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गुरुवार, 18 जून 2020

यथावत् लेखन प्रवचनों के अंश।(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यथावत् लेखन किये गये प्रवचनों के चुने हुए, दिनांक सहित अंश)।

                       ।। श्रीहरि:।।


यथावत्- लेखन प्रवचनों के अंश।  

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के यथावत् लेखन किये गये प्रवचनों के चुने हुए, दिनांक सहित अंश)। 


यथावत्- लेखन प्रवचनों के अंश (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के रिकोर्डिंग- प्रवचनों के अनुसार यथावत् लिखे हुए वाक्यों के कुछ अंश)।

जब हम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज के 'ओडियो रिकार्डिंग वाले' प्रवचन सुनते हैं तो उनमें कई बातें बहुत बढ़िया लगती है और मन करता है कि बार-बार सुनें। बाद में भी जब कभी दुबारा उस बात को सुनने का मन होता है और प्रवचन सुनना शुरु करते हैं तो उस बात को खोजने में समय लगता है। वो बात अगर अलग से लिखी हुई होती है तो सुगमता से मिल जाती है। लिखी हुई बात को बार-बार पढ़कर उस पर विचार करना भी सुगम हो जाता है। फिर विचार आता है कि इस बात को श्रीस्वामीजी महाराज बोले तो ऐसे ही हैं न? बोलने में और इस लिखे हुए में कोई फर्क तो नहीं है? कई बार लिखने में भूल भी हो जाती है और कभी-कभी लिखनेवाला अपनी समझदारी लगाकर वाक्य को बदल भी देता है। लेकिन ऐसे लेखन पर श्रद्धा नहीं बैठती। पता नहीं लगता कि श्रीस्वामीजी महाराज का यहाँ कहने का भाव क्या था। कई बार 'लेखन' और 'आडियो रिकार्डिंग' का मिलान करते हैं तो जैसा श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं, वैसा नहीं मिलता, अन्तर (फर्क) आता है। श्रीस्वामीजी महाराज जैसा वाक्य बोले हैं, वैसा लिखा हुआ नहीं मिलता, वाक्य बदला हुआ मिलता है। कभी-कभी तो वो लेखक पूरे वाक्य को ही छोड़ देता है और आगे बढ़ जाता है। तो ऐसे में विश्वास नहीं होता कि यह लेखन भी यथावत् है या नहीं। इससे वास्तविक बात का पता नहीं लगता, श्रीस्वामीजी महाराज की बात का रहस्य छूट जाता है। वो रहस्य तब समझ में आता है कि जब रिकोर्डिंग के अनुसार ही यथावत् लिखा हुआ हो, उसमें एक शब्द और मात्रा आदि का भी हेर- फेर न किया गया हो।

उससे भी बढ़िया तब समझ में आता है कि उस रिकोर्डिंग को ही ध्यान से सुना जाय।
ऐसे सुनकर समझा जाय तो बात बहुत बढ़िया समझ में आती है। बहुत लाभ होता है।
कभी-कभी सुनने की सुविधा न हो तो लिखी हुई बात को पढ़कर भी समझा जा सकता है। परन्तु लिखी हुई बात वैसी- की वैसी ही होनी चाहिये जैसी कि श्रीस्वामीजी महाराज बोले हैं। लिखने में हेर-फेर नहीं होना चाहिये। रिकोर्डिंग के अनुसार ही, यथावत् लेखन होना चाहिये।

यथावत् लेखन में जितनी कमी रहेगी, उतनी ही अथवा उससे भी अधिक समझने में कमी रहेगी। बात को यथावत् समझना हो तो लेखन भी यथावत् होना चाहिये।

यहाँ ऐसी ही बढ़िया और मार्मिक बातों को यथावत् समझने के लिये प्रवचनों के यथावत् लेखन के अंश दिये जा रहे हैं। भाई बहनों को चाहिये कि इससे स्वयं लाभ लें और दूसरों को भी बतावें।  

यथावत् लेखन एक प्रकार से दोनों की पूर्ति करता है- रिकोर्ड किये हुए प्रवचन की और लिखे हुए प्रवचन की।

[ इसमें जो लेखन के शुरु और अन्त में बङे बिन्दू दिये गये हैं, वो यह दर्शाने के लिये है कि इनके बीच के अंशों को यथावत् लिखने की कोशिश की गयी है।

प्रवचनों के दिनांक और विषय वो ही दिये गये हैं जो श्रीस्वामीजी महाराज की सत्संग- सामग्री के मूल संग्रह में थे। जहाँ एक ही प्रवचन में से अनेक बातें ली गयी है, वहाँ, उनकी तारीख ऊपर एक बार ही दी गयी है ]

19940702_0830_Aham Rahit Svaroop Ka Anubhav_VV

● ••• तो ये जो बात मैंने कही, ये करणनिरपेक्ष बात बताई। साधन करणनिरपेक्ष होता है, वो स्वयं से होता है, चित्त की वृत्तियों से नहीं होता। चित्त की वृत्तियों को (के) साथमें साधन किया जाय, वो करणसापेक्ष है। करणनिरपेक्ष कह सकते हैं पण करणरहित नहीं कह सकते। ••• (यथावत् लेखन) ●



