॥श्रीहरि:॥
(गुरु कैसा हो?)
साधकको शुरुमें ही सोच-समझकर आचार्य,
संत-महापुरुषके पास जाना चाहिये।
आचार्य (गुरु) कैसा हो ?
इस सम्बन्धमें ये बातें ध्यानमें रखनी चाहिये ----
(१) अपनी दृष्टिमें जो वास्तविक बोधवान्, तत्त्वज्ञ दीखते हों ।
(२) जो कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि साधनोंको ठीक-ठीक जाननेवाले हों ।
(३) जिनके संगसे, वचनोंसे हमारे हृदयमें रहनेवाली शंकाएँ बिना पूछे ही स्वतः दूर हो जाती हों ।
(४) जिनके पास रहनेसे प्रसन्नता, शान्तिका अनुभव होता हो ।
(५) जो हमारे साथ केवल हमारे हितके लिये ही सम्बन्ध रखते हुए दीखते हों ।
(६) जो हमारेसे किसी भी वस्तुकी किञ्चिन्मात्र भी आशा न रखते हों ।
(७) जिनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल साधाकोंके हितके लिये ही होती हों ।
(८) जिनके पासमें रहनेसे लक्ष्यकी तरफ हमारी लगन स्वतः बढ़ती हो ।
(९) जिनके संग, दर्शन, भाषण, स्मरण आदिसे हमारे दुर्गुण-दुराचार दूर होकर स्वतः सद्गुण-सदाचाररूप दैवी सम्पति आती हो ।
(१०) जिनके सिवाय और किसीमें वैसी अलौकिकता, विलक्षणता न दीखती हो।
ऐसे आचार्य,संतके पास रहना चाहिये और केवल अपने उध्दारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये।वे क्या करते हैं,क्या नहीं करते? वे ऐसी क्रिया क्यों करते हैं? वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं? आदिमें अपनी बुध्दि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये।साधकको तो उनके अधीन होकर रहना चाहिये,उनकी आज्ञा,रुखके अनुसार मात्र क्रियाएँ करनी चाहिये और श्रध्दाभावपूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये।अगर वे महापुरुष न चाहते हों तो उनसे गुरु-शिष्यका व्यावहारिक सम्बन्ध भी जोड़नेकी आवश्यकता नहीं है।हाँ,उनको हृदयसे गुरु मानकर उनपर श्रध्दा रखनेमें कोई आपत्ति नहीं है।
अगर ऐसे महापुरुष न मिलें तो साधकको चाहिये कि वह केवल परमात्माके परायण होकर उनके ध्यान,चिन्तन आदिमें लग जाय…
"साधक-संजीवनी"
(लेखक-
परम श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजीमहाराज)।
तेरहवें अध्यायके सातवें श्लोककी टीका(पृष्ठ ८७२) से।
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/
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