बुधवार, 24 मई 2017

*"श्रीलक्ष्मण गीता"*

                     ॥श्रीहरि:॥

*"श्रीलक्ष्मण गीता"*

प्रसंग-
भगवान श्रीरामचन्द्रजी वन में जाने के लिये जब अयोध्या से चले, तब पहले दिन तमसा नदी के तीर पर ठहरे और दूसरे दिन अपने सखा निषादराज के यहाँ गंगा-तट पर ठहरे तथा रात्रि में वहीं विश्राम किया। श्रीसीतारामजी धरती पर ही सोये। लक्ष्मणजी पहरा लगाते हुए जग रहे थे। उस समय निषाद राज ने अपने विश्वास पात्र पहरेदारों को बुलाया और बड़े प्रेम से जगह-जगह पर उनको पहरे के लिये नियुक्त किया तथ आप भी धनुष बाण आदि से सुसज्जित होकर लक्ष्मणजी के पास जाकर बैठ गये।

श्रीसीतारामजी को पृथ्वी पर ही सोये हुए देख कर और अयोध्या के राज महलों के सुखों की याद करते हुऐ निषादराज बड़ा भारी विलाप करने लगे तथा महारानी कैकेयी को कोसने लगे कि उन्होंने श्रीसीतारामजी को सुख के अवसर पर दुख दे दिया। (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज कई बार यह प्रसंग सुनाते थे)।

तब श्रीलक्ष्मणजी ने संसार को स्वप्नवत असत्य बताते हुए सत्य-तत्त्व,परमार्थ का वर्णन किया और बताया कि परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीरामचन्द्रजी ही परमार्थ स्वरूप है।ये ही सगुण और ये ही निर्गुण हैं। वे ही (अपनी मर्जी से) मनुष्य बन कर लीला कर रहे हैं। (इनको कैकेयी आदि कोई भी दुख नहीं दे सकता आदि)।

इसलिये हे सखा! मोह छोड़कर इनके चरणों में प्रेम करो। इनके चरणों में प्रेम करना ही परम परमार्थ है आदि-आदि।

(इस प्रकार श्रीलक्ष्मणजी ने निषाद का विषाद मिटा कर परमात्मतत्त्व का बोध कराया)।

इसको "श्रीलक्ष्मण गीता" कहा जाता है।
यथा-

  भयउ बिषादु निषादहि भारी।
राम सीय महि सयन निहारी।।
बोले लखन मधुर मृदु बानी।
ग्यान बिराग भगति रस सानी।।
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।
जोग बियोग भोग भल मंदा।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू।।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू।
सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।

सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ।।९२।।

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू।।
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा।
देखिअ सपन अनेक प्रकारा।।
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी।।
जानिअ तबहिं जीव जग जागा।
जब जब बिषय बिलास बिरागा।।
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा।।
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू।।
राम ब्रह्म परमारथ रूपा।
अबिगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल बिकार रहित गतभेदा।
कहि नित नेति निरूपहिं बेदा।।

भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल।।९३।।

सखा समुझि अस परिहरि मोहु।
सिय रघुबीर चरन रत होहू।।
कहत राम गुन भा भिनुसारा।
जागे जग मंगल सुखदारा।।

(रामचरितमा.२|९२-९४)।

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