बुधवार, 24 जून 2020

वो अच्छा काम भी करने योग्य नहीं है, जिसके लिये महापुरुषों ने मना कर दिया हो

                ।।श्रीहरि:।।



वो अच्छा काम भी करने योग्य नहीं है, जिसके लिये महापुरुषों ने मना कर दिया हो । 

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के सत्संग-सम्बन्धी कुछ  आवश्यक बातें-) 

[पूर्वार्ध पहले पढना हो तो कृपया उत्तरार्द्ध से आगे पढें]

● [ उत्तरार्द्ध- ] ●


••• 
प्रश्न- 
क्या श्रीस्वामीजी महाराज के स्टेज ( प्रवचनस्थल के तख्त ) को स्मृति के रूप में रखना उचित है? 

उत्तर - उचित नहीं है ।

महापुरुषों से सम्बन्धित इस प्रकार की किसी वस्तु आदि को काम में लेना तो ठीक है , पर उनको स्मृति आदि के रूप में रखना ठीक नहीं । 

श्रीस्वामीजी महाराज की "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या आठ पर लिखा है कि ••• अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)- को पूजा में अथवा स्मृतिके रूप में बिलकुल नहीं रखनी चाहिये, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिये। 

प्रश्न- तो ऐसा काँचवाला विशेष स्टेज बनवाया ही क्यों? जिसके कारण रखने की और देखने की मन में आवे? 

उत्तर - यह सदा रखने के लिये नहीं बनवाया , यह तो आवश्यकता समझकर थोङे समय के लिये बनवाया था । क्यों बनवाया था इसका कारण सुनो - 

श्री स्वामी जी महाराज से उनके अन्तिम वर्षों में यह प्रार्थना की गयी कि आप गीताभवन ऋषिकेश में ही रहें । आप यहाँ रहेंगे तो सत्संग भी हो जायेगा और लाभ भी अधिक लोगों को मिलेगा । लोगों के रहने आदि की सुविधा जितनी यहाँ है, उतनी दूसरी जगह मिलनी मुश्किल है। इसलिये आप यहीं रहें। तब आपने कृपा करके यह प्रार्थना स्वीकार करली और अन्तिम समय तक वहीं रहे। 

लोगों के सत्संग करना आसान हो गया। दूर- दूर से लोग वहाँ आकर रहने लग गये और सत्संग का लाभ लेने लगे । रोजाना सत्संग होता था , चाहे सर्दी हो या गर्मी, शरीर स्वस्थ हो या बिमार , सत्संग की कोशिश हमेशा रहती। 

कोई पूछते कि महाराज जी ! आपकी तबियत कैसी है? तो कभी-कभी तो आप ऐसे कह देते कि आपका काम (अलग से बातचीत करना , सत्संग प्रवचन करना आदि) तो हम कर देते हैं , फिर तब़ियत चाहे कैसी ही क्यों न हो ! अपनी अस्वस्थता , असुविधा, तकलीफ, कठिनता आदि बताने में भी संकोच करते थे। अपने तो सत्संग चलना चाहिये। 

अधिक वृद्धावस्था आदि के कारण आपके शरीर की शक्ति क्षीण हो गयी, अधिक सर्दी या गर्मी सहन करने की शरीर में शक्ति नहीं रही , अगर सर्दी गर्मी आदि सह लेते , स्वयं उनकी बेपरवाही कर देते , तो शरीर बिमार होने लगता और शरीर बिमार हो जाता तो वैद्य, डाक्टर या उनके हितैषी लोग बाहर सत्संग में जाना बन्द करवा देते कि शरीर कुछ ठीक हो जाय तब जाना ठीक रहेगा। 

सत्संग बन्द होना श्रीस्वामीजी महाराज को पसन्द नहीं था। सत्संग को वो जरूरी और अत्यन्त लाभकारी मानते थे।आवश्यक सुविधा की व्यवस्था के कारण भले ही बाहर से हमारे त्याग में कुछ कमी ही दीखे ,पर सत्संग होना चाहिये । 

शरीर के हितैषी लोगों ने कुछ विशेष प्रबन्ध करवा दिये तो सहन कर लिये , सत्संग प्रवचन के समय जिस तख्ते पर आप विराजते थे , उसके इधर उधर प्लास्टिक आदि के शीशे लगवाकर वहाँ के स्थान को पैक करवा दिया , तो (पसन्द न होते हुए ) भी आपने सहन कर लिया। 

इनके अलावा और भी अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं को सह लेते थे। कैसी- कैसी परिस्थितियाँ थीं , उनको तो वो ही जान सकते हैं , दूसरे क्या समझे ? कभी- कभी तो आप ऐसे कह देते थे कि- 
कौन सुने कासौं कहौं सुने तो समुझे नाँय। 
कहना सुनना समुझना मन ही के मन माँय।। 

ये सब होते हुए भी आप तो अपनी ही मौज में रहते थे । दुःखदायी परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बनाकर स्वयं परिस्थिति के अनुसार बन जाते थे। शारीरिक पीङा में भी हँसते थे । हर कोई तो उनकी स्थिति समझ ही नहीं पाता था ।  

शारीरिक कष्ट आदि के कारण उनमें प्रेम रखने वाले कभी- कभी कुछ दिन सत्संग बन्द करने के लिये कह देते तो वो भी मान लेते थे। बङा सुखदायी स्वभाव था आपका , बङा दयालु और सरल स्वभाव था। आप महाज्ञानी थे। किसी को किचिन्मात्र् भी कष्ट न हो, इसका ध्यान रखते थे। अपनी बात को छोङकर दूसरे की बात रखते थे । बङे महान् थे। 

शरीर की अशक्तावस्था के समय भी लोगों का मन रहता कि महापुरुषों के दर्शन करें, उनकी बातें सुनें। कमजोरी के कारण व्याख्यान भले ही न दे सकें , पर दर्शन तो हो जाय, हमारी तरफ वो देख तो लें आदि ऐसे भाव थे लोगों के । वो लोगों के भावों का आदर करते थे, बाहर पधारते थे। लोग दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ लेते और अगर वो कुछ बात बोल देते तो और भी आनन्द हो जाता। 

शीतकाल में जब कभी- कभी आपके शरीर पर ठण्डी का असर हो जाता। सर्दी जुकाम, कफ, बुखार आदि प्रबल हो जाते तब बाहर सत्संग में आना बन्द हो जाता। फिर जब परिस्थिति कुछ अनुकूल होती तब सत्संग में पधारना होता । 

