गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के अन्तिम प्रवचनों का यथावत् लेखन

अन्तिम प्रवचन-

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

[ प्रसंग-

 श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है। इसलिये आप विश्राम करावें। जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी, तब आपको हमलोग सभामें ले चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय, तो कृपया हमें बता देना, हमलोग आपको सभामें ले जायेंगे।
उस समय ऐसा लगा कि श्री स्वामीजी महाराज ने यह प्रार्थना स्वीकार करली।

इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती, तब समय- समय पर आपको सभामें ले जाया जाता था।

एक दिन (परम धाम गमन से तीन दिन पहले २९ जून २००५ को, )
श्रद्धेय श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलें। सुनकर
तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करवा कर सभामें ले जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं, वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे और प्रवचन हुए।

इस प्रकार यह समझ में आया कि जो अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी, वो उस (पहले) दिन कह दीं।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे थे परन्तु दूसरों की मर्जी से पधारे थे। अपनी मर्जीसे तो जो आवश्यक लगा, वो पहले दिन कह चूके। दूसरे दिन (उन पहले दिन वाली बातों पर)प्रश्नोत्तर हुए तथा अपनी बात भी कही ]।


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 
अन्तिम प्रवचनों का यथावत् लेखन 

  

 (प्रवचन नं० १- ) 


            ■□मंगलाचरण□■

( पहले मंगलाचरण किया और उसके बाद में श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बोले -  ) 


एक बात बहुत श्रेष्ठ (है ), बहुत श्रेष्ठ बात, है बड़ी सुगम, बड़ी सरल । एक बात है, वो कठिन है- कोई इच्छा, किसी तरह की इच्छा मत रखो । किसी तरह की कोई भी इच्छा मत रखो। ना परमात्मा की, ना आत्मा की, ना संसार की, ना आपनी (अपनी) मुक्ति की , कल्याण की इच्छा , कुछ इच्छा, कुछ इच्छा मत रखो और चुप हो जाओ, बस। पूर्ण प्राप्त।  कुछ भी इच्छा न रख कर के चुप, शाऽऽऽऽऽन्त !! ।

क्योंकि परमात्मा सब जगह, शाऽऽऽन्त रूप से परिपूर्ण है । स्वतः, स्वाभाविक। सब ओर, सब जगह ; परिपूर्ण [है])। कुछ भी न चाहे, कोई इच्छा नहीं, कोई डर नहीं, किसी तरह की कोई कामना न रहे। चुप हो जाय, (बऽऽस) । एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय। तत्त्वज्ञान है वो पूर्ण। कोई इच्छा (न रखें )। क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती। यह सब का अनुभव है । सबका यह अनुभव है क (कि) कोई इच्छा पूरी होती है, कोई इच्छा पूरी नहीं होती । यह कायदा (है) ।
पूरी ( ...  होनी चाहिये कि नहीं?  , इसके लिये  ) कुछ नहीं करना, अर (और) पूरी न होने पर भी कुछ नहीं करना।  कुछ भी चाहना नहीं, कुछ चाहना नहीं और चुप।  एकदम परमात्मा की प्राप्ति । ख्याल में आयी ? कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं। परमात्मा में स्थिति हो गई पूरी आपकी। आपसे आप स्वतः, स्थिति है। है, पहले से है। वह अनुभव हो जाएगा । कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना (जाना) नहीं, कुछ अभ्यास नहीं । ...(कुछ करना नहीं)। इतनी ज (इतनी- सी) बात है, इतनी बात में पूरी, पूरी हो गई ।  


 अब शंका हो तो बोलो । कोई इच्छा मत रखो। परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। परमात्मा की प्राप्ति, एकदम।  क्योंकि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण (है) , समान रीति से, ठोस है । भूमा अचल [शाश्वत अमल] सम ठोस है तू सर्वदा। ठोस है ठोस । "है" । कुछ भी इच्छा मत करो।  एकदम परमात्मा की प्राप्ति । एकदम । बोलो ! शंका हो तो बोलो। कोई इच्छा (नहीं)। अपनी इच्छा से ही संसार में हैं । अपनी इच्छा छोड़ी,...(और उसमें स्थिति हुई)। पूर्ण है स्थिति, स्वतः , स्वाभाविक। और जो काम हो, उसमें तटस्थ रहो, ना राग करो, ना द्वेष करो ।

तुलसी ममता रामसों समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार।
(दोहावली 94)

एक भगवान है!! कोई इच्छा (नहीं), किसी तरह की इच्छा।  कोई संसार की क, परमात्मा की क, आत्मा की क ...(किसी की) क, मुक्ति की क , 
कल्याण की क , प्रेम की क , कुछ इच्छा (नहीं) ।... (बऽऽस)। पूर्ण है प्राप्ति । क्यों(कि) परमात्मा है ।

कारण हैऽऽ (कि) एक करणा (करना,क्रिया) और एक आश्रय। एक क्रिया अर (और) एक पदार्थ । एक क्रिया है, एक पदार्थ है। ये प्रकृति है।  क्रिया और पदार्थ - ये छूट जाय। कुछ नहीं करना, चुप रहना। अर (और एक) भगवान के, भगवान के शरण हो गये ( ... उस परमात्मा के) आश्रय । कुछ नहीं। करना कुछ नहीं । परमात्मा में ही स्थित ... ( स्थित रहना) नहीं, उसमें स्थिति आपकी है। है। है स्थिति , एकदम।

