शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

मुख्य-बातें (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की मुख्य बातें )।

                        ।।श्री हरि:।।      

       

श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज

की मुख्य बातें -

त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव ।।

ये कुछ पुस्तकोंमेंसे छाँटे हुए कुछ लेख है,प्रत्येक-पुस्तकके सब लेख नहीं है।

(लोगोंको थोड़े समयमें महाराजजीकी कई बातें मिल जाय,सत्संगमें सुनानेके    लिये, व्याख्यान देनेसे पहले, इस लेखको पढनेसे थोड़ी देरमें खास-खास बातें ध्यानमें आ जाय-इस उध्देश्यसे ये बातें एक जगह लिखि गई)।

'जीवनका कर्तव्य'
नामक पुस्तकमें-

1-'समयका मूल्य और सदुपयोग'

2-'सब नाम-रूपोंमें एक ही भगवान'

3-'बार-बार नहिं पाइये मनुष-जनमकी मौज'

'साधन-रहस्य' ('एकै साधै सब सधै')

नामक पुस्तकमें-

4-'सबका कल्याण कैसे हो? '

5-'अखण्ड साधन'

5-'दृढ भावसे लाभ'

6-'भगवत्प्राप्तिसे ही मानव- जीवनकी सार्थकता'

'जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग'
नामक पुस्तकमें-

7-'सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है'

8-'विषयासक्ति और भगवत्प्रीतिमें भेद'

9-'मनकी हलचलके नाशके सरल उपाय'

10-'दैवी सम्पदा एवं आसुरी सम्पदा'

11-'भगवत्प्राप्तिके लिये भविष्यकी अपेक्षा नहीं'

'सर्वोच्च पदकी प्राप्तिका साधन'
नामक पुस्तकसे-

11-'प्राप्त सामर्थ्यका सदुपयोग'

'कल्याणकारी प्रवचन' (भाग 1)
नामक पुस्तकमें-

12-'अपने अनुभवका आदर'

13-'संसारमें रहनेकी विद्या'

14-'स्वार्थरहित सेवाकी महत्ता'

15-'परमात्मा तत्काल कैसे मिलें ? '

16-'भगवत्प्राप्ति क्रियासाध्य नहीं'

17-'परमात्मप्राप्तिमें भोग और संग्रहकी इच्छा ही महान बाधक'

'तात्त्विक प्रवचन'
नामक पुस्तकमें-

18-'मुक्ति सहज है'

19-'जाग्रतमें सुषुप्ति'

20-'हमारा स्वरूप सच्चिदानन्द है'

21-'दृश्यमात्र अदृश्यमें जा रहा है'

22-'सत्य क्या है? '

23-'मैं शरीर नहीं हूँ'

24-'त्यागसे सुखकी प्राप्ति'

25-'तत्त्वप्राप्तिमें सभी योग्य हैं'

26-'सांसारिक सुख दु:खोंके कारण हैं'

27-'स्वभाव-सुधारकी आवश्यकता'

'भगवान् से अपनापन'
नामक पुस्तकमें-

28-'भगवानसे अपनान'

29-'नाम-जप और सेवासे  भगवत्प्राप्ति'

'भगवन्नाम'
नामक पुस्तकमें

30-'होहि रामको नाम जपु'

'सत्संगकी विलक्षणता'
नामक पुस्तकमें-

31-'सत्संगकी आवश्यकता'

('गीता-दर्पण'
नामक पुस्तकमें- )

32-(गीतामें) 'आहार-शुध्दि'

'कर्म-रहस्य'
नामक पुस्तकमें-

33-'अपने कर्मोंके द्वारा भगवान् का पूजन'

34-'जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ? '

'वास्तविक सुख'
नामक पुस्तकमें-

35-'मनुष्य-जीवनका उध्देश्य'

36-'पारमार्थिक उन्नति धनके आधीन नहीं'

37-'गोहत्या-एक अभिशाप'

'अच्छे बनो'
नामक पुस्तकमें-

38-'प्रतिकूल परिस्थितिसे लाभ'

'भगवत्प्राप्तिकी सुगमता'
नामक पुस्तकमें-

39-'अन्त:करणकी शुध्दिका उपाय'

40-'शरणागतिकी विलक्षणता'

41-'अपनी मनचाहीका त्याग'

42-'अपने साधनको सन्देहरहित बनायें'

'स्वाधीन कैसे बनें ? '
नामक पुस्तकमें-

43-'परमात्मप्राप्तिमें मुख्य बाधा-सुखासक्ति'

'गृहस्थमें कैसे रहें?
' नामक पुस्तकमें-

44-'महापापसे बचो'

'सत्संगका प्रसाद'
नामक पुस्तकमें-

45-'मन-बुध्दि अपने नहीं'

46-'कर्म किसके लिये ? '

'सच्चा गुरु कौन ?'
नामक पुस्तकमें-

47-'कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्'

'सहज साधना'
नामक पुस्तकमें-

48-'निर्दोषताका अनुभव'

49-'अहमका नाश तथा तत्त्वका अनुभव'

50-'करण-निरपेक्ष तत्त्व'

51-'चुप-साधन'

'नित्ययोगकी प्राप्ति'
नामक पुस्तकमें-

52-'करणनिरपेक्ष परमात्मतत्त्व'

53-'सत्-असतका विवेक'

54-'प्राप्त जानकारीके सदुपयोगसे कल्याण'

55-'जीवकृत सृष्टिसे बन्धन'

56-'दु:खका कारण-संकल्प'

57-'काम-क्रोधसे छूटनेका उपाय'

58-'राग-द्वेषसे रहित स्वरूप'

'वासुदेव:सर्वम्'
नामक पुस्तकमें-

59-'प्राप्त तत्त्वका अनुभव'

60-'उध्देश्यकी महत्ता'

61-'साधक कौन है ?'