यद्यपि कई बार आप अपने निवास स्थान पर बैठे बैठे ही सत्संग प्रवचन कर देते और यन्त्र (माइक) के द्वारा बाहर , पाण्डाल ( मण्डप ) में बैठे लोगों को सुनायी पङ जाता था । फिर भी लोगों का मन रहता कि सामने से , दर्शन करते हुए उनकी बातें सुनें। लेकिन बाहर आना तो फिर से ठण्डी को निमन्त्रण देना था । 

ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिये शीशे आदि लगवाकर यह विशेष स्टेज बनवाया गया । इससे ठण्डी हवा का डर कम हुआ और सत्संग में जाना सुगम हो गया। 

भगवान् की कृपा से बहुत बढ़िया सत्संग चला और वहाँ का वातावरण सत्संगमय हो गया । श्री सेठजी का गीताभवन बनाना सफल हो गया। श्री स्वामीजी महाराज के वहाँ विराजने से गीताभवन सजीव हो उठा । लोगों के मन में आने लगी कि हम रहें तो यहीं रहें और मरें तो भी यहीं मरें । उस समय की भगवत्कृपा का आनन्द तो वही जान सकता है कि जिन्होंने उस आनन्द का कुछ अनुभव किया है । 

संसार में सब दिन एक समान नहीं रहते। इसलिये एक दिन ऐसा आया कि सब कुछ बदल गया । सत्संग समाप्त हो गया। 

अब जब वो सब परिस्थितियाँ ही नहीं रही, समाप्त हो गयी, तब हमारा मानना है कि इस शीशेवाले स्टेज को भी नहीं रखना चाहिये । 

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का त्यागमय जीवन अनुकरणीय है । वो सुख सुविधा , मान , बङाई , शरीर के आराम आदि को महत्त्व नहीं देते थे । गीताभवन और गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक परमश्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका के समय में भी वे उनके साथ त्यागपूर्वक रहते थे और बाद में भी वे त्यागपूर्वक ही रहे। 

ऐसे त्यागी महापुरुषों का सम्बन्ध एक ऐसे स्टेज से बताना , लोगों के द्वारा भी उसको पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाना , उसका प्रचार करने लग जाना आदि कोई बढ़िया बात नहीं है , यह तो एक प्रकार से उनके त्याग में कमी दिखाने जैसा है । वास्तविक बात को हर कोई तो नहीं समझता न ! इसलिये इसको नहीं रखना ही ठीक है । 

जो काम महापुरुषों की महिमा के अनुरूप न हो तो वो काम अच्छा दीखने पर भी नहीं करना चाहिये । इससे लाभ नहीं होता। 

कोई कहे कि उनसे सम्बन्धित गीताभवन आदि और भी तो वस्तुएँ हैं, उनके लिये न कहकर केवल इस काँचवाले स्टेज के लिये ही क्यों कहते हो? 

तो इसका उत्तर यह है कि अनभिज्ञ लोग स्मृति आदि के रूप में इस स्टेज को ही महत्त्व देने लगे हैं, न कि गीताभवन आदि को। इसलिये एक इस स्टेज के लिये ही कह रहें हैं । इस प्रकार की अगर कोई दूसरी वस्तु हो तो उसके विषय में भी यही समझना चाहिये। 

किसी के यह बात नहीं भी जँचे तो हम कोई आपत्ति नहीं करते। अपने कल्याण की बात ग्रहण करने और न करने में सब स्वतन्त्र हैं । हमने तो पूछनेपर यह हित की बात कही है , अब कोई माने तो ठीक और नहीं माने तो उनकी मरजी। अपने किसी से राग द्वेष नहीं करना है , समता में स्थित रहना है । 
••• 
श्री स्वामीजी महाराज तो देश , प्रदेश, विदेश आदि अनेक जगहों पर गये हैं और वहाँ रहे हैं तथा वहाँ उनके लिये स्टेज आदि भी बने हैं, लेकिन कहीं भी ऐसा देखने में नहीं आया कि कोई स्टेज को ऐसे अलग से रखे और लोग स्मृति आदि के रूप में उसको देखने लग जायँ । 

इसके अलावा किसी दूसरी जगह भी अगर कोई ऐसा करते हैं अथवा मानते हैं कि यह स्थान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह स्टेज उनका है , यह गद्दी श्रीस्वामीजी महाराज की है , तो वो भूल में हैं ; क्योंकि श्रीस्वामीजी महाराज कहते हैं कि - 

३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं। मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं । 
४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ ।५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य , प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है ।••• 

( "एक संत की वसीयत" ,'मेरे विचार', पृष्ठ संख्या 12 से )। 

अगर कोई ऐसा कहे अथवा समझे कि यह मकान श्रीस्वामीजी महाराज का है , यह कुटिया उनकी है ,यह कमरा श्रीस्वामीजी महाराज का है , तो वो ऐसा समझनेवाला भी भूल में है ; क्योकिं मकान के विषय में श्रीस्वामीजी महाराज की वसीयत में लिखा है कि 
••• अपने जीवनकालमें भी मैंने अपने लिये कभी कहीं किसी मकान आदिका निर्माण नहीं कराया है और इसके लिये किसीको प्रेरणा भी नहीं की है । यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदिको मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणासे निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिये। 
( "एक संतकी वसीयत" पृष्ठ संख्या नौ ) । 

अगर किसी स्थान पर कोई मकान आदि बनवाकर श्रीस्वामीजी महाराज के निमित्त करदे कि यह मैंने श्रीस्वामीजी महाराज को दिया, अब यह सब उनका है और लोग भी ऐसा समझने लग जायँ , तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि मकान आदि को वो स्वीकार नहीं करते थे और अपने लिये इसको उचित भी नहीं मानते थे। । 

कोई कहे कि इस गाँव को अथवा इस मकान को तो श्रीस्वामीजी महाराज अपना कहते थे , इसलिये यह मकान तो उनका है। तो यह भी ठीक नहीं ; क्योंकि वो "अपना कहना" केवल व्यवहार के लिये था , वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदासजी महाराज कई बार सत्संग में बताते थे कि जैसे , आपलोग रेलगाड़ी में बैठकर कहीं की यात्रा कर रहे हैं और एक जगह गाङी रुकी । आप गाङी से नीचे उतरे । और भी कई लोग नीचे उतरे । इतने में ही आपको अपने कोई परिचित दिखायी पङ गये । आप राजी हुए और बोले कि अहो ! आप भी इसी गाङी में हैं, आपका डिब्बा कौन सा है ? तो वो भी राजी हुए और बोले कि हमारा डिब्बा वो है ( तथा आप से भी पूछा कि ) आपका डिब्बा कौन सा है ? तो आपने बताया कि वो देखो , हमारा डिब्बा वो है । कुछ देर बाद में फिर सब अपने अपने डिब्बों में चले गये।  जबतक यात्रा रही तबतक आराम से आप अपने उस डिब्बे में रहे और उस डिब्बे को अपना कहते रहे ; परन्तु यात्रा समाप्त करके जब आप अपने घरपर आ जाते हैं तो उस डिब्बे को अपना मानते हैं क्या? , कभी डिब्बे की चिन्ता होती है क्या? कभी पत्र लिखकर भी पूछते हैं क्या कि हमारा डिब्बा कैसा है ? आजकल उसका क्या हाल है ? आदि। 