है एकदम परिपूर्ण । 

परमात्मा में ही स्थिति है। एकदम। 
परमात्मा सब (...जगह , सम, ) शान्त है। "है" "है" वह "है" उस "है" में स्थिति हो जाय।

"है" में स्थिति, स्वभाविक, स्वभाविक है। "है" में स्थिति, सबकी स्वाभाविक। 
कुछ भी इच्छा (और एक उनका- क्रिया और पदार्थों का
•••) आश्रय
- दो छोङने से --- ("है", परमात्मा में स्थिति हो जायेगी, जो कि पहले से ही है । अनुभव नहीं था।अब अनुभव हो गया।)। 
पद आता है न! 
एक बालक, एक बालक खो गया। एक माँ का बालक खो गया। सुणाओ , वोऽऽ, वो पद सुणाओ। ( भजन गाने वाले बजरंगजी बोले- हाँ ) , बालक खो गया, व्याकुल हो गयी अर (और) जागर देख्या (जगकर देखा) तो , वहीं सोता है, साथ में ही। (हाँ, ठीक है, हाँ हाँ - सुनाते हैं ) बहोत (बहुत) बढ़िया पद है। कबीरजी महाराज का है... (वो पद)। (जो हुकम, कह कर , पद शुरु कर दिया गया - परम प्रभु अपने ही में पायो।••• - कबीरजी महाराज)। 


(प्रवचन नं०२)

संवत २०६२, आषाढ़, कृष्णा नवमी। 
दिनांक ३०|६|२००५, ११ बजे, गीताभवन, ऋषिकेश । 

[ आज श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज सभा में आकर विराजमान हुए। कल की बातों के अनुसार किसी ने श्रीस्वामीजी महाराज से प्रश्न पुछवाया। प्रश्नकर्त्ता की उस बात को बिचौलिया अब श्रीस्वामीजी महाराज को सुना रहा है- ] 

प्रश्न-
(एक सज्जन पूछ रहे हैं कि) - कोई चाहना नहीं रखना, (यह) आपने कल बताया था। तो इच्छा छोड़ने में और चुप रहने में, इनमें- दोनों में ज्यादा कौन फायदा करता है ?। 

[ अभी बिचौलिये और उसकी बातों की तरफ श्रीस्वामीजी महाराज की रुचि नहीं है। इसलिये वे अपनी तरफ से, अपनी बात कह रहे हैं- ] 

(१) मैं भगवान का हूँ , (२) भगवान मेरे हैं। (३) मैं और किसी का नहीं हूँ और (४) कोई मेरा नहीं है। 

प्रश्न - चुप साधन में और इच्छा रहित होने में कोई फर्क है ? चुप साधन करना और इच्छा रहित होना ... । 

[प्रश्नकर्त्ता की बात का जवाब न देकर श्री स्वामीजी महाराज उसके एक ही शब्द (इच्छा) को लेकर पुनः अपनी बात आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 

एक इच्छा ही, एक ही इच्छा (हो केवल भगवान् की) । 

प्रश्न- 
(चुप-साधन और इच्छा-रहित होना- ) दोनों बातें एक ही है ? 

[ श्रीस्वामीजी महाराज उक्त प्रश्न का जवाब देकर चलते विषय में व्यवधान नहीं कर रहे हैं। प्रश्नकर्त्ता के एक ही अंश ( एक ही है?) को लेकर बोलते हैं- ] 
श्रीस्वामीजी महाराज- 
एक ही है, एक ही है ।

[ अब श्रीस्वामीजी महाराज वापस अपने विषय को आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 

कुछ भी इच्छा न रखे। ना भोगों री (की) ,ना मोक्ष री (की) , कुछ भी इच्छा न रखना। (... और सब करते रहो, पर ) कुछ भी इच्छा नहीं रखना , कुछ भी इच्छा नहीं करना। ना प्रेम की, ना भक्ति की , ना मुक्ति की, ना और कोई, संसार की, (…और) । इच्छा कोई करनी ही नहीं । 

बिचौलिया - 
इच्छा नहीं करनी पर काम, कोई काम करना हो तो ? 
श्रीस्वामीजी महाराज - 
काम करो ।
बिचौलिया - 
काम भले ही करो ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
काम करो, उत्साह से, आठ पोहर (पहर) करो। 

इण बातने (इस बात को) समझो खूब। ठीक समझो (इसको)। कोई इच्छा नहीं। अङचन आवे जो बताओ! बाधा आवे जो बताओ ! (जो बाधा आवे, वो बताओ)। 

बिचौलिया - 
आप (प्रश्नकर्त्ता) कह रहे हैं (कि) काम तो करो और कुछ इच्छा मत रखो। तो इच्छा का मतलब [ यहाँ बीच में ही अस्वीकार करते हुए श्रीस्वामीजी महाराज बोले-] (-- नहीं नहीं ! ) । दूसरों का दुख दूर करणो (करना) । उसका फल नहीं चाहना ? (यहाँ तक प्रश्नकर्त्ता का बाकी रहा हुआ वाक्य पूरा हुआ)। 

