बुधवार, 29 अप्रैल 2020

जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें।

             ।। श्रीहरिः ।।



जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें।  



● [ पूर्वार्ध- ] ●

एक दिन (दि.14-4-2020 को) वाट्सऐप्प के ग्रुप में जो बहस हुई थी , उसके विषय में कुछ लिखा जा रहा है । यद्यपि मैं उस ग्रुप में नहीं था ; परन्तु उनके कुछ लेखन आदि देखकर ऐसा लगा कि इस प्रकार के आपसी तर्क- वितर्क से कई लोगों के मन में विक्षेप हुआ है। 

आदरणीय सज्जनों और माता बहनों को जो विक्षेप हुआ, उसके लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि दुबारा ऐसा न हो। 

बात क्या हुई कि एक सज्जन ने गीताभवन के सत्संग- मञ्च ( स्टेज ) की फोटो फेसबुक पर प्रकाशित करदी। बाद में उनको लगा कि मेरा यह काम अनुचित तो नहीं था ? ( उनको इस पर किसीने सलाह भी दी ) , तब उन्होंने अलग से सन्देश भेजकर इसके लिये मेरेसे जानकारी चाही । मैंने सन्देश में वो जानकारी लिखकर (उनको अलग से ही) भेजदी। 

फिर उन्होंने वो बातें वाट्सऐप्प पर ग्रुप में (चलते हुए वाद विवाद के समय) भेजदी। उस के बाद बात और बढ़ गयी । 

ग्रुप में कई प्रकार के तर्क, कुतर्क, प्रतीकार आदि किये गये , मामला देर राततक चलता रहा। इससे ऐसा लगा कि लोगों के मन में काफ़ी विक्षेप हुआ है । अधूरी जानकारी के कारण लोगों के मन में असमञ्जस की स्थिति पैदा हो गई। लोगों के मन में नये प्रश्न पैदा हो गये और वास्तविक बात समझनी कठिन हो गयी । इसलिये मन में आया कि इस विषय पर कुछ और लिखा जाय , जिससे अगर कोई जानना चाहें तो उनको सही बात का पता लग सके । 

जिन सज्जन ने मेरे से जो पूछा और मेरे द्वारा लिखा गया उनका जवाब जो उन्होंने ग्रुप में भेजा , वो कुछ इस प्रकार था- 

[ ••• 
[14/4, 9:28 PM] 
(प्रश्नकर्त्ता- ) 
राम राम भैया जी🙏

जहां तक मुझे ज्ञात है स्वामी जी महाराज ने जिस कुर्सी पर वो बैठा करते थे उसे भी नष्ट करवा गए थे ताकि उनकी स्मृति चिन्ह के रूप में लोग पूजना शुरू ना कर दें। (ऐसा मैंने कुछ श्रेष्ठ महानुभावों द्वारा सुना है... 

••• 

आप सभी श्रेष्ठ महानुभावों से विचार विमर्श कर ही निर्णय करें।

राम राम राम 🙏🙏
: राम महराज जी सादर विनम्र निवेदन है कि इस पर भी प्रकाश डालियेगा। 

[14/4, 10:12 PM] 
(जवाब-) 
: हाँ रामजी, लोहेका बैड था जो हमने गीताभवन ••• से समाप्त करने को कहा और उन्होंने उसके पुर्जे खुलवाकर गंगाजी में विसर्जित करवाया। 
हमलोगों ने तो इस काँचवाले स्टेज को भी हटाने के लिये ••• कह दिया था , लेकिन हमारे कहने के अनुसार यह कार्य हुआ नहीं । उन दिनों ••• भी वहाँ थे और गीताभवन के ••• सामने ही हमने फिर निवेदन किया कि यह हटा दिया जाय। वो ••• की तरफ देखकर संकोच पूर्वक बोले कि ये हटा देंगे, हमको विश्वास है। ( फिर भी नहीं हटा ) ।

यह स्टेज हमलोगों ने ही ठण्ड से रक्षा के लिये लगवाया था। ठण्डी हवा नहीं आवे , वो ठण्डी हवा श्री स्वामी जी महाराज के वृद्ध शरीर में कोई विकृति उत्पन्न न करें, सर्दी जुकाम आदि न करें, जिसके कारण सत्संग बन्द करना पड़े। ऐसा न हो, इसलिए हम लोगों ने स्टेज को शीशे आदि के द्वारा पैक करवाया था। 

