गुरुवार, 24 नवंबर 2022

अपनेको कृपापात्र या अनुयायी लिखवाना अनुचित है

               ।।श्रीहरिः।। 

अपनेको कृपापात्र या अनुयायी लिखवाना अनुचित है

   आज मेरे सामने एक भागवत कथा का पेंपलेट (पन्ना) आया है, जिसमें लिखा हुआ है कि श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज के अनुयायी के श्रीमुख से (भागवत कथा)। 
    यह काम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के सिद्धान्तों के खिलाफ है। ऐसा नहीं करना चाहिये। अपने को श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज का अनुयायी लिखवाना उनकी विचारों के विपरीत है। इसके लिये श्री स्वामी जी महाराज ने साफ मना किया है।
   उनके "मेरे विचार" के पन्द्रहवें सिद्धान्त (विचार) में भी लिखा है कि 
१५. जो वक्ता अपनेको मेरा अनुयायी अथवा कृपापात्र बताकर लोगों से मान-बड़ाई करवाता है, रुपये लेता है, स्त्रियोंसे सम्पर्क रखता है, भेंट लेता है अथवा वस्तुएँ माँगता है, उसको ठग समझना चाहिये। जो मेरे नामसे रुपये इकट्ठा करता है, वह बड़ा पाप करता है। उसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है। —श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज। 
   इसके पहले सिद्धान्त में श्री स्वामी जी महाराज ने लोगों से अपील की है कि कोई ऐसा करता हो तो उसको रोकें- 
१. वर्तमान समय की आवश्यकताओंको देखते हुए मैं अपने कुछ विचार प्रकट कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अगर कोई व्यक्ति मेरे नामसे इन विचारों, सिद्धान्तोंके विरुद्ध आचरण करता हुआ दिखे तो उसको ऐसा करनेसे यथाशक्ति रोकनेकी चेष्टा की जाय । ■ 
  (इससे यह भी समझना चाहिये कि इसको देखकर जो लोग इस काम को रोकते नहीं, उपेक्षा करते हैं या सहन करते हैं, वे भी उचित नहीं कर रहे हैं)
     ये "मेरे विचार" वाले सिद्धान्त श्री स्वामी जी महाराज की पुस्तक "एक संतकी वसीयत" के पृष्ठ संख्या १२ व १३ में भी छपे हुए हैं। 
   एक बार श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के साथ में रहनेवाले एक साधू को सूरत (गुजरात) वालों ने भागवत कथा के लिये बुलवाया और उनके प्रोग्रामवाले पेंपलेट (पन्ने) में (कथाकार को कृपापात्र बताते हुए) श्री स्वामी जी महाराज का नाम छपवा दिया। वो पेंपलेट जब श्री स्वामी जी महाराज के सामने पहुँचा तो उसको देखकर श्री स्वामी जी महाराज जी ने इस काम का भयंकर विरोध किया। फिर वहाँ के (सूरतवाले) लोगों ने वो पेंपलेट बन्द करवा दिया। उस पन्ने को लोगों में बाँटा नहीं। उनको पश्चात्ताप करना पङा। 
   इसलिये ये पेंपलेट भी बन्द होने चाहिये। कथाकार को भी समझाना चाहिये कि आइन्दा ऐसा न करें।  

जय श्रीराम 

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   ऐसे ही एकबार श्री स्वामी जी महाराज के साथ में रहनेवाले किसी सज्जनने अपने (जोधपुरवाले) सत्संग- प्रोग्रामके पत्रक (पैम्पलेट) में लिखवा दिया कि यह आयोजन श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज के विशेष अनुग्रहसे हो रहा है। 

   यह बात जब श्री स्वामी जी महाराजके पास पहुँची, तब (दिनांक २८|११|२००२_१५३० बजे- 20021128_1530_QnA वाले प्रवचन में) श्री स्वामी जी महाराजने जोरसे मना किया कि यह मेरा नाम लिखना नहीं चाहिये। कभी नहीं लिखना चाहिये मेरा नाम। इससे मैं राजी नहीं हूँ। बुरा लगता है। मेरेको अच्छा नहीं लगता। भरी सभामें श्री स्वामी जी महाराज बोले कि आप सबको कहता हूँ– कोई भी ऐसा करे तो उसको ना करदो कि नहीं, यह स्वामीजीके कामका नहीं है। मेरेसे बिना पूछे फटकार दो उसको। अनुचित लिखनेवाले अखबारवालोंको मना करना चाहिये। सबको अधिकार है ना करनेका। 

   मैं इतने वर्षोंसे फिरता हूँ; परन्तु सेठजीने कभी मेरेको ओळभा (उपालम्भ) नहीं दिया। मैं सेठजीको श्रेष्ठ मानता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं है। लेकिन कभी सेठजीने ओळबा नहीं दिया कि आपने ऐसा कैसे लिख दिया। नाम तो कहता सेठजीका ही, आज भी कहता हूँ। सेठजीका कहता हूँ, भाईजीका कहता हूँ [परन्तु कभी ऐसे दुरुपयोग नहीं किया]। कितने वर्ष घूमा हूँ, कभी ओळभा नहीं दिया (सेठजीने)। मैंने ऐसा काम किया ही नहीं, ओळबा क्यों देते कि यह ठीक नहीं किया है। ■ 
[इस प्रकार हमलोगों को इन बातों को समझना चाहिये और कोई महापुरुषों के सिद्धान्त के विपरीत काम करे, तो यथासाध्य रोकने की चेष्टा करनी चाहिये। ]