सोमवार, 25 अगस्त 2014

सूक्ति ७०१-७५१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि)।


                                ||श्रीहरिः||          

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                          

      -:@आठवाँ (अर्ध) शतक ( सूक्ति ७०१-७५१ )@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री  रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |

उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |

इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |

इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
७०१-

कागाँरे बागा हुवै तो उडताँरेई दीसै।

सूक्ति-
७०२-

ऊँचो ऊँचो खैंचताँ नीचो जाय निराट ।
कियौ चाहे देवता हुयौ चाहे जाट ।।

सूक्ति-
७०३-

बळगत भाड़ै ।

सूक्ति-
७०४-

एकै पाणी मीठौ ।

सूक्ति-
७०५-

शीरो साधाँने सुखदाई ।
जामें दूणी खाँड मिलाई ।
थौड़ो और पुरसरे भाई !।
म्हारे दाँताँरी अबखाई ।।

सूक्ति-
७०६-

शीरो साधाँ ने ,
भाजी भगताँ ने ,
(अर) दाळ दर्ज्यां ने ।

सूक्ति-
७०७-

सबकै सीजै ,
लबकै लीजै ,
ऐसा भोजन सदाईं कीजै ।

सूक्ति-
७०८-

आकोळाई ढाकोलाई,
पाँचूँ रूखाँ एक तळाई |
दैरे चेला धौक,
(कह ) रूपयौ धरदे रोक ।

सूक्ति-
७०९-

तणर तीरियो बावै।

सूक्ति-
७१०-

न ताळी मिले है ,
न ताळा खुले है ।

सूक्ति-
७११-

आधो तन तो आपरोई कौनि दीसे ।

सूक्ति-
७१२-

रोवतो जावे ,
अर मरयौड़ेरी खबर लावे ।

सूक्ति-
७१३-

ताव देर पेटुकी कुण लेवै ।

सूक्ति-
७१४-

ताव में ही पेटुकी ।

सूक्ति-
७१५-

काळ में इधक मासो ।

सूक्ति-
७१६-

मड़ौ भूत बाकळाँसूँईं राजी ।

सूक्ति-
७१७-

भूखाँ ने भालवो भाँव हू ज्याही ।

सूक्ति-
७१८-

आँधे कुत्तैरे किंवाड़ ही पापड़ ।

(ऐसेही आँधे कुत्तैरे खौळणही खीर)।

सूक्ति-
७१९-

सुवाड़ियाँरै लारे बाखड़ियाँनेईं मिल ज्याही ।

सूक्ति-
७२०-

दातारे धन नहीं , शूरवीररे शिर नहीं ।

सूक्ति-
७२१-

कँगाली में आटो गीलो ।

सूक्ति-
७२२-

सौ गोलाँही कौटड़ी सूनीं ।

सूक्ति-
७२३-

छौरा क्यूँ माथैरा खौज मांडे है ? ।

सूक्ति-
७२४-

छौरा मिनख हूज्यारे ! ।

सूक्ति-
७२५-

छौरा थारे माथैमें खाज हाले है काँई रे !।

सूक्ति-
७२६-

क्यूँ माथैमें राख घाली है ।

सूक्ति-
७२७-

क्यूँ अकल रो कादौ करे (है)।

सूक्ति-
७२८-

(अकल) धूड़रा दौ दाणा ही कौनि ।

सूक्ति-
७२९-

धणियाँ बिना धन सूनौ है ।

सूक्ति-
७३०-

आ कामळ शी रे आडी ,
अर घी रे ई आडी (है)।

सहायता-

एक आदमी पंगतमें बैठा भौजन कर रहा था।उसके शीत रोकनेके लिये औढी हुई कम्बल (दूसरोंकी अपेक्षा) अच्छी,कीमती नहीं थी।परौसनेवाले दूसरोंको तो मनुहार और आग्रह करके भी घी आदि परौस देते थे,पर उसको साधारण आदमी समझकर परौसने वालोंकी भी उधर दृष्टि नहीं जा रही थी।वो घी नहीं परौस रहे थे,आगे चले जाते थे।तब कहा गया कि यह कम्बल शीतके आड़ी है (आड़ लगा रही है) और घी के भी आड़ी है।