क्यों नहीं पूछते ? कारण कि वो अपना था ही नहीं, आपने उसको अपना माना ही नहीं। उसको तो आपने व्यवहार के लिये अपना कहा था। वास्तव में अपना बताने के लिये नहीं । 

इसी प्रकार श्रीस्वामीजी महाराज ने व्यवहार के लिये किसी मकान आदि को अपना कह दिया तो भी वास्तव में वो मकान उनका अपना नहीं है । 

कोई कहे कि यहाँ तो श्रीस्वामीजी महाराज बार- बार आते थे और वर्षोंतक यहाँ रहे हैं , इसलिये यह जगह तो उनकी है , तो यह भी ठीक नहीं , क्योंकि यह सिद्धान्त है कि जगह को अपनी माननेवाला तो थोड़ी देर में ही मान लेता है और नहीं माननेवाला वर्षोंतक रहने पर भी ( उस जगह को अपनी ) नहीं मानता। श्रीस्वामीजी महाराज ऐसे महापुरुष थे कि वर्षों तक एक जगह रहनेपर भी उस जगह को अपनी नहीं मानते । इसलिये श्रीस्वामीजी महाराज के अधिक रहनेपर भी उस जगह को खास बताकर लोगों का ध्यान उधर नहीं लगाना चाहिये जिससे कि लोग उस जगह को पूज्य या स्मृति के रूप में देखने लग जाय। 

महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान और कार्य आदि विशेष होते हैं , आदरणीय , अच्छे और विलक्षण होते हैं; लेकिन जिस काम के लिये महापुरुष मना कर देते हैं, तो वो काम अच्छा होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

महापुरुषों के चरणरज की बङी भारी महिमा है; पर चरणरज लेने के लिये अगर महापुरुष मना कर देते हैं तो नहीं लेनी चाहिये। 

चरणरज लेना अच्छा काम है; परन्तु श्री स्वामीजी महाराज मना करते हैं , इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। 

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। (आजकल कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं) "एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर बरसी आदि का निषेध करते हुए लिखा है कि
  "जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" 
 इसी प्रकार अन्य कामों में भी समझना चाहिये। 

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है। 

इस प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि श्रीस्वामीजी महाराज ने जिस वस्तु को पूजा अथवा स्मृतिरूप में रखने के लिये मना किया है , वो न रखें। किसी वस्तु , स्थान , कमरा , स्टेज आदि को इस प्रकार महत्त्व न दें जिससे लोगों को स्मृतिरूप में रखने आदि की प्रेरणा मिले । दूसरे लोग ऐसी भूल करे तो उनको भी प्रेम से समझाने की कोशिश करें । 

ऐसे उन वर्जित कामों को न करके 
महापुरुषों के ग्रंथों को महत्त्व देना चाहिये। उनको आदर पूर्वक रखना और पढ़ना चाहिये । महापुरुषों की रिकॉर्डिंग वाणी सुनना और उसका प्रचार- प्रसार करना चाहिये। भगवान् की वाणी श्री मद् भगवद् गीता पर लिखी हुई टीका तत्त्वविवेचनी और साधक- संजीवनी का प्रचार-प्रसार करना चाहिये। महापुरुषों के लेख , सत्संग प्रवचनों के ग्रंथ , तत्त्वचिन्तामणि , साधन- सुधा- सिन्धु आदि का अध्ययन करना और करवाना चाहिये । यह काम उन महापुरुषों को भी पसन्द है और यह सबका कल्याण करने वाला है। पंजाबी लोग अपने गुरु ग्रंथ साहिब को कितना आदर से रखते हैं, ऐसे हमलोगों को भी चाहिये कि महापुरुषों के साधक- संजीवनी गीता आदि ग्रंथों को आदर से रखें , उनको महत्त्व दें और पढें । 

साधक- संजीवनी गीता के सातवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक की व्याख्या में लिखा है कि - 

 [ सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञाके रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वत:-स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।] 

इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं, हमलोगों को चाहिये कि मन लगाकर ऐसे ग्रंथों का अध्ययन करें, महापुरुषों के सिद्धान्तों को समझें और उनके अनुसार अपना जीवन बनावें। 
••• 
आजकल कई लोग श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में मनगढ़न्त , कल्पित और झूठी बातें करने लग गये। उन बातों को सुनकर लोग बिना सोचे समझे आगे दूसरों को भी कहने लग गये। भ्रम की बातें फैलने लगी । सही बातें मिलनी मुश्किल हो गयी। इसलिये सही और महापुरुषों की बढ़िया बातें बताने के लिये एक पुस्तक लिखी गयी है। उस पुस्तक का नाम है- "महापुरुषोंके सत्संगकी कुछ बातें " । इसमें श्री स्वामी जी महाराज के विषय में उनके द्वारा ही सुनी हुई सही बातें लिखी है। इसमें श्रीसेठजी और स्वामीजी महाराज के पहली बार मिलने का भी वर्णन है तथा और भी कई बातें हैं। 

ऐसे ही दूसरी एक पुस्तक है - "श्रीस्वामीजी महाराजकी यथावत् वाणी " । इसमें श्रीस्वामीजी महाराज सत्संग- प्रवचन में जैसे जैसे बोले थे , वैसे- वैसे ही लिखने का प्रयास किया गया है तथा इसमें ग्यारह चातुर्मासों (सन् 1990 से 2000 तक) के प्रवचनों की विषयसूची भी लिखी गयी है कि किस तारीख को , कितने बजे और किस विषय पर श्रीस्वामीजी महाराज बोले थे। इसमें और भी उपयोगी सत्संग- सामग्री है। इन दोनों पुस्तकों को भी पढ़ना चाहिये। पुस्तकों का पता-
सत्संग-संतवाणी. श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजका साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें। http://dungrdasram.blogspot.com/?m=1