जब श्री स्वामी जी महाराज के शरीर के साथ ही यहाँ का यह सब प्रोग्राम समाप्त हो गया तो हमलोगों ने उनके शरीर के काम आनेवाली कई चीजों को भी समाप्त करवा दिया । कुछेक बाकी भी रह गई, जिनमें से एक चीज यह काँच वाला स्टेज है ( गीता भवन नम्बर तीन में ) । हमने इनको भी समाप्त करने के लिए कहा, लेकिन यह नहीं हो पाया । जो वस्तुएँ हमारे हाथ में थी , जिसको हम करवा सकते थे , उनको तो समाप्त कर दिया गया और यह रह गया और बाद में तो लोग इसको रखने के पक्ष में हो गये। 

इस प्रकार यह ऐसे ही रह गया और यह सब चलने लगा जो कि ऐसे महापुरुषों के पीछे कोई अच्छी बात नहीं है । अधिक जानकारी के लिये उनकी वसीयत देखो। 
अस्तु। 

इसके बाद जो हुआ, वो ग्रुप के सदस्य जानते ही होंगे , हम उसको यहाँ लिखना उचित नहीं समझते। 

कुछ प्रश्नों के जवाब हम नीचे लिखी बातों में दे रहे हैं, जिनके मन में जो प्रश्न हो, वो इन बातों को ध्यान से पढ़कर समझलें। फिर भी कोई बात समझनी बाकी रह जाय तो मेरे से बात करके समझ सकते हैं। 

किसी सज्जन को स्टेज समाप्त करने जैसी बातें जँची नहीं और उनके द्वारा कई प्रकार के सवाल खड़े किये गये कि इस प्रकार कहने वाला मैं कौन होता हूँ । ( उनके सब सवाल यहाँ लिखने उचित नहीं लगे , आगे लिखी गई बातों को ठीक तरह से पढ़कर ही सवाल जवाब समझ लेने चाहिये )। 

••• सबसे पहले तो यह समझलें कि हम और गीताभवन एक ही हैं। मैं गीताभवन का ही हूँ और उस समय उस काम में सामिल भी था अर्थात् गीताभवन , गीताभवन के लोग , संत महात्मा और हमलोग - ये कोई अलग-अलग नहीं हैं , सब एक ही हैं । कुछ मतभेद हो जाने से कोई दो नहीं हो जाते , पराये नहीं हो जाते। यह तो हमारे ही आपस की बात है। इसका उद्देश्य न तो किसीकी निन्दा करना है और न किसी की प्रशंसा । इसका उद्देश्य यह समझना चाहिये कि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी कार्य उनकी आज्ञा के अनुसार ही हो तथा सब लोगों का हित हो । 

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अपने घर में भी सब काम अपने मन के अनुसार नहीं होते। अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूरे घरवालों को चलाना तो दूर , हम अपनी मरजी के अनुसार अपने शरीर को भी नहीं चला सकते। जब एक शरीर को भी नहीं चला सकते तो फिर सब को तो चला ही कैसे सकते हैं , नहीं चला सकते। 

नहीं चला सकने पर भी हम अपने शरीर अथवा घरवालों से पराये नहीं हो जाते , नाराज़ भी नहीं होते । उनके साथ में ही रहते हैं। घरवाले और हमसब एक ही रहते हैं। मतभेद होनेपर भी प्रेमभेद नहीं होता। अपनापन वही रहता है। ऐसा नहीं होता कि बेटे ने माँ की बात नहीं मानी तो अब वो माँ का बेटा नहीं रहा । बात न मानने पर भी बेटा तो बेटा ही रहता है, माँ भी माँ ही रहती है । माँ और बेटे का सम्बन्ध वही रहता है, मतभेद होने पर भी , एकमत न दीखने पर भी रहते सब एक ही हैं। ऐसे हमलोग मतभेद होनेपर भी हैं सब एक ही। अलग-अलग नहीं हैं। हम जो कह रहे हैं, वो अपने लोगों को ही कह रहे हैं। इस बात को समझना चाहिये । न समझने के कारण ही ऐसे तर्क कुतर्क पैदा होते हैं। 

अपने- अपने घरों में भी हमें ऐसे एकतापूर्वक प्रेम से रहना चाहिये। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबके प्रति हित का भाव रखना चाहिये। 
परमात्मस्वरूप सारे संसार में जितने भी प्राणी हैं, वो और हम सब एक हैं। 
सबजग ईश्वररूप है भलो बुरो नहिं कोय। 
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।। 


● [ उत्तरार्द्ध- ] ●


••• 
प्रश्न- 
क्या श्रीस्वामीजी महाराज के स्टेज ( प्रवचनस्थल के तख्त ) को स्मृति के रूप में रखना उचित है? 

