गुरुवार, 19 जुलाई 2018

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के अन्तिम प्रवचनों का यथावत् लेखन

अन्तिम प्रवचन-

(श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

[ प्रसंग-

 श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजसे अन्तिम दिनोंमें यह प्रार्थना की गयी कि आपके शरीरकी अशक्त अवस्थाके कारण प्रतिदिन सत्संग-सभामें जाना कठिन पड़ता है। इसलिये आप विश्राम करावें। जब हमलोगोंको आवश्यकता मालुम पड़ेगी, तब आपको हमलोग सभामें ले चलेंगे और कभी आपके मनमें सत्संगियोंको कोई बात कहनेकी आ जाय, तो कृपया हमें बता देना, हमलोग आपको सभामें ले जायेंगे।
उस समय ऐसा लगा कि श्री स्वामीजी महाराज ने यह प्रार्थना स्वीकार करली।

इस प्रकार जब भी परिस्थिति अनुकूल दिखायी देती, तब समय- समय पर आपको सभामें ले जाया जाता था।

एक दिन (परम धाम गमन से तीन दिन पहले २९ जून २००५ को, )
श्रद्धेय श्री स्वामीजी महाराजने अपनी तरफसे (अपने मनसे) फरमाया कि आज चलो अर्थात् आज सभामें चलें। सुनकर
तुरन्त तैयारी की गयी।
पहियोंवाली कुर्सी पर आपको  विराजमान करवा कर सभामें ले जाया गया और जो बातें आपके मनमें आयीं, वो सुनादी गयीं तथा वापस अपने निवास स्थान पर पधार गये।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे और प्रवचन हुए।

इस प्रकार यह समझ में आया कि जो अन्तिम बात सत्संगियोंको कहनी थी, वो उस (पहले) दिन कह दीं।
दूसरे दिन भी सभामें पधारे थे परन्तु दूसरों की मर्जी से पधारे थे। अपनी मर्जीसे तो जो आवश्यक लगा, वो पहले दिन कह चूके। दूसरे दिन (उन पहले दिन वाली बातों पर)प्रश्नोत्तर हुए तथा अपनी बात भी कही ]।


श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के 
अन्तिम प्रवचनों का यथावत् लेखन 

  

 (प्रवचन नं० १- ) 


            ■□मंगलाचरण□■

( पहले मंगलाचरण किया और उसके बाद में श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज बोले -  ) 


एक बात बहुत श्रेष्ठ (है ), बहुत श्रेष्ठ बात, है बड़ी सुगम, बड़ी सरल । एक बात है, वो कठिन है- कोई इच्छा, किसी तरह की इच्छा मत रखो । किसी तरह की कोई भी इच्छा मत रखो। ना परमात्मा की, ना आत्मा की, ना संसार की, ना आपनी (अपनी) मुक्ति की , कल्याण की इच्छा , कुछ इच्छा, कुछ इच्छा मत रखो और चुप हो जाओ, बस। पूर्ण प्राप्त।  कुछ भी इच्छा न रख कर के चुप, शाऽऽऽऽऽन्त !! ।

क्योंकि परमात्मा सब जगह, शाऽऽऽन्त रूप से परिपूर्ण है । स्वतः, स्वाभाविक। सब ओर, सब जगह ; परिपूर्ण [है])। कुछ भी न चाहे, कोई इच्छा नहीं, कोई डर नहीं, किसी तरह की कोई कामना न रहे। चुप हो जाय, (बऽऽस) । एकदम परमात्मा की प्राप्ति हो जाय। तत्त्वज्ञान है वो पूर्ण। कोई इच्छा (न रखें )। क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती। यह सब का अनुभव है । सबका यह अनुभव है क (कि) कोई इच्छा पूरी होती है, कोई इच्छा पूरी नहीं होती । यह कायदा (है) ।
पूरी ( ...  होनी चाहिये कि नहीं?  , इसके लिये  ) कुछ नहीं करना, अर (और) पूरी न होने पर भी कुछ नहीं करना।  कुछ भी चाहना नहीं, कुछ चाहना नहीं और चुप।  एकदम परमात्मा की प्राप्ति । ख्याल में आयी ? कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं। परमात्मा में स्थिति हो गई पूरी आपकी। आपसे आप स्वतः, स्थिति है। है, पहले से है। वह अनुभव हो जाएगा । कोई इच्छा नहीं, कोई चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना (जाना) नहीं, कुछ अभ्यास नहीं । ...(कुछ करना नहीं)। इतनी ज (इतनी- सी) बात है, इतनी बात में पूरी, पूरी हो गई ।  