[ अब यहाँ श्री स्वामीजी महाराज दुबारा स्पष्ट बोलते हैं कि- ] 

दूसरों का दुःख दूर करना । आये हुए की सेवा करणी (करनी)। कुछ चाहना ( मत रखो ) । 

प्रश्न - 
और चाहना से मतलब क्या? उसके, उस कर्म का फल नहीं चाहना? सेवा का फल नहीं चाहना- यही चाहना छोड़ना है क्या ? चाहना नहीं रखने का क्या तात्पर्य है? । 

श्रीस्वामीजी महाराज - 
चाहना, कोई चाहना (नहीं रखना ), माने यूँ मिले, मिल जाय, मुक्ति हो जाय, कल्याण हो जाय , उद्धार हो जाय क, न हो जाय -(ऐसा) कुछ नहीं (हो)। 

बिचौलिया - 
सेवा, सेवा करते रहें और चाहना नहीं रखे, कि हम को बदले में कुछ मिले । 


श्रीस्वामीजी महाराज - 
सेवा कर दो, बदले में (... कुछ नहीं चाहना ) चुप रहो । ऐकान्त में रहो, चुप रहो। 

बिचौलिया - 
कोई कहीं नौकरी करता है, तो वो नौकरी करे ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
हाँ ।
बिचौलिया - 
और फल की चाहना नहीं करे। 
श्रीस्वामीजी महाराज - 
हाँ चाहना नहीं करे । 

(यहाँ भी श्री स्वामीजी महाराज बिचौलिये की बात के एक अंश (चाहना नहीं करे) को लेकर ही बोल रहे हैं। विषय को सुगम रखते हुए, नौकरी, तनखाह आदि दूसरी बातें इस प्रसंग में वे ज्यादा नहीं ला रहे हैं )। 

बिचौलिया - 
और तनखा भले ही लेवो । तनखा तो भले ही लेवोऽऽ ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
लेवो भले ही। (यहाँ भी उस विषय को अलग ही रख रहे हैं और जो विषय चल रहा है, उसके अनुसार ही कह रहे हैं-) इच्छा नहीं राखणी (रखनी) ।

बिचौलिया - 
इच्छा नहीं रखनी । 

प्रश्न - 
कह, इसका तात्पर्य सब प्रकार से, भीतर से खाली होना ही है? । 

श्रीस्वामीजी महाराज- 
हूँ (हाँ) , जहाँ है ( जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा हैं), देखो! सार बात- जहाँ आप है, वहाँ परमात्मा है । आप मानो क नहीं? (मानते हो कि नहीं? ); क्योंकि कुछ नहीं करोगे, कोई इच्छा नहीं, तो परमात्मा में ही स्थिति हो गई या (यह) । और कहाँ (होगी? - कहाँ होगी?) आप जहाँ है, वहीं चुप हो जाओ । कुछ नहीं चाहो, परमात्मा में स्थिति हो गयी । आप (वहाँ हैं) तो वहाँ परमात्मा पूर्ण है। जहाँ आप है, वहाँ पूर्ण परमात्मा पूर्ण है । कोई इच्छा नहीं (तो कोई) बाधा नहीं । एक इच्छा मात्र सब (बाधा है। इसलिये कुछ भी इच्छा मत रखो)। ना भुक्ति (भोग) की इच्छा रखो, (ना) मुक्ति की , दर्शनों की , ( ...र की) , कल्याण की क, कुछ भी (इच्छा मत रखो) ! कोई इच्छा नहीं रखोगे अर (और चुप हो जाओगे तो) वहाँ स्थिति परमात्मा में ही होगी; क्योंकि परमात्मा में इच्छा है नहीं। सब परमात्मा ही है । इ‌च्छा किसकी करे? अर (और) परमात्मा हमारे (हैं), ओर (दूसरे) किसकी इच्छा करें ? समझ में आई कि नहीं, पतो (पता) नहीं । 

बिचौलिया - 
(समझ में) आयी । 

स्वामीजी महाराज - 
समझ में नहीं आई तो बोलो । क्या, क्या समझ में नहीं आयी ... 

[ अब बिचौलिये के द्वारा प्रश्नकर्त्ता आदि से कहा जा रहा है कि बात समझ में आ गई क्या? कुछ कहना हो तो बोल दें ]। 

श्रीस्वामीजी महाराज बोले कि क्या, क्या (समझ में नहीं आया?) 