उत्तर - उचित नहीं है ।

महापुरुषों से सम्बन्धित इस प्रकार की किसी वस्तु आदि को काम में लेना तो ठीक है , पर उनको स्मृति आदि के रूप में रखना ठीक नहीं । 

श्रीस्वामीजी महाराज की "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या आठ पर लिखा है कि ••• अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)- को पूजा में अथवा स्मृतिके रूप में बिलकुल नहीं रखनी चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये। 

प्रश्न- तो ऐसा काँचवाला विशेष स्टेज बनवाया ही क्यों? जिसके कारण रखने की और देखने की मन में आवे? 

उत्तर - यह सदा रखने के लिये नहीं बनवाया , यह तो आवश्यकता समझकर थोङे समय के लिये बनवाया था । क्यों बनवाया था इसका कारण सुनो - 

श्री स्वामी जी महाराज से उनके अन्तिम वर्षों में यह प्रार्थना की गयी कि आप गीताभवन ऋषिकेश में ही रहें । आप यहाँ रहेंगे तो सत्संग भी हो जायेगा और लाभ भी अधिक लोगों को मिलेगा । लोगों के रहने आदि की सुविधा जितनी यहाँ है, उतनी दूसरी जगह मिलनी मुश्किल है। इसलिये आप यहीं रहें। तब आपने कृपा करके यह प्रार्थना स्वीकार करली और अन्तिम समय तक वहीं रहे। 

लोगों के सत्संग करना आसान हो गया। दूर- दूर से लोग वहाँ आकर रहने लग गये और सत्संग का लाभ लेने लगे । रोजाना सत्संग होता था , चाहे सर्दी हो या गर्मी, शरीर स्वस्थ हो या बिमार , सत्संग की कोशिश हमेशा रहती। 

कोई पूछते कि महाराज जी ! आपकी तबियत कैसी है? तो कभी-कभी तो आप ऐसे कह देते कि आपका काम (अलग से बातचीत करना , सत्संग प्रवचन करना आदि) तो हम कर देते हैं , फिर तब़ियत चाहे कैसी ही क्यों न हो ! अपनी अस्वस्थता , असुविधा, तकलीफ, कठिनता आदि बताने में भी संकोच करते थे। अपने तो सत्संग चलना चाहिये। 

अधिक वृद्धावस्था आदि के कारण आपके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी, अधिक सर्दी या गर्मी सहन करने की शरीर में शक्ति नहीं रही , अगर सर्दी गर्मी आदि सह लेते , स्वयं उनकी बेपरवाही कर देते , तो शरीर बिमार होने लगता और शरीर बिमार हो जाता तो वैद्य, डाक्टर या उनके हितैषी लोग बाहर सत्संग में जाना बन्द करवा देते कि शरीर कुछ ठीक हो जाय तब जाना ठीक रहेगा। 

सत्संग बन्द होना श्रीस्वामीजी महाराज को पसन्द नहीं था। सत्संग को वो जरूरी और अत्यन्त लाभकारी मानते थे।आवश्यक सुविधा की व्यवस्था के कारण भले ही बाहर से हमारे त्याग में कुछ कमी ही दीखे ,पर सत्संग होना चाहिये । 

शरीर के हितैषी लोगों ने कुछ विशेष प्रबन्ध करवा दिये तो सहन कर लिये , सत्संग प्रवचन के समय जिस तख्ते पर आप विराजते थे , उसके इधर उधर प्लास्टिक आदि के शीशे लगवाकर वहाँ के स्थान को पैक करवा दिया , तो (पसन्द न होते हुए ) भी आपने सहन कर लिया। 

इनके अलावा और भी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं को सह लेते थे। कैसी- कैसी परिस्थितियाँ थीं , उनको तो वो ही जान सकते हैं , दूसरे क्या समझे ? कभी- कभी तो आप ऐसे कह देते थे कि- 
कौन सुने कासौं कहौं सुने तो समुझे नाँय। 
कहना सुनना समुझना मन ही के मन माँय।। 

ये सब होते हुए भी आप तो अपनी ही मौज में रहते थे । दुःखदायी परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बनाकर स्वयं परिस्थिति के अनुसार बन जाते थे। शारीरिक पीङा में भी हँसते थे । हर कोई तो उनकी स्थिति समझ ही नहीं पाता था ।  