'कल्याण-पथ'
नामक पुस्तकमें-

62-'कल्याणका सुगम साधन-कर्मयोग'

63-'गीताकी अलौकिक शिक्षा'

64-'योग:कर्मसु कौशलम्'

65-'भगवान और उनकी दिव्य शक्ति'

66-'संकीर्तनकी महिमा'

67-'गीतोक्त सदाचार'

'मातृशक्तिका घोर अपमान'
नामक पुस्तकमें-

68-'ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी'

'जिन खोजा तिन पाइया'
नामक पुस्तकमें

69-'परमात्मा सगुण हैं या निर्गुण ?'

'तत्त्वज्ञान कैसे हो ?'
नामक पुस्तकमें-

70-'मुक्तिमें सबका समान अधिकार'

'भगवान और उनकी भक्ति'
नामक पुस्तकमें-

71-'सर्वश्रेष्ठ साधन'

'जित देखूँ तित तू'
नामक पुस्तकमें-

72-'करणनिरपेक्ष साधन-शरणागति'

'सब जग ईश्वररूप है'
नामक पुस्तकमें-

73-'भगवान् का आलौकिक समग्ररूप'

74-'अलौकिक साधन-भक्ति'

'साधन-सुधा-सिन्धु'
नामक पुस्तकमें-

75-'प्रतिकूलतामें विशेष भगवत्कृपा'

'साधक-संजीवनी'
नामक पुस्तकमें

76-'साधनकी दो शैलियाँ'

ये कुछ पुस्तकोंमेंसे छाँटे हुए कुछ लेख है,प्रत्येक-पुस्तकके सब लेख नहीं है।

(लोगोंको थोड़े समयमें श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी कई बातें मिल जाय,सत्संगमें सुनानेके    लिये, व्याख्यान देनेसे पहले, इस लेखको पढनेसे थोड़ी देरमें खास-खास बातें ध्यानमें आ जाय-इस उध्देश्यसे ये बातें एक जगह लिखि गई)।
-डुँगरदास राम.

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

 81-90÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) सूक्ति-संख्या 81- 90 तक।

                         ||श्री हरिः||                                    
÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) सूक्ति-संख्या 81- 90 तक।

सूक्ति-81.
अकलसे खुदा पहचानो।
शब्दार्थ-
अकल(बुध्दि).खुदा(भगवान). (भगवद्आज्ञाका पता कैसे लगे? कि अकलसे खुदा पहचानो.भगवान सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद हैं- सुहृदं सर्व भूतानाम्.(गीता 5/29) और महात्मा,भगवानके भक्त भी सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद हैं-सुहृद:सर्व देहिनाम्। इसलिये जिसमें दूसरोंका हित हो,वो भगवानकी आज्ञा है-ऐसा समझो).
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.1991-07-31,8.30 बजेके सत्संग-प्रवचनसे।

सूक्ति-82.
पारकी पूणीं कातणौ सीखणौं है.
शब्दार्थ- पारकी(पराई,दूसरोंकी).पूणी(ऊन कातनेसे पहले और चूँकेके बाद बनायी हुई ऊनकी पूळी). जैसे कोई कातनेके लिये मिली हुई दूसरोंकी ऊनसे कातनेका प्रयास करता है तो कातनेकी अटकल(विद्या) मुफ्तमें सीख जाता है,ऐसे ही मिली हुई शरीर आदि वस्तुसे (परहितके द्वारा) कल्याण करना सीखना है-
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.1991-07-31,8.30 बजेके सत्संग-प्रवचनसे।

सूक्ति-83.
आज कि काल परार कि पौर। आपाँ बाताँ कराँ औराँरी आपाँरी करसी कोइ और ।।
शब्दार्थ-
पौर(गई साल).परार(गई सालसे पहले बीती हुई साल).

सूक्ति-84.
लेताँ तो बदतो लेवै देताँ कसर पावरी। पीपा प्रत्यक देखिये बाजाराँमें बावरी।। शब्दार्थ- बदतो(बढकर,ज्यादा).प्रत्यक(प्रत्यक्ष,सामने).बावरी(जीव-हत्यारा, शिकारी).
सूक्ति-85.
कह,खाटू जास्याँ। कह,खाटू बड़ी जास्यो क (या) छोटी? कह,जास्याँ तो बड़ी ही जास्याँ,छोटी क्यूँ जास्याँ।।
-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दि.1993-10-01.20.00 बजेके सत्संगसे) ।
शब्दार्थ-
खाटू(खाटू गाँव,'छोटी खाटू' और 'बड़ी खाटू' नामके दो गाँव). [जब एक साथ दो काम उपस्थित होते हैं तब ज्यादा लाभ वाला काम चुनना समझदारी कहलाता है]।

सूक्ति-86.
मड़ो भूत बाकळाँसूइँ राजी.
शब्दार्थ-
मड़ो(दुर्बल,भूख आदिसे दुखी).बाकळा(मोठोंको उबालकर बनायी हुई गूघरी). भूत(मरनेपर मिलनेवाली भूत-प्रेतकी योनिवाला प्राणी).

सूक्ति-87.
साध हजारी कापड़ो रतियन मैल सुहाय। साकट काळी कामळी भावै तहाँ बिछाय।।
शब्दार्थ-
साध(सज्जन पुरुष,सदाचारी,भला कहलानेवाला).साकट(संसारी,विषयी,विपरीतगामी,बदनाम).

सूक्ति-88.
धोयाँ उतरे है काँई? ( भगवानके तो हैं हम पहले से ही) धोयाँ उतरे है काँई?(नहीं उतरते,नहीं मिटते).
शब्दार्थ-
धोयाँ(धोनेसे).

