मंगलवार, 12 नवंबर 2019

प्रार्थना [हस्तलिखित फोटो] (- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के हाथ से लिखी हुई , साधक की तरफ से प्रभु- प्रार्थना)।

                  ॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥ 


                       ●  प्रार्थना  ●

  ( परमश्रद्धेय स्वामीजी
 श्रीरामसुखदासजी महाराज 

 के हाथ से लिखी हुई ,  साधक की तरफ से प्रभु- प्रार्थना- )

                ।। श्री रामाय नमः।।  

हे नाथ ! आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप हमें प्यारे लगें , केवल यही
मेरी माँग है, और कोई अभिलाषा नहीं। 
हे नाथ ! अगर मैं स्वर्ग चाहूँ तो मुझे नरकमें डाल दें , सुख चाहूँ तो
अनन्त दुःखोंमें डाल दें , पर आप हमें  प्यारे लगें।
हे नाथ ! आपके बिना मैं रह न सकूँ , ऐसी व्याकुलता आप दे दें।
हे नाथ ! आप मेरे ऐसी आग लगा दें कि आपकी प्रीतिके बिना जी न सकूँ । 

हे नाथ ! आपके बिना मेरा कौन है ? मैं किससे कहूँ और कौन सुने ?
हे मेरे शरण्य ! मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ? कोई मेरा नहीं ।
मैं भूला हुआ कइयोंको अपना मानता रहा , धोका (धोखा) खाया , फिर भी धोका खा सकता हूँ। आप बचावें ! 

हे मेरे प्यारे ! हे अनाथनाथ ! हे अशरणशरण ! हे पतितपावन ! हे दीनबन्धो ! हे अरक्षितरक्षक ! हे आर्त्तत्राणपरायण ! हे निराधारके आधार ! अकारण- करुणावरुणालय ! हे साधनहीनके एकमात्र साधन ! हे असहायकके सहायक ! क्या आप मेरेको जानते नहीं ? मैं कैसा भङ्गप्रतिज्ञ , कैसा कृतघ्न , कैसा अपराधी , मैं कैसा विपरीतगामी , मैं कैसा अकरणकरणपरायण , 
अनन्त दुःखोंके कारणस्वरूप भोगोंको भोगकर , जानकर भी आसक्त रहनेवाला , अहितको हितकर माननेवाला , बार- बार ठोकरें खाकर भी नहीं चेतनेवाला , आपसे विमुख होकर बार- बार दुःख पानेवाला , चेतकर भी न चेतनेवाला , ऐसा जानकर भी न जाननेवाला  मेरे सिवा आपको ऐसा कौन मिलेगा ?  
 प्रभो ! त्राहि मां त्राहि मां पाहि मां पाहि माम् !  
 हे प्रभो ! हे विभो ! मैं आँख पसारकर देखता हूँ तो मन , बुद्धि , प्राण , इन्द्रियाँ और शरीर भी मेरे नहीं , तो वस्तु , वस्त्रादि [ व्यक्ति आदि ] मेरे कैसे हो सकते हैं ? ऐसा मैं जानता हूँ , कहता हूँ, पर वास्तविकतासे नहीं मानता ।  मेरी यह दशा क्या आपसे किंचिन्मात्र भी कभी छिपी है ? फिर हे प्यारे , क्या कहूँ ?
हे नाथ ! हे नाथ !! हे मेरे नाथ !!! हे दीनबन्धो ! हे प्रभो ! आप अपनी
तरफसे शरण ले लें। बस , केवल आप प्यारे लगें।  ●

मेर मन में तो आई थी कि आप सुबह, शाम, मध्याह्न - तीनों समय कर ,  खूब अच्छे भावपूर्वक करें तो प्रभुकृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है 
ता•१९|३|७६
चैत्र कृष्णा चतुर्थी, शुक्रवार
- रामसुखदास 

 (- यथावत् लेखन •••● , । () ! ? | - ) ■  
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
 इस हस्तलिखित प्रार्थना की फोटो भी  नीचे दी जा रही है ।  

यह प्रार्थना कई पुस्तकों में यथावत् लिखकर नहीं छापी गई है, अयथावत् छपी हुई मिलती है। इसके नीचे यह वाक्य और जोङ दिया गया है -- 
[ भक्त-चरित्र पढ़कर खूब अच्छा भाव बनाकर सुबह, शाम व मध्याह्न-तीनों
समय यह प्रार्थना करनी चाहिये। ] 