शारीरिक कष्ट आदि के कारण उनमें प्रेम रखने वाले कभी- कभी कुछ दिन सत्संग बन्द करने के लिये कह देते तो वो भी मान लेते थे। बङा सुखदायी स्वभाव था आपका , बङा दयालु और सरल स्वभाव था। आप महाज्ञानी थे। किसी को किचिन्मात्र् भी कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते थे। अपनी बात को छोङकर दूसरे की बात रखते थे । बङे महान् थे। 

शरीर की अशक्तावस्था के समय भी लोगों का मन रहता कि महापुरुषों के दर्शन करें, उनकी बातें सुनें। कमजोरी के कारण व्याख्यान भले ही न दे सकें , पर दर्शन तो हो जाय, हमारी तरफ वो देख तो लें आदि ऐसे भाव थे लोगों के । वो लोगों के भावों का आदर करते थे, बाहर पधारते थे। लोग दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ लेते और अगर वो कुछ बात बोल देते तो और भी आनन्द हो जाता। 

शीतकाल में जब कभी- कभी आपके शरीर पर ठण्डी का असर हो जाता। सर्दी जुकाम, कफ, बुखार आदि प्रबल हो जाते तब बाहर सत्संग में आना बन्द हो जाता। फिर जब परिस्थिति कुछ अनुकूल होती तब सत्संग में पधारना होता । 

यद्यपि कई बार आप अपने निवास स्थान पर बैठे बैठे ही सत्संग प्रवचन कर देते और यन्त्र (माइक) के द्वारा बाहर , पाण्डाल ( मण्डप ) में बैठे लोगों को सुनायी पङ जाता था । फिर भी लोगों का मन रहता कि सामने से , दर्शन करते हुए उनकी बातें सुनें। लेकिन बाहर आना तो फिर से ठण्डी को निमन्त्रण देना था । 

ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये शीशे आदि लगवाकर यह विशेष स्टेज बनवाया गया । इससे ठण्डी हवा का डर कम हुआ और सत्संग में जाना सुगम हो गया। 

भगवान् की कृपा से बहुत बढ़िया सत्संग चला और वहाँ का वातावरण सत्संगमय हो गया । श्री सेठजी का गीताभवन बनाना सफल हो गया। श्री स्वामीजी महाराज के वहाँ विराजने से गीताभवन सजीव हो उठा । लोगों के मन में आने लगी कि हम रहें तो यहीं रहें और मरें तो भी यहीं मरें । उस समय की भगवत्कृपा का आनन्द तो वही जान सकता है कि जिन्होंने उस आनन्द का कुछ अनुभव किया है । 

संसार में सब दिन एक समान नहीं रहते। इसलिये एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बदल गया । सत्संग समाप्त हो गया। 

अब जब वो सब परिस्थितियाँ ही नहीं रही, समाप्त हो गयी, तब हमारा मानना है कि इस शीशेवाले स्टेज को भी नहीं रखना चाहिये । 

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का त्यागमय जीवन अनुकरणीय है । वो सुख सुविधा , मान , बङाई , शरीर के आराम आदि को महत्त्व नहीं देते थे । गीताभवन और गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के समय में भी वे उनके साथ त्यागपूर्वक रहते थे और बाद में भी वे त्यागपूर्वक ही रहे। 

ऐसे त्यागी महापुरुषों का सम्बन्ध एक ऐसे स्टेज से बताना , लोगों के द्वारा भी उसको पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाना , उसका प्रचार करने लग जाना आदि कोई बढ़िया बात नहीं है , यह तो एक प्रकार से उनके त्याग में कमी दिखाने जैसा है । वास्तविक बात को हर कोई तो नहीं समझता न ! इसलिये इसको नहीं रखना ही ठीक है । 

जो काम महापुरुषों की महिमा के अनुरूप न हो तो वो काम अच्छा दीखने पर भी नहीं करना चाहिये । इससे लाभ नहीं होता। 

कोई कहे कि उनसे सम्बन्धित गीताभवन आदि और भी तो वस्तुएँ हैं, उनके लिये न कहकर केवल इस काँचवाले स्टेज के लिये ही क्यों कहते हो? 