सूक्ति-89.
रोजीनारी राड़ आपसरी आछी नहीं। बणै जहाँ तक बाड़ चटपट कीजै चकरिया।। श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज द्वारा दिये गये दि. (1997-07-31,20.00 बजेके सत्संग-प्रवचनसे)
शब्दार्थ-
चकरिया(चकरिया-कवि).राड़(लड़ाई,कहासुनी).बाड़(सुरक्षा,जिससे लड़ाई न हो-ऐसा उपाय,कहावत-राड़ आडी बाड़ भली).चटपट(जल्दी,तुरत).

सूक्ति-90.
अकलमें कुत्ता मूतग्या.
शब्दार्थ-
अकल(समझ,बुध्दि). (जब किसीकी बुध्दी भ्रष्ट हो जाती है या कोई नीच-कर्म करता है अथवा नीच-कर्मका समर्थन करता है,उसीको ठीक समझता और कहता है तब कहा जाता है कि इसकी बुध्दिमें कुत्ते पेशाब करके चले गये (अकलमें कुत्ता मूतग्या). ।।

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

सूक्तियाँ 1-80 ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि).

                                              ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि: देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं | उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें,दोहे,सोरठे,छन्द,सवैया,कविता,साखी आदि लिखलें; उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या ; इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई| इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है| महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है;इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय| कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे,कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -                          ||श्री हरिः||                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) सूक्ति-०१. [रातमें] दूजा सोवे,अर साधू पोवे | सूक्ति-०२. बेळाँरा बायोड़ा मोती नीपजे| शब्दार्थ- बेळाँ(समय). सूक्ति-३. घेरा घाल्या नींदड़ी, अर भागण लागा अंग| साधराम अब सो ज्यावो राँड बिगाड़्यो रंग|| सूक्ति-४. खारियारे खारिया! (थारी) ठण्डी आवे लहर| लकड़ाँ ऊपर लापसी (पण) पाणी खारो जहर|| शब्दार्थ- खारिया(एक गाँव),लकड़ाँ ऊपर लापसी(पीलू-पीलवाण,'जाळ' वृक्षके फल). सूक्ति-५. मौत चावे तो जा मकोळी, हरसूँ मिले हाथरी होळी, पीहीसी नहीं तो धोसी पाँव, मरसी नहीं तो आसी(चढसी) ताव| शब्दार्थ- मकोळी(एक गाँव,जिसका पानी भयंकर-बिराइजणा है,पीनेसे ऐसी शिथिलता आ जाती है कि मृत्यू भी हो सकती है.),हाथरी होळी(अर्थात् हाथकी बात). सूक्ति-६. घंट्याळी घोड़ घणाँ आहू घणा असवार| चाखू चवड़ा झूँतड़ा पाणी घणो पड़ियाळ|| (यहाँ चार गाँवोंकी विशेषता बताई गई है) शब्दार्थ- झूँतड़ा(मकान). सूक्ति-७. गारबदेसर गाँवमें सब बाताँरो सुख| ऊठ सँवारे देखिये मुरलीधरको मुख|| शब्दार्थ-मुरलीधर(भगवान). सूक्ति-८. आयो दरशण आपरै परा उतारण पाप| लारे लिगतर लै गयो मुरलीधर माँ बाप!|| शब्दार्थ- लिगतर(जूते). कथा- एक चारण भाई इस मन्दिरमें दर्शनके लिये भीतर गये,पीछेसे कोई उनके पुराने जूते(लिगतर) लै गया.तब उन्होने मुरलीधर(सबके माता पिता) भगवानसे यह बात कहीं;इतनेमें किसीने नये जूते देते हुए कहा कि बारहठजी ! ये जूते पहनलो ; मानो भगवानने दुखी बालककी फरियाद सुनली | सूक्ति-९. कुबुध्द आई तब कूदिया दीजै किणने दोष| आयर देख्यो ओसियाँ साठिको सौ कोस|| कथा- साठिका गाँवके एक जने(शायद माताजीके भक्त,एक चारण भाई)ने सोचा कि इस गाँवको छोड़कर ओसियाँ गाँवमें चले जायँ (जो सौ कोसकी तरह दूर था)तो ज्यादा लाभ हो जायेगा,परन्तु वहाँ जाने पर पहलेसे भी ज्यादा घाटा दीखा; तब अपनी कुमतिके कारण पछताते हुए यह बात कहीं . सूक्ति-१०. आप कमाया कामड़ा दीजै किणने दोष| खोजेजीरी पालड़ी काँदे लीन्ही खोस|| कथा- पालड़ी गाँववाले ठाकुर साहबके यहाँ एक काँदा(प्याज) इतना बड़ा हुआ कि उन्होने उस काँदेको ले जाकर लोगोंके सामने ही दरबारके भेंट चढाया;सबको आश्चर्य आया कि पालड़ीमें इतना बड़ा काँदा पैदा हुआ है,लोग उस गाँवको 'काँदेवाली पालड़ी' कहने लग गये; इससे पहले उसका नाम था 'खोजेजीरी पालड़ी'| अगर खोजोजी ऐसा नहीं करते तो उनका यही अपना नाम रहता;परन्तु अब किसको दोष दें| Dungrdasram Dungrdas पर 10:16 pm                          ||श्री हरिः||                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) सूक्ति-संख्या ११-२० तक. सूक्ति-११. बोरड़ीरे चौर बँधियो देखि पिणियारी रोई| थारे सगो