सूक्ति-
७३१-

डूमाँ आडी डौकरी , (अर) बळदाँ आडी भैंस ।

सूक्ति-
७३२-

कळहरो मूळ हाँसी ,
अर रोगरो मूळ खाँसी ।

सूक्ति-
७३३-

फिरे सो तो चरे , अर बाँध्यो भूखाँ मरे ।

सूक्ति-
७३४-

अकल बिना ऊँट उभाणा फिरै (है)।

सूक्ति-
७३५-

बींद रे मूँडैमेंईं लाळाँ पड़े ,
तो जानी बापड़ा काँई करै !।

सूक्ति-
७३६-

सभी भूमि गोपाल की यामें अटक कहा?।
जिसके मन में अटक है सोही अटक रहा।।

सूक्ति-
७३७-


बाईजीरा बन्धन कटग्या सहजाँ हूगी राण्ड ।

सूक्ति-
७३८-

भैंस चरावै भारौ लावै काम करै आखो।
ठाकर कहै ठकराणी ! ऐसो आदमी (आपाँरे भी) राखो ।।

सूक्ति-
७३९-

पिण्डताई पानैं पड़ी औ पूरबलो पाप ।
औराँने प्रबोधताँ खाली रह गया आप।।

सूक्ति-
७४०-

पढ़ै अपढ़ै सारखे जो आतम नहिं लक्ख।
सिल सादी चित्रित अखा दौनों डूबण पक्ख ।।

शब्दार्थ-

सिल (शिला,पत्थर)।सादी (बिना घड़ी हुई,सादा पत्थर)।(सिल) चित्रित (घड़ी हुई और चित्रकारी की हुई
शिला,पत्थर)।

डूबण पक्ख (डूबनेके पक्षमें अर्थात् पत्थर चाहे घड़ा हुआ हो और चाहे बिना घड़ा हुआ हो,डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता।घड़ा हुआ और चित्रित पत्थर दीखनेमें तो बढिया और सून्दर दीखता है और बिना घड़ा हुआ सून्दर नहीं दीखता,दौनोंमें बड़ा फर्क है,परन्तु दौनों पत्थर पानीमें रखे जायँ तो डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता,दौनों डूब जाते हैं।ऐसे ही एक तो पढे-लिखे आदमी हैं(वे अच्छे लगते हैं,शोभा पाते हैं) और एक अनपढ हैं (वो अच्छे नहीं लगते,शौभा नहीं पाते),दौनोंमें बड़ा फर्क रहता है,परन्तु डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता।दौनोंने अगर मुक्ति नहीं की तो दौनों डूबेंगे।पढा-लिखा हो, चाहे अनपढ हो, डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहेगा।

सूक्ति-
७४१-

नशा ऐसा कीजिए जैसा अँधाधुँध |
घर का जाणैं मर गया आप करै आणन्द ।।

सूक्ति-
७४२-

ढूँढा सब जहाँ पाया पता तेरा नहीं |
जब पता तेरा लगा(तो) अब पता मेरा नहीं।।

शब्दार्थ-

सब जहाँ (सब जगह,सारी दुनियाँमें)।

सूक्ति-
७४३-

कहणी प्रभु रीझै नहीं रहणी रीझै राम।
सपनेकी सौ मोहरसे कौड़ी सरै न काम।।

सूक्ति-
७४४-

आगे चलकर पीछै जौवे ,
काँटो काढ़ण ऐडी टौवे ।

सूक्ति-
७४५-

सिंघ नहिं दीठौ (तो) देख बिलाई।
जम नहीं दीठौ (तो) देख जँवाई ।।

सहायता-

यमराज आते हैं तो एक आदमी (व्यक्ति) को लै जाते हैं ऐसे ही जँवाईराज आते हैं तो वो भी एक व्यक्तिको लै जाते हैं।यमराजको नहीं देखा हो तो जँवाईराजको देखलो।सिंहको नहीं देखा हो तो बिल्लीको देखलो (बिल्ली व्याघ्र जातीकी होती है)।