इसके सिवाय भक्त-चरित्र पढ़े बिना भी , सीधे ही यह प्रार्थना की जा सकती है तथा एक बार या अनेक बार की जा सकती है और उसको भगवान् सुन लेते हैं ।
  यह प्रार्थना किसी भी समय की जा सकती है और किसी भी प्रकार से की जा सकती है ।  इस प्रार्थना को कोई भी कर सकता है चाहे वो कैसा ही क्यों न हो और भगवान् उसको स्वीकार कर लते हैं ।  
इस प्रार्थना के नीचे श्री स्वामी जी महाराज के द्वारा लिखे हुए इतने अंश पर और ध्यान दें।  
 वो लिखते हैं-   
 मेर मन में तो आई थी कि आप सुबह, शाम, मध्याह्न - तीनों समय कर , खूब अच्छे भावपूर्वक करें तो प्रभुकृपा से कुछ भी असम्भव नहीं है 
ता•१९|३|७६ 
चैत्र कृष्णा चतुर्थी, शुक्रवार 
- रामसुखदास 
  (अर्थात् ऐसे प्रार्थना की जाय तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है, ऐसा कोई भी काम नहीं है जो इस प्रार्थना से न हो सके, सबकुछ हो सकता है। 
 इस में भक्त- चरित्र पढ़ना भी जरूरी नहीं बताया गया है अर्थात् यह प्रार्थना किसी भी प्रकार से की जा सकती है और इससे असम्भव भी सम्भव हो सकता है।  भाव पूर्वक की जाय तो और भी बढ़िया है आदि आदि ।  )।
   ■

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रविवार, 10 नवंबर 2019

परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज की ओरसे एक प्रार्थना

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
   परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
की ओरसे एक प्रार्थना
अपने निजस्वरूप प्यारे मुसलमान भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि आप अपने आदरणीय
पूर्वजोंकी गलतीको स्थायी रूपसे नहीं रखना चाहते हैं तथा अपनी गलत परम्पराको मिटाना चाहते हैं तो
जिनकी जो चीज है, उनको उनकी चीज सत्कारपूर्वक समर्पण कर दें और अपनी गलत परम्पराको,
बुराईको मिटाकर सदाके लिये भला रहना स्वीकार कर लें ।
आपलोगोंने मन्दिरोंको तोड़नेकी जो गलत
परम्परा अपनायी है, इसमें आपका ज्यादा नुकसान है, हिन्दुओंका थोड़ा। यह आपके लिये बड़े
कलंकका, अपयशका काम है।
आपके पूर्वजोंने मन्दिरोंको तोड़कर जो मस्जिदें खड़ी की हैं, वे इस
बातका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुसलमानोंके राज्यमें क्या हुआ ? अतः वे आपके लिये कलंककी,
अपयशकी निशानी हैं।
अब भी आप उसी परम्परापर चल रहे हैं तो यह उस कलंकको स्थायी रखना
है।
आप विचार करें,
सभी लोगोंको अपने- अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिका पालन करनेका अधिकार है ।
यदि हिन्दू अपने धर्मके अनुसार मन्दिरोंमें मूर्तिपूजा ( मूर्तिमें भगवान् की पूजा ) करते हैं तो इससे आपको
क्या नुकसान पहुँचाते हैं ? इसमें आपका क्या नुकसान होता है ? क्या हिन्दुओंने अपने राज्यमें मस्जिदोंको
तोड़ा है ? तलवारके जोरपर हिन्दूधर्मका प्रचार किया है ? उलटे हिन्दुओंने अपने यहाँ सभी
मतावलम्बियोंको अपने-अपने मत, सम्प्रदायका पालन करने, उसका प्रचार करनेका पूरा मौका दिया है।
इसलिये यदि आप सुख-शान्ति चाहते हैं, लोक-परलोकमें यश चाहते हैं, अपना और दुनियाका भला
चाहते हैं तो अपने पूर्वजोंकी गलतीको न दुहरायें और गम्भीरतापूर्वक विचार करके अपने कलंकको
धो डालें।
सरकारसे भी आदरपूर्वक प्रार्थना है कि आप थोड़े समयके अपने राज्यको रखनेके लिये ऐसा कोई
काम न करें, जिससे आपपर सदाके लिये लाञ्छन लग जाय और लोग सदा आपकी निन्दा करते रहें ।
आज प्रत्यक्षमें राम भी नहीं हैं और रावण भी नहीं है, युधिष्ठिर भी नहीं हैं और दुर्योधन भी नहीं है; परंतु
राम और युधिष्ठिरका यश तथा रावण और दुर्योधनका अपयश अब भी कायम है। राम और युधिष्ठिर
अब भी लोगोंके हृदयमें राज्य कर रहे हैं तथा रावण और दुर्योधन तिरस्कृत हो रहे हैं।
आप ज्यादा वोट
पानेके लोभसे अन्याय करेंगे तो आपका राज्य तो सदा रहेगा नहीं, पर आपकी अपकीर्ति सदा रहेगी।
यदि आप एक समुदायका अनुचित पक्ष लेंगे तो दूसरे समुदायमें स्वतः विद्रोहकी भावना पैदा होगी, जिससे
समाजमें संघर्ष होगा।
इसलिये आपको वोटोंके लिये पक्षपातपूर्ण नीति न अपनाकर सबके साथ समान
न्याय करना चाहिये और निल्लोभ तथा निर्भीक होकर सत्यका पालन करना चाहिये।
अन्तमें अपने निजस्वरूप प्यारे हिन्दू भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि मुसलमान भाइयोंकी
कोई क्रिया आपको अनुचित दीखे तो उस क्रियाका विरोध तो करें, पर उनसे वैर न करें।
गलत क्रिया
या नीतिका विरोध करना अनुचित नहीं है, पर व्यक्तिसे द्वेष करना अनुचित है। जैसे, अपने ही भाईको
संक्रामक रोग हो जाय तो उस रोगका प्रतिरोध करते हैं, भाईका नहीं। कारण कि भाई हमारा है, रोग
हमारा नहीं है। रोग आगन्तुक दोष है, इसलिये रोग द्वेष्य है, रोगी किसीके लिये भी द्वेष्य नहीं है।
अतः
आप द्वेषभावको छोड़कर आपसमें एकता रखें और अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करें, सच्चे हृदयसे
भगवान् में लग जायेँ तो इससे आपके धर्मका ठोस प्रचार होगा और शान्तिकी स्थापना भी होगी। 