लागे सोई? म्हारे सगो लागे नीं सोई, इणरे बापरो बहनोई म्हारे लागतो नणदोई. (यह चौर उसका बेटा था ). सूक्ति-१२. रामजी घणदेवाळ है . शब्दार्थ- घणदेवाळ(ज्यादा देनेवाले,सुख देते हैं तो एक साथ ही खूब दे देते हैं और दुख देते हैं तो भी एक साथ ज्यादा दे देते हैं.). सूक्ति-१३. गई तिथ बाह्मणही कोनि बाँचे. शब्दार्थ- तिथ(तिथि,दिन,). सूक्ति-१४. साँचे गुरुके लागूँ पाँय,झूठे गुरुकी मूँडूँ माय|| शब्दार्थ- मूँडूँ माय(माँ को मूँडूँ,शिष्या बनाऊँ). सूक्ति-१५. रैगो चाले रग्ग मग्ग,तीन माथा दस पग्ग. (खेतमें बैलोंके द्वारा हल चलाता किसान). शब्दार्थ- रैगो(  ?). तीन माथा(तीन सिर,एक सिर तो किसानका और दौ बैलोंके-३ ). दस पग्ग(दस पैर,दौ पैर तो किसानके और आठ पैर दौनों बैलोंके-१०). सूक्ति-१६. गहलो गूंगो बावळो,तो भी चाकर रावळो. शब्दार्थ- रावळो(आपका,मालिकका,राजमहलका). सूक्ति-१७. बाँदी तो बादशाहकी औरनकी सरदार. शब्दार्थ- बाँदी(दासी). सूक्ति-१८. बाई! बिखमी बार जेज ऊपर कीजै नहीं| शरणाई साधार कुण जग कहसी करनला!|| शब्दार्थ- बिखमी बार(संकटकी घड़ी). सूक्ति- १९. धोरे ऊपर बेलड़ी ऊगी थूळमथूळ| पहले लागी काकड़ी पाछे लागो फूल|| (शायद लाँकीमूळा,जो धोरा-पठार पर फोग आदिकी जड़से पैदा होकर डण्डेकी तरह रेतके ऊपर निकलता है,उसके सब ओर पत्तियाँसी लगी रहती है,वो बादमें विकसित होती है,जिससे वो पुष्पकी तरह दीखता है). सूक्ति-२०. तन्त्री तार सुझाँझ पुनि जानु नगारा चार| पञ्चम फूँकेते बजे शब्द सु पाँच प्रकार|| Dungrdasram Dungrdas पर 3:32 pm ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या २१-३० तक. ›                          ||श्री हरिः|| सूक्ति-२१. बैरागी,अर बान्दरा बूढापैमें बिगड़ै (है). सूक्ति-२२. बैरागी अर बावरी मत कीजै करतार| यो नितरा बाँधे गूदड़ा वो नित हिरणाँरे लार|| सूक्ति-२४. साधू होणो सोरो भाई दोरो होणो दास| गाडर आणी ऊनणै ऊभी चरै कपास|| भावार्थ- साधू वेष धारण करके साधू हो जाना तो सुगम है,पर दास होना कठिन है अर्थात् जैसे दास(सांसारिक नौकर) मेहनत करके सेवा करता है,अभिमान छोड़ता है,नीचा(छोटा) बनकर मालिकका काम करता है,मालिकके परिवारका भी मालिककी तरह आदर करता है,आराम छोड़कर,सबकी सेवा करके उनको सुखी करता है,फिर भी एहसान नहीं जताता और न चाहता है,वो एहसान नहीं माने तो भी अपना स्वार्थ(वेतन) समझ कर सेवा करता ही रहता है,अपमान भी सहता है,खाने-पीनेकी परवाह न करता हुआ परिवारसे दूर रहकर रात-दिन कमाई करता है और कमाईको भी अपने पास नहीं रखता आदि आदि| वो सांसारिक दास इस प्रकार जैसे परिवारके लिये करता है;इसी प्रकार पारमार्थिक दास(भगवानका भक्त या मुक्ति चाहनेवाला) भगवानके लिये करता है या मुक्तिके लिये करता है | अगर ऐसा नहीं है तो दशा उस गाडर(भेड़)वालेकी तरह है | जैसे कोई नफा चाहनेवाला भेड़से ऊन काटनेके लिये भेड़को घर पर लावे और ऊन काटे नहीं:अब वो भेड़ उसके रूईके लिये जो कपास था,उसको ही खा रही है;वो लाया तो इसलिये था कि नई कमाई हो जाय,परन्तु भेड़ पहलेकी की हुई कमाई(कपास) खा रही है;इसी प्रकार साधू होते तो नई कमाई(परमात्मा) के लिये हैं;परन्तु दासकी तरह काम(कर्तव्य) नहीं करे,तो पहलेकी कमाई भी खान-पान और आराममें चली जाती है;नई कमाई तो की नहीं और पुरानी थी वो भी गई|इसलिये कहा गया कि साधू होना तो सुगम है,पर दास होना कठिन है| सूक्ति-२५. कह,बाबाजी! संसार कैसा(है)? कह,बेटा! आप(स्वयं) जैसा. (स्वयं अच्छा है तो संसार भी उसके लिये अच्छा है,स्वयं बुरा है तो संसार भी बुरा है). सूक्ति-२६. सब जग ईश्वररूप है भलौ बुरौ नहिं कोय| जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय|| सूक्ति-२७. तन कर मन कर बचन कर देत न काहुहि दुक्ख| तुलसी पातक झरत(झड़त) है देखत उसके मुक्ख|| सूक्ति-२८. साध रामरा पौळिया साध रामरा पूत| साध न होता रामरा राम जातो अऊत||(जातो राम अऊत). शब्दार्थ- अऊत(जिसके पीछे वंशमें कोई न रहा हो,बिना औलादका). सूक्ति-२९. सोता साधु जगाइये ऊठ जपै हरि जाप| ये सूता नहिं छेड़िये सिंघ संसारी साँप|| (सोता साधु जगाइये ऊठ जपै हरि नाम| ये तीनों सोते भलै साकट सिंघ रु साँप||). सूक्ति-३०. समय पधारै 'कूबजी' साध पावणा मेह| अणआदर कीजै नहीं कीजै घणौं सनेह|| Dungrdasram Dungrdas पर 11:27 am                                               ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ३१- ४० तक. सूक्ति-३१. साध सरावै सो सती जती जोखिता जाण | 'रज्जब' साँचै सूरका बैरी करत बखाण || शब्दार्थ- सती(पतिव्रता,सदाचारिणी).