबारा जल छान सकते हैं।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज तो सब कामों में इस प्रकार छना हुआ जल ही काम में लेते थे, खान-पान और शौच-स्नान आदि सब में छना हुआ जल ही काम में लाते थे।

दूध को भी छानकर काम में लेवें। उसमें रोआँ (गाय का बाल) न आ जाय; क्योंकि रोआँ गाय को दुख देकर आया (टूटा) है।

(भोजन में तो गाय के अलावा दूसरों का बाल आ जाय तो भी वो भोजन त्याज्य हो जाता है, करने योग्य नहीं रहता, उसका त्याग कर देना चाहिये। भोजन में ऊपर से गिरा हुआ बाल तो निकाला जा सकता है; पर अगर बाल भोजन के साथ में ही सीझ गया हो तो वो भोजन त्याज्य है)।

गाय के सूई लगा कर उसका दूध न दूहें। सूई लगाने से गाय को बड़ा भारी दुःख होता है, गाय परवश हो जाती है। गाय के अंग-अंग ढ़ीले पड़ जाते हैं जिससे गाय के शरीर में रहने वाला दूध (गाय के न चाहने पर भी) थनों में आ जाता है। यह बड़ा भारी पाप है। जो दूध गाय के सूई लगाकर दूहा जाता है, वो दूध खरीदें भी नहीं। सूई लगाकर दूहा हुआ दूध दूध नहीं है वो तो गाय का खून माना गया  है। यथा-

आपसे आया दूध बराबर माँग कै लिया पाणी।
खैंचाताणी खून बराबर यह संतों की बाणी।।

इसके सिवाय मनुष्य को चाहिये कि दसों दोषों का और सभी व्यसनों का त्याग करदें।

दस दोष ये हैं-

(शरीर के तीन दोष-) १.चोरी, २.जारी (परस्त्री गमन,परपुरुष गमन- व्यभिचार), ३.जीव हिंसा, (वाणी के चार दोष-) ४.निन्दा (किसी के दोष को दूसरे के आगे प्रकट करके दूसरों में उस के प्रति दुर्भाव पैदा करना। गीता साधक-संजीवनी १६/२ की व्याख्या से), ५.झूठ, ६.कठौर बोलना आदि,७.वाचालता (आवश्यकता से अधिक बोलना,बकवाद), (मन के तीन दोष-) ८.चिन्ता, ९.तृष्णा,और १०.द्वेष।

चोरी जारी जीव हत्या तन रा दोष है तीन।
निन्दा झूठ कठौरता वाकचाल वाचीन।
चिन्ता तृष्णा द्वेष [ये मन के दोष भी तीन]।
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के श्रीमुख से सुने हुए)।

सात व्यसन ये हैं-

जुआखेलना,मदिरापान,मांसभक्षण,वेश्यागमन, शिकार (हत्या) करना,चोरी करना और परस्त्रीगमन- ये सात व्यसन तो घोरातिघोर नरकों में ले जाने वाले हैं*। इनके सिवाय चाय, काफी, अफीम, बीड़ी-सिगरेट आदि पीना और तास-चौपड़, खेल-तमाशा, सिनेमा देखना,वृथा बकवाद,वृथा चिन्तन आदि जो भी पारमार्थिक उन्नतिमें और न्याय-युक्त धन आदि कमाने में बाधक हैं,वे सब-के-सब व्यसन हैं।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक 'साधन-सुधा-सिन्धु' , आवश्यक शिक्षा, पृष्ठ संख्या ९२१ से)।

इस प्रकार आजकल आवश्यक और उपयोगी इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये। 

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कुछ और उपयोगी बातें ये हैं- 

प्याज और लहसुन का तो कई जने सेवन नहीं करते,पर कई लोग गाजरका भक्षण कर लेते हैं।

लेकिन यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि 'श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' बिना एकादशी के भी गाजर खाने का निषेध करते थे।