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज)। 

- 'कल्याण'वर्ष 67, अंक3 (मार्च 1993)।


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अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशी में शिव- मन्दिर की बारी

                      ।।श्रीहरिः।।
अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशी में शिव- मन्दिर की बारी  
कल (कार्तिक शुक्ला द्वादशी शनिवार , विक्रम संवत् २०७६ को) सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार अयोध्या में राम- मन्दिर बनना तै हो गया । भगवान् की कृपा से यह रामभक्तों और सारे संसार के लिये भी एक बङा हितकारी काम हुआ है । इससे हिन्दुओं का, ईसाईयों आदि का और मुसलमानों का भी बङा हित होगा।
कई लोगों को इससे बङी भारी प्रसन्नता हुई है । कई लोग तो इससे अपने को धन्य और कृतकृत्य (सब काम कर चूके) मानने लग गये ; लेकिन अपने को इतने से ही सन्तोष नहीं करना चाहिये ; क्योंकि अभी हमारे कई मन्दिरों का काम बाकी पङा है ।
इसलिये अयोध्या राम- मन्दिर के बाद अब काशीवाले शिव- मन्दिर के लिये काम शुरु करना चाहिये और मथुरा में श्रीकृष्ण- मन्दिर की तैयारी करनी चाहिये ।
जैसे, एक दिन अयोध्या राम- मन्दिर की थोङी- सी शुरुआत की गई थी, तो वो होते- होते कल निर्णय आ ही गया। अब राम- मन्दिर बनने की तैयारी है और राम मन्दिर बन जायेगा । ऐसे ही हमलोग अगर काशी में शिव- मन्दिर की थोड़ी- सी भी शुरुआत करदें, तो एक दिन यह मन्दिर भी बन जायेगा ।
विचार करके देखें तो शुरुआत में एक व्यक्ति के मनमें बात आती है, उसके बाद अनेकों के मनमें आ जाती है और अनेक लोग साथ में हो जाते हैं तथा अनेकों की शक्ति से वो काम हो जाता है । वो काम हुआ तो अनेकों की शक्ति से है; पर शुरुआत में उस काम को एक व्यक्ति ने ही शुरु किया था। ऐसे अगर हम अकेले ही (अयोध्या राम- मन्दिर की तरह एक व्यक्ति ही) यह काम शुरु करदें, तो हमारे साथ अनेक लोग हो जायेंगे और काशी में शिव- मन्दिर भी बन जायेगा।
वास्तव में यह होगा तो महापुरुषों और भगवान् की कृपा से ही, परन्तु निमित्त हमको बनना है। भगवान् और महापुरुष तो तैयार ही रहते हैं, अब हमको तैयार होना है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने कहा था कि सीधी -सी बात है कि हिन्दुओं की जगह (राम- मन्दिर) हिन्दुओं को दे दी जाय । कह, फिर तो काशी और मथुरा वाले स्थान भी माँग लेंगे । अरे माँग लेंगे तो इससे तुम्हारा क्या हर्ज हुआ?
श्री स्वामीजी महाराज के सामने बार- बार अयोध्या राम मन्दिर का विषय आया था और उन्होंने समाधान किया था । उनके ऐसे कई प्रवचनों की रिकॉर्डिंग मौजूद है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज ने मुस्लिम भाइयों को, सरकार को और हिन्दू भाइयों को बङी आत्मीयतापूर्वक पत्र लिखवाकर कल्याण पत्रिका में प्रकाशित करवाया था ।( कल्याण वर्ष ६७ वाँ , अंक तीसरा, (3 मार्च 1993 ) ।
( पत्र और पत्र की फोटो नीचे दी जा रही है  )।
मुस्लिम भाइयों को सादर समझाया कि आपलोग अपने बङेरों का कलंक धो लो।
( अर्थात् अयोध्या का राम- मन्दिर तुङवाङकर उस जगह मुसलमानों के बङेरे बाबर ने मस्जिद बनवायी थी। मुसलमानों के बङेरे ऐसे अन्यायी, जबरदस्ती पूर्वक दूसरों की सम्पत्ति छीनने वाले, दुःख देनेवाले थे। मस्जिद इस बात की निशानी है । आपलोगों ने भी यही परम्परा अपना रखी है। यह आपलोगों के लिये कलंक है। अब आपलोग यह हिन्दुओं की जगह हिन्दुओं देकर अपने बङेरों का कलंक धो डालो। नहीं तो यह कलंक मिटेगा नहीं । अबतक जैसे मस्जिद के रूप में वो कलंक खङा था, कायम था, ऐसे ही आगे भी यह कलंक पङा रहेगा)।
सरकार को भी आदरपूर्वक समझाया कि आपलोग ज्यादा वोट के लोभ से अन्याय, पक्षपात मत करो।
हिन्दू भाइयों को अपने धर्म का ठीक तरह से पालन करने का और सच्चे हृदय से भगवान् में लग जाने के लिये आदरपूर्वक कहा। 
( http://dungrdasram.blogspot.com/2019/11/blog-post_0.html )
इस प्रकार महापुरुष हमारे साथ में हैं और महापुरुषों के साथ भगवान् हैं । भगवान् उनकी रुचि के अनुसार काम करते आये हैं-
राम सदा सेवक रुचि राखी।
बेद पुरान साधु सुर साखी।।
(रामचरितमा॰ २|२१९|७)