जती(ब्रह्मचारी,सदाचारी).जोखिता(योषिता-स्त्री). सूक्ति-३२. बरसारो रिपु बायरो बाह्मणरो रिपु भाण्ड | भाण्डरो रिपु साध है साधूरो रिपु राँड || शब्दार्थ- रिपु(शत्रु,जिससे नुक्सान होता हो,बर्बाद करनेवाला,बेमेल). सूक्ति-३३. साधाँ सेती प्रीतड़ी परनारी सूँ हँसबो | दौ-दौ बाताँ बणै नहीं आटो खाबो भुसबो || सूक्ति-३४. साधाँ सेती प्रीत पळे तो पाळिये | राम भजनमें देह गळे तो गाळिये || सूक्ति-३५. सत्य बचन आधीनता परतिय मातु समान | एतै पर हरि ना मिलै (तो) तुलसीदास जमान || शब्दार्थ- आधीनता(शरणागति). जमान(जमानत,जिसकी जमानत चलती हो,जिम्मेदारी लेनेवाला). सूक्ति-३६. भला घराँमें भूख चौराँरे घर चूरमा | चतुराननरी चूक चौड़ै दीखे 'चकरिया' || शब्दार्थ- चतुरानन(ब्रह्माजी). सूक्ति-३७. भिणिया माँगै भीख अणभिणिया घोड़ै चढै | आ ही गुराँरी सीख भाई बन्दाँ! भिणज्यो मति || शब्दार्थ- अणभिणिया(अनपढ). सूक्ति-३८. पल-पलमें करे प्यार(रे) पल-पलमें पलटै परा | लाँणत याँरे लार(रे) रजी उड़ावो राजिया || शब्दार्थ- लाँणत(धिक्कार). रजी(धूल). सूक्ति-३९. कूड़ा निलज कपूत हिंयाफूट ढाँडा असल | इसड़ा पूत कपूत राँडाँ जिणै क्यों राजिया || शब्दार्थ- हिंयाफूट(मूढ,बिना सद्बुध्दिवाला,असंयमी, हिंयौ हुवै हाथ कुसंगी मिलौ किता| चन्दन भुजँगाँ साथ काळो न लागै …(? ). ढाँडा(पशु). सूक्ति-४०. रोजीनारी राड़ आपसरी आछी नहीं | बणै जठै तक बाड़ चटपट कीजै चकरिया || शब्दार्थ- राड़(लड़ाई,खटपट,कहासुनी). Dungrdasram Dungrdas पर 8:25 pm                                           ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ४१-५० तक. सूक्ति-४१. पीर तीर चकरी पथर और फकीर अमीर | जोय-जोय राखो पुरुष ये गुण देखि सरीर || भावार्थ- काम करनेवाले (नौकर अथवा सेवक) छः प्रकारके होते हैं - १)पीर -इसे कोई काम कहें तो यह उस बातको काट देता है, २)तीर -इसे कोई काम कहें तो तीरकी तरह भाग जाता है,फिर लौटकर नहीं आता,३)चकरी-यहचक्रकी तरह चट काम करता है,फिर लौटकर आता है,फिर काम करता है|यह उत्तम नौकर होताहै,४)पथर-यह पत्थरकी तरह पड़ा रहता है,कोई काम नहीं करता,५)फकीर-यह मनमें आये तो काम करता है अथवा नहीं करता,६)अमीर-इसे कोई काम कहें तो खुद न करके दूसरेको कह देता है| (इसलिये मनुष्यको सेवकमें ये गुण देखकर रखना चाहिये)| श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी पुस्तक 'अनन्तकी ओर'से (इसका यह अर्थ लिखा गया). सूक्ति-४२. बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस | बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास || शब्दार्थ- पसारा(विस्तार). सूक्ति-४३. साधू होय संग्रह करै दूजै दिनको नीर | तिरै न तारै औरको यूँ कहै दास कबीर || सूक्ति-४४. जोरि-जोरि धन कृपनजन मान रहै मन मोद | मधुमाखी ज्यूँ मूढ मन गिरत कालकी गोद || शब्दार्थ- कृपनजन(कंजूस व्यक्ति).मोद (हर्ष). सूक्ति-४५. कबिरा नौबत आपनी दिन दस लेहु बजाय | यह पुर पट्टन यह गली बहुरि न देखौ आय || शब्दार्थ- पट्टन( .नगर). सूक्ति-४६. सब जग डरपै मरणसे मेरे मरण आनन्द | कब मरियै कब भेटियै पूरण परमानन्द || शब्दार्थ- कब मरियै (कब मरें !). भेटियै (मिलें,प्राप्त करें ). सूक्ति-४७. जहाँमें जब तू आया सभी हँसते तू रोता था | बसल कर जिन्दगी ऐसी सभी रोवै तू हँसता जा || शब्दार्थ- जहाँमें (जगतमें). सूक्ति-४८. बैठोड़ैरे ऊभोड़ो पावणों सूक्ति-४९. कपटी मित्र न कीजिये पेट पैठि बुधि लेत | आगै राह दिखायकै पीछै धक्का देत || शब्दार्थ- पैठि (प्रवेश करके). सूक्ति-५०. तब लगि सबही मित्र है जब लगि पड़्यो न काम | हेम अगिनि सुध्द होत है पीतल होत है स्याम || शब्दार्थ- हेम (सोना).स्याम (काला). Dungrdasram Dungrdas पर 1:04 pm                                               ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक. सूक्ति-५१. आखी गुञ्ज  न आखिये होइ जो मित्र सुप्यार | दूधाँ सेती पित्त पड़े आधी आधी बार || भावार्थ- अगर अपना अच्छा,प्यारा मित्र हो तो भी अपनी रहस्यकी सारी गुप्त बातें तो उनसे भी नहीं कहनी चाहिये ; (क्योंकि उन शत(सौ)-प्रतिशत बातोंमें से पचास प्रतिशत हानि हो जाती है | जैसे,किसीको भरपेट दूध पिलाया जाता है तो) दूधसे भी आधी आधी बार(सौ बारमेंसे आधी-पचास बार) पित्त पड़ जाता है . सूक्ति-५२. आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय | देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय || भावार्थ- अपनोंको छोड़ कर परायोंमें बसनेसे और स्त्रीको गुप्त रहस्य बतानेसे पुँडरीक नागको देखो कि वह (गरुड़जीके) पैरोंमें बुरी तरहसे लूंबता,लटकता जा रहा है . शब्दार्थ- बिड़ बसण (परायोंमें बसना).