तो इसका उत्तर यह है कि अनभिज्ञ लोग स्मृति आदि के रूप में इस स्टेज को ही महत्त्व देने लगे हैं, न कि गीताभवन आदि को। इसलिये एक इस स्टेज के लिये ही कह रहें हैं । इस प्रकार की अगर कोई दूसरी वस्तु हो तो उसके विषय में भी यही समझना चाहिये। 

किसी के यह बात नहीं भी जँचे तो हम कोई आपत्ति नहीं करते। अपने कल्याण की बात ग्रहण करने और न करने में सब स्वतन्त्र हैं । हमने तो पूछनेपर यह हित की बात कही है , अब कोई माने तो ठीक और नहीं माने तो उनकी मरजी। अपने किसी से राग द्वेष नहीं करना है , समता में स्थित रहना है । 
••• 
श्री स्वामीजी महाराज तो देश , प्रदेश, विदेश आदि अनेक जगहों पर गये हैं और वहाँ रहे हैं तथा वहाँ उनके लिये स्टेज आदि भी बने हैं, लेकिन कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आया कि कोई स्टेज को ऐसे अलग से रखे और लोग स्मृति आदि के रूप में उसको देखने लग जायँ । 

इसके अलावा किसी दूसरी जगह भी अगर कोई ऐसा करते हैं अथवा मानते हैं कि यह स्थान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह स्टेज उनका है , यह गद्दी श्रीस्वामीजी महाराज की है , तो वो भूल में हैं ; क्योंकि श्रीस्वामीजी महाराज कहते हैं कि - 

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं । 
४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है ।••• 

( "एक संत की वसीयत" ,'मेरे विचार', पृष्ठ संख्या 12 से )। 

अगर कोई ऐसा कहे अथवा समझे कि यह मकान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह कुटिया उनकी है ,यह कमरा श्रीस्वामीजी महाराज का है , तो वो ऐसा समझनेवाला भी भूल में है ; क्योकिं मकान के विषय में श्रीस्वामीजी महाराज की वसीयत में लिखा है कि 
••• अपने जीवनकालमें भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदिका निर्माण नहीं कराया है और इसके लिये किसीको प्रेरणा भी नहीं की है । यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदिको मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणासे निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये। 
( "एक संतकी वसीयत" पृष्ठ संख्या नौ ) । 

अगर किसी स्थान पर कोई मकान आदि बनवाकर श्रीस्वामीजी महाराज के निमित्त करदे कि यह मैंने श्रीस्वामीजी महाराज को दिया, अब यह सब उनका है और लोग भी ऐसा समझने लग जायँ , तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि मकान आदि को वो स्वीकार नहीं करते थे और अपने लिये इसको उचित भी नहीं मानते थे। । 

कोई कहे कि इस गाँव को अथवा इस मकान को तो श्रीस्वामीजी महाराज अपना कहते थे , इसलिये यह मकान तो उनका है। तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि वो "अपना कहना" केवल व्यवहार के लिये था , वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार सत्संग में बताते थे कि जैसे , आपलोग रेलगाड़ी में बैठकर कहीं की यात्रा कर रहे हैं और एक जगह गाङी रुकी । आप गाङी से नीचे उतरे । और भी कई लोग नीचे उतरे । इतने में ही आपको अपने कोई परिचित दिखायी पङ गये । आप राजी हुए और बोले कि अहो ! आप भी इसी गाङी में हैं, आपका डिब्बा कौन सा है ? तो वो भी राजी हुए और बोले कि हमारा डिब्बा वो है ( तथा आप से भी पूछा कि ) आपका डिब्बा कौन सा है ? तो आपने बताया कि वो देखो , हमारा डिब्बा वो है । कुछ देर बाद में फिर सब अपने अपने डिब्बों में चले गये।  जबतक यात्रा रही तबतक आराम से आप अपने उस डिब्बे में रहे और उस डिब्बे को अपना कहते रहे ; परन्तु यात्रा समाप्त करके जब आप अपने घरपर आ जाते हैं तो उस डिब्बे को अपना मानते हैं क्या? , कभी डिब्बे की चिन्ता होती है क्या? कभी पत्र लिखकर भी पूछते हैं क्या कि हमारा डिब्बा कैसा है ? आजकल उसका क्या हाल है ? आदि। 

क्यों नहीं पूछते ? कारण कि वो अपना था ही नहीं, आपने उसको अपना माना ही नहीं। उसको तो आपने व्यवहार के लिये अपना कहा था। वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने व्यवहार के लिये किसी मकान आदि को अपना कह दिया तो भी वास्तव में वो मकान उनका अपना नहीं है । 

