।।श्री हरि।।
१.कुछ आवश्यक और उपयोगी बातें।
महान भजन क्या है?
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि-
किसी को किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो- यह भाव महान भजन है।
ऐसे व्यक्ति का तो मुख देखने से ही पाप झड़ जाते हैं, मिट जाते हैं (देखने वाले व्यक्ति के पाप मिट जाते हैं)-
तन कर मन कर बचन कर देत न काहुहि दुःक्ख।
तुलसी पातक झरत है देखत उसके मुक्ख।।
भलाई करने वाला चाहे संसार की कितनी ही बड़ी सेवा करदे, भलाई करदे; वो सीमित ही होगी; परन्तु बुराई छोड़ देने पर, बुराई रहित हो जाने पर दुनियाँ की असीम सेवा होगी। बुराई रहित होना इतनी बड़ी सेवा है कि जिसका कोई पारावार नहीं। यह दुनियाँ की सबसे बड़ी सेवा है, अपार सेवा है। बुराई रहित होने वाले का कल्याण हो ही जायेगा। परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।
बुराई रहित होने के लिए श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने मुख्य तीन उपाय बताये हैं-
१.(बुद्धि के द्वारा) किसी को बुरा न समझना। २.(मन के द्वारा) किसी का बुरा न चाहना और ३.(शरीर के द्वारा) किसीका बुरा न करना।
इनके अलावा कानों के द्वारा बुरा न सुनना, आँखों के द्वारा बुरा न देखना और मुख के द्वारा बुरा न कहना। किसी को भी बुरा न समझना। न दूसरों को (बुरा समझना) और न अपने को बुरा समझना। ये भी बुराई रहित होने में सहायक हैं।
सब जग ईश्वर रूप है भलो बुरो नहिं कोय।
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।।
हमेशा यह सावधानी रखनी चाहिये कि हमारे द्वारा किसी को कष्ट तो नहीं हो रहा है। हमेशा दूसरों का दुःख दूर करने की मन में रहनी चाहिये, कोशिश रहनी चाहिये। हम कुछ सावधानियाँ रखें तो दुनियाँ की बड़ी भारी सेवा हो जाय और हम अनेक बुराईयों से बच जायँ।
जैसे -
कूड़े- कचरे के आग न लगावें; क्योंकि इसके साथ में अनेक जीव- जन्तु जिन्दे ही जल जाते हैं। किसीने आग लगा भी दी हो तो उसे बुझादें।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज इसका बड़े जोर से निषेध करते थे और इसको बड़ा भारी पाप मानते थे। कहीं कचरे के आग लगी देखते तो तुरन्त संतों को कहकर वो आग बुझवाते थे।
चूल्हा या गैस आदि जलाने से पहले उसको झाड़लें। अचानक जला देने से वहाँ के जीव जन्तु जल जाते हैं।
रात्रि में जहाँ रोशनी (प्रकाश) को देखकर जीव जन्तु,पतिंगे आदि आते हों तो वो रोशनी (लाइट) न जलाएँ। जलाना जरूरी हो जाय तो (जीव जन्तुओं की रक्षा करते हुए) जल्दी ही वापस बन्द कर देवें।
सांप, बिच्छू, छिपकली, खटमल, जूँ, मच्छर आदि जीवों को मारें नहीं। ये घर में आ जायँ तो इनको सावधानी पूर्वक पकड़ कर बाहर छोड़दें।
मच्छरों को 'धुआँ करना' 'उड़ा कर बाहर ले जाना' आदि उपायों के द्वारा सुरक्षित बाहर निकाल दें, मारें नहीं।
जब कमरे में से मच्छरों को बाहर निकालने के लिए धुआँ किया जाय तो एक दरवाजा या खिड़की खोलदें,जिससे वो मच्छर बाहर जा सके। भीतर ही दम घुटकर मर न जाय।
बिना धुएँ के भी अगर मच्छर जाली वाली खिड़की में अटक रहे़ हों, बाहर नहीं जा पा रहे हों तो खिड़की को खोल कर उनको बाहर करदें और खिड़की को वापस बन्द करलें।
मकड़ी, तिलचट्टा, चींटी, दीमक (उदाई), घुन, इल्ली, चूहे आदि जीवों को मारें नहीं।
घर में पहले से ही साफ-सफाई आदि सावधानी रखें कि जिससे घर में ऐसे जीव जन्तु पैदा ही न हों। ज़हरीले पाउडर आदि का प्रयोग करके जीव जन्तुओं को मारें नहीं। खेती में भी जहर छिड़क कर जीवों को मारें नहीं। यह तो इतना बड़ा भारी पाप है कि कह नहीं सकते।
