सोमवार, 14 जनवरी 2019

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता।( --श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन) । 

                           ।।श्रीहरिः। ।

परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका की विलक्षणता।

( -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के  दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन) । 

 ( 0 मिनिट से) नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण । 

देखो! आप मानें, न मानें और न मानें तो मेरा कोई आग्रह नहीं, अर मानें तो लाभ की बात है, और नईं (नहीं) मानें तो ई (भी) < > म्हाँरे (हमारे) कोई, नरक चले जाओगे उस समय - आ (यह) बात नहीं (है)।

श्री गोयन्दकाजी को, सेठजी गोयन्दकाजी, जो रहा - जयदयालजी गोयन्दका। उनको मैं तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुष मानता हूँ। और ये मैं (मैंने) माना है। अर(और), उनकी लेखिनी पढ़ी है, उनके साथमें रहा हूँ, उनके आचरण देखे हैं। और देखणे से वो बात दृढ़ होती है। दूजों (दूसरों) के दूर से सुण्णे (सुनने) पर श्रद्धा बैठती है, पास में रहणे पर वैसी श्रद्धा नहीं रहती। तो ऐसी मेरे भी कुछ- कुछ हुई है बातें; परन्तु मैं, फिर भी उनको समझता हूँ तो वैसे हमें (1 मिनिट.) इतिहास में महापुरुष नहीं दीखते हैं उनके समान। इतना विलक्षण मानता हूँ उनको। बहुत विचित्र पुरुष थे वो।

एक महात्मा होते हैं, एक भगवान् होते हैं। तो महात्मा होते हैं, जो संत होते हैं, उनकी [ जीवनी -] इतिहास आप देखलो, जगह- जगह जितना प्रमाण (है) वो देखलो, कोई प्रमाण मिले तो मेरे को बता देना, एक बात कहता हूँ–

पारमार्थिक साधन में लगणे पर मनुष्य की चाल बदलती है, बेश (वेश) बदलता है, रहन- सहन बदलता है, ये बदलता ही है, नहीं बदला हो तो मने बतादो, उदाहरण बतादो फिर। इता बैठा हो थे ई( इतने बैठे हो आप भी), जाणकार हो, कोई एक- दो बतायो (- बता देना)।

सेठजी रे वाही(वही) तो धोती है र(और) वाइ(वही) पगड़ी है र वाइ अँगरखी है, अर वेइ(वे ही) जूता है र, वो जूता तो चमड़े रा म्हें देख्या ई कोनीं (चमङेके मैंने देखे ही नहीं), कपड़े रा(का) है, और वाइ कामळ है देशी बण्योड़ी(बुनी हुई), अर वाइ बोली है, - मोटर ने मटर कहता(कहते थे), (2 मिनिट.) मटर।

(श्रोताओं को हँसी आ गई - हँहहहहहअ.)।

इतनी ऊँची स्थिति होने पर रहन- सहन, वेशभूषा में कोई फर्क नहीं, है ज्यूँ रा ज्यूँ(है ज्यों-के-त्यों), हर ये कहता म्हेंतो(और यह कहते थे कि मैं तो), एक बणिये को(बनियेका) बेटा हूँ मैं– म्हे तो बाणिया हाँ(हम तो बनिये हैं)। आ बात ही(यह बात थी)। और विवेचन करणे में इतनी विलक्षणता ही(थी) कि जो गहरा उतरता, वे(उस) बात में, जो बड़ा चकरा जाय आदमी।

अपणे साधुओं में, श्री चौकसरामजी महाराज बहोत बुद्धिमान हा(थे) । तो वे भी उठे आया हा(वहाँ आये थे)। रामधनजी - म्हारे गुरु भाई, वे भी हा(थे)।