[ तख्त के ऊपर, जहाँ श्रीस्वामीजी महाराज विराजमान थे, वहाँ श्रोताओं की बातें सुनायी नहीं पङ रही थी। उस समय श्रीस्वामीजी महाराज बोले कि - ] 

अठे सुणीजे (या) नहीं सुणीजे ... (श्रोताओं की बात हमारे यहाँ सुनायी पङे या न पङे, इससे क्या? यह बात तो ऐसे है ही, स्थिति तो यहाँ- परमात्मा में ) है ही। 

आप बताओ स्थिति कहाँ होगी आपकी ? परमात्मा में ही है “स्थिति”। संसार की इच्छा है, इस वास्ते संसार में है (स्थिति)। कोई तरह की इच्छा नहीं है (तो) परमात्मा में स्थिति (है) । मनन करो, फिर शंका हो तो बताओ, (...बोलो) बोलो । 


बिचौलिया - 
(ये कहते हैं) कि इसका तात्पर्य मैं यह समझा हूँ कि होनेपन में स्थित रहे और कोई काम सामने आवे तो कर दे। 

स्वामीजी महाराज - 
(काम नहीं,) सेवा । 

बिचौलिया - 
सेवा आवे तो कर दे और उदासीनता से रहे, हँऽऽ? (यही बात है क्या?)। 

[ श्रीस्वामीजी महाराज जी ने इस बाल वचन को टाल दिया और वापस उसी विषय को कहने लगे- ] 

श्रीस्वामीजी महाराज - 
आप की स्थिति परमात्मा में ही है । है ही परमात्मा में। इच्छा छोड़ दो , स्थिति हो जायेगी। 

इच्छा से ही संसार में है (स्थिति), इच्छा छोड़ दी (परमात्मा में स्थिति हो गई ) सब की। मूर्ख से मूर्ख (और) अनजान से अनजान , जानकार से ( ... जानकार- कोई भी हो,उसकी परमात्मा में स्थिति) हो गई। ठीक है? । (... हाँ) सुणाओ (भजन आदि)। 

कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं, भुक्ति की, मुक्ति की (किसी प्रकार की, कोई भी इच्छा नहीं है, तो सबकी स्थिति परमात्मा में ही है)। 

[ फिर श्रीबजरँगलालजी ने भजन गाया - 
'हरिका नाम जपाने वाले तुमको लाखों प्रणाम' ।। ० ।।  


यह भजन उन्होंने नया बनाया था और श्रीस्वामीजी महाराज के सामने पहली बार ही सुनाया था तथा यह पहली बार सुनाना ही अन्तिम बार हो गया।  


भजन समाप्त हो जाने पर श्रीस्वामीजी महाराज (बिना कुछ कहे) अपने निवास स्थान की ओर चल दिये। ऐसा लग रहा था कि अपनी महिमा वाला यह भजन सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज राजी नहीं हुए ।  


रामायण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज सन्तों के लक्षणों में भी ऐसी बात बताते हैं -
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। 
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।। 
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। 
सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती।। 

(रामचरितमा.३|४६|१,२;)। ]



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  श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा दिया गया, यहाँ यह पहला अन्तिम प्रवचन, दिनांक,२९ जून, सन २००५ को, सायं, लगभग ४ बजे का है और दूसरा आखिरी प्रवचन दिनांक ३० जून, सन २००५, सुबह ११ बजे का है।


 मूल प्रवचनों की रिकॉर्डिंं में किसीने  काँट छाँट  करदी है, कई अंश नष्ट कर दिये हैं  और मूल प्रवचन का मिलना भी कठिन हो गया है।  महापुरुषों की वाणी के किसी भी अंश को काटना नहीं चाहिये।  यह अपराध है। 


 इन दोनों प्रवचनों की रिकोर्डिंग को सुन- सुनकर, उन के अनुसार ही, यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है। जिज्ञासुओं के लिये यह बङे काम की वस्तु है। साधक को चाहिये कि  इन दोनों सत्संग- प्रवचनों को पढ़कर और सुनकर  मनन करें तथा  लाभ उठावें।


 इसमें लेखन आदि की जो गलतियाँ रह गयी हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं और जो अच्छाइयाँ हैं, वे उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग गलतियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।

                 निवेदक- डुँगरदास राम 

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(श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजकी
गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित
‘एक सन्तकी वसीयत’
नामक पुस्तक, पृष्ठ १४,१५ में इन दोनों प्रवचनों के भाव संक्षेप में  लिखेे हुए हैं, पूरे नहीं )। 

वे भी यहाँ दिये जा रहे हैं-


अन्तिम प्रवचन-

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत-२०६२, तदनुसार ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारनेके पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम(हृषीकेश)में दिये गये अन्तिम प्रवचन) ।


[पहले दिन -]


एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरहकी कोई इच्छा मत रखो । न परमात्माकी, न आत्माकी, न संसारकी, न मुक्तिकी, न कल्याणकी, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूपसे परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्माकी प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !

यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओंका पूरा करना हमारे वशकी बात नहीं है, पर इच्छाओंका त्याग कर देना हमारे वशकी बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मामें होगी । आपको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मामें स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥
(दोहावली ९४)

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करके एक भगवान्‌के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मामें आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्नमें एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथमें ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे

  +    ****       ****       ****     ×


[दूसरे दिन-]


श्रोता‒
कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजी‒
मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसीका नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, (न) भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोता‒
इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजी‒
काम उत्साहसे करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बातको ठीक तरहसे समझो । दूसरोंकी सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदलेमें कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत रखो ।

सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किसकी करें ? संसारकी इच्छा है, इसलिये हम संसारमें हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे ‒

                      ■●■

अंतिम प्रवचन (१,२; कुछ खण्डित )- goo.gl/ufSn5W



अन्तिम प्रवचन १ (२९ जून २००५) का पता (ठिकाना) (खण्डित)
-(लिंक) डाउनलोड करनेके लिये goo.gl/gTyBxF अथवा सुननेके लिये goo.gl/yR5SLd

अन्तिम प्रवचन २ (३० जून २००५) का पता (ठिकाना) (?)
-(लिंक) डाउनलोड करनेके लिये goo.gl/QS68Wj अथवा सुननेके लिये goo.gl/wt7YNR 


पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/


http://dungrdasram.blogspot.com/2014/07/blog-post_27.html?m=1 

सोमवार, 9 जुलाई 2018

जानने योग्य जानकारी (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में)।

                      ।।श्री हरिः। ।

  जानने योग्य जानकारी
(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में)। 

 
प्रश्न-  क्या आप श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में कुछ बता सकते हैं?