 अब शंका हो तो बोलो । कोई इच्छा मत रखो। परमात्मा की प्राप्ति हो जाएगी। परमात्मा की प्राप्ति, एकदम।  क्योंकि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण (है) , समान रीति से, ठोस है । भूमा अचल [शाश्वत अमल] सम ठोस है तू सर्वदा। ठोस है ठोस । "है" । कुछ भी इच्छा मत करो।  एकदम परमात्मा की प्राप्ति । एकदम । बोलो ! शंका हो तो बोलो। कोई इच्छा (नहीं)। अपनी इच्छा से ही संसार में हैं । अपनी इच्छा छोड़ी,...(और उसमें स्थिति हुई)। पूर्ण है स्थिति, स्वतः , स्वाभाविक। और जो काम हो, उसमें तटस्थ रहो, ना राग करो, ना द्वेष करो ।

तुलसी ममता रामसों समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख दास भये भव पार।
(दोहावली 94)

एक भगवान है!! कोई इच्छा (नहीं), किसी तरह की इच्छा।  कोई संसार की क, परमात्मा की क, आत्मा की क ...(किसी की) क, मुक्ति की क , 
कल्याण की क , प्रेम की क , कुछ इच्छा (नहीं) ।... (बऽऽस)। पूर्ण है प्राप्ति । क्यों(कि) परमात्मा है ।

कारण हैऽऽ (कि) एक करणा (करना,क्रिया) और एक आश्रय। एक क्रिया अर (और) एक पदार्थ । एक क्रिया है, एक पदार्थ है। ये प्रकृति है।  क्रिया और पदार्थ - ये छूट जाय। कुछ नहीं करना, चुप रहना। अर (और एक) भगवान के, भगवान के शरण हो गये ( ... उस परमात्मा के) आश्रय । कुछ नहीं। करना कुछ नहीं । परमात्मा में ही स्थित ... ( स्थित रहना) नहीं, उसमें स्थिति आपकी है। है। है स्थिति , एकदम।

है एकदम परिपूर्ण । 

परमात्मा में ही स्थिति है। एकदम। 
परमात्मा सब (...जगह , सम, ) शान्त है। "है" "है" वह "है" उस "है" में स्थिति हो जाय।

"है" में स्थिति, स्वभाविक, स्वभाविक है। "है" में स्थिति, सबकी स्वाभाविक। 
कुछ भी इच्छा (और एक उनका- क्रिया और पदार्थों का
•••) आश्रय
- दो छोङने से --- ("है", परमात्मा में स्थिति हो जायेगी, जो कि पहले से ही है । अनुभव नहीं था।अब अनुभव हो गया।)। 
पद आता है न! 
एक बालक, एक बालक खो गया। एक माँ का बालक खो गया। सुणाओ , वोऽऽ, वो पद सुणाओ। ( भजन गाने वाले बजरंगजी बोले- हाँ ) , बालक खो गया, व्याकुल हो गयी अर (और) जागर देख्या (जगकर देखा) तो , वहीं सोता है, साथ में ही। (हाँ, ठीक है, हाँ हाँ - सुनाते हैं ) बहोत (बहुत) बढ़िया पद है। कबीरजी महाराज का है... (वो पद)। (जो हुकम, कह कर , पद शुरु कर दिया गया - परम प्रभु अपने ही में पायो।••• - कबीरजी महाराज)। 


(प्रवचन नं०२)

संवत २०६२, आषाढ़, कृष्णा नवमी। 
दिनांक ३०|६|२००५, ११ बजे, गीताभवन, ऋषिकेश । 

[ आज श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज सभा में आकर विराजमान हुए। कल की बातों के अनुसार किसी ने श्रीस्वामीजी महाराज से प्रश्न पुछवाया। प्रश्नकर्त्ता की उस बात को बिचौलिया अब श्रीस्वामीजी महाराज को सुना रहा है- ] 

प्रश्न-
(एक सज्जन पूछ रहे हैं कि) - कोई चाहना नहीं रखना, (यह) आपने कल बताया था। तो इच्छा छोड़ने में और चुप रहने में, इनमें- दोनों में ज्यादा कौन फायदा करता है ?। 