सूक्ति-
७४६-

धन जौबन और चातुरी ये तो जाणो ठग्ग।
मती करोरे मानवियाँ ! थे पुटियैवाळा पग्ग।।

सूक्ति-
७४७-

हम जाना बहु खायेंगे बहुत जमीं बहु माल।
ज्यों के त्यों ही रह गए पकड़ लै गयौ काळ।।

सूक्ति-
७४८-

कहा कमी रघुनाथमें छाँड़ी अपनी बान।
मन बैरागी ह्वै गयौ सुन बँशी की तान।।

सूक्ति-
७४९-

संसारीरा टूकड़ा नौ-नौ आँगळ दाँत।
भजन करै तौ उबरै नहीं तो काढ़ै आँत।।

सूक्ति-
७५०-

रामजीकी चिड़ियाँ रामजीको खेत। खावौ (ये) चिड़ियाँ भर भर पेट।।

सूक्ति-
७५१-

प्रहलाद कहता राक्षसों ! हरि हरि रटौ संकट कटै।
सदभाव की छौड़ौ समीरण विपतिके बादळ फटै।।

शब्दार्थ-

समीरण (समीर,हवा,आँधी)।

प्रसंग-

हिरण्यकशिपुने जब राक्षसोंको आदेश दिया कि प्रह्लादको मार डालो और उसकी आज्ञाके अनुसार वो प्रह्लादको मारने लगे तो भगवानने रक्षा करली,प्रह्लादको मारने दिया नहीं।राक्षस जब उसको मार नहीं पाये,तब हिरण्यकशिपुने कोप किया कि तुम्हारेसे एक बच्चा नहीं मरता है?(तुम्हारेको दण्ड दैंगे)।तब डरते हुए राक्षस काँपने लगे।उस समय  प्रह्लादजी (हिरण्यकशिपुके सामने ही) राक्षसोंसे कहने लगे कि हे राक्षसों! तुम राम राम रटो,भगवानका नाम लो जिससे तुम्हारे संकट कट जायँ।
सद्भाव पैदा करो,जिससे तुम्हारी सब विपत्तियाँ नष्ट हो जायँ।

(इस प्रकार आया हुआ संकट कट जायेगा और आनेवाली विपत्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी)।

सद्भाव (जैसे, किसीको मारनेकी कौशीश मत करो,किसीका अनिष्ट मत चाहो,किसीको शत्रु मत समझो,सब जगह और सबमें भगवान परिपूर्ण हैं,सब रूपोंमें भगवान मौजूद हैं,इसलिये किसीसे डरो मत।सबका भला हो जाय,कल्याण हो जाय,सब सुखी हो जायँ,दुखी कोई भी न रहें)।

(ऐसे) सद्भाव रूपी आप हवा चलाओगे तो आपके विपत्तिरूपी बादल
नष्ट हो जायेंगे।

जैसे,बादल छाये हुए हौं और उस समय अगर  हवा (आँधी) चल पड़े, तो बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और वर्षा टिक नहीं पातीं।

इसी प्रकार जब संकट छाये हुए हों और उस समय अगर राम राम रटा जाता है और सद्भावकी हवा छौडी (चलायी) जाती है तो विपत्तिके बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और विपत्ति टिक नहीं पातीं।राम राम रटनेसे सब संकट मिट जाते हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:ख भाग्भवेत्।।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

स्मार्त जन्माष्टमी आदि और वैष्णव जन्माष्टमी,एकादशी आदि क्या होती है?

एक सज्जन पूछते हैं कि स्मार्त और वैष्णव किसको कहते हैं?

