शनिवार, 27 जून 2015

'मीराँचरित' पुस्तक पर दृष्टि-डुँगरदासराम

                           ।।श्रीहरि:।।

अगर पूछा जाय कि रोचक बनाकर लिखी गई 

'मीराँचरित' 

नामक पुस्तकका आधार क्या है?

इसका उत्तर अगर यह मिलता है कि पता नहीं,तो बिना पतेकी बातें कृपया ज्ञानगोष्ठीमें न भेजें।

बिना पतेकी बातें तो लोग मना करने पर भी बहुत भेजते रहते हैं,पर मीराँबाईकी औटमें असत बातें फैलाना उचित नहीं है।

इससे साधक भ्रमित हो सकते हैं और सच्चीबातोंकी गिनती भी असतबातोंमें कर सकतें हैं।

आप मीराँबाईका इतिहास पढकर देखो, तो पता लगेगा कि इस पुस्तकमें कितनी सच्चाई है!

मनकी कल्पनाके अनुसार,मीराँबाईके नामपर भले ही कितना ही बढिया,आकर्षक संवाद लिखदो,घटना गढकर, बनाकर लिखदो और पढनेवाले भी भले ही उसमें तल्लीन हो जायँ,भले ही वाह् वाह् करने लग जायँ, भले ही लोगोंमें खूब प्रचार हो जाय;लेकिन असत्य सत्यकी हौड़ नहीं कर सकता।

असत्यका तात्कालिक असर भले ही जोरसे पड़ जाय;लेकिन वो स्थायी नहीं रह सकता।

इस प्रकार परिणाममें जब मीराँ जैसे भक्तके चरित्रसे भी उन्नति दिखायी नहीं देती(क्योंकि वो बिना हुए ही, मानवके दिमागकी कल्पना थी,वास्तविकता नहीं थी),तब वास्तविक चरित्रमें भी विश्वास घट जाता है,जिससे कि साधककी बड़ी हानि होती है।

आजकल टेलीविजनमें जैसे कल्पित घटनाएँ लोग चावसे,रुचिपूर्वक देखते हैं,पर उनको कल्पत ही मानते हैं,क्योंकि लोग टेलीविजनकी सच्चाई जानते हैं; ऐसे ही अगर 'मीराँचरित'को मानें तो कोई खास बात नहीं;परन्तु अगर कल्पितको अकल्पित, वास्तविक मानें तो परिणाममें सच्चाईसे विश्वास हटता है।भक्तोंके वास्तविक चरित्रोंमें भी विश्वास नहीं होता,आदत वैसी ही हो जाती है।

इसलिये शास्त्र और भक्तोंके चरित्र वही पढने लायक हैं जो वास्तविक हों और प्रचार भी उसीका करना चाहिये जिससे कि लोगोंका हित हो।

[मेरा लिखनेका उध्देश्य लेखक पर दोषारोपण करना नहीं है,लेखकको तो मैं श्रध्दापूर्वक,हृदयसे नमस्कार करता हूँ और उनकी मेहनतकी सराहना करता हूँ।अगर इस पुस्तककी घटनाके साथ उध्दरण भी लिख दिया होता कि कहाँसे लिया गया है,तो मैं भी उसको रुचिपूर्वक पढता] 

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