घरकी साफ-सफाई आदि करते समय पहले ही ध्यान से देखलें कि यहाँ चींटी आदि कोई बहुत छोटे-छोटे जीव जन्तु तो नहीं है? अगर चींटी आदि जानवर हो तो पहले कोमल, फूलझाडू आदि से धीरे-धीरे उनको वहाँ से दूर करदें और उनके वापस आने से पहले ही भीगे कपड़े आदि से सफाई करलें। ध्यान रखें कि पौंछा लगाते समय जीव जन्तु साथ में ही न मसल दिये जायँ।
आसन आदि बिछाते समय, बिछाने से पहले उस जगह को झाड़कर बिछावें जिससे कि कोई जीव जन्तु उसके नीचे दबकर न मर जाय।
शौचाचार और सदाचार का सदा पालन करें।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि कम-से-कम अन्न और जल के तो हाथ धोकर (ही) लगावें। बिना धोये अन्न और जल के हाथ न लगावें।
अन्न और जल को व्यर्थ बर्बाद न होने दें। जो अन्न को व्यर्थ, बर्बाद करता है तो उसको बिना अन्न के भूखों मरना पड़ेगा। जो जल को बर्बाद करता है,टूँटी खोलदी और जल एसे ही गिर रहा है; तो अगाड़ी उसको बिना जल के प्यासे मरना पड़ेगा। उसको अगाड़ी जल नहीं मिलेगा।
इसी प्रकार दूसरी बातों (समय, अच्छा नौकर, सज्जन मालिक, सन्तान, मनुष्य शरीर, संत- महात्मा और सन्त महात्माओं से लाभ, सत्संग आदि के विषय) में भी समझ लेना चाहिये।
जल में बहुत सूक्ष्म जीव होते हैं,आँखों से दीखाई नहीं देते। इसलिए पानी को हमेशा गाढ़े दुपट (डब्बल) कपड़े से छानकर काम में लें। जल छानने के बाद में युक्ति से जीवाणूँ करें, उस कपड़े पर अटके जीवों को बहते हुए पानी में या पर्याप्त स्थायी पानी में छोड़ें अर्थात् उस कपड़े के जिस तरफ जीव अटके हुए हैं, लगे हुए हैं, उसके ऊपर वाले दोनों किनारों पर, एक (पहले) छोर से शुरू करके दूसरे छोर तक और दूसरे छोर से शुरू करके वापस पहले छोर तक , इस प्रकार सावधानी से छने हुए जल की धारा गिरावें कि जिससे वो अटके हुए सभी सूक्ष्म जीव वापस पानी में चले जायँ। (इस काम को 'जीवाणूँ करना' कहा जाता है)।
इस प्रकार अगर जीवाणूँ नहीं की गई अर्थात् उन अटके हुए सूक्ष्म जीवों को छना हुआ जल डालकर वापस पानी में नहीं छोड़ा गया तो वो जीव (शीघ्र ही) मर जायेंगे। इसलिए जल छानने के बाद में सदा उन जीवों के बचाव का उपाय जरूर करें। हमेशा छना हुआ जल ही काम में लावें।
श्री स्वामीजी महाराज बताते हैं कि-
जल में झीणा जीव लखे नहिं कोय रे।
अणछाण्यो जल पियै पाप बहु होय रे।।
गाढ़ो पट करि दुपट छाणकर पीजिये।
जीवाणूँ जल माँय जुगत से कीजिये।।
छ: घंटे के बाद छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं, इसलिये उसको दुबारा छानना चाहिये। चातुर्मास में तो चार घंटे के बाद में ही उसमें जीव पैदा होने लगते हैं। इसलिये उस पानी को दुबारा छानना चाहिये और अन्य समय में छः घंटे के बाद में दुबारा छानना चाहिये। इसमें दो घंटे की छूट ली जा सकती है अर्थात चार घंटे की जगह छः घंटे और छः घंटे की जगह आठ घंटे बाद में दुबारा जल छान सकते हैं।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज तो सब कामों में इस प्रकार छना हुआ जल ही काम में लेते थे, खान-पान और शौच-स्नान आदि सब में छना हुआ जल ही काम में लाते थे।
दूध को भी छानकर काम में लेवें। उसमें रोआँ (गाय का बाल) न आ जाय; क्योंकि रोआँ गाय को दुख देकर आया (टूटा) है।
(भोजन में तो गाय के अलावा दूसरों का बाल आ जाय तो भी वो भोजन त्याज्य हो जाता है, करने योग्य नहीं रहता, उसका त्याग कर देना चाहिये। भोजन में ऊपर से गिरा हुआ बाल तो निकाला जा सकता है; पर अगर बाल भोजन के साथ में ही सीझ गया हो तो वो भोजन त्याज्य है)।