उत्तरमें निवेदन है कि-

स्मार्त एकादशी,स्मार्त जन्माष्टमी आदि वो होती है जो स्मार्त अर्थात् स्मृति आदि धर्म ग्रंथोंको माननेवालोंके अनुसार हो और वैष्णव एकादशी,वैष्णव जन्माष्टमी आदि वो होती है जो वैष्णव अर्थात् विष्णु भगवान और उनके भक्तोंको,संतोंको माननेवालोंके अनुसार हो।

( यह स्मार्त और वैष्णववाली बात श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई है)।

सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका और श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज वैष्णव एकादशी,वैष्णव जन्माष्टमी आदि मानते और करते थे।

एकादशी आदि व्रतोंके माननेमें दो धर्म है-एक वैदिक धर्म और एक वैष्णव धर्म।

(एक एकादशी स्मार्तोंकी होती है और एक एकादशी वैष्णवोंकी होती है।स्मार्त वे होते हैं) जो वेद और स्मृतियोंको खास मानते हैं,वे भगवानको खास नहीं मानते।वेदोंमें,स्मृतियोंमें भगवानका नाम आता है इसलिये वे भगवाको मानते हैं (परन्तु खास वेदोंको मानते हैं) और वैष्णव वे होते हैं जो भगवानको खास मानते हैं,वे वेदोंको,पुराणोंको इतना खास नहीं मानते जितना भगवानको खास मानते हैं।

( वैष्णव और स्मार्तका रहस्य समझनेके लिये परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका यह प्रवचन 19990809/1630 सुनें)।

(पता:-
https://docs.google.com/file/d/0B3xCgsI4fuUPTENQejk2dFE2RWs/edit?usp=docslist_api)

वेदमत,पुराणमत आदिके समान एक संत मत भी होता है,जिसको वेदोंसे भी बढकर माना गया है।

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका ।
भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
बेद पुरान संत मत एहू ।
सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥

ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें ।
द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥

कलि केवल मल मूल मलीना ।
पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥

नाम कामतरु काल कराला ।
सुमिरत समन सकल जग जाला ॥

राम नाम कलि अभिमत दाता ।
हित परलोक लोक पितु माता ॥

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू ।
राम नाम अवलंबन एकू ॥

कालनेमि कलि कपट निधानू ।
नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥

दोहा

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥२७॥

(रामचरितमा.१/२७)।

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श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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बुधवार, 20 अगस्त 2014

सूक्ति ६०१-७०१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

                                ||श्रीहरिः||          

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                          

      -:@सातवाँ शतक (सूक्ति ६०१-७०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री  रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |

उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |

इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |

इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
६०१-

कुटी क्रोध (अरू) हँसी मुकुर बाल तिया मद फाग |
होत सयाने बावरे आठ ठौर चित्त लाग ।।

शब्दार्थ-

कुटी (घर)।मुकुर (दर्पण)।बाल (बालक,बच्चा)।तिया (तिरिया,स्त्री)।मद (मद्य,मदिरा)।

भावार्थ-

इन आठ ठौरों(जगहौं)मेंसे एक ठौर भी अगर किसीका मन लग जाता है तो समझदार भी बावले (बेसमझ,मूर्ख) हो जाते हैं।

