सोमवार, 25 अगस्त 2014

सूक्ति ७०१-७५१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि)।


                                ||श्रीहरिः||          

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                          

      -:@आठवाँ (अर्ध) शतक ( सूक्ति ७०१-७५१ )@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री  रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |

उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |

इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |

इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -  

सूक्ति-
७०१-

कागाँरे बागा हुवै तो उडताँरेई दीसै।

सूक्ति-
७०२-

ऊँचो ऊँचो खैंचताँ नीचो जाय निराट ।
कियौ चाहे देवता हुयौ चाहे जाट ।।

सूक्ति-
७०३-

बळगत भाड़ै ।

सूक्ति-
७०४-

एकै पाणी मीठौ ।

सूक्ति-
७०५-

शीरो साधाँने सुखदाई ।
जामें दूणी खाँड मिलाई ।
थौड़ो और पुरसरे भाई !।
म्हारे दाँताँरी अबखाई ।।

सूक्ति-
७०६-

शीरो साधाँ ने ,
भाजी भगताँ ने ,
(अर) दाळ दर्ज्यां ने ।

सूक्ति-
७०७-

सबकै सीजै ,
लबकै लीजै ,
ऐसा भोजन सदाईं कीजै ।

सूक्ति-
७०८-

आकोळाई ढाकोलाई,
पाँचूँ रूखाँ एक तळाई |
दैरे चेला धौक,
(कह ) रूपयौ धरदे रोक ।

सूक्ति-
७०९-

तणर तीरियो बावै।

सूक्ति-
७१०-

न ताळी मिले है ,
न ताळा खुले है ।

सूक्ति-
७११-

आधो तन तो आपरोई कौनि दीसे ।

सूक्ति-
७१२-

रोवतो जावे ,
अर मरयौड़ेरी खबर लावे ।

सूक्ति-
७१३-

ताव देर पेटुकी कुण लेवै ।

सूक्ति-
७१४-

ताव में ही पेटुकी ।

सूक्ति-
७१५-

काळ में इधक मासो ।

सूक्ति-
७१६-

मड़ौ भूत बाकळाँसूँईं राजी ।

सूक्ति-
७१७-

भूखाँ ने भालवो भाँव हू ज्याही ।

सूक्ति-
७१८-

आँधे कुत्तैरे किंवाड़ ही पापड़ ।

(ऐसेही आँधे कुत्तैरे खौळणही खीर)।

सूक्ति-
७१९-

सुवाड़ियाँरै लारे बाखड़ियाँनेईं मिल ज्याही ।

सूक्ति-
७२०-

दातारे धन नहीं , शूरवीररे शिर नहीं ।

सूक्ति-
७२१-

कँगाली में आटो गीलो ।

सूक्ति-
७२२-

सौ गोलाँही कौटड़ी सूनीं ।

सूक्ति-
७२३-

छौरा क्यूँ माथैरा खौज मांडे है ? ।

सूक्ति-
७२४-

छौरा मिनख हूज्यारे ! ।

सूक्ति-
७२५-

छौरा थारे माथैमें खाज हाले है काँई रे !।

सूक्ति-
७२६-

क्यूँ माथैमें राख घाली है ।

सूक्ति-
७२७-

क्यूँ अकल रो कादौ करे (है)।

सूक्ति-
७२८-

(अकल) धूड़रा दौ दाणा ही कौनि ।

सूक्ति-
७२९-

धणियाँ बिना धन सूनौ है ।

सूक्ति-
७३०-

आ कामळ शी रे आडी ,
अर घी रे ई आडी (है)।

सहायता-

एक आदमी पंगतमें बैठा भौजन कर रहा था।उसके शीत रोकनेके लिये औढी हुई कम्बल (दूसरोंकी अपेक्षा) अच्छी,कीमती नहीं थी।परौसनेवाले दूसरोंको तो मनुहार और आग्रह करके भी घी आदि परौस देते थे,पर उसको साधारण आदमी समझकर परौसने वालोंकी भी उधर दृष्टि नहीं जा रही थी।वो घी नहीं परौस रहे थे,आगे चले जाते थे।तब कहा गया कि यह कम्बल शीतके आड़ी है (आड़ लगा रही है) और घी के भी आड़ी है।