[ अभी बिचौलिये और उसकी बातों की तरफ श्रीस्वामीजी महाराज की रुचि नहीं है। इसलिये वे अपनी तरफ से, अपनी बात कह रहे हैं- ] 

(१) मैं भगवान का हूँ , (२) भगवान मेरे हैं। (३) मैं और किसी का नहीं हूँ और (४) कोई मेरा नहीं है। 

प्रश्न - चुप साधन में और इच्छा रहित होने में कोई फर्क है ? चुप साधन करना और इच्छा रहित होना ... । 

[प्रश्नकर्त्ता की बात का जवाब न देकर श्री स्वामीजी महाराज उसके एक ही शब्द (इच्छा) को लेकर पुनः अपनी बात आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 

एक इच्छा ही, एक ही इच्छा (हो केवल भगवान् की) । 

प्रश्न- 
(चुप-साधन और इच्छा-रहित होना- ) दोनों बातें एक ही है ? 

[ श्रीस्वामीजी महाराज उक्त प्रश्न का जवाब देकर चलते विषय में व्यवधान नहीं कर रहे हैं। प्रश्नकर्त्ता के एक ही अंश ( एक ही है?) को लेकर बोलते हैं- ] 
श्रीस्वामीजी महाराज- 
एक ही है, एक ही है ।

[ अब श्रीस्वामीजी महाराज वापस अपने विषय को आगे बढाते हुए कह रहे हैं- ] 

कुछ भी इच्छा न रखे। ना भोगों री (की) ,ना मोक्ष री (की) , कुछ भी इच्छा न रखना। (... और सब करते रहो, पर ) कुछ भी इच्छा नहीं रखना , कुछ भी इच्छा नहीं करना। ना प्रेम की, ना भक्ति की , ना मुक्ति की, ना और कोई, संसार की, (…और) । इच्छा कोई करनी ही नहीं । 

बिचौलिया - 
इच्छा नहीं करनी पर काम, कोई काम करना हो तो ? 
श्रीस्वामीजी महाराज - 
काम करो ।
बिचौलिया - 
काम भले ही करो ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
काम करो, उत्साह से, आठ पोहर (पहर) करो। 

इण बातने (इस बात को) समझो खूब। ठीक समझो (इसको)। कोई इच्छा नहीं। अङचन आवे जो बताओ! बाधा आवे जो बताओ ! (जो बाधा आवे, वो बताओ)। 

बिचौलिया - 
आप (प्रश्नकर्त्ता) कह रहे हैं (कि) काम तो करो और कुछ इच्छा मत रखो। तो इच्छा का मतलब [ यहाँ बीच में ही अस्वीकार करते हुए श्रीस्वामीजी महाराज बोले-] (-- नहीं नहीं ! ) । दूसरों का दुख दूर करणो (करना) । उसका फल नहीं चाहना ? (यहाँ तक प्रश्नकर्त्ता का बाकी रहा हुआ वाक्य पूरा हुआ)। 

[ अब यहाँ श्री स्वामीजी महाराज दुबारा स्पष्ट बोलते हैं कि- ] 

दूसरों का दुःख दूर करना । आये हुए की सेवा करणी (करनी)। कुछ चाहना ( मत रखो ) । 

प्रश्न - 
और चाहना से मतलब क्या? उसके, उस कर्म का फल नहीं चाहना? सेवा का फल नहीं चाहना- यही चाहना छोड़ना है क्या ? चाहना नहीं रखने का क्या तात्पर्य है? । 

श्रीस्वामीजी महाराज - 
चाहना, कोई चाहना (नहीं रखना ), माने यूँ मिले, मिल जाय, मुक्ति हो जाय, कल्याण हो जाय , उद्धार हो जाय क, न हो जाय -(ऐसा) कुछ नहीं (हो)। 

बिचौलिया - 
सेवा, सेवा करते रहें और चाहना नहीं रखे, कि हम को बदले में कुछ मिले । 


श्रीस्वामीजी महाराज - 
सेवा कर दो, बदले में (... कुछ नहीं चाहना ) चुप रहो । ऐकान्त में रहो, चुप रहो। 

बिचौलिया - 
कोई कहीं नौकरी करता है, तो वो नौकरी करे ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
हाँ ।
बिचौलिया - 
और फल की चाहना नहीं करे। 
श्रीस्वामीजी महाराज - 
हाँ चाहना नहीं करे । 

