गुरुवार, 5 जनवरी 2017

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ? (- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)।

                     ॥श्रीहरिः॥

गीताजी का अवतार किसलिये हुआ?

(- श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) ।

■♧  गीता का खास लक्ष्य  ♧■

गीता किसी वादको लेकर नहीं चली है अर्थात् द्वैत,अद्वैत,विशिष्टाद्वैत,द्वैताद्वैत,विशुध्दाद्वैत,अचिन्त्यभेदाभेद आदि किसी भी वाद को ,किसी एक सम्प्रदाय के किसी एक सिध्दान्त को लेकर नहीं चली है। गीता का मुख्य लक्ष्य यह है कि मनुष्य किसी भी वाद,मत,सिध्दान्तको माननेवाला क्यों न हो,उसका प्रत्येक परिस्थितिमें कल्याण हो जाय,वह किसी भी परिस्थितिमें परमात्मा से वंचित न रहे;क्योंकि जीवमात्रका मनुष्ययोनिमें जन्म केवल अपने कल्याणके लिये ही हुआ है। संसार में ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है,जिसमें मनुष्यका कल्याण न हो सकता हो। कारण की परमात्मतत्त्व  प्रत्येक परिस्थितिमें समानरूप से विद्यमान है । अत: साधक के सामने कोई भी और कैसी भी परिस्थिति आये,उसका केवल सदुपयोग करना है। सदुपयोग करने का अर्थ है - दु:खदायी परिस्थिति आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करना; और सुखदायी परिस्थिति आने पर सुखभोग का तथा  ' वह बनी रहे ' ऐसी इच्छाका त्याग करना और उसको दूसरों की सेवामें लगाना । इस प्रकार सदुपयोग करनेसे मनुष्य दु:खदायी और सुखदायी - दोनों परिस्थितियोंसे ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है।

       सृष्टिसे पूर्व परमात्मामें  'मैं एक ही अनेक रूपों में हो जाऊँ ' ऐसा संकल्प हुआ | इस संकल्पसे एक ही परमात्मा  प्रेमवृध्दि की लीला के लिये, प्रेमका आदान-प्रदान करने के लिये स्वयं ही श्रीकृष्ण और श्रीजी (श्रीराधा)- इन दो रूपों में प्रकट हो गये | उन दोनोंने परस्पर लीला करने के लिये एक खेल रचा । उस खेल के लिये प्रभु के संकल्प से अनन्त जीवों की ( जो कि अनादिकाल से थे ) और खेलके पदार्थों -(शरीरादि-) की सृष्टि हुई । खेल तभी होता है, जब दोनों तरफके खिलाड़ी स्वतन्त्र हों । इसलिये भगवान् ने जीवों को स्वतन्त्रता प्रदान की । उस खेलमें श्रीजीका तो केवल  भगवान् की तरफ ही आकर्षण रहा, खेल में उनसे भूल नहीं हुई । अत: श्रीजी और भगवान् में प्रेमवृध्दिकी लीला हुई । परन्तु दूसरे जितने जीव थे, उन सबनें भूलसे संयोगजन्य सुखके लिये खेल के पदार्थों-(उत्पत्ति-विनाशशील प्रकृतिजन्य पदार्थों - ) के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया,जिससे वे जन्म-मरणके चक्कर में पड़ गये ।

            खेलके पदार्थ केवल खेलके लिये ही होते हैं, किसीके व्यक्तिगत नहीं होते।  परन्तु वे जीव खेल खेलना तो भूल गये और मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके खेल के पदार्थों को अर्थात् शरीरादिको व्यक्तिगत मानने लग गये । इसलिये वे उन पदार्थोंमें फँस गये और भगवान् से सर्वथा विमुख हो गये । अब अगर वे जीव शरीरादि उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ, तो वे जन्म-मरणरूप महान् दु:खसे सदाके लिये छूट जायँ । अत: जीव संसार से विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जायँ और भगवान् के साथ अपने नित्य योग-( नित्य सम्बन्ध -) को पहचान लें -इसीके लिये भगवद्गीता का अवतार हुआ है।

"साधक-संजीवनी (लेखक-
श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)" ,
"प्राक्कथन" ("गीता का खास लक्ष्य"
नामक  विभाग) से।

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