सूक्ति-
७३१-

डूमाँ आडी डौकरी , (अर) बळदाँ आडी भैंस ।

सूक्ति-
७३२-

कळहरो मूळ हाँसी ,
अर रोगरो मूळ खाँसी ।

सूक्ति-
७३३-

फिरे सो तो चरे , अर बाँध्यो भूखाँ मरे ।

सूक्ति-
७३४-

अकल बिना ऊँट उभाणा फिरै (है)।

सूक्ति-
७३५-

बींद रे मूँडैमेंईं लाळाँ पड़े ,
तो जानी बापड़ा काँई करै !।

सूक्ति-
७३६-

सभी भूमि गोपाल की यामें अटक कहा?।
जिसके मन में अटक है सोही अटक रहा।।

सूक्ति-
७३७-


बाईजीरा बन्धन कटग्या सहजाँ हूगी राण्ड ।

सूक्ति-
७३८-

भैंस चरावै भारौ लावै काम करै आखो।
ठाकर कहै ठकराणी ! ऐसो आदमी (आपाँरे भी) राखो ।।

सूक्ति-
७३९-

पिण्डताई पानैं पड़ी औ पूरबलो पाप ।
औराँने प्रबोधताँ खाली रह गया आप।।

सूक्ति-
७४०-

पढ़ै अपढ़ै सारखे जो आतम नहिं लक्ख।
सिल सादी चित्रित अखा दौनों डूबण पक्ख ।।

शब्दार्थ-

सिल (शिला,पत्थर)।सादी (बिना घड़ी हुई,सादा पत्थर)।(सिल) चित्रित (घड़ी हुई और चित्रकारी की हुई
शिला,पत्थर)।

डूबण पक्ख (डूबनेके पक्षमें अर्थात् पत्थर चाहे घड़ा हुआ हो और चाहे बिना घड़ा हुआ हो,डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता।घड़ा हुआ और चित्रित पत्थर दीखनेमें तो बढिया और सून्दर दीखता है और बिना घड़ा हुआ सून्दर नहीं दीखता,दौनोंमें बड़ा फर्क है,परन्तु दौनों पत्थर पानीमें रखे जायँ तो डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता,दौनों डूब जाते हैं।ऐसे ही एक तो पढे-लिखे आदमी हैं(वे अच्छे लगते हैं,शोभा पाते हैं) और एक अनपढ हैं (वो अच्छे नहीं लगते,शौभा नहीं पाते),दौनोंमें बड़ा फर्क रहता है,परन्तु डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहता।दौनोंने अगर मुक्ति नहीं की तो दौनों डूबेंगे।पढा-लिखा हो, चाहे अनपढ हो, डूबनेमें कोई फर्क नहीं रहेगा।

सूक्ति-
७४१-

नशा ऐसा कीजिए जैसा अँधाधुँध |
घर का जाणैं मर गया आप करै आणन्द ।।

सूक्ति-
७४२-

ढूँढा सब जहाँ पाया पता तेरा नहीं |
जब पता तेरा लगा(तो) अब पता मेरा नहीं।।

शब्दार्थ-

सब जहाँ (सब जगह,सारी दुनियाँमें)।

सूक्ति-
७४३-

कहणी प्रभु रीझै नहीं रहणी रीझै राम।
सपनेकी सौ मोहरसे कौड़ी सरै न काम।।

सूक्ति-
७४४-

आगे चलकर पीछै जौवे ,
काँटो काढ़ण ऐडी टौवे ।

सूक्ति-
७४५-

सिंघ नहिं दीठौ (तो) देख बिलाई।
जम नहीं दीठौ (तो) देख जँवाई ।।

सहायता-

यमराज आते हैं तो एक आदमी (व्यक्ति) को लै जाते हैं ऐसे ही जँवाईराज आते हैं तो वो भी एक व्यक्तिको लै जाते हैं।यमराजको नहीं देखा हो तो जँवाईराजको देखलो।सिंहको नहीं देखा हो तो बिल्लीको देखलो (बिल्ली व्याघ्र जातीकी होती है)।