उत्तर-  हाँ, बता सकते हैं।

प्रश्न- तो बताइये, वे कहाँ के थे और क्या करते थे? तथा उनके सिद्धान्त कैसे थे?। सही- सही बताना।

उत्तर-  जी, हाँ । सही-सही बातें ही बतायी जायेगी; क्योंकि हमको यह जानकारी उन (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) के द्वारा ही मिली है।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने अपने रहने के लिये कहीं भी कोई स्थान नहीं बनवाया। आप गाँव गाँव और शहर आदि में जा- जाकर कर लोगों को सत्संग सुनाया करते थे और भिक्षान्न से ही अपना शरीर निर्वाह करते थे।  जहाँ भी रहते थे,उस स्थान को भी अपना नहीं मानते थे।

जानकारी के लिए प्रस्तुत है उनके ही विचार- 

  " मेरे विचार " 

( श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)  ।

१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसाकरनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय ।

२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।

४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।

५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । मेरे बाद मेरी पुस्तकें (और रिकार्ड की हुई वाणी) ही साधकोंका मार्ग-दर्शन करेंगी । गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार, गोरक्षा तथा सत्संगका मैं सदैव समर्थक रहा हूँ ।

६. मैं अपना चित्र खींचने, चरण-स्पर्श करने,जय-जयकार करने,माला पहनाने आदिका कड़ा निषेध करता हूँ ।

७. मैं प्रसाद या भेंटरूपसे किसीको माला, दुपट्टा, वस्त्र, कम्बल आदि प्रदान नहीं करता । मैं खुद भिक्षासे ही शरीर-निर्वाह करता हूँ ।

८. सत्संग-कार्यक्रमके लिये रुपये (चन्दा) इकट्ठा करनेका मैं विरोध करता हूँ ।

९. मैं किसीको भी आशीर्वाद/शाप या वरदान नहीं देता और न ही अपनेको इसके योग्य समझता हूँ ।

१०. मैं अपने दर्शनकी अपेक्षा गंगाजी, सूर्य अथवा भगवद्विग्रहके दर्शनको ही अधिक महत्त्व देता हूँ ।

११. रुपये और स्त्री -- इन दोके स्पर्श को मैंने सर्वथा त्याग किया है ।

१२. जिस पत्र-पत्रिका अथवा स्मारिकामें विज्ञापन छपते हों, उनमें मैं अपना लेख प्रकाशित करने का निषेध करता हूँ । इसी तरह अपनी दूकान, व्यापार आदिके प्रचारके लिये प्रकाशित की जानेवाली सामग्री (कैलेण्डर आदि) में भी मेरा नाम छापनेका मैं निषेध करता हूँ । गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारके सन्दर्भमें यह नियम लागू नहीं है ।

१३. मैंने सत्संग (प्रवचन) में ऐसी मर्यादा रखी है कि पुरुष और स्त्रियाँ अलग-अलग बैठें । मेरे आगे थोड़ी दूरतक केवल पुरुष बैठें । पुरुषोंकी व्यवस्था पुरुष और स्त्रियोंकी व्यवस्था स्त्रियाँ ही करें । किसी बातका समर्थन करने अथवा भगवानकी जय बोलनेके समय केवल पुरुष ही अपने हाथ ऊँचे करें, स्त्रियाँ नहीं ।

१४. कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंमें मैं भक्तियोगको सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ और परमप्रेमकी प्राप्तिमें ही मानवजीवनकी पूर्णता मानता हूँ ।

१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये । जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है । उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है ।

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

ऐसे (मेरे विचार) एक संतकी वसीयत(प्रकाशक-गीताप्रेस गोरखपुर) नामक पुस्तक (पृष्ठ १२,१३ ) में भी छपे हुए  हैं।  

इस प्रकार आप एक महान् विलक्षण महापुरुष थे। आप कौन थे? इस विषय में तो स्वयं आप ही जानते हैं , दूसरे नहीं। दूसरे लोग तो अटकलें लगाकर अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं।

आपने श्री मद् भगवद् गीता पर एक अद्वितीय हिन्दी टीका लिखी है। जिसका कोई अगर मन लगाकर ठीक तरह से अध्ययन करे, तो परमात्मतत्त्व का बोध हो सकता है। गीताजी का रहस्य समझ में आ सकता है। घर परिवार और संसार में रहने की विद्या आ सकती है। सब दुख,चिन्ता, भय आदि सदा- सदा के लिये मिट सकते हैं और आनन्द हो सकता है।