तो आया जणाँ(आये तब) तो आ बात कही मेरे वास्ते, क ए(ये) स्वामीजी तो पढ़्या लिख्या(पढ़े-लिखे) है, सेठजी तो, पढ़्या लिख्या तो है ई नईं। पढ्या लिख्या दीखता ई कोनी। तो आँरो (स्वामीजी रो) व्याख्यान चौखो। ऐतो(ये तो) आप (श्रीसेठजी) मारवाड़ी- मिश्रित बोले है(बोलते हैं)।

बे(वे) चौकसरामजी महाराज कहणे लग्या(कहने लगे) कह, मैं(मैंने) एक बात अठे(यहाँ) (3 मिनिट.) देखी जिठी (-जिसी) कठेई नीं(वैसी कहीं नहीं) देखी। चौकसरामजी महाराज केयौ रामधनजी नें, वाँ म्हने केयौ (चौकसराम महाराजने रामधनजीको कहा, उन्होंने मेरेसे कहा)—

जो तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, पारमार्थिक विशेष हो जायेगा, वो व्यवहार में इतना चतुर नहीं होगा। और व्यवहार में बहुत सावधान होगा, वो पारमार्थिक- ऊँचा नहीं होगा।

सेठजी से कोई ( - सी भी ) बात पूछलो भले ही थे, ब्याह सावे की पूछलो, सगाई सम्बन्ध री पूछलो, पारमार्थिक पूछलो, ज्ञानयोग पूछलो, ध्यानयोग पूछलो, कर्मयोग पूछलो, भक्तियोग पूछलो, अष्टांगयोग पूछलो। सब बातों की बारीक- बारीक, पुर्जा- पुर्जा बता देंगे। येह(यह), एक बात मैं एक जगह ई देखी। चौकसरामजी महाराज [ने] कही अन्तमें। 

सब बातों का चौधारो (चारों और से धार वाला, सब प्रकार से कुशल) आदमी नीं हुया करे है (नहीं हुआ करते हैं), एक- एक विषय में हुया करे (है)। बड़े- बड़े वकीलों से लड़ायाँ (लङाइयाँ) नहीं सुळझी है, वा (उन सबको) सेठजी [ने] सुळझायी (सुलझाया) है, अर वहाँ सब का फैसला लिखा है। मेरे सामने, पाँच- सात, (4 मिनिट.) दस– ऐसे फैसला किया है वहाँ। सत्संग छोड़ देता, अबार (अभी) फैसला कराँ (करते हैं) कह,। अर करोड़पति, लखपति आदमी र, अड़ जाय एक कुर्छी पर – चमचो मैं लेएऊँ(लूँगा), वो कहते - मैं लेएऊँ। अर नीं तो आदमी मर ज्याय(जाय) - आपसमें ऐसी लड़ाई। जके में, सगळाँ ने सळ्चा (सरचा) दिया (ऐसे में, सबको यथायोग्य देकर सन्तुष्ट कर दिये), राजी कर दिया दोनूँ [पक्षोंको]। ऐसा फैसला कर देता। वकालत, जज भी जाणें कोनीं जिता जाणता (हा। जजभी नहीं जानते, उतना जानते थे)।

तो व्यवहार में भी इतना विलक्षण, और परमात्मा में ईं, परमार्थ- रीति में बहुत विलक्षण– ऐसी मेरी धारणा रही। 

नहीं तो आप भी विचार करो– तो साधू होकर गृहस्थी के पास क्यों गया मैं ? पण कोई साधू ऐसा मिला नहीं मेरे को। मिलता तो मैं नहीं जाता वहाँ। ऐसे विलक्षण थे।

मेरी दृष्टिमें, उनकी चाल शाल, विचार, भले ई वेशभूषा तो अवतार की [थी]। (5 मिनिट.) अवतार यूँ(ऐसे) - कह, रामजी क्या कहते हैं, रामजी का परिचय –