इन बातों में जो अच्छापन है वो उन महापुरुषों का है और जो त्रुटियाँ हैं, वो मेरी व्यक्तिगत हैं। सज्जन लोग त्रुटियों की तरफ ध्यान न देकर अच्छेपन की तरफ ध्यान देंगे,  ऐसी आशा है। मेरी इन बातों से किसीको ठेस लगी हो तो मैं क्षमा याचना करता हूँ। 

निवेदक- 
डुँगरदास राम 
वैसाख कृष्ण ११ शनिवार , वि.सं.२०७७ । 
जय श्री राम 


                            ■●■   


जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें।  



● [ पूर्वार्ध- ] ●

एक दिन (दि.14-4-2020 को) वाट्सऐप्प के ग्रुप में जो बहस हुई थी , उसके विषय में कुछ लिखा जा रहा है । यद्यपि मैं उस ग्रुप में नहीं था ; परन्तु उनके कुछ लेखन आदि देखकर ऐसा लगा कि इस प्रकार के आपसी तर्क- वितर्क से कई लोगों के मन में विक्षेप हुआ है। 

आदरणीय सज्जनों और माता बहनों को जो विक्षेप हुआ, उसके लिये मैं क्षमा याचना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि दुबारा ऐसा न हो। 

बात क्या हुई कि एक सज्जन ने गीताभवन के सत्संग- मञ्च ( स्टेज ) की फोटो फेसबुक पर प्रकाशित करदी। बाद में उनको लगा कि मेरा यह काम अनुचित तो नहीं था ? ( उनको इस पर किसीने सलाह भी दी ) , तब उन्होंने अलग से सन्देश भेजकर इसके लिये मेरेसे जानकारी चाही । मैंने सन्देश में वो जानकारी लिखकर (उनको अलग से ही) भेजदी। 

फिर उन्होंने वो बातें वाट्सऐप्प पर ग्रुप में (चलते हुए वाद विवाद के समय) भेजदी। उस के बाद बात और बढ़ गयी । 

ग्रुप में कई प्रकार के तर्क, कुतर्क, प्रतीकार आदि किये गये , मामला देर राततक चलता रहा। इससे ऐसा लगा कि लोगों के मन में काफ़ी विक्षेप हुआ है । अधूरी जानकारी के कारण लोगों के मन में असमञ्जस की स्थिति पैदा हो गई। लोगों के मन में नये प्रश्न पैदा हो गये और वास्तविक बात समझनी कठिन हो गयी । इसलिये मन में आया कि इस विषय पर कुछ और लिखा जाय , जिससे अगर कोई जानना चाहें तो उनको सही बात का पता लग सके । 

जिन सज्जन ने मेरे से जो पूछा और मेरे द्वारा लिखा गया उनका जवाब जो उन्होंने ग्रुप में भेजा , वो कुछ इस प्रकार था- 

[ ••• 
[14/4, 9:28 PM] 
(प्रश्नकर्त्ता- ) 
राम राम भैया जी🙏

जहां तक मुझे ज्ञात है स्वामी जी महाराज ने जिस कुर्सी पर वो बैठा करते थे उसे भी नष्ट करवा गए थे ताकि उनकी स्मृति चिन्ह के रूप में लोग पूजना शुरू ना कर दें। (ऐसा मैंने कुछ श्रेष्ठ महानुभावों द्वारा सुना है... 

••• 

आप सभी श्रेष्ठ महानुभावों से विचार विमर्श कर ही निर्णय करें।

राम राम राम 🙏🙏
: राम महराज जी सादर विनम्र निवेदन है कि इस पर भी प्रकाश डालियेगा। 

[14/4, 10:12 PM] 
(जवाब-) 
: हाँ रामजी, लोहेका बैड था जो हमने गीताभवन ••• से समाप्त करने को कहा और उन्होंने उसके पुर्जे खुलवाकर गंगाजी में विसर्जित करवाया। 
हमलोगों ने तो इस काँचवाले स्टेज को भी हटाने के लिये ••• कह दिया था , लेकिन हमारे कहने के अनुसार यह कार्य हुआ नहीं । उन दिनों ••• भी वहाँ थे और गीताभवन के ••• सामने ही हमने फिर निवेदन किया कि यह हटा दिया जाय। वो ••• की तरफ देखकर संकोच पूर्वक बोले कि ये हटा देंगे, हमको विश्वास है। ( फिर भी नहीं हटा ) ।

यह स्टेज हमलोगों ने ही ठण्ड से रक्षा के लिये लगवाया था। ठण्डी हवा नहीं आवे , वो ठण्डी हवा श्री स्वामी जी महाराज के वृद्ध शरीर में कोई विकृति उत्पन्न न करें, सर्दी जुकाम आदि न करें, जिसके कारण सत्संग बन्द करना पड़े। ऐसा न हो, इसलिए हम लोगों ने स्टेज को शीशे आदि के द्वारा पैक करवाया था। 

जब श्री स्वामी जी महाराज के शरीर के साथ ही यहाँ का यह सब प्रोग्राम समाप्त हो गया तो हमलोगों ने उनके शरीर के काम आनेवाली कई चीजों को भी समाप्त करवा दिया । कुछेक बाकी भी रह गई, जिनमें से एक चीज यह काँच वाला स्टेज है ( गीता भवन नम्बर तीन में ) । हमने इनको भी समाप्त करने के लिए कहा, लेकिन यह नहीं हो पाया । जो वस्तुएँ हमारे हाथ में थी , जिसको हम करवा सकते थे , उनको तो समाप्त कर दिया गया और यह रह गया और बाद में तो लोग इसको रखने के पक्ष में हो गये। 

इस प्रकार यह ऐसे ही रह गया और यह सब चलने लगा जो कि ऐसे महापुरुषों के पीछे कोई अच्छी बात नहीं है । अधिक जानकारी के लिये उनकी वसीयत देखो। 
अस्तु। 

इसके बाद जो हुआ, वो ग्रुप के सदस्य जानते ही होंगे , हम उसको यहाँ लिखना उचित नहीं समझते। 

कुछ प्रश्नों के जवाब हम नीचे लिखी बातों में दे रहे हैं, जिनके मन में जो प्रश्न हो, वो इन बातों को ध्यान से पढ़कर समझलें। फिर भी कोई बात समझनी बाकी रह जाय तो मेरे से बात करके समझ सकते हैं। 