अब काम बाकी हमारा है। हम अगर तैयार हो जायँ,  इस काम को शुरु करदें, मन बनालें कि यह काम होना चाहिये, तो यह काम हो जाय, मन्दिर बन जाय।  

( काशीजी के ज्ञानवापी वाले शिव- मन्दिर की कैसी दुर्दशा की हुई है, यह तो आज भी समझी और देखी जा सकती है)।
जय श्री राम 
●●●●●●●●●●●●●
                    ( पत्र -)
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥
  परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज
की ओरसे एक प्रार्थना
अपने निजस्वरूप प्यारे मुसलमान भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि आप अपने आदरणीय
पूर्वजोंकी गलतीको स्थायी रूपसे नहीं रखना चाहते हैं तथा अपनी गलत परम्पराको मिटाना चाहते हैं तो
जिनकी जो चीज है, उनको उनकी चीज सत्कारपूर्वक समर्पण कर दें और अपनी गलत परम्पराको,
बुराईको मिटाकर सदाके लिये भला रहना स्वीकार कर लें ।
आपलोगोंने मन्दिरोंको तोड़नेकी जो गलत
परम्परा अपनायी है, इसमें आपका ज्यादा नुकसान है, हिन्दुओंका थोड़ा। यह आपके लिये बड़े
कलंकका, अपयशका काम है।
आपके पूर्वजोंने मन्दिरोंको तोड़कर जो मस्जिदें खड़ी की हैं, वे इस
बातका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुसलमानोंके राज्यमें क्या हुआ ? अतः वे आपके लिये कलंककी,
अपयशकी निशानी हैं।
अब भी आप उसी परम्परापर चल रहे हैं तो यह उस कलंकको स्थायी रखना
है।
आप विचार करें,
सभी लोगोंको अपने- अपने धर्म, सम्प्रदाय आदिका पालन करनेका अधिकार है ।
यदि हिन्दू अपने धर्मके अनुसार मन्दिरोंमें मूर्तिपूजा ( मूर्तिमें भगवान् की पूजा ) करते हैं तो इससे आपको
क्या नुकसान पहुँचाते हैं ? इसमें आपका क्या नुकसान होता है ? क्या हिन्दुओंने अपने राज्यमें मस्जिदोंको
तोड़ा है ? तलवारके जोरपर हिन्दूधर्मका प्रचार किया है ? उलटे हिन्दुओंने अपने यहाँ सभी
मतावलम्बियोंको अपने-अपने मत, सम्प्रदायका पालन करने, उसका प्रचार करनेका पूरा मौका दिया है।
इसलिये यदि आप सुख-शान्ति चाहते हैं, लोक-परलोकमें यश चाहते हैं, अपना और दुनियाका भला
चाहते हैं तो अपने पूर्वजोंकी गलतीको न दुहरायें और गम्भीरतापूर्वक विचार करके अपने कलंकको
धो डालें।
सरकारसे भी आदरपूर्वक प्रार्थना है कि आप थोड़े समयके अपने राज्यको रखनेके लिये ऐसा कोई
काम न करें, जिससे आपपर सदाके लिये लाञ्छन लग जाय और लोग सदा आपकी निन्दा करते रहें ।
आज प्रत्यक्षमें राम भी नहीं हैं और रावण भी नहीं है, युधिष्ठिर भी नहीं हैं और दुर्योधन भी नहीं है; परंतु
राम और युधिष्ठिरका यश तथा रावण और दुर्योधनका अपयश अब भी कायम है। राम और युधिष्ठिर
अब भी लोगोंके हृदयमें राज्य कर रहे हैं तथा रावण और दुर्योधन तिरस्कृत हो रहे हैं।
आप ज्यादा वोट
पानेके लोभसे अन्याय करेंगे तो आपका राज्य तो सदा रहेगा नहीं, पर आपकी अपकीर्ति सदा रहेगी।
यदि आप एक समुदायका अनुचित पक्ष लेंगे तो दूसरे समुदायमें स्वतः विद्रोहकी भावना पैदा होगी, जिससे
समाजमें संघर्ष होगा।
इसलिये आपको वोटोंके लिये पक्षपातपूर्ण नीति न अपनाकर सबके साथ समान
न्याय करना चाहिये और निल्लोभ तथा निर्भीक होकर सत्यका पालन करना चाहिये।
अन्तमें अपने निजस्वरूप प्यारे हिन्दू भाइयोंसे आदरपूर्वक प्रार्थना है कि यदि मुसलमान भाइयोंकी
कोई क्रिया आपको अनुचित दीखे तो उस क्रियाका विरोध तो करें, पर उनसे वैर न करें।
गलत क्रिया
या नीतिका विरोध करना अनुचित नहीं है, पर व्यक्तिसे द्वेष करना अनुचित है। जैसे, अपने ही भाईको
संक्रामक रोग हो जाय तो उस रोगका प्रतिरोध करते हैं, भाईका नहीं। कारण कि भाई हमारा है, रोग
हमारा नहीं है। रोग आगन्तुक दोष है, इसलिये रोग द्वेष्य है, रोगी किसीके लिये भी द्वेष्य नहीं है।
अतः
आप द्वेषभावको छोड़कर आपसमें एकता रखें और अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करें, सच्चे हृदयसे
भगवान् में लग जायेँ तो इससे आपके धर्मका ठोस प्रचार होगा और शान्तिकी स्थापना भी होगी। 
( - श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज )
- 'कल्याण'वर्ष 67, अंक3 (मार्च 1993)।