कोसलेस दसरथ के जाए। हम पितु बचन मानि बन आए।। 

(रामचरितमा. ४।२।१)। 

— पूछे कि तुम कौण हो? तो उन्होंने परिचय क्या दियो? – कोशलपति, दशरथजी का बेटा हाँ(हैं), और पिताजी ने वनवास दिया, वनवास में आया हाँ, अर राम र लिछमण म्हारो भाई है, म्हे भाई- भाई हाँ। म्हारी लुगाई लोग लेग्या जो, जोवता फिराँ हाँ (हमारी पत्निको जो लोग ले गये, उनको खोजते फिर रहे हैं)।

इमें (इसमें) काँई अवतार है र काँई महात्मापणों है? सीधी सादी बात है क नीं? गृहस्थियों जैसी बात ह्वे, जैसी- जैसी साफ कह दी। इहाँ हरी निसिचर बैदेही। खोजत हम, फिरहिं बिप्र तेही - ब्राह्मण रा देवता ! म्हे तो बेने जोवता फिराँ हाँ। आ बात की - अपणो परिचय ओ दियो। कठेई यूँ कोनी– म्हें महात्मा हूँ क, म्हें भगवान् हूँ क, संत हूँ क, कठे ई को दियो नीं (कहीं भी नहीं दिया)। इयूँ(ऐसे) ही सेठजी के परिचय वो ही । वेशभूषा में ईं वो ही परिचय। आप एक महात्मा बताओ ऐसा। (6 मि.) 

जैसे श्रीजी महाराज ने कहा है-

त्यागी शोभा जगत में करता है सब कोय ।
हरिया गृहस्थी संत का भेदी बिरळा होय ।। 

आ बाणीमें आवे। कितनी विचित्र बात है। सहजावस्था की बात पूछी, वो सहजावस्था की बात जितनी श्रीजी महाराज रे– श्रीहरिरामदासजी महाराज की बाणी में जितनी आती है, इतनी म्हें बाणी दूजी देखी नहीं है, जिके में आ बात आयी ह्वै(हो)।, जितने- जितने आचार्य हुए हैं, उन आचार्यों की देखी, श्रीजी महाराज की, हरदेवदासजी महाराज, नारायणदासजी महाराज हुए, रामदासजी महाराज हुए, दयालजी महाराज की बाणी बहुत विचित्र। बे(उस) में भी आवे, थोड़ो आवे (घणाँ कोनि)। इनके खास बात है।

हरिया जैमलदास गुरु राम निरंजन देव ।
काया देवल देह रो
सहज हमारी सेव ।।

( 'सहज' शब्द पर ताळी ठौक कर, उसको विशेष जताया )

हद करदी नीं ! हमारी सेवा सहज है -

सहजाँ मारग सहजका सहज किया बिश्राम।
हरिया जीव र सीव का एक नाम एक
(7) ठाम ।। 

सहज तन मन कर सहज पूजा। सहज सा देव नहीं और दूजा।।

हद ई करदी है। ऐसी साफ बाणी, हरेक संत की मिले नीं है। ऐसी बात सेठाँ की है। विचित्र बात है उनकी, ज्यादा नहीं कहूँ मैं, उदाहरण थाँ पूछ्यो जको उदाहरण कहणे रे वास्ते आ भूमिका बाँधी है।

गोरखपुर में हम लोग ठहरे हुए थे, सेठजी जिसमें रहते, उसके ऊपर मकान में। सुबह चार बजे सत्संग होता था। उसमें, प्रेस में से भी भाई आ ज्याते, हम लोग भी आ ज्याते, गाँव में, घर में - घराँ में से लोग आ ज्याते। तात्त्विक- बातें होती थी सुबह के समय में। बड़ी बिचित्र- विचित्र बाताँ होती थी। सुणते थे हम।