किसी सज्जन को स्टेज समाप्त करने जैसी बातें जँची नहीं और उनके द्वारा कई प्रकार के सवाल खड़े किये गये कि इस प्रकार कहने वाला मैं कौन होता हूँ । ( उनके सब सवाल यहाँ लिखने उचित नहीं लगे , आगे लिखी गई बातों को ठीक तरह से पढ़कर ही सवाल जवाब समझ लेने चाहिये )। 

••• सबसे पहले तो यह समझलें कि हम और गीताभवन एक ही हैं। मैं गीताभवन का ही हूँ और उस समय उस काम में सामिल भी था अर्थात् गीताभवन , गीताभवन के लोग , संत महात्मा और हमलोग - ये कोई अलग-अलग नहीं हैं , सब एक ही हैं । कुछ मतभेद हो जाने से कोई दो नहीं हो जाते , पराये नहीं हो जाते। यह तो हमारे ही आपस की बात है। इसका उद्देश्य न तो किसीकी निन्दा करना है और न किसी की प्रशंसा । इसका उद्देश्य यह समझना चाहिये कि महापुरुषों से सम्बन्धित कोई भी कार्य उनकी आज्ञा के अनुसार ही हो तथा सब लोगों का हित हो । 

प्रायः ऐसा देखा जाता है कि अपने घर में भी सब काम अपने मन के अनुसार नहीं होते। अपनी मर्ज़ी के अनुसार पूरे घरवालों को चलाना तो दूर , हम अपनी मरजी के अनुसार अपने शरीर को भी नहीं चला सकते। जब एक शरीर को भी नहीं चला सकते तो फिर सब को तो चला ही कैसे सकते हैं , नहीं चला सकते। 

नहीं चला सकने पर भी हम अपने शरीर अथवा घरवालों से पराये नहीं हो जाते , नाराज़ भी नहीं होते । उनके साथ में ही रहते हैं। घरवाले और हमसब एक ही रहते हैं। मतभेद होनेपर भी प्रेमभेद नहीं होता। अपनापन वही रहता है। ऐसा नहीं होता कि बेटे ने माँ की बात नहीं मानी तो अब वो माँ का बेटा नहीं रहा । बात न मानने पर भी बेटा तो बेटा ही रहता है, माँ भी माँ ही रहती है । माँ और बेटे का सम्बन्ध वही रहता है, मतभेद होने पर भी , एकमत न दीखने पर भी रहते सब एक ही हैं। ऐसे हमलोग मतभेद होनेपर भी हैं सब एक ही। अलग-अलग नहीं हैं। हम जो कह रहे हैं, वो अपने लोगों को ही कह रहे हैं। इस बात को समझना चाहिये । न समझने के कारण ही ऐसे तर्क कुतर्क पैदा होते हैं। 

अपने- अपने घरों में भी हमें ऐसे एकतापूर्वक प्रेम से रहना चाहिये। स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके सबके प्रति हित का भाव रखना चाहिये। 
परमात्मस्वरूप सारे संसार में जितने भी प्राणी हैं, वो और हम सब एक हैं। 
सबजग ईश्वररूप है भलो बुरो नहिं कोय। 
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।। ●●● 
(इसके आगे का भाग इस लेख के ऊपर (उत्तरार्द्ध से ) पढें)। 

गुरुवार, 18 जून 2020

यथावत् लेखन प्रवचनों के अंश।(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यथावत् लेखन किये गये प्रवचनों के चुने हुए, दिनांक सहित अंश)।

                       ।। श्रीहरि:।।


यथावत्- लेखन प्रवचनों के अंश।  

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यथावत् लेखन किये गये प्रवचनों के चुने हुए, दिनांक सहित अंश)। 


यथावत्- लेखन प्रवचनों के अंश (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के रिकोर्डिंग- प्रवचनों के अनुसार यथावत् लिखे हुए वाक्यों के कुछ अंश)।

जब हम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के 'ओडियो रिकार्डिंग वाले' प्रवचन सुनते हैं तो उनमें कई बातें बहुत बढ़िया लगती है और मन करता है कि बार-बार सुनें। बाद में भी जब कभी दुबारा उस बात को सुनने का मन होता है और प्रवचन सुनना शुरु करते हैं तो उस बात को खोजने में समय लगता है। वो बात अगर अलग से लिखी हुई होती है तो सुगमता से मिल जाती है। लिखी हुई बात को बार-बार पढ़कर उस पर विचार करना भी सुगम हो जाता है। फिर विचार आता है कि इस बात को श्रीस्वामीजी महाराज बोले तो ऐसे ही हैं न? बोलने में और इस लिखे हुए में कोई फर्क तो नहीं है? कई बार लिखने में भूल भी हो जाती है और कभी-कभी लिखनेवाला अपनी समझदारी लगाकर वाक्य को बदल भी देता है। लेकिन ऐसे लेखन पर श्रद्धा नहीं बैठती। पता नहीं लगता कि श्रीस्वामीजी महाराज का यहाँ कहने का भाव क्या था। कई बार 'लेखन' और 'आडियो रिकार्डिंग' का मिलान करते हैं तो जैसा श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसा नहीं मिलता, अन्तर (फर्क) आता है। श्रीस्वामीजी महाराज जैसा वाक्य बोले हैं, वैसा लिखा हुआ नहीं मिलता, वाक्य बदला हुआ मिलता है। कभी-कभी तो वो लेखक पूरे वाक्य को ही छोड़ देता है और आगे बढ़ जाता है। तो ऐसे में विश्वास नहीं होता कि यह लेखन भी यथावत् है या नहीं। इससे वास्तविक बात का पता नहीं लगता, श्रीस्वामीजी महाराज की बात का रहस्य छूट जाता है। वो रहस्य तब समझ में आता है कि जब रिकोर्डिंग के अनुसार ही यथावत् लिखा हुआ हो, उसमें एक शब्द और मात्रा आदि का भी हेर- फेर न किया गया हो।

उससे भी बढ़िया तब समझ में आता है कि उस रिकोर्डिंग को ही ध्यान से सुना जाय।
ऐसे सुनकर समझा जाय तो बात बहुत बढ़िया समझ में आती है। बहुत लाभ होता है।
कभी-कभी सुनने की सुविधा न हो तो लिखी हुई बात को पढ़कर भी समझा जा सकता है। परन्तु लिखी हुई बात वैसी- की वैसी ही होनी चाहिये जैसी कि श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं। लिखने में हेर-फेर नहीं होना चाहिये। रिकोर्डिंग के अनुसार ही, यथावत् लेखन होना चाहिये।