कोई कहे कि यहाँ तो श्रीस्वामीजी महाराज बार- बार आते थे और वर्षोंतक यहाँ रहे हैं , इसलिये यह जगह तो उनकी है , तो यह भी ठीक नहीं , क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जगह को अपनी माननेवाला तो थोड़ी देर में ही मान लेता है और नहीं माननेवाला वर्षोंतक रहने पर भी ( उस जगह को अपनी ) नहीं मानता। श्रीस्वामीजी महाराज ऐसे महापुरुष थे कि वर्षों तक एक जगह रहनेपर भी उस जगह को अपनी नहीं मानते । इसलिये श्रीस्वामीजी महाराज के अधिक रहनेपर भी उस जगह को खास बताकर लोगों का ध्यान उधर नहीं लगाना चाहिये जिससे कि लोग उस जगह को पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाय। 

महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और कार्य आदि विशेष होते हैं , आदरणीय , अच्छे और विलक्षण होते हैं; लेकिन जिस काम के लिये महापुरुष मना कर देते हैं, तो वो काम अच्छा होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

महापुरुषों के चरणरज की बङी भारी महिमा है; पर चरणरज लेने के लिये अगर महापुरुष मना कर देते हैं तो नहीं लेनी चाहिये। 

चरणरज लेना अच्छा काम है; परन्तु श्री स्वामीजी महाराज मना करते हैं , इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। (आजकल कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं) "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर बरसी आदि का निषेध करते हुए लिखा है कि
  "जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" 
 इसी प्रकार अन्य कामों में भी समझना चाहिये। 

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है , वो न रखें। किसी वस्तु , स्थान , कमरा , स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले । दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें । 

ऐसे उन वर्जित कामों को न करके 
महापुरुषों के ग्रंथों को महत्त्व देना चाहिये। उनको आदर पूर्वक रखना और पढ़ना चाहिये । महापुरुषों की रिकॉर्डिंग वाणी सुनना और उसका प्रचार- प्रसार करना चाहिये। भगवान् की वाणी श्री मद् भगवद् गीता पर लिखी हुई टीका तत्त्वविवेचनी और साधक- संजीवनी का प्रचार-प्रसार करना चाहिये। महापुरुषों के लेख , सत्संग प्रवचनों के ग्रंथ , तत्त्वचिन्तामणि , साधन- सुधा- सिन्धु आदि का अध्ययन करना और करवाना चाहिये । यह काम उन महापुरुषों को भी पसन्द है और यह सबका कल्याण करने वाला है। पंजाबी लोग अपने गुरु ग्रंथ साहिब को कितना आदर से रखते हैं, ऐसे हमलोगों को भी चाहिये कि महापुरुषों के साधक- संजीवनी गीता आदि ग्रंथों को आदर से रखें , उनको महत्त्व दें और पढें । 

साधक- संजीवनी गीता के सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि - 

 [ सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।] 

इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं, हमलोगों को चाहिये कि मन लगाकर ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करें, महापुरुषों के सिद्धान्तों को समझें और उनके अनुसार अपना जीवन बनावें। 
••• 
आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। भ्रम की बातें फैलने लगी । सही बातें मिलनी मुश्किल हो गयी। इसलिये सही और महापुरुषों की बढ़िया बातें बताने के लिये एक पुस्तक लिखी गयी है। उस पुस्तक का नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी कुछ बातें " । इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई सही बातें लिखी है। इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। 

ऐसे ही दूसरी एक पुस्तक है - "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत् वाणी " । इसमें श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग- प्रवचन में जैसे जैसे बोले थे , वैसे- वैसे ही लिखने का प्रयास किया गया है तथा इसमें ग्यारह चातुर्मासों (सन् 1990 से 2000 तक) के प्रवचनों की विषयसूची भी लिखी गयी है कि किस तारीख को , कितने बजे और किस विषय पर श्रीस्वामीजी महाराज बोले थे। इसमें और भी उपयोगी सत्संग- सामग्री है। इन दोनों पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिये। पुस्तकों का पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1

इन बातों में जो अच्छापन है वो उन महापुरुषों का है और जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छेपन की तरफ ध्यान देंगे,  ऐसी आशा है। मेरी इन बातों से किसीको ठेस लगी हो तो मैं क्षमा याचना करता हूँ। 

निवेदक- 
डुँगरदास राम 
वैसाख कृष्ण ११ शनिवार , वि.सं.२०७७ । 
जय श्री राम 
 

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

" महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " नामक पुस्तक क्यों लिखी गई ? इसका जवाब, कारण -

                      ।। श्रीहरिः ।।


" महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " नामक पुस्तक क्यों लिखी गई? इसका जवाब और कारण -   


