गुरुवार, 17 अगस्त 2017

१.सूवा-सूतकमें भगवानकी पूजा करें अथवा नहीं?  कह,करें। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि करें (बिना प्राण-प्रतिष्ठावाली मूर्तिकी करें)।

                                 ।।श्रीहरि:।।

१.सूवा-सूतकमें भगवानकी पूजा करें अथवा नहीं?  कह,करें।

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि करें (बिना प्राण-प्रतिष्ठावाली मूर्तिकी करें)।

(एक सज्जनने प्रश्न लिखा है-) प्रश्न- जन्मके आशौच या मरणके आशौच में, भोजन करने से पहले उसको भगवान् के अर्पण करें अथवा नहीं? -

उत्तर-
(अपने भगवानके अर्पण करें।)

श्रद्धेय  स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया है कि
भगवानकी जिस मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा करवाई गई है,(वो मूर्ति प्राणधारी है ,इसलिये)उस मूर्तिकी तो जैसे एक प्राणधारी मनुष्यकी सेवा होती है,वैसे ही भगवानकी उस मूर्तिकी भी  सेवा,पूजा होनी चाहिये (उनके भोजन,वस्त्र,ठण्डी गर्मी,आराम आदिका ध्यान रखना चाहिये)।

सूवा-सूतकमें भगवानकी उस मूर्तिकी सेवा-पूजा तो ब्राह्मण आदिसे करवावें;अथवा ब्याही हुई कन्या हो तो उससे करवावें;

परन्तु जिस मूर्तिकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं करवाई गई है , वे ठाकुरजी तो  अपने घरके सदस्यकी तरह ही हैं।

उन अपने भगवानके सूवा-सूतक हमारे साथमें ही लगते हैं और हमारे  साथमें ही उतरते हैं।

(इसलिये सूवा-सूतकमें भी भगवानकी पूजा-अर्चा न छोड़ें,जैसे हम स्नान,भोजन आदि सूवा-सूतकमें भी करते हैं, छोङते नहीं; ऐसे ही भगवानके भी करने चाहिये,  छोङने नहीं चाहिये)।

भगवान् का नाम हर अवस्था में लेना चाहिए। भगवानके नाम के लिए किसी भी अवस्थामें मना नहीं है,चाहे कोई शुद्ध अवस्थामें हो या अशुद्ध अवस्थामें हो,भगवानका नाम हर अवस्थामें लिया जा सकता है और लेना चाहिये।भगवानके नाम लेनेमें कोई मनाही नहीं है।

परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज बताते हैं कि अगर यह धारणा बनाली कि अशुद्ध अवस्थामें भगवानका नाम नहीं लेना है, तो गजब हो जायेगा; क्योंकि मरनेवाले प्राय: अशुद्ध अवस्थामें ही मरते हैं और उस समय अगर यह धारणा रही कि अशुद्ध अवस्थामें भगवानका नाम नहीं लेना है और वो भगवानका नाम नहीं लेगा तो मुक्तिसे वंचित रह जायेगा, मुक्ति नहीं होगी।

इसलिये भगवानके नाममें यह धारणा न बनायें। 

चाहे कोई शुद्ध हो या अशुद्ध हो,भगवानका नाम हर अवस्थामें लिया जा सकता है और लेना चाहिये। शुद्धि-मन्त्र में भी यही कहा गया है- 

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा। 

 यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।  

इसलये सूवा-सूतकमें भी भगवानका नाम लेना चाहिये, छोड़ना नहीं चाहिये। भगवान् की पूजा भी करनी चाहिये और भोग भी लगाना चाहिये। भगवान् हमारे (घरके) हैं , अपने हैं। 



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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

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