यथावत् लेखन में जितनी कमी रहेगी, उतनी ही अथवा उससे भी अधिक समझने में कमी रहेगी। बात को यथावत् समझना हो तो लेखन भी यथावत् होना चाहिये।

यहाँ ऐसी ही बढ़िया और मार्मिक बातों को यथावत् समझने के लिये प्रवचनों के यथावत् लेखन के अंश दिये जा रहे हैं। भाई बहनों को चाहिये कि इससे स्वयं लाभ लें और दूसरों को भी बतावें।  

यथावत् लेखन एक प्रकार से दोनों की पूर्ति करता है- रिकोर्ड किये हुए प्रवचन की और लिखे हुए प्रवचन की।

[ इसमें जो लेखन के शुरु और अन्त में बङे बिन्दू दिये गये हैं, वो यह दर्शाने के लिये है कि इनके बीच के अंशों को यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है।

प्रवचनों के दिनांक और विषय वो ही दिये गये हैं जो श्रीस्वामीजी महाराज की सत्संग- सामग्री के मूल संग्रह में थे। जहाँ एक ही प्रवचन में से अनेक बातें ली गयी है, वहाँ, उनकी तारीख ऊपर एक बार ही दी गयी है ]

19940702_0830_Aham Rahit Svaroop Ka Anubhav_VV

● ••• तो ये जो बात मैंने कही, ये करणनिरपेक्ष बात बताई। साधन करणनिरपेक्ष होता है, वो स्वयं से होता है, चित्त की वृत्तियों से नहीं होता। चित्त की वृत्तियों को (के) साथमें साधन किया जाय, वो करणसापेक्ष है। करणनिरपेक्ष कह सकते हैं पण करणरहित नहीं कह सकते। ••• (यथावत् लेखन) ●



19940605_1600_Aham Ka Tyaag_VV
● ••• जो संसार में है वो परमात्मा है, इस शरीर में है वो आत्मा है। आत्मा र परमात्मा एक है। इसमें फर्क नहीं है। और मैं तू यह र वह, सऽऽब अनात्मा है। ये खास जाणने
की बात है।
जबतक अहम् साथ में नहीं लगेगा तबतक आप कोई व्यवहार नहीं कर सकोगे। व्यवहार करोगे तो अहम् साथ में लगेगा। इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि, ये सब मिलकर काम करेंगे। और इस काम करणे को आप अपणे मानलें कि मैं कर्ता हूँ तो आपको भोक्ता बणणा पङेगा ,सुख दुख भोगणा ही पङेगा। तो [क्योंकि] कर्ता होता है वो ही भोक्ता होता है। तो ये स्वाभाविक नहीं है अस्वाभाविक है। इस वास्ते ये मिट ज्यायगा; क्योंकि ये है नहीं और जो आत्मा है र परमात्मा है, वो है। ये मिटेगा नहीं कभी। इसकी प्राप्ति हो ज्यायगी। जो मिटता है र अस्वाभाविक है, इससे आप विमुख हो ज्याय, अपणे स्वरूप का बोध हो ज्यायेगा। सीधी, सत्य बात है। तो वो 'है मात्र्' आपका रूप है- है मात्र्। है तत्त्व, उसमें स्थति सम्पूर्ण प्राणियों की है। (यथावत् लेखन) ●

19940530_0830_Ahamkar Kaise Mite Saadhan Kaunsa Kare
● ••• बङे- बङे ग्रंथों में समाधि और व्युत्थान- दो अवस्था लिखी है; परन्तु वास्तव में जो समाधि है, उसमें व्युत्थान नहीं होता है अर व्युत्थान होता है वो योग की समाधि है, तत्त्वज्ञान की समाधि वो नहीं है, जिससे व्युत्थान होता हो। वो समाधि हो गई तो हो गई हो गई , सदा के लिये हो गई। उसको सहजावस्था कहा है।
उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान धारणा।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा।।
(यथावत् लेखन)
● ••• तो मैं एक बात बताता हूँ- अहंकार दूर नहीं होता, मैं एक बात बताता हूँ- आप जिसको सुगमता से कर सकते हैं, उसी साधन को करो। उसका नतीजा ठेठ पहुँच ज्यायगा। जो होता नहीं, उसको तो करने के लिये हिचकते हैं, जो कर सकते हैं वो करते नहीं है- ये बाधा है, खास। (यथावत् लेखन)

● ••• चित्तवृत्तियों का निरोध हो ज्याय, योग हो ज्यायगा। यह पातञ्जलयोग होगा और गीता कहते हैं- समत्वं योग उच्यते, एकाग्र हो और न हो, अपने कोई मतलब नहीं, योग हो गया गीता जी का। जैसे कोई कहणा मानें, न मानें। अपणे छोड़ दिया, जै रामजी की, खुशी आवे ज्यूँ करो। ऐसे आप भगवान् के सामने हो ज्याओ, भक्तियोग हो गया। तटस्थ हो ज्याओ , ज्ञानयोग हो ज्यायगा अर संसार के हित में लगा दो, कर्मयोग हो जायेगा। ये बात है। (यथावत् लेखन) ●


19940526_1600_Aham Ka Tyag
● ••• तो बुद्धि और अहम् एक है। और भेद करें, तो अहम् की बुद्धि है, बुद्धि का अहम् नहीं है मानो मेरी बुद्धि - ऐसे कहनेवाला अहम् है। तो अहम् से हम अलग हो जाय ,तो वे, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, सब ठीक हो जायेगा। एकदम। तो अहम् से हम अलग है- यह अनुभव हो ज्याय, केवल बातूनी ज्ञान से काम ठीक नहीं होता ••• (यथावत् लेखन) ●

● ••• बङी बात वो है जो अहम् से रहित आपको अपणे का अनुभव हो ज्याय। कह, वो अनुभव कैसे हो ? वो ऐसे हो, क अहंकार आता जाता है, आप आते जाते नहीं हो, आप निरन्तर रहते हो और अहंकार जाग्रत में, स्वप्न में आता है और सुषुप्ति में जाता है, लीन हो ज्याता है ; पण आप आने जाने वाले नहीं हो। आणे जाणे वाले वे अनित्य होते हैं (नित्य नहीं होते हैं)••• (यथावत् लेखन) ●

(ज्ञान अज्ञान का नाशक होता है, तत्त्व का प्रापक नहीं। अज्ञान का नाश करके स्वयं शान्त हो जाता है, स्वरूप रह जाता है। स्वयं भी ज्ञान स्वरूप है। [ ज्ञान दो प्रकार के हुए ] )।