गुञ्ज (रहस्यकी बात). कथा- एक 'पुँडरीक' नामका नाग गरुड़जीके डरसे (दूसरा रूप धारण करके) कहीं जाकर रहने लग गया (वहाँ विवाह भी कर लिया,परन्तु यह रहस्य किसको भी नहीं बताया था)| एक बार नागपञ्चमीके दिन उस नागकी पत्नि नागदेवताकी पूजा करनेके लिये कहीं जाने लगी तो पुँडरीक नागके पूछने पर उसने बताया कि नागदेवताकी पूजा करने जा रही हूँ | तब उसने हँसकर बताया कि वो तो मैं ही हूँ , जब मैं साक्षात नाग तुम्हारा पति हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो किसकी पूजा करने जा रही हो? यह सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ | नागने कहा कि यह बात  किसीको भी बताना मत; परन्तु उसकी पत्निके यह बात  खटी नहीं और अपनी पड़ोसिनको बतीदी तथा मना कर दिया कि वो किसीको न बतावे; उसके भी वो बात खटी नहीं और उसने आगे बतादी | इस प्रकार चलते-चलते यह बात गरुड़जीके पास पहुँच गयी और गरुड़जी तो उसको खोज ही रहे थे | तब गरुड़जी  वहाँ आये और पुँडरीक नागको पकड़ कर लै गये (पंजोंसे उसको पकड़ कर उड़ गये)| इसलिये कहा गया कि- आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय | देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय || सूक्ति-५३. पत्र देणों परदेसमें मित्रसे होय मिलाप | देरी होय दिन दोयकी तो करणो पड़े कलाप || सूक्ति-५४. *नासत दूर निवारज्यो आसत राखो अंग | कलि झोला बहु बाजसी रहज्यो एकण रंग || शब्दार्थ- नासत (नास्तिकता-ईश्वरको न मानना).आसत (आस्तिकता-ईश्वरको मानना).झोला (एक प्रकारकी हवा,जिससे खेती जल जाती है). (*यह दोहा श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके गुरुजीने किसीको पत्र लिखवाते समय पत्रमें लिखवाया था ). सूक्ति-५५. राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत | दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त || खुलासा- (इस दोहेकी रचना स्वयं श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है,इसमें महाराजजीने परोक्षमें अपना नाम-(१)साधू (२)राम(३)सुख(४)दास लिखा है | सूक्ति-५६. आसाबासीके चरन आसाबासी जाय | आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय || इस दोहेकी रचना करके श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है | शब्दार्थ- आसा (दिग,दिसाएँ).बासी (वास,वस्त्र,अम्बर).आसाबासी (बसी हुई आशा).आशाबाशी (आ-यह,शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही).आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती,तुरन्त मिटती है ,बाकी नहीं रहती). भावार्थ- विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती है (कि वाह  वा आप आशारहित हो गये -चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह -बादशाहोंका भी बादशाह हो जाता है,वो आप होगये,शाबाश | ) आशा बाशी नहीं रहती , अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती,गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है,बाकी नहीं रहती ,दु:खोंकी कारण आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह| सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ).| विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी,वास)+आनन्द(आ शाबाशी,आशाबाशी नाँय)-दिगम्बरानन्दजी महाराज | शिष्य श्री साधू रामसुखदासजी महाराज- रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत | दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत || इसके अलावा श्री स्वामीजी महाराजने एक दोहा कवि शालगरामजी सुनारके विषयमें बनाया था,(उनकी पुत्रीका नाम मोहनी था)जो इस प्रकार है- सूक्ति-५६. तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे | मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये || भावार्थ- तेरा(तो) और मेरा (मो+) मिटादो(+हन देह), भगवानका नाम मोहन मोहन कहनेसे (भगवान्नाम लेनेसे) मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे),भगवान (मोहन) से प्रेम करो और उनको पुकारो (मोहन मोहन कीजिये). सूक्ति-५७. राम भगति भूषण रच्यो साळग सुबरनकार | हरिजन अरिजन दोउ मिलि मानेंगे हियँ हार || भावार्थ- कवि शाळगरामजी सुनारने 'रामभक्ति भूषण'नामक ग्रंथकी है,जिसके कारण हरिजन (रामभक्त) और अरिजन (रामविमुख,शत्रु) - दौनों मिल कर हृदयमें हार मानेंगे (रामभक्त तो इसको कीमती हारके समान मानेंगे और रामविमुख हृदयसे हार मान लेंगे,हार जायेंगे ). सूक्ति-५८. चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह || शब्दार्थ- शाहनपति(बादशाह).