 
आपलोगों ने कोशिश करके जैसे यह राम- मन्दिर का काम करवा दिया, ऐसे ही आपलोगों से प्रार्थना है कि अब जल्दी ही गौ- हत्या बन्द करवा दें । आपका बहुत- बहुत आभार । 

जय श्री राम 

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रविवार, 3 नवंबर 2019

दिनचर्या की कुछ बातें (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की दिनचर्या- सम्बन्धी कुछ  बातें)।

                ।।श्रीहरिः।। 

दिनचर्या की कुछ बातें ।
(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की दिनचर्या- सम्बन्धी कुछ  बातें)। 

किसी सत्संग- प्रेमी ने यह जानने की इच्छा व्यक्त की है कि
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज की दिनचर्या कैसी थी?
उत्तर में कुछ बातें निवेदन की जा रही है-
(यह जानकारी संवत २०४१ के बाद की समझनी चाहिये ) । 

उन दिनों में श्रीस्वामीजी महाराज तीन बजे उठे हुए और स्नान आदि करते हुए देखे गये। बाद में उन्होंने दो बजे उठना शुरु कर दिया । उसके बाद उन्होंने एक बजे उठना शुरु किया और फिर रात्रि बारह बजे उठना और स्नान आदि करना शुरु कर दिया। कभी बारह बजे से पहले उठ जाते तो बारह बजने की प्रतीक्षा करते कि बारह बज जाय तो स्नान आदि करें । 

उन्होंने बताया कि बारह बजने से पहले तो वर्तमान दिन की ही घङियाँ रहती है, बारह बजने के बाद में (तारीख बदलने पर) दूसरे दिन की घङियाँ शुरु होती है, दूसरा दिन शुरु होता है। जब बारह बज जाते तब स्नान करते।

( बाद में किसीने कहा कि शास्त्र के अनुसार स्नान चार बजे के बाद में करना चाहिये। तब से स्नान बाद में करने लगे और सन्ध्या वन्दन आदि तो जैसे पहले करते थे , रात्रि बारह बजे के बाद, वैसे ही करते रहे और स्नान का समय बदल दिया। 
 
जिन दिनों में गंगाजी पर होते तो उन दिनों में तीन बार स्नान कर लेते थे। एक बार तो पहले से ही लाये हुए गंगाजल से निवास स्थान पर ही स्नान कर लेते और दो बार गंगाजी पर जाकर, डुबकी लगाकर स्नान करते थे)। 

उस (आधी रात के) समय स्नान करके आते ही सन्ध्या के लिये बिछाये गये आसन पर विराजमान हो जाते और सन्ध्या वन्दन आदि करते। श्रीकृष्ण भगवान् को नमस्कार करते। पूजन- सामग्री में स्थित श्री गणेश भगवान् को प्रणाम करते। श्लोकपाठ, स्तुति, स्तोत्रपाठ आदि करके माला से मन्त्रजाप करते और रासपञ्चाध्यायी , गीतापाठ , सन्तवाणी पाठ आदि करते। 