19940605_1600_Aham Ka Tyaag_VV
● ••• जो संसार में है वो परमात्मा है, इस शरीर में है वो आत्मा है। आत्मा र परमात्मा एक है। इसमें फर्क नहीं है। और मैं तू यह र वह, सऽऽब अनात्मा है। ये खास जाणने
की बात है।
जबतक अहम् साथ में नहीं लगेगा तबतक आप कोई व्यवहार नहीं कर सकोगे। व्यवहार करोगे तो अहम् साथ में लगेगा। इन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि, ये सब मिलकर काम करेंगे। और इस काम करणे को आप अपणे मानलें कि मैं कर्ता हूँ तो आपको भोक्ता बणणा पङेगा ,सुख दुख भोगणा ही पङेगा। तो [क्योंकि] कर्ता होता है वो ही भोक्ता होता है। तो ये स्वाभाविक नहीं है अस्वाभाविक है। इस वास्ते ये मिट ज्यायगा; क्योंकि ये है नहीं और जो आत्मा है र परमात्मा है, वो है। ये मिटेगा नहीं कभी। इसकी प्राप्ति हो ज्यायगी। जो मिटता है र अस्वाभाविक है, इससे आप विमुख हो ज्याय, अपणे स्वरूप का बोध हो ज्यायेगा। सीधी, सत्य बात है। तो वो 'है मात्र्' आपका रूप है- है मात्र्। है तत्त्व, उसमें स्थति सम्पूर्ण प्राणियों की है। (यथावत् लेखन) ●

19940530_0830_Ahamkar Kaise Mite Saadhan Kaunsa Kare
● ••• बङे- बङे ग्रंथों में समाधि और व्युत्थान- दो अवस्था लिखी है; परन्तु वास्तव में जो समाधि है, उसमें व्युत्थान नहीं होता है अर व्युत्थान होता है वो योग की समाधि है, तत्त्वज्ञान की समाधि वो नहीं है, जिससे व्युत्थान होता हो। वो समाधि हो गई तो हो गई हो गई , सदा के लिये हो गई। उसको सहजावस्था कहा है।
उत्तमा सहजावस्था मध्यमा ध्यान धारणा।
कनिष्ठा शास्त्रचिन्ता च तीर्थयात्राऽधमाऽधमा।।
(यथावत् लेखन)
● ••• तो मैं एक बात बताता हूँ- अहंकार दूर नहीं होता, मैं एक बात बताता हूँ- आप जिसको सुगमता से कर सकते हैं, उसी साधन को करो। उसका नतीजा ठेठ पहुँच ज्यायगा। जो होता नहीं, उसको तो करने के लिये हिचकते हैं, जो कर सकते हैं वो करते नहीं है- ये बाधा है, खास। (यथावत् लेखन)

● ••• चित्तवृत्तियों का निरोध हो ज्याय, योग हो ज्यायगा। यह पातञ्जलयोग होगा और गीता कहते हैं- समत्वं योग उच्यते, एकाग्र हो और न हो, अपने कोई मतलब नहीं, योग हो गया गीता जी का। जैसे कोई कहणा मानें, न मानें। अपणे छोड़ दिया, जै रामजी की, खुशी आवे ज्यूँ करो। ऐसे आप भगवान् के सामने हो ज्याओ, भक्तियोग हो गया। तटस्थ हो ज्याओ , ज्ञानयोग हो ज्यायगा अर संसार के हित में लगा दो, कर्मयोग हो जायेगा। ये बात है। (यथावत् लेखन) ●


19940526_1600_Aham Ka Tyag
● ••• तो बुद्धि और अहम् एक है। और भेद करें, तो अहम् की बुद्धि है, बुद्धि का अहम् नहीं है मानो मेरी बुद्धि - ऐसे कहनेवाला अहम् है। तो अहम् से हम अलग हो जाय ,तो वे, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, सब ठीक हो जायेगा। एकदम। तो अहम् से हम अलग है- यह अनुभव हो ज्याय, केवल बातूनी ज्ञान से काम ठीक नहीं होता ••• (यथावत् लेखन) ●

● ••• बङी बात वो है जो अहम् से रहित आपको अपणे का अनुभव हो ज्याय। कह, वो अनुभव कैसे हो ? वो ऐसे हो, क अहंकार आता जाता है, आप आते जाते नहीं हो, आप निरन्तर रहते हो और अहंकार जाग्रत में, स्वप्न में आता है और सुषुप्ति में जाता है, लीन हो ज्याता है ; पण आप आने जाने वाले नहीं हो। आणे जाणे वाले वे अनित्य होते हैं (नित्य नहीं होते हैं)••• (यथावत् लेखन) ●

(ज्ञान अज्ञान का नाशक होता है, तत्त्व का प्रापक नहीं। अज्ञान का नाश करके स्वयं शान्त हो जाता है, स्वरूप रह जाता है। स्वयं भी ज्ञान स्वरूप है। [ ज्ञान दो प्रकार के हुए ] )।

