शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

मैं किसी व्यक्ति या सम्प्रदायका अनुयायी नहीं हूँ-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज।

                ॥श्रीहरि:॥

मैं किसी व्यक्ति या सम्प्रदायका अनुयायी नहीं हूँ - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। 

कई लोगों को यह भ्रम है कि श्री स्वामी जी महाराज अमुक सम्प्रदाय के थे, वे अमुक महात्मा की बात मानते थे, अमुक की पुस्तकें पढ़ते थे, अमुक के अनुयायी थे, आदि आदि। 

ऐसे ही कई लोग कह देते हैं कि श्रीस्वामीजी महाराज का अमुक जगह आश्रम है,अमुक जगह उनका स्थान है, आदि आदि।

ऐसे भ्रम मिटाने के लिए कृपया श्री स्वामी जी महाराज की "रहस्यमयी वार्ता" नामक पुस्तक का यह अंश पढें-

"रहस्यमयी वार्ता" (प्रकाशक- गीता प्रकाशन, गोरखपुर) नामक पुस्तक के पृष्ठ ३२८ और ३२९ पर 'श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज' स्वयं बताते हैं कि -

प्रश्न- स्वामी शरणानन्दजीके सिद्धान्तसे आपका क्या मतभेद है?

स्वामीजी- गहरे सिद्धान्तोंमें मेरा कोई मतभेद नहीं है | वे भी करण निरपेक्ष शैली को मानते हैं, मैं भी। शरणानन्दजीकी वाणी में युक्तियोंकी, तर्ककी प्रधानता हैं । परन्तु मैं शास्त्रविधिको साथ में रखते हुए तर्क करता हूँ । उनके और मेरे शब्दोंमें फर्क है । वे अवधूत कोटिके महात्मा थे ; अत: उनके आचरण ठोस, आदर्श नहीं थे।

उनके और मेरे सिद्धान्तमें बड़़ा मतभेद यह है कि वे अपनी प्रणालीके सिवाय अन्य का खण्डन करते हैं। परन्तु मैं सभी प्रणालियोंका आदर करता हूँ।
उन्होनें क्रिया और पदार्थ (परिश्रम और पराश्रय ) -का सर्वथा निषेध किया हैं। परन्तु क्रिया और पदार्थका सम्बन्ध रहते हुए भी तत्त्वप्राप्ति हो सकती हैं।

'हम भगवान के अंश हैं' - यह बात शरणानन्दजीकी बातोंसे तेज है ! उनकी पुस्तकोंमें यह बात नहीं आयी!
आश्चर्यकी बात है कि 'सत्तामात्र' की बात उन्होनें कहीं नहीं कही! खास बात यह है कि हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। उस सत्तामात्रमें ही साधकको निरन्तर रहना चाहिये।

प्रश्न - कई कहते हैं कि स्वामीजी सेठजीकी बातें मानते हैं, कई कहते हैं कि स्वामीजी शरणानन्दजी की बातें मानते हैं, आपका इस विषयमें क्या कहना है ?

स्वामीजी - मैं किसी व्यक्ति या सम्प्रदायका अनुयायी नहीं हूँ, प्रत्युत तत्त्वका अनुयायी हूँ। मुझे सेठजीसे क्या मतलब ? शरणानन्दजीसे भी क्या मतलब ? मुझे तो तत्त्वसे मतलब है ? सार को लेना है, चाहे कहींसे मिले।
शरणानन्दजी की बातोंको मैं इसलिये मानता हूँ कि वे गीताके साथ मिलती हैं, इसलिये नहीं मानता कि वे शरणानन्दजीकी हैं ! उनकी वही बात मेरेको जँचती है, जो गीताके अनुसार हो।
मेरेमें किसी व्यक्तिका, सम्प्रदायका अथवा ज्ञान- कर्म- भक्तिका आग्रह नहीं है, पर जीवके कल्याण का आग्रह है ! मैं व्यक्तिपूजा नहीं मानता। सिद्धान्तका प्रचार होना चाहिये, व्यक्तिका नहीं। व्यक्ति एकदेशीय होता है ,पर सिद्धान्त व्यापक होता है। बात वह होनी चाहिये, जो व्यक्तिवाद और सम्प्रदायवादसे रहित हो और जिससे हिंदू , मुसलमान, ईसाई आदि सभी का लाभ हो। 

अधिक जानकारी के लिए यह लेख भी पढ़ें-

श्रीस्वामीजी महाराज की पुस्तक
"एक संतकी वसीयत" (प्रकाशक- गीताप्रेस, गोरखपुर) के पृष्ठ संख्या १२ पर  स्वयं श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि
...

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें ...

☆ -: मेरे विचार :-☆श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज।
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