सूक्ति-
७४६-

धन जौबन और चातुरी ये तो जाणो ठग्ग।
मती करोरे मानवियाँ ! थे पुटियैवाळा पग्ग।।

सूक्ति-
७४७-

हम जाना बहु खायेंगे बहुत जमीं बहु माल।
ज्यों के त्यों ही रह गए पकड़ लै गयौ काळ।।

सूक्ति-
७४८-

कहा कमी रघुनाथमें छाँड़ी अपनी बान।
मन बैरागी ह्वै गयौ सुन बँशी की तान।।

सूक्ति-
७४९-

संसारीरा टूकड़ा नौ-नौ आँगळ दाँत।
भजन करै तौ उबरै नहीं तो काढ़ै आँत।।

सूक्ति-
७५०-

रामजीकी चिड़ियाँ रामजीको खेत। खावौ (ये) चिड़ियाँ भर भर पेट।।

सूक्ति-
७५१-

प्रहलाद कहता राक्षसों ! हरि हरि रटौ संकट कटै।
सदभाव की छौड़ौ समीरण विपतिके बादळ फटै।।

शब्दार्थ-

समीरण (समीर,हवा,आँधी)।

प्रसंग-

हिरण्यकशिपुने जब राक्षसोंको आदेश दिया कि प्रह्लादको मार डालो और उसकी आज्ञाके अनुसार वो प्रह्लादको मारने लगे तो भगवानने रक्षा करली,प्रह्लादको मारने दिया नहीं।राक्षस जब उसको मार नहीं पाये,तब हिरण्यकशिपुने कोप किया कि तुम्हारेसे एक बच्चा नहीं मरता है?(तुम्हारेको दण्ड दैंगे)।तब डरते हुए राक्षस काँपने लगे।उस समय  प्रह्लादजी (हिरण्यकशिपुके सामने ही) राक्षसोंसे कहने लगे कि हे राक्षसों! तुम राम राम रटो,भगवानका नाम लो जिससे तुम्हारे संकट कट जायँ।
सद्भाव पैदा करो,जिससे तुम्हारी सब विपत्तियाँ नष्ट हो जायँ।

(इस प्रकार आया हुआ संकट कट जायेगा और आनेवाली विपत्तियाँ भी नष्ट हो जायेंगी)।

सद्भाव (जैसे, किसीको मारनेकी कौशीश मत करो,किसीका अनिष्ट मत चाहो,किसीको शत्रु मत समझो,सब जगह और सबमें भगवान परिपूर्ण हैं,सब रूपोंमें भगवान मौजूद हैं,इसलिये किसीसे डरो मत।सबका भला हो जाय,कल्याण हो जाय,सब सुखी हो जायँ,दुखी कोई भी न रहें)।

(ऐसे) सद्भाव रूपी आप हवा चलाओगे तो आपके विपत्तिरूपी बादल
नष्ट हो जायेंगे।

जैसे,बादल छाये हुए हौं और उस समय अगर  हवा (आँधी) चल पड़े, तो बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और वर्षा टिक नहीं पातीं।

इसी प्रकार जब संकट छाये हुए हों और उस समय अगर राम राम रटा जाता है और सद्भावकी हवा छौडी (चलायी) जाती है तो विपत्तिके बादल फट जाते हैं,बिखर जाते हैं और विपत्ति टिक नहीं पातीं।राम राम रटनेसे सब संकट मिट जाते हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:ख भाग्भवेत्।।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

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