श्री सेठजी एकादशीके दिन साबूदाना खानेका भी निषेध करते थे कि इसमें चावलका अंश मिलाया हुआ होता है।

(आजकल साबूदाने भी नकली आने लग गये हैं)।

एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है ;  क्योंकि ब्रह्महत्या आदि बड़े-बड़े पाप एकादशी के दिन चावलों में निवास करते हैं, चावलों में रहते हैं । ऐसा ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।

जो एकादशी के दिन व्रत नहीं रखते,अन्न खाते हैं, उनके लिये भी एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है।

स्मृति आदि ग्रंथों को मुख्य मानने वाले स्मार्त एकादशी व्रत करते हैं और भगवानको,(तथा वैष्णवों, संन्तो-भक्तों को) मुख्य मानने वाले वैष्णव एकादशी व्रत करते हैं ।

एकादशी चाहे वैष्णव हो अथवा स्मार्त हो; चावल खाने का निषेध दोनों में है।

परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज वैष्णव एकादशी व्रत,वैष्णव जन्माष्टमी व्रत आदि ही करते थे और मानते थे ।

×××

एकादशीको हल्दीका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि हल्दीकी गिनती अन्नमें आयी है (हल्दीको अन्न माना गया है)।

साँभरके नमक का प्रयोग भी एकादशी आदि व्रतोमें नहीं करना चाहिये ; क्योंकि साँभर झील (जिसमें नमक बनता है,उस) में कोई जानवर गिर जाता है,मर जाता है तो वो भी नमकके साथ नमक बन जाता है (इसलिये यह नमक अशुद्ध माना गया है)।

सैंधा नमक काममें लेना ठीक रहता है। सैंधा नमक पत्थरसे बनता है,इसलिये अशुद्ध​ नहीं माना गया।

एकादशीके अलावा भी फूलगोभी नहीं खानी चाहिये। फूलगोभी में जन्तु बहुत होते हैं।

[बैंगन भी नहीं खाने चाहिये। शास्त्र का कहना है कि जो बैंगन खाता है,भगवान उससे दूर रहते हैं]।

उड़द और मसूरकी दाळ भी वर्जित है।

'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'ने बताया है कि नमक जल है।

 जिस वस्तुमें नमक और जलका प्रयोग हुआ हो,ऐसी कोई भी वस्तु बाजारसे न लें; क्योंकि नमक जल है (नमकको जल माना गया है) और जलके छूत लगती है।

(अस्पृश्यके स्पर्श हो गया तो स्पर्श दोष लगता है।

इसके अलावा पता नहीं कि वो किस घरका बना हुआ है और किसने, कैसे बनाया है)।

हींग भी काममें न लें; क्योंकि वो चमड़ेमें  डपट करके, बन्द करके रखी जाती है,नहीं तो उसकी सुगन्धी चली जाय अथवा  कम हो जाय ।

हींगकी जगह हींगड़ा काममें लाया जा सकता है।

सोने चाँदी के वर्क लगी हुई मिठाई नहीं खानी चाहिये; क्योकि ये (गाय या) बैलकी आँतमें रखकर बनाये जाते हैं। बैलकी आँतमें छौटासा सोने या चाँदीका टुकड़ा रखकर, उसको हथौड़ेसे पीट-पीटकर फैलाया जाता है और इस प्रकार ये सोने तथा चाँदीके वर्क बनते हैं।

इसलिये न तो वर्क लगी हुई मिठाई काम में लावें,न खावें और न मिठाईके वर्क लगावें।

इस के सिवाय अपना कल्याण चाहने वालों को (बिना एकादशी के भी) मांस,मदिरा तथा और भी अभक्ष्य खान-पान आदि नहीं करने चाहिये, इनसे बचना चाहिये और लोगों को भी ये बातें बताकर बचाना चाहिये ।