सूक्ति-
६०२-

धौळो धौळो (सब) दूध ही है ।

सूक्ति-
६०३-

छाळी दूध तो देवै , पण मींगण्याँ रळार देवै ।

सूक्ति-
६०४-

अणहूत भाटेसूँईं काठी ।

शब्दार्थ-

अणहूत (अभाव)।

सूक्ति-
६०५-

पुन्नरी पाळ हरी है ।

सूक्ति-
६०६-

बिद्या कण्ठै , अर धन अण्टै ।

सूक्ति-
६०७-

भाग नहीं भैरून्दे जोगो टीले जोगी टाट ।

कथा-

एक बार किसी व्यक्ति पर रीझ कर दरबार (राजा) इनाममें एक गाँव देने लगे। उस व्यक्तिसे पूछा कि बता कौनसा गाँव लेगा- भैरूँदा या टीलगढ? तो वो बोला टीलगढ।
उसने टीलगढको गढ(बड़ा,कीमती) समझकर माँग लिया था, लेकिन भैरूँदेके सामने टीलगढ बहुत छौटा था।भैरुँदा बहुत बड़ा,कीमती शहर था।जानकारोंको तो उम्मीद थी कि यह भैरुँदा ही माँगेगा और यही माँगना चाहिये था,लेकिन उसने जब भैरूँदेको छौड़कर टीलगढ माँगा, तो कहा गया कि यह भैरूँदेके योग्य भाग्यवाला नहीं है,यह टाट तो टीलेके योग्य ही है-
भाग नहीं भैरून्दे जोगो टीले जोगी टाट ।

सूक्ति-
६०८-

आँ राताँरा तो एही झाँझरका है ।

सूक्ति-
६०९-

जठै देखे भरी परात , बठै नाचे सारी रात ।

सूक्ति-
६१०-

जग में बैरी को नहीं सब सैणाँरो साथ ।
केवल कूबा यूँ कहै चरणाँ घालूँ हाथ ||

सूक्ति-
६११-

कबीरो बिगड़्यो राम दुहाई ,
थे मत बिगड़ो म्हारा भाई ।

सूक्ति-
६१२-

खेल खतम, पैसा हजम ।

सूक्ति-
६१३-

भेड़ माथै ऊन कुण छोडै (है) ।

सूक्ति-
६१४-

कौडियैरो टको ठाकुरजीरे काम कौनि आवे ।

सूक्ति-
६१५-

भौळो सैण दुश्मणरी गर्ज साजै ।

सूक्ति-
६१६-

माँ मारे है , पण मारण कौनि देवै ।

सूक्ति-
६१७-

माँग्या मिले माल ,
ज्याँरे काँई कमीरे लाल ।

सूक्ति-
६१८-

माँग्यौड़ी तो मौत भी कौनि मिले ।

सूक्ति-
६१९-

रोयाँ राज थौड़ो ही मिले है ।

सूक्ति-
६२०-

माँग्या मिले नहिं कोयला  अणमाँग्या पकवान ।

सूक्ति-
६२१-

घी तो आडाँ हाथाँ ( ही घालीजै )।

सूक्ति-
६२२-

जारे राँडरा काचा ।

सूक्ति-
६२३-

माई बाई भाइली , भाग पसाड़ली ।

सूक्ति-
६२४-

घाले जितौई मीठो , ह्नावै जितौई पुन्न ।

सूक्ति-
६२५-

पापीरो धन परलै जाय ,
कीड़ी सँचै तीतर खाय ।

सूक्ति-
६२६-

धन धणीयाँरो ((है) ,
गेवाळियैरे हाथ में तो गैडियो है ।

सूक्ति-
६२७-

गायाँ ऊछरगी , अर पौटा पड़िया है ।

सूक्ति-
६२८-

आतो छाछ ढुलणवाळी ही है ।

सूक्ति-
६२९-

सब गुड़ गोबर हूग्यो ।

सूक्ति-
६३०-

एक आँख , झकीमेंई फूलो ।

सूक्ति-
६३१-

मूण्डे आडौ सौ मणरो ताळो है ।

सूक्ति-
६३२-

इण मूण्डैनें र आ खीर !।

सूक्ति-
६३३-

काँई मियाँ मरग्या ,
अर काँई रोजा घटग्या ।

सूक्ति-
६३४-

सती श्राप देवै नहीं ,
अर कुसती रो लागे नहीं ।

सूक्ति-
६४५-

हींग लगे नहिं फिटकरी रंग झखाझख आय ।

सूक्ति-
६३६-

कलबल-कलबल हाका हूकी बात सुणीथे राते |
भूतप्रेत संग लै आयौ चौंसठ जोगण साथै ।|
(बनौं तो भभूति वाळोये …
आछो बर पायो… गौराँ.)