(यहाँ भी श्री स्वामीजी महाराज बिचौलिये की बात के एक अंश (चाहना नहीं करे) को लेकर ही बोल रहे हैं। विषय को सुगम रखते हुए, नौकरी, तनखाह आदि दूसरी बातें इस प्रसंग में वे ज्यादा नहीं ला रहे हैं )। 

बिचौलिया - 
और तनखा भले ही लेवो । तनखा तो भले ही लेवोऽऽ ।
श्रीस्वामीजी महाराज - 
लेवो भले ही। (यहाँ भी उस विषय को अलग ही रख रहे हैं और जो विषय चल रहा है, उसके अनुसार ही कह रहे हैं-) इच्छा नहीं राखणी (रखनी) ।

बिचौलिया - 
इच्छा नहीं रखनी । 

प्रश्न - 
कह, इसका तात्पर्य सब प्रकार से, भीतर से खाली होना ही है? । 

श्रीस्वामीजी महाराज- 
हूँ (हाँ) , जहाँ है ( जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा हैं), देखो! सार बात- जहाँ आप है, वहाँ परमात्मा है । आप मानो क नहीं? (मानते हो कि नहीं? ); क्योंकि कुछ नहीं करोगे, कोई इच्छा नहीं, तो परमात्मा में ही स्थिति हो गई या (यह) । और कहाँ (होगी? - कहाँ होगी?) आप जहाँ है, वहीं चुप हो जाओ । कुछ नहीं चाहो, परमात्मा में स्थिति हो गयी । आप (वहाँ हैं) तो वहाँ परमात्मा पूर्ण है। जहाँ आप है, वहाँ पूर्ण परमात्मा पूर्ण है । कोई इच्छा नहीं (तो कोई) बाधा नहीं । एक इच्छा मात्र सब (बाधा है। इसलिये कुछ भी इच्छा मत रखो)। ना भुक्ति (भोग) की इच्छा रखो, (ना) मुक्ति की , दर्शनों की , ( ...र की) , कल्याण की क, कुछ भी (इच्छा मत रखो) ! कोई इच्छा नहीं रखोगे अर (और चुप हो जाओगे तो) वहाँ स्थिति परमात्मा में ही होगी; क्योंकि परमात्मा में इच्छा है नहीं। सब परमात्मा ही है । इ‌च्छा किसकी करे? अर (और) परमात्मा हमारे (हैं), ओर (दूसरे) किसकी इच्छा करें ? समझ में आई कि नहीं, पतो (पता) नहीं । 

बिचौलिया - 
(समझ में) आयी । 

स्वामीजी महाराज - 
समझ में नहीं आई तो बोलो । क्या, क्या समझ में नहीं आयी ... 

[ अब बिचौलिये के द्वारा प्रश्नकर्त्ता आदि से कहा जा रहा है कि बात समझ में आ गई क्या? कुछ कहना हो तो बोल दें ]। 

श्रीस्वामीजी महाराज बोले कि क्या, क्या (समझ में नहीं आया?) 

[ तख्त के ऊपर, जहाँ श्रीस्वामीजी महाराज विराजमान थे, वहाँ श्रोताओं की बातें सुनायी नहीं पङ रही थी। उस समय श्रीस्वामीजी महाराज बोले कि - ] 

अठे सुणीजे (या) नहीं सुणीजे ... (श्रोताओं की बात हमारे यहाँ सुनायी पङे या न पङे, इससे क्या? यह बात तो ऐसे है ही, स्थिति तो यहाँ- परमात्मा में ) है ही। 

आप बताओ स्थिति कहाँ होगी आपकी ? परमात्मा में ही है “स्थिति”। संसार की इच्छा है, इस वास्ते संसार में है (स्थिति)। कोई तरह की इच्छा नहीं है (तो) परमात्मा में स्थिति (है) । मनन करो, फिर शंका हो तो बताओ, (...बोलो) बोलो । 


बिचौलिया - 
(ये कहते हैं) कि इसका तात्पर्य मैं यह समझा हूँ कि होनेपन में स्थित रहे और कोई काम सामने आवे तो कर दे। 

स्वामीजी महाराज - 
(काम नहीं,) सेवा । 

बिचौलिया - 
सेवा आवे तो कर दे और उदासीनता से रहे, हँऽऽ? (यही बात है क्या?)। 

[ श्रीस्वामीजी महाराज जी ने इस बाल वचन को टाल दिया और वापस उसी विषय को कहने लगे- ] 