लाखकी चूड़ियाँ काममें न लावें; क्योंकि लाखमें लाखों (अनगिनत) जीवोंकी हत्या होती है।

मदिरामें भी असंख्य जीवोंकी हत्या होती है। मदिरा बनाते समय पहले उसमें सड़न पैदा की जाती है,जो असंख्य जीवोंका समुदाय होता है। फिर उसको भभके से गर्म करके उसका अर्क (रस) निकाला जाता है। उसको मदिरा कहते हैं। इसकी गिनती चार महापापों (ब्रह्महत्या, सुरापान,सुवर्ण या रत्नोंकी चोरी और गुरुपत्निगमन) में आयी है।

तीन वर्ष तक कोई महापापीके साथमें रह जाय,तो (पाप न करने पर भी) उसको भी वही दण्ड होता है जो महापापीको होता है।

जिस घर में एक स्त्री के भी अगर गर्भपात करवाया हुआ हो तो उस घर का अन्न खाने योग्य नहीं होता (और उस घर का जल भी पीने योग्य नहीं होता)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज उस घर का अन्न नहीं खाते थे (उस घर की भिक्षा का अन्न लेना छोड़ दिया था)। गर्भपात ब्रह्महत्या से भी दूना पाप है। 

अधिक जानने के लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक - "पहापाप से बचो" पढ़ें।

('सुहागिन स्त्री को एकादशी व्रत करना चाहिये या नहीं ? कह, करना चाहिये।
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शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

अपनी फोटोका निषेध क्यों है? (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज अपनी फोटोका निषेध करते थे)।

                       ।।:श्रीहरि:।।

अपनी फोटोका निषेध क्यों है?

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज अपनी फोटोका निषेध करते थे)। 

आजकल कई लोग श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के चित्र (चुपचाप) एक-दूसरेको देने लग गये हैं। ऐसा करना लाभदायक नहीं है।

कई लोग श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके नामसे एक चित्रको एक-दूसरेके मोबाइल आदि पर भेजने लग गये हैं। जानकार लोगों का कहना है कि यह चित्र श्रीस्वामीजी महाराज का नहीं है, किसी फोटोग्राफर ने दूसरे महात्मा के चित्र को एडिट करके ऐसा बना दिया है कि वो चित्र श्रीस्वामीजी महाराज के चित्र जैसा लगे।  इसमें वो चश्मा लगाये हुए,दाहिने हाथके द्वारा पीछे सहारा लिये हुए और अपने एक (दाहिने) पैर पर दूसरा (बायाँ) पैर रखे हुए तथा घुटनेपर बायाँ हाथ धरे हुए दिखायी दे रहे हैं। उस चित्रके नीचे किसीने नाम  लिख दिया कि ये 'रामसुखदास जी महाराज' हैं।लेकिन यह अनुचित है। (वो अपने चित्र के लिये मना करते थे। ऐसे ही सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका भी अपने चित्र-प्रचार के लिए मना करते थे)।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि महापुरुषोंके कहनेके अनुसार जो नहीं करता है, तो (आज्ञा न माननेसे) वो उस लाभसे वञ्चित रहता है(दण्डका भागी नहीं होता) परन्तु जिसके लिये महापुरुषोंने निषेध किया है , मना किया है , उस आज्ञाको कोई नहीं मानता है तो उसको दण्ड होता है।
( एक व्यक्ति ने किन्ही संतों के मना करने पर भी वो काम कर दिया । इस कारण उसके वंश का ही नाश हो गया)।