शाहनपति शाह (बादशाहोंका भी बादशाह ).'बेपरवाह'माने दूसरी वस्तुओंके बिना तो काम चल सकता है;परन्तु अन्न,जल वस्त्र,औषध आदि तो चाहिये ही !- इसको 'परवाह' कहते हैं इस चिन्ताका भी त्याग कहलाता है- 'बेपरवाह' | सूक्ति-५९. ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह | सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह || (तृष्णारूपी आगका वर्णन आगेकी सूक्तिमें पढें )| सूक्ति-६०. जौं दस बीस पचास भयै सत होइ हजार तौ लाख मँगैगी | कोटि अरब्ब खरब्ब भयै पृथ्वीपति होनकी चाह जगैगी || स्वर्ग पतालको राज मिलै तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी | 'सुन्दर'एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगैगी || Dungrdasram Dungrdas पर 2:17 pm                                               ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ६१-७० तक. सूक्ति-६१. तनकी भूख इतनी बड़ी आध सेर या सेर | मनकी भूख इतनी बड़ी निगल जाय गिरि मेर || शब्दार्थ- निगल जाय (गिट जाय,मुखमें समालेना, बिना चबाये पेटमें लै जाना ).गिरि मेर (सुमेरु पर्वत ). सूक्ति-६२. मृग मच्छी सज्जन पुरुष रत तृन जल संतोष | ब्याधरु धीवर पिसुनजन करहिं अकारन रोष || शब्दार्थ- रत (लगे रहते हैं ) ब्याध (मृग मारनेवाला,शिकारी ).धीवर (मच्छली पकड़नेवाला ).पिसुनजन (चुगली करनेवाले,निन्दा करनेवाले ). सूक्ति-६३. जो जाके शरणै बसै ताकी ता कहँ लाज | उलटे जल मछली चढै बह्यो जात गजराज || शब्दार्थ- उलटे जल… (ऊपरसे परनाल आदिकी गिरती हुई धाराके सामने चढ जाना,उसीके सहारे ऊपर चढ जाना ). सूक्ति-६४. …[माया] गाडी जिकी गमाणी | बीस करोड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी || खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै | दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै || कथा- अजमेरके राजाजीके भाईका नाम बीसळदेव था | दौनों भाई परोपकारी थे | राजाजी रोजाना एक आनेकी सरोवरसे मिट्टी बाहर निकलवाते थे (सरोवर खुदानेका,उसमें पड़ी मिट्टी बाहर निकालनेका बड़ा पुण्य होता है ).ऐसे रोजाना खुदाते-खुदाते वो 'आनासागर'(बड़ा भारी तालाब) बन गया,जो अभी तक भी है | बीसळदेवजीने विचार किया कि मैं तो एक साथ ही  बड़ा भारी दान, पुण्य करुँगा (एक-एक आना कितनीक चीज है ) और धन-संचय करने लगे | करते-करते बीस करोड़से ज्यादा हो गया;किसी महात्माने उनको एक ऐसी जड़ी-बूंटी दी थी कि उसको साथमें लेकर कोई पानीमें भी चलै तो पानी उसे रास्ता दे-देता था;उस जड़ीकी सहायतासे बीसळदेवजीने वो बीस करोड़वाला धन गहरे पानीमें लै जाकर सुरक्षित रखा | संयोगवश उनकी रानी मर गई; तब दूसरा विवाह किया (कुछ खर्चा उसमें हो गया ); जब दूसरी रानी आई तो उसने देखा कि राजा पहलेवाली रानीके पसलीवाली हड्डीकी पूजा कर रहे हैं (वो जड़ी ही पसलीकी हड्डी जैसी मालुम पड़ रही थी ) ; रानीने सोचा कि पहलेवाली रानीमें राजाका मोह रह गया | इसलिये जब तक यह हड्डी रहेगी,तब तक राजाका प्रेम मेरेमें नहीं होगा ; ऐसा सोचकर रानीने उस हड्डीके समान दीखनेवाली बूंटीको पीसकर उड़ा दिया | राजाने पूछा कि यहाँ मेरी बूंटी थी न ! क्या हुआ ? तब रानी बोली कि वो बूंटी थी क्या ? मैंने तो उसको पीसकर उड़ा दिया | अब राजा क्या करे , उस बूंटीकी सहायताके बिना वो उस गहरे पानीके अन्दर जा नहीं सकते थे; इसलिये बीस करोड़की सम्पति उस गहरे पानीमें ही रह गयी ; इसलिये कहा गया कि माया को जो यह गाड़ना है वह उसको गमाना ही है- …गाडी जिकी गमाणी | बीस करोड़ बीसळदेवाळी पड़गी ऊँडे पाणी || सूक्ति-६५. खावो खर्चो भलपण खाटो सुकरित ह्वै तो हाथै | दियाँ बिना न जातो दीठो सोनो रूपो साथै || सूक्ति-६६. खादो सोई ऊबर्यो दीधो सोई साथ | 'जसवँत' धर पौढाणियाँ माल बिराणै हाथ || शब्दार्थ- खादो (जो खा लिया ).ऊबर्यो (उबर गया,बच गया ).