श्रीस्वामीजी महाराज - 
आप की स्थिति परमात्मा में ही है । है ही परमात्मा में। इच्छा छोड़ दो , स्थिति हो जायेगी। 

इच्छा से ही संसार में है (स्थिति), इच्छा छोड़ दी (परमात्मा में स्थिति हो गई ) सब की। मूर्ख से मूर्ख (और) अनजान से अनजान , जानकार से ( ... जानकार- कोई भी हो,उसकी परमात्मा में स्थिति) हो गई। ठीक है? । (... हाँ) सुणाओ (भजन आदि)। 

कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं, भुक्ति की, मुक्ति की (किसी प्रकार की, कोई भी इच्छा नहीं है, तो सबकी स्थिति परमात्मा में ही है)। 

[ फिर श्रीबजरँगलालजी ने भजन गाया - 
'हरिका नाम जपाने वाले तुमको लाखों प्रणाम' ।। ० ।।  


यह भजन उन्होंने नया बनाया था और श्रीस्वामीजी महाराज के सामने पहली बार ही सुनाया था तथा यह पहली बार सुनाना ही अन्तिम बार हो गया।  


भजन समाप्त हो जाने पर श्रीस्वामीजी महाराज (बिना कुछ कहे) अपने निवास स्थान की ओर चल दिये। ऐसा लग रहा था कि अपनी महिमा वाला यह भजन सुनकर श्रीस्वामीजी महाराज राजी नहीं हुए ।  


रामायण में भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज सन्तों के लक्षणों में भी ऐसी बात बताते हैं -
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। 
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।। 
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। 
सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती।। 

(रामचरितमा.३|४६|१,२;)। ]



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  श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के द्वारा दिया गया, यहाँ यह पहला अन्तिम प्रवचन, दिनांक,२९ जून, सन २००५ को, सायं, लगभग ४ बजे का है और दूसरा आखिरी प्रवचन दिनांक ३० जून, सन २००५, सुबह ११ बजे का है।


 मूल प्रवचनों की रिकॉर्डिंं में किसीने  काँट छाँट  करदी है, कई अंश नष्ट कर दिये हैं  और मूल प्रवचन का मिलना भी कठिन हो गया है।  महापुरुषों की वाणी के किसी भी अंश को काटना नहीं चाहिये।  यह अपराध है। 


 इन दोनों प्रवचनों की रिकोर्डिंग को सुन- सुनकर, उन के अनुसार ही, यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है। जिज्ञासुओं के लिये यह बङे काम की वस्तु है। साधक को चाहिये कि  इन दोनों सत्संग- प्रवचनों को पढ़कर और सुनकर  मनन करें तथा  लाभ उठावें।


 इसमें लेखन आदि की जो गलतियाँ रह गयी हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं और जो अच्छाइयाँ हैं, वे उन महापुरुषों की हैं। सज्जन लोग गलतियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छाइयों की तरफ ध्यान देंगे, ऐसी आशा है।

                 निवेदक- डुँगरदास राम 

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(श्रद्धेय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजकी
गीताप्रेस गोरखपुरसे प्रकाशित
‘एक सन्तकी वसीयत’
नामक पुस्तक, पृष्ठ १४,१५ में इन दोनों प्रवचनों के भाव संक्षेप में  लिखेे हुए हैं, पूरे नहीं )। 

वे भी यहाँ दिये जा रहे हैं-


अन्तिम प्रवचन-

(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, विक्रम सम्वत-२०६२, तदनुसार ३ जुलाई, २००५ को परमधाम पधारनेके पूर्व दिनांक २९-३० जून, २००५ को गीताभवन, स्वर्गाश्रम(हृषीकेश)में दिये गये अन्तिम प्रवचन) ।


[पहले दिन -]


एक बहुत श्रेष्ठ, बड़ी सुगम, बड़ी सरल बात है । वह यह है कि किसी तरहकी कोई इच्छा मत रखो । न परमात्माकी, न आत्माकी, न संसारकी, न मुक्तिकी, न कल्याणकी, कुछ भी इच्छा मत करो और चुप हो जाओ । शान्त हो जाओ । कारण कि परमात्मा सब जगह शान्तरूपसे परिपूर्ण है । स्वतः-स्वाभाविक सब जगह परिपूर्ण है । कोई इच्छा न रहे, किसी तरहकी कोई कामना न रहे तो एकदम परमात्माकी प्राप्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, पूर्णता हो जाय !