तो वहाँ एक, गुप्तानन्दजी नाम कर एक संत थे। वो ठहरे हुए थे प्रेसमें। (8)  गुप्तानन्दजी महाराज थे, ऐसे साधू भी बहोत कम देखणे में आते हैं। इतने बे (वे) बिरक्त थे। हाथ का कता, हाथ का बणा ही कपड़ा पहनते। टेका (टाँका) लेता तो भी, मील रा, सुई रो डोरो भी लेता कोनी और सोता, जणाँ आपरो कपड़ो ई बिछावता कोनी। यूँ ई, छत पर यूँ ई सो जाता। भिक्षा में जाता, जको मिळ ज्याय ज्यूँ ले लेता। वाँ रे गुरुजी हा, वाँ री बात भी ऐसी मैंने सुणी र मैंने दर्शन किये हैं। कोई कहता महाराज! निमन्त्रण है। कह, ठीक है। खीचड़ी बणाणा, नमक भी मत डालणा (बी म्हें-उसमें))। और कुछ नहीं। और नेतो नीं लेता, जणाँ निमक डालदो भले ही। खीचड़ी ले लेता, रोटी ले लेता। घी क, दूध क, दही क, कुछ नहीं। और गुप्तानन्दजी महाराज री बात, जो भिक्षा माँगता, जो केवल रोटी ले लेता और बे खा लेता। दस्ताँ लगणे लग गई। (9) जणाँ म्हें कहयो महाराज! आप छाछ ले लिया करो, घराँ में से छाछ ले लो। ज्यादा आग्रह किया। तो मेरे पर बहोत कृपा रखते थे, मेरी बात मानते थे। तो वाँने स्वीकार कर लिया। मैंने बहनों माताओं से कह दिया भई! आवे तो इनको छाछ घाल देना। एक हाँडी देदी छोटी। छाछ लेई - ईमें काँईं बात, छाछ लेलो। 

   दो, तीन, चार दिन हुआ होगा- याद नहीं, कितना दिन। एक दिन आ र कह - स्वामीजी! देखो, आपका कहणा मैंने कर लिया, अब नहीं लूँगा। मुको क्या हुयो? कह, किसी माई ने दही डाल दिया उसमें। इस वास्ते अब नहीं लूँगा मैं। आ बात है। ओ वाँ रे, गुप्तानन्दजी रो परिचय दियो थाँने। 

   वे उतर्योड़ा हा प्रेसमें। तो वे केवै क प्रेसमें रहता है ताळा। तो पहले मैं शौच- स्नान करिआऊँ, गंगाजी जायआऊँ (श्री स्वामीजी महाराज कहीं- कहीं पर दूसरी नदी को भी आदर से गंगाजी कह देते थे) - नदी पास में बेवै ई है, नदी में (10) नहाइयाऊँ, त्यार हू ज्याऊँ चार बजे से पहले। तो मैं ताळो खोलाऊँ जको साधु रो धर्म क्या है? दरबान ने कह सकाँ (हाँ)? - थे ताळो खोलो। अथवा तो कह सको - मत खोलो? आपाँने कहणो क्या है? साधू रो धर्म क्या है? कर्त्तव्य बताओ- साधू को ओ कर्त्तव्य है ।  देरी सूँ ईं आता बिचारा, चार बज्याँ, आता जणाँ ही आता। खोलता दरवाजो जणाँ आ ज्याता। तो मेरे, पीछे शौच- स्नान में देरी हो ज्याय। तो आपाँने कहणो धर्म है क नीं दरबान ने?

   म्हें पूछ्यो भाई म्हें क्यों उत्तर दूँ , जब सेठजी बैठा है तो आनें ईं पूछलाँ। जैसे कोई बताणे वाळो ह्वै तो आपाँ क्यों कूद र पड़ाँ बीचमें?        सेठजी ने पूछ्यो सेठजी! आ दशा है। अब क्या कराँ। म्हारे संत पूछे है। सत्संग उठग्यो, उठते हैं, कोई- कोई जा रया है, कोई बैठा है, यूँ हो रहा है, बे वख्त मैंने प्रश्न किया। ऐसे ये पूछे है, तो आपाँने– म्हाँने क्या करणो चइये – साधू रो धर्म क्या है? दरवज्जे ऊपर है, तो आनें कहणो – तू आडो खोलदे भाई। (11) ओ कहणो ठीक है क नीं है?