दीधो (जो दै दिया ). कथा- एक राजाने सोचा कि मेरे इतने प्रेमी लोग है,इतनी धन-माया है ; अगर मैं मर गया तो पीछे क्या होगा ? यह देखनेके लिये राजाने [विद्याके प्रभावसे] श्वासकी गति रोकली और निश्चेष्ट हो गये ; लोगोंने समझा कि राजा मर गये और उन्होने राजाको जलानेसे पहले धन-मायाकी व्यवस्था करली,कीमती गहन खोल लिये,कपड़े उतार लिये,एक सोनेका धागा गलेमेंसे निकालना बाकी रह गया था,तो उसको तोड़ डालनेके लिये पकड़कर खींचा,तो वो धागा चमड़ीको काटता हुआ गर्दनमें धँस गया गया,तो भी राजा चुप रहे; फिर पूछा गया कि कोई चीज बाकी तो नहीं रह गयी ? इतनेमें दिखायी पड़ा कि राजाके दाँतोंमें कीमती नग (हीरे आदि) जड़े हुए हैं और वो निकालने बाकी है,औजारसे निकाल लेना चाहिये; कोई बोला कि अब मृत शरीरमें पीड़ा थोड़े ही होती है,पत्थरसे तोड़कर निकाल लो ; राजाकी डोरा (सोनेका धागा ) तोड़नेके प्रयासमें कुछ गर्दन तो कट ही गयी थी ,अब राजाने देखा कि दाँत भी टूटनेवाले है; तब राजाने श्वास लेना शुरु कर दिया; लोगोंने देखा कि राजाके तो श्वास चल रहे हैं,हमने तो इनको मरा मान कर क्या-क्या कर दिया ; कह, घणी खमा, घणी खमा (क्षमा कीजिये,बहुत क्षमा कीजिये). | अब राजा देख चूके थे कि मेरे प्रेमी कैसे हैं और क्या करते हैं तथा धनकी क्या गति होती है | उन्होने आदेश और उपदेश दिया कि धन संग्रह मत करो, काममें लो और दूसरोंकी भलाई करो; दान,पुण्य आदि करना हो तो स्वयं अपने हाथसे करलो (तो अपना है); नहीं तो बिना दिये ये सोना,चाँदी आदि  मरनेपर साथमें नहीं जाते;ऐसा नहीं देखा गया है कि बिना दिये सोना चाँदी साथमें चले गये हों ; इसलिये कहा गया कि - खादो सोई …माल बिराणै हाथ || (कोई कहते हैं कि ये जसवँतसिंहजी जोधपुर नरेश स्वयं थे,जो कवि भी थे )| सूक्ति-६७. दीया जगमें चानणा दिया करो सब कोय | घरमें धरा न पाइये जौ कर दिया न होय || शब्दार्थ- दीया (दीपक,दिया हुआ,दान).कर दिया न…(हाथसे दिया न हो,हाथमें दीपक न हो… तो घरमें रखी हुई चीज भी नहीं मिलती,न यहाँ मिलती है, न परलोकमें मिलती है ). सूक्ति-६८. माँगन गये सो मर चुके(मर गये) मरै सो माँगन जाय | उनसे पहले वो मरे जो होताँ [थकाँ] ही नट जाय , उनसे पहल वो मरे होत करत जे नाहिं || सूक्ति-६९. आँधे आगे रोवो, अर नैण गमाओ . सूक्ति-७०. जठे पड़े मूसळ ,बठे ही खेम कुसळ. Dungrdasram Dungrdas पर 3:47 pm                                               ||श्री हरिः||                                         ÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ७०-८०  तक. सूक्ति-७१. पाणी पीजै छाणियो,गुरु कीजै जाणियो. शब्दार्थ- जाणियो(जाना-पहचाना हुआ ). सूक्ति-७२. गुरु लोभी सिख लालची दौनों खेले दाँव | दौनों डूबा परसराम बैठि पथरकी नाव || - ÷ - .आँधे केरी डाँगड़ी आँधे झेली आय | दौनों डूबा … ?… …काळकूपके माँय || सूक्ति-७३. जाणकारको जायकै मारग पूछ्यो नाँय | जन 'हरिया' जाण्याँ बिना आँधा ऊजड़ जाय || शब्दार्थ- ऊजड़ (बिना रास्ते,जंगलमें ). सूक्ति-७४. कह,गुरुजी ! बिल्ली आगी (घरमें ). कह, आडो बन्द* करदे . शब्दार्थ- आडो बन्द करदे ( किंवाड़ बन्द करदे - यहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं और दूसरी जगह जा सकेगी नहीं;) *आजकल भी जो आकर चेला बन जाते हैं ,उनको गुरुजी आज्ञा दे-देते हैं कि दूसरी जगह सुनने मत जाना,तो उस शिष्यकी भी दशा उस बिल्लीकी तरह होती है  कि वहाँ तो कुछ (परमात्म-तत्त्व )मिलता नहीं और दूसरी जगह जा सकते नहीं | सूक्ति-७५. आकोळाई ढाकोळाई,पाँचूँ रूंखाँ एक तळाई. दै रे चेला धौक, कह रुपयो धरदे रोक. सूक्ति-७६. कान्यो-मान्यो कुर्र्र्र्र्  , कह तूँ चेलो अर हूँ (मैं) गुर्र्र्र्र . शब्दार्थ- हूँ (मैं,स्वयं ). सूक्ति-७७. (कोई) मिलै हमारा देसी,गुरुगमरी बाताँ केहसी . शब्दार्थ- केहसी (कहेगा ). सूक्ति-७८. कह,मिल्यो कोनि कोई काकीरो जायो . सूक्ति-७९. कह,ओ तो म्हारे खुणींरो हाड है . शब्दार्थ- खुणीं (कोहनी,कोहनीकी हड्डी मजबूत,बड़े कामकी और प्रिय होती है ; अपने भाई आदि नजदीक-सम्बन्धीके लिये कहा जाता है कि 'यह तो मेरे कोहनीकी हड्डी है'). सूक्ति-८०. कह, किणरी माँ सूंठ खाई है ! . (सूंठ खानेवाली माँ का दूध तेज होता है; ऐसे ही धनियाँके लड्डू खानेवाली माँ के दूध बढ जाता है और जिस मनुष्यके गला बड़ा होता है,कोई चीज आसानीसे निगल ली जाती है , तो उसकी माँके दूध ज्यादा , पर्याप्त आता था (यह पहचान मानी जातीहै ).| Dungrdasram Dungrdas पर 10:35 pm -- फास्ट Notepad से भेजा गया