यह सबका अनुभव है कि कोई इच्छा पूरी होती है, कोई नहीं होती । सब इच्छाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है । इच्छाओंका पूरा करना हमारे वशकी बात नहीं है, पर इच्छाओंका त्याग कर देना हमारे वशकी बात है । कोई भी इच्छा, चाहना नहीं रहेगी तो आपकी स्थिति स्वतः परमात्मामें होगी । आपको परमात्मतत्त्वका अनुभव हो जायगा । कुछ चाहना नहीं, कुछ करना नहीं, कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं, कोई अभ्यास नहीं । बस, इतनी ही बात है । इतनेमें ही पूरी बात हो गयी ! इच्छा करनेसे ही हम संसारमें बँधे हैं । इच्छा सर्वथा छोड़ते ही सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मामें स्वतः-स्वाभाविक स्थिति है ।

प्रत्येक कार्यमें तटस्थ रहो । न राग करो, न द्वेष करो ।

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार ।
राग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार ॥
(दोहावली ९४)

एक क्रिया है और एक पदार्थ है । क्रिया और पदार्थ यह प्रकृति है । क्रिया और पदार्थ दोनोंसे सम्बन्ध-विच्छेद करके एक भगवान्‌के आश्रित हो जायँ । भगवान्‌के शरण हो जायँ, बस । उसमें आपकी स्थिति स्वतः है । ‘भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा’‒ ऐसे परमात्मामें आपकी स्वाभाविक स्थिति है । स्वप्नमें एक स्त्रीका बालक खो गया । वह बड़ी व्याकुल हो गयी । पर जब नींद खुली तो देखा कि बालक तो साथमें ही सोया है‒ तात्पर्य है कि जहाँ आप हैं, वहाँ परमात्मा पूरे-के-पूरे विद्यमान है । आप जहाँ हैं, वहीं चुप हो जाओ !!
‒२९ जून २००५, सायं लगभग ४ बजे

  +    ****       ****       ****     ×


[दूसरे दिन-]


श्रोता‒
कल आपने बताया कि कोई चाहना न रखे । इच्छा छोड़ना और चुप होना दोनोंमें कौन ज्यादा फायदा करता है ?

स्वामीजी‒
मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान्‌ मेरे हैं, मैं और किसीका नहीं हूँ, और कोई मेरा नहीं है । ऐसा स्वीकार कर लो । इच्छारहित होना और चुप होना‒दोनों बातें एक ही हैं । इच्छा कोई करनी ही नहीं है, (न) भोगोंकी, न मोक्षकी, न प्रेमकी, न भक्तिकी, न अन्य किसीकी ।

श्रोता‒
इच्छा नहीं करनी है, पर कोई काम करना हो तो ?

स्वामीजी‒
काम उत्साहसे करो, आठों पहर करो, पर कोई इच्छा मत करो । इस बातको ठीक तरहसे समझो । दूसरोंकी सेवा करो, उनका दुःख दूर करो, पर बदलेमें कुछ चाहो मत । सेवा कर दो और अन्तमें चुप हो जाओ । कहीं नौकरी करो तो वेतन भले ही ले लो, पर इच्छा मत रखो ।

सार बात है कि जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं । कोई इच्छा नहीं करोगे तो आपकी स्थिति परमात्मामें ही होगी । जब सब परमात्मा ही हैं तो फिर इच्छा किसकी करें ? संसारकी इच्छा है, इसलिये हम संसारमें हैं । कोई भी इच्छा नहीं है तो हम परमात्मामें हैं ।

‒ ३० जून २००५, दिनमें लगभग ११ बजे ‒

                      ■●■

अंतिम प्रवचन (१,२; कुछ खण्डित )- goo.gl/ufSn5W



अन्तिम प्रवचन १ (२९ जून २००५) का पता (ठिकाना) (खण्डित)
-(लिंक) डाउनलोड करनेके लिये goo.gl/gTyBxF अथवा सुननेके लिये goo.gl/yR5SLd

अन्तिम प्रवचन २ (३० जून २००५) का पता (ठिकाना) (?)
-(लिंक) डाउनलोड करनेके लिये goo.gl/QS68Wj अथवा सुननेके लिये goo.gl/wt7YNR 


पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/


http://dungrdasram.blogspot.com/2014/07/blog-post_27.html?m=1 

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