19940419_0518_Sharnagati.
{ एक अहम् अभिमान रूप होता है, वो तो पतन करनेवाला है, एक अहम् कर्तव्यबोध कराता है, (मैं अमुक हूँ, आदि स्वाभिमान वाला)}।

● ••• बदल देने में, भगवान् का हूँ, यह बढ़िया है, परन्तु बहोत बढ़िया है कि मैं संसारी नहीं हूँ।जङता के साथ निषेधात्मक साधन है, बढ़िया बनता है। विध्यात्मक इतना बढ़िया नहीं है, जितना निषेधात्मक है। मैं संसारी नहीं हूँ, मैं भोगी नहीं हूँ••• (यथावत् लेखन) ●

19920529_0518_Aham Nash Ki Avashyakta
● ••• प्रकृतिरष्टधा (गीता ७|५) इस अहम् में स्थित है वो प्रकृतिस्थ है। वो ही भोक्ता बनता है, मान अपमान का, सुख दुःख का, निन्दा अस्तुति का,अनुकूल- प्रतिकूलता का, भोग भोगता है और सुखी दुखी होता है। यह अहम् होता है। अहम् में अपणी स्थिति होणे से आप स्वयं, सुखी और दुखी होते हैं ।राजी और नाराज़ होते हैं। तो वे राजी र नाराजी मैं-पन से होते हैं। मैं- पन को न पकङे तो 'सम दुखसुखः' (गीता १४|२४), सुख दुःख में समता हो ज्यायगी, जैसे सुख है वैसे ही दुःख है, जैसा दुःख है वैसे ही सुख है, जैसा लाभ है वैसी ही हानि है, जैसी हानि है वैसे ही लाभ है, जैसा संयोग है वैसा ही वियोग है, जैसा वियोग है वैसा ही लाभ है, सम हो जायेंगे। और अहंकार रहेगा तबतक सम नहीं होंगे। (यथावत् लेखन) ●

19900713_0518_Sharnagati Aur Seva.mp3
● ••• भक्तियोग एक ऐसी चीज है कि यह केवल (अकेला) भी कल्याण करने वाला है और कर्मयोग के साथ लगा दो ज्ञानयोग के साथ लगा दो तो भी कल्याण करने वाला है (यथावत् लेखन) ●

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने दिनांक
19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup ... वाले प्रवचन में बताया कि-
● ... शामको कीर्तन करते हो,कीर्तन के बाद (में) मैं चुप होता हूँ,उस चुप में आप निर्विकल्प हो जाओ, परमात्मा में स्थिति बहुत सुगमता से हो जायेगी। कीर्तन करते-करते परमात्मा में स्थिति हुई, परमात्मा का चिन्तन हुआ और फेर (फिर) कुछ नहीं चिन्तन करो (कुछ भी चिन्तन मत करो)। वो कीर्तन आपके भीतर बैठ जायेगा। एकदम भीतर जम जायगा। उससे निर्विकल्पता स्वत: होगी। ऐसे जागते हो जब नींद से, उसके बाद थोड़ी देर चुप रहो। तो आपकी स्थिति परमात्मस्वरूप में हो जायेगी। नींद लेते समय - आरम्भ में,बिछौने पर बैठ गये, कुछ देर शाऽ ऽ ऽन्त (शान्त हो जाओ)। कुछ भी चिन्तन न करके सो जाओ। (अस्पष्ट- सुबह उठते ही न चिन्तनकर्ता) आपके साथमें कारण शरीर तक पहुँच जायेगा। तो उससे परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी। इतना सुगम साधन है,बढ़िया साधन है। 19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup (नामक प्रवचन का यथावत् लेखन अंश) ● ••• ।

{ इस प्रवचन में और भी कई बातें बताई गयी है।
...सब शक्ति अक्रिय तत्त्व से मिलती है। अक्रिय, निर्विकल्प हो जाने से आप में बहुत शक्ति आ जायेगी। काम,क्रोध आदि (मिटाने की शक्ति आ जायेगी)।
...तो मन लगाना इतना दामी नहीं है,जितना राग-द्वेष हटाना दामी है}।

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05-04-1887_0518 - AM
(जबतक जङता का सङ्ग बुरा न लगे, तबतक जङता का त्याग नहीं होता और बुरा लगने से त्याग स्वतः होता है, स्वाभाविक ।

देखो ! जङता होती है न , वो चेतन का विषय होती है )।
● ••• जङ । चेतन ही कह सकता है (कि) यह जङ है, जङ नहीं कह सकता (कि) यह चेतन है। जङ में यह ताकत नहीं कि वो चेतन को बता सके और चेतन में जङ को बताने की शक्ति बरोबर है । तो आधिपत्य चेतन का है । इसको स्वीकार करले और जङ तो परिवर्तनशील है, बदलता रहता है । इसका त्याग कैसे करें? त्याग तो स्वतः होता है भाई ! इसको रखणा मुश्किल है, पकङणा मुश्किल है । अब बाळकपणा छोङा तो जवानी पकङली, जवानी छोङी तो वृद्धापण पकङ लिया। वो छोङा तो मृत्यु को पकङ लिया। मृत्यु को पकङ लिया फिर जङ में (जङता) को पकङ लिया। तो ये जङता तो हरदम जा रही है, केवल आप पकङणा छोङदें तो जङता तो छूट ज्यायगी, जङता तो रह सकती (ही) नहीं, जङता में ताकत नहीं है रहणे की । आप पकङते हैं, पकङना छोङदो तो छूट ज्यायगी ।
ये मेरी बात समझमें आती है क नहिं? (यथावत् लेखन) ●


17-07-1986-0618-AM

● ••• दूजी बात, एक मार्मिक बताता हूँ । उस तरफ भाई बहनों का ध्यान बहोत कम है । आप कृपा करके ध्यान दें । अपणे भजन- स्मरण करके भगवान् का चिन्तन करके, दया, क्षमा करके जो साधन करते हैं । ये जो करके साधन करते हैं , इसकी अपेक्षा भगवान् की शरण होणा , तत्त्व को समझणा और ये करणे पर जोर नहीं देणा, करणे से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका त्याग करके एक शरण होणा, एक परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का जप करो, कीर्तन करो , भगवान् की चर्चा सुणो, भगवान् की बात कहो- ये करणे की है। और दूजा करणे का ऊँचा दर्जा नहीं है । जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं ।

निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः।

काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है।

तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।।

भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम मुख्य करणे का है।

और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि । यज्ञ करो तो , दान करो तो , पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा री जरुरत है । तो जिणके पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है । पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे -

धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजै कौण उपाव।।
कीजै कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी।
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिकै न पाँव।
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।।

तो धर्म, दान, पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते टैक्स है । नीं करे तो डण्ड होगा । तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम करणे का है । भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ करलूँ, इयूँ करलूँ । कहीं कुछ नहीं होता । पईसा है तो वे लगाओ अच्छे काम में । नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी , पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा । डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है ।

करणे रो काम तो भगवान् रे नाम रो जप करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो , भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ सुणो, पढ़ो । ये पवित्र करणे वाळी चीजें हैं और मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं । और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई । ये जितना अशुद्ध ••• ●
(आगे की रिकोर्डिंग कट गई)।

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सतरह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी, प्रातः पाँच (0618) बजे वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।


30-3-1988-0830-AM
● ••• तो पहले से भूख लगी होती है उसके सत्संग का असर ज्यादे (ज्यादा) होता है,विलक्षण होता है। परन्तु बिना भूख भी सत्संग करता है उसपर असर जरूर होता है। इसमें सन्देह नहीं। (यथावत् लेखन) ● +++

● ••• अच्छा सत्संग मिलता कठिन है। सत्संग के नाम से तरह- तरह की कथाएँ होती है। परन्तु वास्तविक सत्संग कम मिलता है। मिलता है तो उसका असर हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसी बात है। (यथावत् लेखन) ●। +++

● ••• और तो क्या कहें! हरेक जगह सत्संग वो कर नहीं सकेगा। थोङा- सा - क समझा है और उस विषय में गहरा उतरा है तो उसकी विलक्षण अवस्था होती है । हरेक जगह वो बैठ जाय, हरेक उसको अपनी तरफ खैंच ले। यह नहीं होता ।

आपने ध्यान दिया (क्या)? मानो सत्संग के संस्कार भीतर में स्थायी रूप से ही रहते हैं, मिटते नहीं है। वास्तविक सत्संग जिनको मिलता है, उनकी वास्तविकता विलक्षण होती है। हरेक कथा में मन नहीं लगेगा। और हरेक कथा में मन लगता है तो अभी तक असली सत्संग मिला नहीं है। (यथावत् लेखन) ● •••

( मेरे सामने कई ऐसे अवसर आये हैं। एक भाई ने कहा था - कोई तीस चालीस वर्षों से ऊपर की बात है मानो दो हजार संमत से पहले की बात है। उन (उस) भाई ने कहा कि हमारे को बहुत महात्मा मिले (हैं)। तो मैंने कहा कि तुम्हारे को एक महात्मा भी नहीं मिला। एक भी मिलता तो दूसरे के पास क्यों जाते?! बहुत कैसे मिल सकते हैं?। बहुत मिले- इसका अर्थ है कि एक भी नहीं मिला। बहुतों -से (कोई) मुर्दा थोङे ही उठाना है। पारमार्थिक बात लेना है••• एक सैंकङों सगाई ही नहीं हुई है । उसको कोई रोक नहीं सकता। प्रह्लाद और मीराँबाई को कोई रोक नहीं पाया। मेरे को भी रोका है।प्रेम से और धमका के भी (मैं नहीं रुका)। वो हरेक सत्संग में टिक नहीं सकता। बालक को माँ मिल जाती है तो छोङता है क्या? )

2-5-1987_0830
( दो तरह की इच्छायें। एक स्वयं को लेकर और एक शरीर आदि को लेकर। मुक्ति की, प्रेम की परमात्मा की इच्छा स्वयं की और भोजन आदि की इच्छा शरीर की )।
॰॰॰
● ••• पार्माथिक इच्छा है,वो पूरी ही होती है, मिटती है ही नहीं और संसार की इच्छा मिटती ही है,पूरी होती ही नहीं। ऐसी मार्मिक बात कहता हूँ मैं । (वो, उसको) लिखलो आप, अभी बोलना नहीं है। सांसारिक इच्छा है वो पूरी होती ही नहीं (यथावत् लेखन) ● 

"जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" -श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज

                          ।।श्रीहरि:।। 

   "जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये।" 
- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज। 

आजकल कई लोग गुप्त या प्रकटरूप से कुछ अंश में श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज की बरसी मनाने लग गये हैं, जो कि उचित नहीं है।  
इस दिन कोई तो कीर्तन करते हैं और कोई  गीतापाठ आदि का प्रोग्राम रखते हैं। (मानो वो इस प्रकार बरसी मनाते हैं)।
लेकिन इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि  बरसी के लिये श्रीस्वामीजी महाराज ने मना किया है।  
गीतप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित उनकी  "एक संत की वसीयत" नामक पुस्तक के दसवें पृष्ठ पर लिखा है कि - 
"जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिये। "  
इस में बरसी के लिये मना लिखा है, फिर भी लोग बरसी मनाते हैं, चाहे आंशिक रूप से ही हो। इससे लगता है कि या तो लोगों को पता नहीं है या लोग परवाह नहीं करते अथवा यह भी हो सकता है कि लोगों ने ध्यान देकर इस पुस्तक को पढ़ा नहीं। 
 नहीं तो जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो, वो क्यों करते?  

भगवान् के तो जन्म दिवस पर उत्सव मनाया जाता है और महात्माओं के निर्वाण दिवस पर उत्सव (बरसी) मनाया जाता है; क्योंकि इस इस दिन उन सन्तों का भगवान् से मिलन हुआ है।  बरसी मनाना अच्छा काम है , परन्तु श्रीस्वामीजी महाराज ने अपनी बरसी आदि मनाने का निषेध ( मना) किया है, इसलिये यह अच्छा काम होने पर भी नहीं करना चाहिये। (आजकल कुछ अंश में लोग जो बरसी मनाने लगे हैं, वो भूल में हैं। कीर्तन, गीतापाठ आदि तो भले ही रोजाना करो पर बरसी के उद्देश्य से कोई करते हैं तो उनको विचार करना चाहिये)

श्री स्वामीजी महाराज कहते हैं कि महापुरुष किसी विहित काम के लिये कहे और कोई उसको न करे , तो वो लाभ से वञ्चित रहता है (नुकसान नहीं होता), परन्तु जिस काम के लिये उन्होंने निषेध किया है , उस काम को करने से नुकसान होता है।  ••• 

अधिक जानकारी के लिये कृपया यह लेख पढें-
"जिस काम के लिये महापुरुषों ने मना किया हो (तो) वो काम अच्छा दीखनेपर भी न करें। ".

http://dungrdasram.blogspot.com/2020/04/blog-post_29.html