वाँ बात मेरी सुणली। शुकदेवजी! शुकदेवजी!! – जा रया था, आओ। क्या बात है? कह, तीन बजे आडो खोल दिया करो, ताळो खोल दिया करो। ये बात हूगी। चलाग्या। 

   अब वे गुप्तानन्दजी रे खळबळी मचगी क म्हेंतो एक मेरे वास्ते कहूँ, रोजीनाँ ड्यूटी लगा दिया आनें तो – रोजीनाँ ही ड्यूटी लगा दी। बात ठीक नहीं हुई। भिक्षारो टाइम हो गयो म्हारे। सेठजी! आपसे मेरे बात करणी है। कह, अच्छा। 

   भिक्षा कर र, भोजन करके आया (हूँ), मैंने कहा – आप मनें ये बताओ, उनके तो एक अपणे लिये ही दरवज्जा खोलाणे का सँकोच, अर आपने सदा के लिये ड्यूटी लगादी खोलणे की। तो उनके भारी लगी। इण वास्ते ये क्या उत्तर दिया आपने? 

   समझ में कठे आयी? ज्यूँ, या नहीं समझ में आयी न!  मैंने पूछा। पूछा तब महाराज! उत्तर दिया– बङा ही सन्तोषजनक— (12) 

   कहते हैं क साधू का कर्त्तव्य पीछे बतावें, जब हम अपणा कर्त्तव्य पालन करें। हम तो कर्त्तव्य पालन करें ईं नीं र साधू का कर्त्तव्य बतावें, हमारा अधिकार नहीं है बतानेका। 

   तो उनको क्यों कहणा पड़े- क दरवज्जा खोल दो। हमारा कर्त्तव्य है कि साधू को कोई अङचन (है) दरवाजा खोल दो। तो क्या कर्त्तव्य? कर्त्तव्य हमने पालन किया। 

   इससे ये ई बताया क तुम मत कहो। इतरा वर्षों से मैं साथ में रहता हूँ, मेरे अकल(बुद्धि) में नहीं आयी बात – आ सेठजी कैसे करदी। 

   तो आदमी रे आचरण समझमें थोड़े ई आवे सभी, कौणसो आदमी, किस वक्त में, कौणसा काम करता है? 

   म्हनें केयो– बताओ बीती हुई घटना। ऐसी मेरी बीती हुई है घटनाएँ। मैंने देखी है, पूछी है। हमारे समझमें नीं आयी थी भई! हर कहणें से समझमें आ ई गी चट सी। आप बताओ, आपके शंका रही हो तो। 

   गुप्तानन्दजी बिचारे के खळबळी हुई क रोजीनाँ ही स ड्यूटी लगाादी इनकी तो। (13) मेरे भी समझमें नीं आयी वा। भिक्षा फिरा, किया, जितनी बात, चिन्तन वो– बात क्या हुई भाई? सेठजी ने ऐसे कैसे कर दिया? या बात ही सा। 

   दूजो कोई कर्त्तव्य पूछे, थारो कर्त्तव्य ओ है - यूँ बता दे चट सूँ। [और म्हने] बतायो ई कोनीं, सीधो हुक्म ही दियो। 

   इस वास्ते मनुष्य की लीला भी समझमें नहीं आती है, किस समय में, कौणसा काम, कैसे करते हैं? ऐसे भगवान् कृष्ण की लीला, कैसे समझमें आवे?

( --श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के  दिनांक- 10/04/1981 वाले प्रवचन के अंश का यथावत्- लेखन ) । 

यह प्रवचन इस ठिकाने (- पते) से प्राप्त किया जा सकता है- 
bit.ly/sethji10041981

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