(ज्यादा समझनेके लिये 'एक संतकी वसीयत' नामक पुस्तक पढें और पढावें)।

कई लोगोंके मनमें रहती है कि हमने श्री स्वामीजी महाराजके दर्शन नहीं किये। अब अगर उनका चित्र भी मिल जाय तो दर्शन करलें। ऐसे लोगोंके लिये तो सत्संगियोंके भी मनमें आ जाती है कि इनको चित्रके ही दर्शन करवादें। इनकी बड़ी लगन है।लेकिन यह उचित नहीं है। अगर उचित और आवश्यक होता तो श्री स्वामीजी महाराज ऐसे लोगोंके लिये व्यवस्था कर देते। लोगोंका आग्रह होने पर भी श्री महाराजजीने चित्र-दर्शनके लिये व्यवस्था करना और करवाना तो दूरकी बात है,उन्होने ऐसी व्यवस्था करनेवालोंको भी मना कर दिया।।

महापुरुषोंके सिद्धान्त के अनुसार यह चित्र-दर्शन करवाना भी उचित नहीं है; क्योंकि अगर ऐसा उचित या आवश्यक होता तो श्री महाराजजी कमसे कम एक-दो जनोंके लिये तो यह सुविधा कर ही सकते थे । क्या उस समय ऐसे भावुकों की यह चाहना नहीं थी?

हमने तो सुना है कि जोधपुरमें किसी भावुकने श्री महाराजजीकी फोटुएँ बनवा कर कई लोगेंको दे दी। तब श्री महाराजजीने लोगोंसे वो फोटुएँ वापस मँगवायी और लोगोंने वो फोटुएँ वापस लाकर दीं। कहते हैं कि काफी फोटू वापस इकठ्टे हो गये थे। फिर उनको जलाया गया।

इसका वर्णन 'विलक्षण संत-विलक्षण वाणी' नामक पुस्तकमें भी है।इसमें महाराजजी द्वारा अपनी फोटो-प्रचारके खिलाफ लिखाये गये पत्र भी दिये हैं और क्यों महाराजजी वृन्दावनसे जोधपुर पधारे तथा लोगोंको क्या-क्या कहा-इसका भी वर्णन है।

BOOK- विलक्षण संत-विलक्षण वाणी - स्वामी रामसुखदास जी - Google समूह - https://groups.google.com/forum/m/#!msg/gitapress-literature/A7HF0iky-QU/YdG9gooWVpwJ

यह जो पता (BOOK- विलक्षण संत-विलक्षण वाणी - स्वामी रामसुखदास जी…) दिया गया है, इस पुस्तकमें 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का जोधपुरमें किये गये 'चित्र-प्रचारका दुख' भी बताया गया है। उसमें यह भी बताया गया है कि यह चित्र प्रचार नरकोंमें जाने का रास्ता है।

श्री महाराजजीने अपनी वसीयतमें भी चित्रका निषेध किया है।

एक बार श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजसे किसीने पूछा कि लोगोंको आप अपना फोटो क्यों नहीं देते हैं? कई संत तो अपनी फोटो भक्तोंको देते हैं। (और वो भक्त दर्शन, पूजन आदिके द्वारा लाभ उठाते हैं)। आप भी अगर अपनी फोटो लोगोंको दें,तो लोगोंको लाभ हो जाय।

तब श्री महाराजजी बोले कि हमलोग अगर अपनी फोटो देने लग जायेंगे तो भगवानकी फोटो बन्द हो जायेगी। (यह काम भगवद्विरोधी है)।

एक बार किसीने श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजको उनके बचपनकी फोटो दिखायी,जिसमें श्री महाराजजी अपने गुरु श्री १००८ कन्नीरामजी महाराजके पास हाथ जोड़े खड़े हैं। उस चित्रको देखकर महाराजजीने निषेध नहीं किया कि इस फोटोको मत रहने दो या लोगोंको मत दिखाओ आदि। इस घटनासे कई लोग उस चित्रके चित्रको अपने पासमें रखने लग गये और दूसरोंको भी देने लग गये कि इस चित्रके लिये श्री महाराजजीकी मनाही नहीं है। उस चित्रके लिये शायद श्री महाराजजीने इसलिये मना नहीं किया कि साथमें श्री गुरुजी हैं। इस चित्रके लिये श्री महाराजजीने न तो हाँ कहा और न ना कहा। इसलिये इस चित्रका दर्शन कोई  किसीको करवाता है अथवा कोई करने को कहता है तो घाटे-नफेकी जिम्मेदारी स्वयं उन्ही पर है