इसी प्रकार उनकी "गीता-दर्पण", "गीता-माधुर्य", "साधन-सुधा-सिन्धु," "गृहस्थ में कैसे रहें?" आदि करीब सत्तर अस्सी से भी अधिक पुस्तकें छपी हुई है और उनके सत्संग, प्रवचनों की की हुई लगातार सोलह वर्षों (1990 से 2005 तक ) की ओडियो रिकोर्डिंग है तथा उससे पहले के सत्संग प्रवचनों की भी काफी रिकोर्डिंग है।

गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका और आपने पुस्तकों तथा सत्संग प्रवचनों के द्वारा दुनियाँ का बङा भारी उपकार किया है । दुनियाँ सदा-सदा के लिये आपकी ऋणी रहेंगी।

( आप दोनों महापुरुषों के प्रथम मिलन का वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 ) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दि. 19951205/830 बजेके सत्संगमें भी किया है।

तथा

"महापुरुषों के सत्संग की बातें " नामक पुस्तक में भी आप दोनों महापुरुषों के मिलन का वर्णन है)।

आपका कहना है कि परमात्मा की प्राप्ति कठिन नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति बङी सुगमता से हो सकती है और बहुत जल्दी, तत्काल हो सकती है। मनुष्य मात्र परमात्मप्राप्ति का जन्मजात अधिकारी है, चाहे कोई कैसा ही क्यों न हो। कम से- कम समय में और मूर्ख से मूर्ख मनुष्य को तथा पापी से पापी मनुष्य को भी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।

जो मनुष्य जहाँ और जिस परिस्थिति में है, वह उसी परिस्थिति में और वहीं परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है, कल्याण कर सकता है, मुक्ति पा सकता है। (परिस्थिति आदि बदलने की जरूरत नहीं है)-

... वास्तविक बोध करण- निरपेक्ष (अपने- आप से) ही होता है। 

(गीता "साधक-संजीवनी" २|२९;)।

(भगवत्प्राप्ति के लिये न तो कहीं जाने की जरूरत है और न वेष बदल कर साधू बनने की जरूरत है )।

जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति (उत्पत्ति) होती है (और) जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्यमात्र सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

(गीता "साधक-संजीवनी" १८|४६;)

(सिद्धि अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है) ।

मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।

(गीता "साधक-संजीवनी" १८|५६;)।     यदि परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत हो जाय, तो अभी ही परमात्मा का अनुभव हो जाय।  

(गीता "साधक-संजीवनी" ३|२०;)।

ऐसी अनेक बातें आपने अपने गीता साधक-संजीवनी आदि ग्रंथों में और अपने सत्संग प्रवचनों में बताई है; जो बङी सरल, श्रेष्ठ और शीघ्र भगवत्प्राप्ति करवाने वाली हैं। हमारे को चाहिये कि शीघ्र ही उनसे लाभ ले लें।

आपने भगवत्प्राप्ति के ऐसे नये- नये अनेक साधनों का आविष्कार किया है।

प्रश्न-  (भगवत्प्राप्ति के लिये जब कहीं जाने की और साधू बनने की भी जरुरत नहीं है) तब श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज साधू क्यों बने?

उत्तर-  ऐसा प्रश्न एक व्यक्ति ने श्री स्वामी जी महाराज से भी किया था कि आप साधू क्यों बने?

जवाब में श्री स्वामी जी महाराज बोले कि मैं साधू नहीं बना। (मेरी माँ ने साधू बना दिया। आपका माताजी के प्रति बङा आदर भाव था)।

प्रश्न-  माताजी ने आपको साधू क्यों बनाया?

उत्तर- आपकी माताजी बङी श्रेष्ठ और भगवान् का भजन करने वाली थी। आप भगवान् के भजन से ही मानव जीवन की सफ़लता मानती थी। आप राम नाम जपती थी। आपको बहुत भजन कण्ठस्थ थे। अनेक संतों की वाणी आती (याद) थी । आप संत- महात्माओं में बङी श्रद्धा भक्ति रखती थी। संत- महात्माओं पर भी असर था कि ये माताजी बङे जानकार हैं। माताजी का गाँव था माडपुरा (जिला नागौर; राजस्थान)।

आपके यहाँ जब कोई संत-महात्मा पधारते, तब आप और सखियाँ भजन (हरियश) गाया करती थी।

एक बार की बात है कि आपके यहाँ संत श्री जियारामजी महाराज पधारे । सखियों ने आप (माताजी) से भजन गाने के लिये कहा। आपने गाया नहीं। तब किसी ने महाराज से कह दिया कि ये भजन नहीं गा रही है। किसी ने कहा कि ये गावे कैसे ! इनके तो लङका चला हुआ है (शान्त हो गया है। आपके बालक जन्मते थे और शान्त हो जाते थे,ज्यादा जीते नहीं थे) । तब श्री जियाराम जी महाराज ने कहा कि रामजी और देंगे (लङका) । आप तो भजन गाओ। तब आपने भजन गाया।

भगवत्कृपा से जब आपके लङका हुआ तो लाकर जियारामजी महाराज को सौंप दिया। महाराज ने कहा कि यह बालक तो आप रखो। अबकी बार बालक होवे तब दे देना। तब उस बालक को माताजी ने अपने पास में रख लिया।