गाय के सूई लगा कर उसका दूध न दूहें। सूई लगाने से गाय को बड़ा भारी दुःख होता है, गाय परवश हो जाती है। गाय के अंग-अंग ढ़ीले पड़ जाते हैं जिससे गाय के शरीर में रहने वाला दूध (गाय के न चाहने पर भी) थनों में आ जाता है। यह बड़ा भारी पाप है। जो दूध गाय के सूई लगाकर दूहा जाता है, वो दूध खरीदें भी नहीं।
सूई लगाकर दूहा हुआ दूध, दूध नहीं है। वो तो गाय का खून माना गया है।
यथा-
आपसे आया दूध बराबर माँग कै लिया पाणी।
खैंचाताणी खून बराबर यह संतों की बाणी।।
इसके सिवाय मनुष्य को चाहिये कि दसों दोषों का और सभी व्यसनों का त्याग करदें।
दस दोष ये हैं-
(शरीर के तीन दोष-) १.चोरी, २.जारी (परस्त्री गमन,परपुरुष गमन- व्यभिचार), ३.जीव हिंसा, (वाणी के चार दोष-) ४.निन्दा (किसी के दोष को दूसरे के आगे प्रकट करके दूसरों में उस के प्रति दुर्भाव पैदा करना। गीता साधक-संजीवनी १६/२ की व्याख्या से), ५.झूठ, ६.कठौर बोलना आदि,७.वाचालता (आवश्यकता से अधिक बोलना,बकवाद), (मन के तीन दोष-) ८.चिन्ता, ९.तृष्णा,और १०.द्वेष।
चोरी जारी जीव हत्या तन रा दोष है तीन।
निन्दा झूठ कठौरता वाकचाल वाचीन।
चिन्ता तृष्णा द्वेष [ये मन के दोष भी तीन]।
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के श्रीमुख से सुने हुए)।
सात व्यसन ये हैं-
जुआखेलना,मदिरापान,मांसभक्षण,वेश्यागमन, शिकार (हत्या) करना,चोरी करना और परस्त्रीगमन- ये सात व्यसन तो घोरातिघोर नरकों में ले जाने वाले हैं*। इनके सिवाय चाय, काफी, अफीम, बीड़ी-सिगरेट आदि पीना और तास-चौपड़, खेल-तमाशा, सिनेमा देखना,वृथा बकवाद,वृथा चिन्तन आदि जो भी पारमार्थिक उन्नतिमें और न्याय-युक्त धन आदि कमाने में बाधक हैं,वे सब-के-सब व्यसन हैं।
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक 'साधन-सुधा-सिन्धु' , आवश्यक शिक्षा, पृष्ठ संख्या ९२१ से)।
इस प्रकार आजकल, आवश्यक और उपयोगी, इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिये।
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कुछ और उपयोगी बातें ये हैं-
प्याज और लहसुन का तो कई जने सेवन नहीं करते,पर कई लोग गाजरका भक्षण कर लेते हैं।
लेकिन यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि 'श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' (बिना एकादशी के भी) गाजर खाने का निषेध करते थे।
श्री सेठजी एकादशीके दिन साबूदाना खानेका भी निषेध करते थे कि इसमें चावलों का अंश मिलाया हुआ होता है।
(आजकल साबूदाने भी नकली आने लग गये हैं)।
एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है ; क्योंकि ब्रह्महत्या आदि बड़े-बड़े पाप एकादशी के दिन चावलों में निवास करते हैं, चावलों में रहते हैं । ऐसा ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।
जो एकादशी के दिन व्रत नहीं रखते,अन्न खाते हैं, उनके लिये भी एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है।
स्मृति आदि ग्रंथों को मुख्य मानने वाले "स्मार्त एकादशीव्रत" करते हैं और भगवानको,(तथा वैष्णवों, संन्तो-भक्तों को) मुख्य मानने वाले "वैष्णव एकादशीव्रत" करते हैं ।
एकादशी चाहे वैष्णव हो अथवा स्मार्त हो; चावल खाने का निषेध दोनों में ही है।
परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज "वैष्णव एकादशीव्रत", "वैष्णव जन्माष्टमीव्रत" आदि ही करते थे और मानते थे ।
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एकादशीको हल्दीका प्रयोग नहीं करना चाहिये; क्योंकि हल्दीकी गिनती अन्नमें आयी है (हल्दीको अन्न माना गया है)।