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
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गुरुवार, 17 अगस्त 2017

१.सूवा-सूतकमें भगवानकी पूजा करें अथवा नहीं?  कह,करें। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि करें (बिना प्राण-प्रतिष्ठावाली मूर्तिकी करें)।

                                 ।।श्रीहरि:।।

१.सूवा-सूतकमें भगवानकी पूजा करें अथवा नहीं?  कह,करें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि करें (बिना प्राण-प्रतिष्ठावाली मूर्तिकी करें)।

(एक सज्जनने प्रश्न लिखा है-) प्रश्न- जन्मके आशौच या मरणके आशौच में, भोजन करने से पहले उसको भगवान् के अर्पण करें अथवा नहीं? -

उत्तर-
(अपने भगवानके अर्पण करें।)

श्रद्धेय  स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि
भगवानकी जिस मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा करवाई गई है,(वो मूर्ति प्राणधारी है ,इसलिये)उस मूर्तिकी तो जैसे एक प्राणधारी मनुष्यकी सेवा होती है,वैसे ही भगवानकी उस मूर्तिकी भी  सेवा,पूजा होनी चाहिये (उनके भोजन,वस्त्र,ठण्डी गर्मी,आराम आदिका ध्यान रखना चाहिये)।

सूवा-सूतकमें भगवानकी उस मूर्तिकी सेवा-पूजा तो ब्राह्मण आदिसे करवावें;अथवा ब्याही हुई कन्या हो तो उससे करवावें;

परन्तु जिस मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं करवाई गई है , वे ठाकुरजी तो  अपने घरके सदस्यकी तरह ही हैं।

उन अपने भगवानके सूवा-सूतक हमारे साथमें ही लगते हैं और हमारे  साथमें ही उतरते हैं।

(इसलिये सूवा-सूतकमें भी भगवानकी पूजा-अर्चा न छोड़ें,जैसे हम स्नान,भोजन आदि सूवा-सूतकमें भी करते हैं, छोङते नहीं; ऐसे ही भगवानके भी करने चाहिये,  छोङने नहीं चाहिये)।

भगवान् का नाम हर अवस्था में लेना चाहिए। भगवानके नाम के लिए किसी भी अवस्थामें मना नहीं है,चाहे कोई शुद्ध अवस्थामें हो या अशुद्ध अवस्थामें हो,भगवानका नाम हर अवस्थामें लिया जा सकता है और लेना चाहिये।भगवानके नाम लेनेमें कोई मनाही नहीं है।

परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि अगर यह धारणा बनाली कि अशुद्ध अवस्थामें भगवानका नाम नहीं लेना है, तो गजब हो जायेगा; क्योंकि मरनेवाले प्राय: अशुद्ध अवस्थामें ही मरते हैं और उस समय अगर यह धारणा रही कि अशुद्ध अवस्थामें भगवानका नाम नहीं लेना है और वो भगवानका नाम नहीं लेगा तो मुक्तिसे वंचित रह जायेगा, मुक्ति नहीं होगी।

इसलिये भगवानके नाममें यह धारणा न बनायें। 

चाहे कोई शुद्ध हो या अशुद्ध हो,भगवानका नाम हर अवस्थामें लिया जा सकता है और लेना चाहिये। शुद्धि-मन्त्र में भी यही कहा गया है- 

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा। 

 यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।  

इसलये सूवा-सूतकमें भी भगवानका नाम लेना चाहिये, छोड़ना नहीं चाहिये। भगवान् की पूजा भी करनी चाहिये और भोग भी लगाना चाहिये। भगवान् हमारे (घरके) हैं , अपने हैं। 



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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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