उसके बाद (संवत १९५८ में) जियारामजी महाराज परम धाम पधार गये (शरीर छोङ दिया)। फिर दो वर्षों के बाद (संवत १९६० में) माताजी के जब दूसरा बालक हुआ और वो चार वर्ष का हो गया, तब उसको माताजी ने जियारामजी महाराज के बाद वाले संतों को दे दिया, साधू बना दिया। संतों ने इनको अपना शिष्य बना लिया। बालक के जन्म का नाम था सुखदेव। फिर इनका नाम हुआ - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।

गुरुजनों के प्रति आपका बङा आदर भाव था। उनके कहने से आपने संस्कृत आदि विद्याएँ पढीं और आचार्य तक की परीक्षा भी दी।

आपकी रुचि तो बचपन से ही भगवद् भजन करने की थी। आपको भगवान् की बातें अच्छी लगती थी। गीता पढ़ना अच्छा लगता था। बारह वर्ष की अवस्था में ही आपका गीता जी से सम्बन्ध हो गया था। बाद में ध्यान देने पर आपको गीता जी कण्ठस्थ मिली, कण्ठस्थ करनी नहीं पङी। पाठ करते- करते गीता जी याद हो गई थी।

आपने गीता- पाठशाला खोल रखी थी और आप लोगों को गीता पढाते थे। कभी-कभी आपके मन में गीता जी के नये- नये ऐसे भाव आते कि जो किसी भी गीता की टीका में देखने को नहीं मिलते। इस प्रकार और भी कई बातें हैं।  (परन्तु यहाँ संक्षेप में कही जा रही है)। 

किसीके देने पर भी आप न रुपये लेते थे और न रुपये अपने पास में रखते थे। रुपयों को छूते भी नहीं थे। किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर भी आप किसी से कुछ माँगते नहीं थे। कष्ट उठा लेते थे पर कहते नहीं थे। आप बङा संकोच रखते थे।

आप अपनी मान बङाई नहीं करवाते थे। मान दूसरों को देते थे। आप स्वार्थ, अभिमान, कञ्चन, कामिनी आदि के त्यागी थे। आप पुष्पमाला आदि का सत्कार स्वीकार नहीं करते थे। आप वर्षा में भी अपने ऊपर छाता नहीं लगाने देते थे। आप न रुई के बिछोनों पर बैठते थे और न सोते थे। खाट पर भी न बैठते थे और न सोते थे। बुनी हुई कुर्सी पर भी आप नहीं बैठते थे।

कहीं पर भी आसन बिछाने से पहले आप उस जगह को कोमलता पूर्वक आसन की ही हवा आदि से झाङकर, वहाँ से सूक्ष्म जीव जन्तुओं को हटाकर बिछाते थे। बिना आसन के बैठते समय भी आप जीव जन्तुओं बचा कर बैठते थे।

चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि कहीं कोई जीव जन्तु पैर के नीचे दब कर मर न जाय। आपका बङा कोमल शील स्वभाव था। आपके हृदय में हमेशा परहित बसा रहता था जो दूसरों को भी दिखायी देता था।

आप हमेशा जल छान कर ही काम में लेते थे। छने हुए जल को भी चार या छः घंटों के बाद वापस छानते थे; क्योंकि चातुर्मास में चार घंटों के बाद और अन्य समय में छः घंटों के बाद में (छाने हुए जल में भी) जीव पैदा हो जाते हैं। जल में  जीव बहुत छोटे होते हैं, दीखते नहीं। इसलिये आप गाढ़े कपङे को डबल करके जल को छानते थे और सावधानी पूर्वक जीवाणूं करके उन जीवों को जल में छोङते थे। इस प्रकार आप छाने हुए जल को काम में लेते थे । खान, पान, शौच, स्नान आदि सब में आप जल छानकर ही काम में लेते थे।

अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे।  परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।

आपने मिलने वाले जिज्ञासुओं को हमेशा छूट दे रखी थी कि आपके कोई साधन-सम्बन्धी बात पूछनी हो तो मेरे को नींद में से जगाकर भी पूछ सकते हो। लोगों के लिये आप अनेक कष्ट सहते थे, फिर भी उनको जनाते नहीं थे।

आप न चेला चेली बनाते थे और न भेंट पूजा स्वीकार करते थे। आप न तो किसी से चरण छुआते थे और न किसी को चरण छूने देते थे। चलते समय पृथ्वी पर जहाँ आपके चरण टिकते , वहाँ की भी चरणरज नहीं लेने देते थे। कभी कोई स्त्री भूल से भी चरण छू लेती तो आप भोजन करना छोङ देते थे। उपवास रख कर उसका प्रायश्चित्त करते थे। आप न तो स्त्री को छूते थे और न स्त्री को छूने देते थे। रास्ते में चलते समय भी ध्यान रखते थे कि उनका स्पर्श न हों। आपके कमरे में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था।

स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है।

आप गर्भपात करवाने का भयंकर विरोध करते थे। जिस घर में एक स्त्री ने भी गर्भपात करवा लिया हो, तो आप उस घर का अन्न नहीं लेते थे और जल भी नहीं लेते थे।