प्रश्न-
क्या श्री स्वामीजी महाराज की जीवनी लिखनी उचित है ?
उत्तर -
नहीं, उचित नहीं है; 
प्रश्न-
तो आपने जो "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " नामक पुस्तक लिखी है क्या वो उनकी जीवनी नहीं है ?
उत्तर-
नहीं, वो जीवनी नहीं है, वो तो महापुरुषों के विषय में गलत बातें रोकने का एक प्रयास है, महापुरुषोंके विषय में सही बातें समझने के लिये, आवश्यकबातों का एक संग्रह है ,जो सत्संगियों के लिये बङे काम का है। क्या हमारे को इतना भी पता नहीं कि श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी जीवनी लिखने का निषेध किया है ? फिर हम निषेध वाला काम क्यों करते ? इससे कौन सा लाभ होता ?

श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के द्वारा कही गयी जो बातें हमने इस पुस्तक में लिखी हैं , उन बातों को लिखने के लिये उन्होंने मना नहीं किया था , ये बातें तो लोगों के सामने उन्होंने स्वयं भी कही थी। लोगों की सुविधा के लिये एक लेख में ये बातें एक जगह और क्रमवार लिख देने से भले ही ये जीवनी की तरह दीख जाय , पर वास्तव में ये जीवनी के उद्देश्य से नहीं लिखी है।
 
ये बातें लोगों की गलतफहमियाँ मिटाने के लिये लिखी गई हैं। गलत जानकारी को अथवा अधूरी जानकारी को सही करने के लिये लिखी गई हैं। इसके शिवाय समझाने का दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं था। महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित किसी घटना को कोई गलत ढंग से पेश करे, तो उसको सही ढंग से बताने के लिये उस सच्ची घटना का वर्णन तो करना पङेगा न ! इसलिये झूठी बातों को रोकने लिये सच्ची बातों का वर्णन किया गया। 

अगर कहो कि यह तो जीवनी ही हो गयी , ये काम ठीक नहीं है। तो सुनो ! आपका यह आरोप लगाना ठीक नहीं है ; क्योंकि इससे लोगों को जो महापुरुषोंकी सच्ची बातें मिलनेवाली हैं उनमें बाधा लगेगी। 
 जैसे गीता का प्रचार करनेवाला भगवान् का प्यारा होता है, उससे भगवान् खुश होते हैं और गीता- प्रचार में, भगवद् भक्ति में बाधा लगानेवाले पर भगवान् खुश नहीं होते । ऐसे आप सत्पुरुषों की बातों में बाधा लगाओगे तो क्या भगवान् आप पर खुश होंगे? भगवान् ने आपको विवेक दिया है, उसका सदुपयोग करोगे तो फ़ायदे में रहोगे।

इसके लिखने का मुुख्य कारण यह था कि स्वामीजी महाराज शुुुरु मेें श्रीसेठजी से किस प्रकार मिले , ऐसी महापुरुषों की बढ़िया बातें दूसरे लोगों को भी मिले।

 ऐसी बातें सुनने का अवसर सत्संग करने वालों को भी कभी-कभी ही मिलता था। इसलिये इन बातों का ज्ञान हर किसी को  नहीं है। भगवान् की कृपा से ही ये कुछ बातें मिली और लिखी गई है। मेरा विश्वास है कि श्रीस्वामीजी महाराज के सत्संग प्रेमियों को ये बातें प्रिय लगेंगी।

स्वामीजी महाराज श्रीसेठजी के जीवन की ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन करते थे, उनकी बातें बताते थे। परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका ने अपनी जीवनी लिखने का निषेध किया है, पर ऐसी बातों के लिये निषेध नहीं किया है, अगर निषेध कर देते तो श्रीस्वामीजी महाराज उनकी बातें कभी नहीं बताते।

स्वामीजी महाराज ने बङे चाव से श्रीसेठजी की बातें बतायी हैं, जो इस पुस्तक ( " महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " ) में लिखी है। उनकी ओडियो रिकोर्डिंग की तारीख भी इस पुस्तक में लिखी है , वो रिकोर्डिंग आज कोई भी सुन सकता है। 

 जैसे श्रीसेठजी की ऐसी बातें बताना मना नहीं है , ऐसे श्रीस्वामीजी महाराज की बातें बताना भी मना नहीं है।

श्रीस्वामीजी महाराज की कई पुस्तकों में उनकी बातों का वर्णन है। वे पुस्तकें उनकी जीवनी नहीं कही जा सकती, ऐसे ही यह पुस्तक भी उनकी जीवनी नहीं कही जा सकती।