इसके बाद तीन बजे से पुस्तक लिखवाना आदि कार्य करते, साधकों के लिये रहस्ययुक्त बातों को सरल करके समझाते। अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का ज्ञान करवाते। अनेक प्रकार का विचार-विमर्श होता। 
(चार बजे श्री स्वामीजी महाराज द्वारा किये गये गीतापाठ की कैसेट लगायी जाती थी)।

 पाँच बजे नित्य-स्तुति, गीतापाठ आदि शुरु हो जाते। आप उसमें पधारते और सत्संग सुनाते। यह प्रोग्राम प्रायः छः बजे से कुछ पहले ही समाप्त हो जाता था । 
 
वापस आनेपर पर सूर्योदय होने के बाद में दूध, फल आदि लेते। अन्न का भोजन तो दिन में दो बार ही लेते थे। रात्रि में अन्न नहीं लेते थे। 
 
तीन बार सन्ध्या करते थे। दो बार तो सुबह और शामवाले भोजन से पहले और एक बार रात्रि बारह बजेवाले स्नान के बाद में । 
 
 कभी-कभी सुबह जंगल आदि की खुली हवा में चले जाते थे। जंगल को, एकान्त को पसन्द करते थे। वस्तु और व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे। अपनी बात को छोड़कर दूसरे की बात रखते थे। 

सुबह के भोजन का समय लगभग साढे दस बजे और शाम को पाँच या साढे पाँच बजे, सूर्यास्त से पहले- पहले ही रहता था। सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करत थे। 
 
भोजन के बाद दर्शनार्थियों को दर्शन होते और सत्संग की बातें होती थीं । किसीके कोई बात पूछनी होती तो वो भी पूछ लेते और उनको जवाब मिल जाता था। 
 
एक डेढ बजे विश्राम के बाद जलपान आदि करके सहजता से विवेक विचार आदि में बैठ जाते थे। गीता, रामायण , भागवत , संतवाणी , सत्संग की पुस्तकें आदि पढ़ते और विचार आदि करते हुए अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते थे। 

सत्संग की बातें तो हर समय होती रहती थी। जो सत्संगी अलग से मिलना चाहते थे या साधन आदि की बात करना चाहते थे , उनको अलग से समय दे देते थे। उनकी बाधाएँ दूर करते थे। वो कहते थे कि कोई मेरे से मिलना चाहता हो, तो उसको मेरे आराम के कारण, बिना मिलाये, निराश मत लोटाओ , मैं नींद में सोता होऊँ , तो भी जगाकर मिलादो। 
 
सूर्योदय और सूर्यास्त के समय नींद नहीं लेते थे ।
रात्रि में कोई दर्शनार्थी आते और आप विश्राम में होते तो नौ , दस बजे बाद, दुग्धपान के समय दर्शन हो जाते। 

रात्रि में बारह बजे से सुबह सूर्योदय तक जल के अलावा कुछ नहीं लेते थे। सूर्योदय के बाद कलेऊ में भी अन्न का आहार नहीं लेते थे (अन्न का आहार दिन में दो बार ही लेते थे)।  

भोजन मौन होकर करते थे। परोसने वाला जो परोस देता , वही पा लेते थे। माँगने का स्वभाव नहीं था। जबतक पेट नहीं भर जाता , तब तक कोई दूध आदि अच्छी, पौष्टिक- वस्तु न परोस कर साधारण, कम पौष्टिक वस्तु ही परोस देता, तो भी मना नहीं करते थे, उसी को पा लेते थे।  यह भी इसारा नहीं करते कि पौष्टिक- वस्तु पहले परोसो।  पौष्टिक- वस्तु कोई बाद में परोसने लगता तो मना कर देते कि अब पेट भर गया।  

उनका खास काम था- सत्संग करना। सत्संग की बङी भारी महिमा करते और रोजाना इसको आवश्यक समझते थे। दिन में दो , तीन या चार बार और कभी- कभी तो इससे भी अधिक बार , रोजना सत्संग सुनाते थे।  पहले के समय में तो एकबार में दो- दो घंटे व्याख्यान होता था। बाद में घंटाभर हो गया ।  

सत्संग का समय प्रायः सुबह साढे आठ बजे से , दुपहर में चार बजे से और रात्रि में सात आठ बजे या इसके बाद का रहता था 

कभी- कभी किसी साधक को बुलाकर भी बातें करते थे । किसीके कोई अङचन हो तो वो दूर हो जाय , ऐसी चेष्टा रहती थी। कभी कई साधकों से एक साथ मिलकर भी बातें करते थे और समझाते थे। 
 
परहित तो उनके द्वारा स्वतः और सदा ही होता रहता था। परहित में ही लगे रहते थे। कोई भी साधक के काम की बात होती, वो बताने की कोशिश रहती थी और आवश्यक बात को लिखवा भी देते थे , जो कि भविष्य में साधकों के काम आवे। 
 
 कोई एक बात पूछता तो उसका तो जवाब देते ही, साथ में और उपयोगी बातें , अधिक बता देते। 
 
हमेशा ऐसे आचरण और व्यवहार करते थे जो लोगों के लिये आदर्श हों। लोग उनसे सीखें और लोगों का हित हो। (ऐसा भाव रहता)। 


प्रश्न- 

इस प्रकार रातदिन जब वो इतने व्यस्त थे तो सोते कब थे?  