शास्त्र में गर्भपात को ब्रह्महत्या से भी दुगुना महापाप बताया गया है। आप परिवार- नियोजन, दहेज- प्रथा और विधवा- विवाह आदि का विरोध करते थे। विवाह से पहले वर- वधू के मिलन को पाप मानते थे और इसका निषेध करते थे।

आप गुरु बनाने का भी निषेध करते थे। आपने गौहत्या रोकने की बङी कोशिश की थी। गौरक्षा के लिये आपकी हमेशा कोशिश रही। गाय के सूई लगाकर दुहने को आप बङा पाप मानते थे और इसका  निषेध करते थे।

आप कूङे- कचरे के आग लगाने का प्रबल विरोध करते थे। इस आग में असंख्य जीव- जन्तु जिन्दा ही जल जाते हैं, जो बङा भारी पाप है।

आप न तो अपना चित्र खिंचवाते थे और न किसी को चित्र खींचने देते थे। कोई चित्र खींच लेता तो उसका कङा विरोध करते थे। खींची हुई फोटो को नष्ट करवा देते थे। आप मनुष्य की फोटो को महत्त्व न देकर भगवान् की फोटो को महत्त्व देते थे और रखने की सलाह देते थे।

आप सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। सत्संग तो मानो आपका जीवन ही था। आप बताते थे कि सत्संग से जितना लाभ होता है उतना एकान्त में रहकर साधन करने से भी नहीं होता।

वर्षों तक एकान्त में रहकर साधन करने से भी जो लाभ नहीं होता है, वो लाभ एक बार के सत्संग से हो जाता है ।

सत्संग करे और (फिर उसके अनुसार) साधन करे। साधन करे और सत्संग करे। इस प्रकार करने से (जल्दी ही) बहुत बङा लाभ होता है।

सत्संग सब की जननी है। सत्संग से जितना लाभ होता है, उस लाभ को कोई कह नहीं सकता।

अन्य साधन करके जो उन्नति की जाती है, वो तो कमाकर धनी बनना है और सत्संग करना है,यह गोद चले जाना है। (किसी धनवान की) गोद जानेवाले को क्या प्रयास करना पङा? कल कँगला और आज धनी। ऐसे सत्संग करने वाले को कमाया हुआ धन मिलता है (अनुभव मिलता है, बिना साधन किये,मुफ्त में सर्वोपरि लाभ मिलता है)।

आप जहाँ भी विराजते थे वहाँ नित्य- सत्संग होता था। प्रातः पाँच बजे वाली सत्संग तो यात्रा में भी चलती रहती थी। कभी- कभी यात्रा के कारण गाङी में चल रहे होते और प्रातः पाँच बजे वाली प्रार्थना सत्संग का समय हो जाता तो गाङी में ही प्रार्थना, गीता-पाठ और सत्संग कर लिया जाता था।

दिन में भी कई बार सत्संग होता रहता था। सत्संग के बिना ख़ाली दिन आपको पसन्द नहीं था। इस प्रकार बहुत बढ़िया सत्संग चलता रहा। ...

अन्त में संवत २०६२, आषाढ़ के कृष्णपक्ष वाली एकादशी की रात्रि में, साढ़े तीन बजे के बाद, गीताभवन ऋषिकेश, गंगातट पर शरीर छोङकर आप परमधाम को पधार गये।

अधिक जानने के लिए " महापुरुषों के सत्संग की बातें " नामक पुस्तक पढें।  वो पुस्तक छपी हुई भी मिलती है तथा "सत्संग संतवाणी" नाम वाले ब्लॉग से नि:शुल्क डाउनलोड भी की जा सकती हैं।  

प्रश्न-  क्या उनकी चिता भस्म को गंगाजी समेट कर ले गई?

उत्तर-  जी हाँ, उनकी अन्तिम क्रिया गंगाजी के किनारे की गई थी। दाहक्रिया के बाद दूसरे तीसरे दिन ही गंगाजी इतनी बढ़ी कि वहाँ के चिताभस्म आदि सब अवशेष बहाकर अपने साथ में ले गई। वहाँ की धरती ही बदल गई। मानो गंगाजी भी ऐसे अवसर को पाना चाहती थी। (महापुरुषों के स्नान से गंगाजी भी पवित्र हो जाती है) ।

महापुरुषों के वहाँ से प्रस्थान कर जाने पर प्रकृति ने भी अपने नियम बदल दिये। दो वर्षों तक आम के पेङों के आम के फल लगने बन्द हो गये। (ये घटनाएँ अनेक लोगों ने अपनी आँखों से देखी है)। हर साल उन पेङों के इतने आम्रफल लगते थे कि बिक्री आदि के लिये आम ठेके पर दिये जाते थे; परन्तु अबकी बार वैसे लगे ही नहीं। मानो महापुरुषों के वियोग का दुख पेङ- पौधे भी नहीं सह सके। गोस्वामी जी श्री तुलसीदास जी महाराज ने ठीक ही कहा है-

बंदउँ संत असज्जन चरना।  दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।।  बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।  मिलत एक दुख दारुन देहीं।।  

(रामचरितमानस १|५|३,४:)।

http://dungrdasram.blogspot.com/2018/07/blog-post.html?m=1