साँभरके नमक का प्रयोग भी एकादशी आदि व्रतोमें नहीं करना चाहिये ; क्योंकि साँभर झील (जिसमें नमक बनता है,उस) में कोई जानवर गिर जाता है,मर जाता है तो वो भी नमकके साथ नमक बन जाता है (इसलिये यह नमक अशुद्ध माना गया है)।
सैंधा नमक काममें लेना ठीक रहता है। सैंधा नमक पत्थरसे बनता है,इसलिये अशुद्ध नहीं माना गया।
एकादशीके अलावा भी फूलगोभी नहीं खानी चाहिये। फूलगोभी में जन्तु बहुत होते हैं।
[बैंगन भी नहीं खाने चाहिये। शास्त्र का कहना है कि जो बैंगन खाता है,भगवान उससे दूर रहते हैं]।
उड़द और मसूरकी दाळ भी वर्जित है।
'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' बताते हैं कि नमक जल है (नमक को जल माना गया है और जल के छूत लगती है)। जिस वस्तु में नमक और जल का प्रयोग हुआ हो,ऐसी कोई भी वस्तु बाजार से न लें; क्योंकि इनके छूत लगती है।
(अस्पृश्यके स्पर्श हो गया तो स्पर्श दोष लगता है।
इसके अलावा पता नहीं कि वो किस घरका बना हुआ है और किसने, कैसे बनाया है)।
हींग भी काममें न लें; क्योंकि वो चमड़ेमें डपट करके, बन्द करके रखी जाती है,नहीं तो उसकी सुगन्धी चली जाय अथवा कम हो जाय ।
हींगकी जगह हींगड़ा काममें लाया जा सकता है।
सोने चाँदी के वर्क लगी हुई मिठाई नहीं खानी चाहिये; क्योकि ये (गाय या) बैलकी आँतमें रखकर बनाये जाते हैं। बैलकी आँतमें छौटासा सोने या चाँदीका टुकड़ा रखकर, उसको हथौड़ेसे पीट-पीटकर फैलाया जाता है और इस प्रकार ये सोने तथा चाँदीके वर्क बनते हैं।
इसलिये न तो वर्क लगी हुई मिठाई काम में लावें,न खावें और न मिठाईके वर्क लगावें।
इस के सिवाय अपना कल्याण चाहने वालों को (बिना एकादशी के भी) मांस,मदिरा तथा और भी अभक्ष्य खान-पान आदि नहीं करने चाहिये, इनसे बचना चाहिये और लोगों को भी ये बातें बताकर बचाना चाहिये ।
लाखकी चूड़ियाँ काममें न लावें; क्योंकि लाखमें लाखों (अनगिनत) जीवोंकी हत्या होती है।
मदिरामें भी असंख्य जीवोंकी हत्या होती है। मदिरा बनाते समय पहले उसमें सड़न पैदा की जाती है,जो असंख्य जीवोंका समुदाय होता है। फिर उसको भभके से, गर्म करके उसका अर्क (रस) निकाला जाता है। उसको मदिरा कहते हैं।
इसकी गिनती चार महापापों (ब्रह्महत्या, सुरापान,सुवर्ण या रत्नोंकी चोरी और गुरुपत्निगमन) में आयी है।
तीन वर्ष तक कोई महापापीके साथमें रह जाय,तो (पाप न करने पर भी) उसको भी वही दण्ड होता है जो महापापीको होता है।
जिस घर में एक स्त्री के भी अगर गर्भपात करवाया हुआ हो तो उस घर का अन्न खाने योग्य नहीं होता (और उस घर का जल भी पीने योग्य नहीं होता)।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज उस घर का अन्न नहीं खाते थे (उस घर की भिक्षा का अन्न लेना छोड़ दिया था)। गर्भपात ब्रह्महत्या से भी दूना पाप है।
अधिक जानने के लिये श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की पुस्तक - "पहापाप से बचो" पढ़ें।
गर्भपात का प्रायश्चित्त-
अगर कोई गर्भपात का पाप मिटाना चाहें तो श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने उसका यह उपाय (प्रायश्चित्त) बताया है -
बारह महीनों तक रोजाना (प्रतिदिन) भगवान् के सवा लाख नाम का जप करें।
(ये जप बिना नागा किये रोजाना करने चाहिये। षोडस मन्त्र या चतुर्दश मन्त्र से जप जल्दी और सुगमतापूर्वक हो सकते हैं)।
('सुहागिन स्त्री को एकादशी व्रत करना चाहिये या नहीं ? कह, करना चाहिये।
http://dungrdasram.blogspot.in/2016/08/blog-post_13.html?m=1' नामक लेख से)।
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■ सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/
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