उत्तर-  

समय मिलता तब ही सोते थे। जैसे , सुबह कलेऊ करने के बाद में या सुबह शाम भोजन के बाद में (विश्राम कर लेते )। उस समय भी अगर सत्संग आदि का प्रोग्राम हो जाता तो सोने की परवाह नहीं करते । हरेक सत्संग में समय से पहले ही पहुँचते थे , एक मिनिट की देरी भी सहन नहीं करते थे। कभी सत्संग स्थल दूर होता और समय पर वाहन उपलब्ध नहीं रहता तो पैदल ही चल देते थे। 

 (एक बार किसीने पूछा कि ऐसे पैदल चलकर समय पर वहाँ पहुँच तो सकोगे नहीं , तब पैदल चलने से क्या फायदा? तो जवाब में बोले कि हम तो समय पर रवाना हो गये, अब पहुँच नहीं पाये तो हम क्या करें,  हमारे हाथ की बात नहीं। जितना हम कर सकते हैं, उसमें कसर क्यों रखें!)  

कभी कोई साथ में रहनेवाले समय पर उपस्थित नहीं रहते तो अकेले ही चल देते ।  ■ 


इस प्रकार और भी अनेक बातें हैं। यह तो समझने के लिये कुछ दिग्दर्शन करवाया गया है। 

(उनमें से कुछ बातें इस प्रकार है-) 

भोजन में भगवदिच्छा से प्राप्त दूध आदि सात्त्विक- वस्तुएँ ही लेते थे। बाजार की (बनी हुई) वस्तुएँ नहीं पाते थे।   लहसुन, प्याज, गाजर, फूलगोभी, मसूर और उङद की दाल आदि वर्जित- वस्तुएँ नहीं लेते थे। 
 चीनी और चीनी से बनाई हुई घर की मिठाई भी मना करते थे। 
 (क्योंकि चीनी बनाते समय , चीनी की सफाई में हड्डियों का प्रयोग होता है)।  
 
जिस महीने में स्मार्त और वैष्णव - दो एकादशी व्रत होते, तो बादवाली, वैष्णव एकादशी का व्रत रखते थे। वैष्णव एकादशी के दिन तो चावल खाते ही नहीं थे और स्मार्त एकादशी को भी चावल नहीं खाते थे। एकादशी व्रत के दिन फलाहार में हल्दी नहीं डाली जाती थी; क्योंकि  हल्दी अन्न है 
 (हल्दी की गिनती अन्न में आयी है। मटर भी अन्न है)। 

चतुर्थी के दिन भी अन्न नहीं लेते थे। हर महीने गणेश भगवान् की चतुर्थी तिथि को व्रत रखते थे।  व्रत के दिन फलाहार लेते थे। 

 वृद्धावस्था में जब फलाहार प्रतिकूल पङने लग गया , फलाहार के कारण तबियत बिगङने लगी,  तब अन्नाहार लेने लगे ।  

एकादशी के दिन अन्नाहार लेने में संकोच करने लगे। साथवालों ने कहा कि आप अन्नाहार लीजिये, संकोच न करें । तो बोले कि भिक्षा लानेवाले अन्न की भिक्षा लायेंगे, (वो सब तो हम पा नहीं सकेंगे, फिर) इतने सारे अन्न का क्या होगा ? अर्थात् वो अन्न बर्बाद तो नहीं हो जायेगा? तब साथवाले कुछ लोग बोले कि हम पा लेंगे (बर्बाद नहीं होने देंगे)। तथा यह भी कहा गया कि (धर्मसिन्धु,निर्णयसिन्धु आदि ग्रंथानुसार) अस्सी वर्ष तक की अवस्था वालों के लिये ही एकादशी व्रत लागू पङता है, अस्सी वर्ष की अवस्था के बाद में नहीं करे तो भी कोई बात नहीं,छूट है। 
 
इस प्रकार परिस्थिति को देखते हुए आप बाद में  अन्नाहार लेने लगे।  

इसके बाद कई दूसरे लोग भी एकादशी को अन्न खाने लग गये। ऐसा होता हुआ देखकर एक दिन झुँझलाते हुए से बोले कि कम से कम एकादशी का तो कायदा रखा करो अर्थात् एकादशी के दिन तो अन्न मत खाया करो ! आपके  मनमें एकादशी का बङा आदर था ।  आप हर एकादशी को व्रत रखते थे ।  • 

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किसीके देने पर भी आप न रुपये लेते थे और न रुपये अपने पास में रखते थे। रुपयों को छूते भी नहीं थे। किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर भी आप किसी से कुछ माँगते नहीं थे। कष्ट उठा लेते थे पर कहते नहीं थे। आप बङा संकोच रखते थे।