सूक्ति-
६३७-

अपने रामसे लगि रहिये |
जो कोई बादी बाद चलावै दोय बात बाँकी सहिये ।

सूक्ति-
६३८-

गंगा गये गंगादास ,
जमुना गये जमुनादास ।

सूक्ति-
६३९-

बाँदी सो तो बादशाह की ओरन की सरदार ।

सूक्ति-
६४०-

पाँचाँरी लकड़ी , अर एक रो भारो ।

सूक्ति-
६४१-

जावताँरा टामा है ।

सूक्ति-
६४२-

आँधेरो तन्दूरो बाबो रामदेव बजावै।

सूक्ति-
६४३-

आँटा टूँटा गहुँआँरा रोटा है ।

सूक्ति-
६४४-

छाती माथै मूँग दळे है ।

सूक्ति-
६४५-

पैंडो भलौ न कोसको, बेटी भली न एक।
लैणो भलो न बाप को साहिब राखे टेक।।

शब्दार्थ-

लैणो (ऋण,कर्ज)।

सूक्ति-
६४६-

अकल जरक चढ़ी है ।

सहायता-

जरक (लक्कड़बग्घा)।

सूक्ति-
६४७-

एक घर तो डाकणई (भी) टाळे है ।

सूक्ति-
६४८-

करो राधाने याद ।

सूक्ति-
६४९-

रहसी रामजी रो नाम ।

सूक्ति-
६५०-

कह बाबाजी नमो नारायण !
कह आज धामो थारे ही ।

सहायता-

धामो (धाम,घर,निवास स्थान।आज तुम्हारे यहाँ ही रहेंगे)।

सूक्ति-
६५१-

आपरी रोटी आडा ही खीरा देवै ।

सूक्ति-
६५२-

कटकी कठेई , पड़ी कठेई ।

सूक्ति-
६५३-

पटकी पड़े थारे ऊपर ।

शब्दार्थ-

पटकी (बिजली,आकाशीय विद्युत)।

सूक्ति-
६५४-

बेळाँ देख नहिं बिणजे, सो तो बाणियोई गिंवार ।

सूक्ति-
६५५-

मणभर गेहूँ में उनचाळीस सेर काँकरा है ।

सूक्ति-
६५६-

आपतो दूधरा धौयौड़ा है ? ।

सूक्ति-
६५७-

आपरी माँने डाकण कुण कहवै ? ।

सूक्ति-
६५८-

भौगना फूटा है सावणरे महीनें गधेरा फूटै ज्यूँ ।

सूक्ति-
६५९-

पारकी पूणीसूँ कातणो सीखणो है ।

सूक्ति-
६६०-

भाई मरियो झको सौच कौनि  पण भाभीरो बट निकळग्यो ।

सूक्ति-
६६१-

मेह , अर मौत रामजीरे सारे है ।

सूक्ति-
६६२-

रोयाँ बिना माँ भी बोबो कौनि देवै ।

सूक्ति-
६६३-

अड़ँग बड़ँग स्वाहा ।

सूक्ति-
६६४-

भुट चिपग्यो ।

सूक्ति-
६६५-

सुण लेणा सीधेरी सोय,
लेणा एक न देणा दोय ।

सूक्ति-
६६६-

आ तो राबड़ी रोटी है ।

सूक्ति-
६६७-

(कह,)डोकरी ! पुष्कर देख्यो (काँई) ?
कह, खिणायो कुण हो ? ।

सूक्ति-
६६८-

औड़ खन्देड़े नीचे नहिं आवे ।

सूक्ति-
६६९-

असलीरी औलाद खून बिना खिजरै नहीं |
बावै बादौ बाद रोड दुलाताँ राजिया ||

शब्दार्थ-

रोड (औछा,निकृष्ट,छौटा,खौटा;नकली)।

सूक्ति-
६७०-

कहयाँ कुम्हार गधे कौनि चढ़े ।

सूक्ति-
६७१-

बहू उघाड़ी फिरे तो सुसरैरी फूटगी काँई ? ।

सूक्ति-