इस प्रकार इस पुस्तक में श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में बातें लिखने का जो काम किया गया है , वो ठीक है। इसके लिये मनाही नहीं थी ।

अगर हम ऐसे, सत्य बातों को बतायेंगे नहीं तो सत्य बातें छिप जायेंगी और असत्य बातों का प्रचार होगा, लोग उन असत्य बातों को ही कहते-सुनते रहेंगे, जिससे लोगों के कल्याण में बङी भारी हानि होगी। महापुरुषों का महान् प्रयास छिपा रह जायेगा।

आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये हैं। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। इस प्रकार भ्रम की बातें फैलने लगी है।

कोई कहते हैं कि वो अमुक के अवतार हैं, कोई कहते हैं कि अमुक महात्मा ही ये श्रीस्वामीजी महाराज हैं, कोई कहते हैं कि अमुक महात्मा के आशीर्वाद से इनका जन्म हुआ है, आदि आदि लोग कितनी भ्रान्तियाँ फेला रहे हैैं, शायद आपको पता नहीं है। मेरे सामने आयी हैैं ऐसी बातें। 

 जन साधारण के मन में कई ऐसे प्रश्न स्वाभाविक ही आते रहते हैं और वो किसी से पूछते भी हैं। इन बातों के जवाब भी लोग अपने हिसाब से देते रहते हैं ; परन्तु सही जवाब मिलना प्रायः कठिन रहता है। लोग मनगढ़न्त जवाब दे देते हैं और सुननेवाले उसको ही सही मान लेते हैं। सच्ची बात जानने के लिये कोशिश करनेवाले भी कम ही लोग होते हैं। कई लोगों को तो सही बातों का पता ही नहीं होता। कई लोग तो ऐसे होते हैं कि वो असत्य से भी परहेज़ नहीं करते , अपने मन से गढ़कर झूठी बात कह देते हैं और वो बात आगे चल पङती है।

इनके शिवाय और भी झूठी झूठी बातें लोग करने लग गये। ऐसी बातें यहाँ लिखना हम उचित नहीं समझते। कई झूठी बातें तो ऐसी हैं कि उनका जिक्र करना भी यहाँ उचित नहीं। 

इस प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज के बारें में झूठी बातों को रोकना हमारा और आप सबका कर्तव्य है। तरह तरह की ऐसी बातें फैलने के कारण सही बातों का निर्णय करना बङा कठिन हो जाता है। अब मनुष्य क्या करे ? किनकी बातों को सही मानें?  

कोई कहे कि अमुक महात्मा की बात सही मानो ; क्योंकि वो बङे जानकार हैं, कोई कहे कि ये तो श्रीस्वामीजी महाराज के पुराने सत्संगी हैं, कोई कहे कि ये तो उनके साथ में रहे हुए हैं, (इनकी बात सही है) आदि आदि।  
अब ऐसी स्थिति में किनकी बात सही मानी जाय ? निर्णय करना कठिन हो जाता है।

अब ऐसी स्थिति में क्या करें लोग? किनकी बात को सही मानें? 

इसका उत्तर यह है कि स्वयं श्रीस्वामीजी महाराज की बात को सही मानें; क्योंकि अपनी बात को अपने से अधिक और कौन जान सकता है।  इसलिये उनके ही श्रीमुख से सुनी हुई, उनकी कुछ बातें इस पुस्तक में लिखी है जिससे बातों की सत्यता में सन्देह न रहे।

श्रीस्वामीजी महाराज से सम्बन्धित किसी विषय को लेकर कोई कुछ कहे , कोई कुछ कहे, इस प्रकार भ्रम की स्थिति हो जाय तो इस पुस्तक में लिखी बातें पढकर निर्णय करना चाहिये कि सही बात यह है। अगर पहले से ही ये बातें कोई पढकर समझ लेगा, तो तरह- तरह की बातें सुनकर उसके भ्रम पैदा ही नहीं होगा और वो दूसरों का भ्रम भी दूर कर देगा।  

इस प्रकार भ्रम की, सन्देह की और गलत गलत बातें मिटाने के लिये तथा सही बातें बाताने के लिये ही यह पुस्तक लिखी गयी है। इसका नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें " ।  
(इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई कुछ सही बातें लिखी है। )
 इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। इसको यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
 bit.ly/1satsang

मेरी बातों से किन्ही को कोई कष्ट पहुँचा हो तो मैं हाथ जोड़कर क्षमायाचना करता हूँ।  

विनीत - डुँगरदास राम