आप अपनी मान बङाई नहीं करवाते थे। मान दूसरों को देते थे। आप स्वार्थ, अभिमान, कञ्चन, कामिनी आदि के त्यागी थे। आप पुष्पमाला आदि का सत्कार स्वीकार नहीं करते थे। आप वर्षा में भी अपने ऊपर छाता नहीं लगाने देते थे। आप न रुई के बिछोनों पर बैठते थे और न सोते थे। खाट पर भी न बैठते थे और न सोते थे। बुनी हुई कुर्सी पर भी आप नहीं बैठते थे।

कहीं पर भी आसन बिछाने से पहले आप उस जगह को कोमलता पूर्वक, आसन आदि की ही हवा से झाङकर, वहाँ से सूक्ष्म जीव जन्तुओं को हटाकर बिछाते थे। बिना आसन के बैठते समय भी आप जीव जन्तुओं को बचा कर बैठते थे। 

चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि कहीं कोई जीव जन्तु पैर के नीचे दब कर मर न जाय। आपका बङा कोमल शील स्वभाव था। आपके हृदय में हमेशा परहित बसा रहता था जो दूसरों को भी दिखायी देता था।

आप हमेशा जल छान कर ही काम में लेते थे। छने हुए जल को भी चार या छः घंटों के बाद वापस छानते थे; क्योंकि चातुर्मास में चार घंटों के बाद और अन्य समय में छः घंटों के बाद में (छाने हुए जल में भी) जीव पैदा होने लगते हैं। जल में  जीव बहुत छोटे होते हैं, दीखते नहीं। इसलिये आप गाढ़े कपङे को डबल करके जल को छानते थे और सावधानी पूर्वक जीवाणूँ करके उन जीवों को जल में छोङते थे। 

 इस प्रकार आप छाने हुए जल को काम में लेते थे । खान, पान, शौच, स्नान आदि सब में आप जल छानकर ही काम में लेते थे।  

जिस शौचालय में ऊपर, आकाश न दीखता हो तो उसमें जाने के बाद,आकर स्नान करते थे। 

 (शौच, स्नान और पेशाबघर अलग-अलग होने चाहिये। एक साथ वाले शुद्ध नहीं माने जाते)। 

शौच और लघुशंका जाने से पहले वहाँ कुछ पानी गिराकर जगह को गीला कर देते, जिससे कि वो जगह अधिक अशुद्धि न पकङे तथा थोङे पानी से ही साफ हो जाय। शौच के बाद पहले बायाँ हाथ कई बार मिट्टी लगा- लगाकर धोते और फिर मिट्टी लगा-लगाकर दोनों हाथों को कई बार धोते। कुल्ला आदि करते समय जो पानी गिरकर बहता, उसीके साथ-साथ पैरों से सरकाते हुए उस मिट्टी को बहा देते जिससे कि उसको बहाने के लिये, अलग से जल खर्च न करना पड़े। पानी, अन्न और समय आदि व्यर्थ न जाय, इसका बङा ध्यान रखते थे। 

लघुशंका जाने के बाद जल से शुद्धि आदि करके फिर हाथ धोते और कई कुल्ले करते। मुख में पानी भरकर तथा चुल्लू में पानी भर- भर कर, उससे आँखोंपर खूब छींटे लगाते। फिर हाथ मुँह धोकर दोनों पैर धोते (टखनों तक) । 

अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे। 

  परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।

आपने मिलने वाले जिज्ञासुओं को हमेशा छूट दे रखी थी कि आपके कोई साधन-सम्बन्धी बात पूछनी हो तो मेरे को नींद में से जगाकर भी पूछ सकते हो। लोगों के लिये आप अनेक कष्ट सहते थे, फिर भी उनको जनाते नहीं थे।

आप न चेला चेली बनाते थे और न भेंट पूजा स्वीकार करते थे। आप न तो किसी से चरण छुआते थे और न किसी को चरण छूने देते थे। चलते समय पृथ्वी पर जहाँ आपके चरण टिकते , वहाँ की भी चरणरज नहीं लेने देते थे। कभी कोई स्त्री भूल से भी चरण छू लेती तो आप भोजन करना छोङ देते थे। उपवास रख कर उसका प्रायश्चित्त करते थे। आप न तो स्त्री को छूते थे और न स्त्री को छूने देते थे। रास्ते में चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि उनका स्पर्श न हों। आपके कमरे में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था।

स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है।

आप गर्भपात करवाने का भयंकर विरोध करते थे। जिस घर में एक स्त्री ने भी गर्भपात करवा लिया हो, तो आप उस घर का अन्न नहीं लेते थे और जल भी नहीं लेते थे। 

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अधिक जानकारी के लिये "महापुरुषोंके सत्संगकी बातें" (संत डुँगरदास राम) नामक पुस्तक पढ़ें 
 https://drive.google.com/file/d/1kog1SsId19Km2OF6vK39gc4HJXVu7zXZ/view?usp=drivesdk
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