६७२-

(फलाणौ) काँई दूबळी सुवासणी है ? ।

सूक्ति-
६७३-

(भगवान) लाददे, लदवायदे, लादणवाळा साथ दे ।

सूक्ति-
६७४-

बिरखारा पग हरिया ।

सूक्ति-
६७५-

राबड़ी कहवै म्हनेई(भी) दाँता सूँ खावौ ।

सूक्ति-
६७६-

डोवौ कहवै म्हने भी ब्यावमें बरतो ।

सूक्ति-
६७७-

बाना पूज नफा लै भाई !
उनका औगुण उनके माहीं ।

सूक्ति-
६७८-

साँगेरे चाइजै गावड़ी,
घणमौली अर सुवावड़ी ।

सूक्ति-
६७९-

होका थैँसूँ हेत इतरो जै हरसूँ हुवै ।
तौ पूगावै ठेठ (नहिं तो) आदैटेसूँ आगो करै ।।

सूक्ति-
६८०-

आम खावणा है क पेड़ गिणणा है !।

सूक्ति-
६८१-

एक मेह , एक मेह, करताँ तो माईत ही मरग्या ।

सूक्ति-
६८२-

सब धापा तो सौवे है ,
अर भूखा ऊठे है ।

सूक्ति-
६८३-

बहनरे भाई , अर सासूरे जँवाई ।

सूक्ति-
६८४-

तप्यै  तवै रोटी पकाले ।

सूक्ति-
६८५-

दूध पीवै जैड़ी बात है ।

सूक्ति-
६८६-

क्यूँ पतळैमें पत्थर नाँखे है !।

सूक्ति-
६८७-

टाँटियैरो छत्तो है ।

सूक्ति-
६८८-

भाँगणो भाखर , अर काढणो ऊन्दरो ।

सूक्ति-
६८९-

धूड़ बिना धड़ौ नहीं, कूड़ बिना बौपार नहीं ।

सूक्ति-
६९०-

तौलीजे सोनो , अर लै दौड़ै ईंट ।

सूक्ति-
६९१-

काँई भींजी सूखे है ।

सूक्ति-
६९२-

कह , शुभराज !
(भाँड़का जवाब-)
कह , शुभराज सूँ घर भरियो है ।

सूक्ति-
६९३-

भोजन में अगाड़ी ,
(अर) फौजमें पिछाड़ी ।

सूक्ति-
६९४-

सौरो जिमायौड़ौ ,
अर दौरो कूटयौड़ौ भूलै कोनि ।

सूक्ति-
६९५-

फूल सारूँ पाँखड़ी ।

सूक्ति-
६९६-

मरे टार कै कूदे खाई ।

शब्दार्थ-

टार (घौड़ा)।

सूक्ति-
६९७-

खावे जितौई मीठौ ,
अगले भौ किण दीठौ ।

सूक्ति-
६९८-

आँधो अर अणजाण बरोबर हुवै है ।

सूक्ति-
६९९-

आपसूँ बळवान जम ।

सूक्ति-
७००-

राबड़ली थापर रौष कबिजन कदै न बीसरे ।
छौड़ी थी सौ कोस आय मिली तूँ आगरै ।।

कथा-

एक चारण (बारहठ) आगरे (शहर) चले गये।वहाँ किसीने उनके लिये राबड़ी बनवायी कि इनके वहाँ राबड़ी खायी जाती है,इसलिये इनको अच्छी लगेगी; लेकिन ये चारण भाई राबड़ीसे उकताये हुए थे।अब वही राबड़ी परौसी हुई देखकर वो बोले कि हे राबड़ी! तुम्हारे पर जो गुस्सा है,उसको कविलोग कभी नहीं भूलते।तेरेको सौ कोस दूर छौड़ी थी और तू अगाड़ी आकर आगरैमें (भी) मिल गई!

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
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