19940419_0518_Sharnagati.
{ एक अहम् अभिमान रूप होता है, वो तो पतन करनेवाला है, एक अहम् कर्तव्यबोध कराता है, (मैं अमुक हूँ, आदि स्वाभिमान वाला)}।

● ••• बदल देने में, भगवान् का हूँ, यह बढ़िया है, परन्तु बहोत बढ़िया है कि मैं संसारी नहीं हूँ।जङता के साथ निषेधात्मक साधन है, बढ़िया बनता है। विध्यात्मक इतना बढ़िया नहीं है, जितना निषेधात्मक है। मैं संसारी नहीं हूँ, मैं भोगी नहीं हूँ••• (यथावत् लेखन) ●

19920529_0518_Aham Nash Ki Avashyakta
● ••• प्रकृतिरष्टधा (गीता ७|५) इस अहम् में स्थित है वो प्रकृतिस्थ है। वो ही भोक्ता बनता है, मान अपमान का, सुख दुःख का, निन्दा अस्तुति का,अनुकूल- प्रतिकूलता का, भोग भोगता है और सुखी दुखी होता है। यह अहम् होता है। अहम् में अपणी स्थिति होणे से आप स्वयं, सुखी और दुखी होते हैं ।राजी और नाराज़ होते हैं। तो वे राजी र नाराजी मैं-पन से होते हैं। मैं- पन को न पकङे तो 'सम दुखसुखः' (गीता १४|२४), सुख दुःख में समता हो ज्यायगी, जैसे सुख है वैसे ही दुःख है, जैसा दुःख है वैसे ही सुख है, जैसा लाभ है वैसी ही हानि है, जैसी हानि है वैसे ही लाभ है, जैसा संयोग है वैसा ही वियोग है, जैसा वियोग है वैसा ही लाभ है, सम हो जायेंगे। और अहंकार रहेगा तबतक सम नहीं होंगे। (यथावत् लेखन) ●

19900713_0518_Sharnagati Aur Seva.mp3
● ••• भक्तियोग एक ऐसी चीज है कि यह केवल (अकेला) भी कल्याण करने वाला है और कर्मयोग के साथ लगा दो ज्ञानयोग के साथ लगा दो तो भी कल्याण करने वाला है (यथावत् लेखन) ●

श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने दिनांक
19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup ... वाले प्रवचन में बताया कि-
● ... शामको कीर्तन करते हो,कीर्तन के बाद (में) मैं चुप होता हूँ,उस चुप में आप निर्विकल्प हो जाओ, परमात्मा में स्थिति बहुत सुगमता से हो जायेगी। कीर्तन करते-करते परमात्मा में स्थिति हुई, परमात्मा का चिन्तन हुआ और फेर (फिर) कुछ नहीं चिन्तन करो (कुछ भी चिन्तन मत करो)। वो कीर्तन आपके भीतर बैठ जायेगा। एकदम भीतर जम जायगा। उससे निर्विकल्पता स्वत: होगी। ऐसे जागते हो जब नींद से, उसके बाद थोड़ी देर चुप रहो। तो आपकी स्थिति परमात्मस्वरूप में हो जायेगी। नींद लेते समय - आरम्भ में,बिछौने पर बैठ गये, कुछ देर शाऽ ऽ ऽन्त (शान्त हो जाओ)। कुछ भी चिन्तन न करके सो जाओ। (अस्पष्ट- सुबह उठते ही न चिन्तनकर्ता) आपके साथमें कारण शरीर तक पहुँच जायेगा। तो उससे परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी। इतना सुगम साधन है,बढ़िया साधन है। 19900608_0830_Jagrit Mein Sushupti Kaise Ho Chup (नामक प्रवचन का यथावत् लेखन अंश) ● ••• ।

{ इस प्रवचन में और भी कई बातें बताई गयी है।
...सब शक्ति अक्रिय तत्त्व से मिलती है। अक्रिय, निर्विकल्प हो जाने से आप में बहुत शक्ति आ जायेगी। काम,क्रोध आदि (मिटाने की शक्ति आ जायेगी)।
...तो मन लगाना इतना दामी नहीं है,जितना राग-द्वेष हटाना दामी है}।

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05-04-1887_0518 - AM
(जबतक जङता का सङ्ग बुरा न लगे, तबतक जङता का त्याग नहीं होता और बुरा लगने से त्याग स्वतः होता है, स्वाभाविक ।

देखो ! जङता होती है न , वो चेतन का विषय होती है )।
● ••• जङ । चेतन ही कह सकता है (कि) यह जङ है, जङ नहीं कह सकता (कि) यह चेतन है। जङ में यह ताकत नहीं कि वो चेतन को बता सके और चेतन में जङ को बताने की शक्ति बरोबर है । तो आधिपत्य चेतन का है । इसको स्वीकार करले और जङ तो परिवर्तनशील है, बदलता रहता है । इसका त्याग कैसे करें? त्याग तो स्वतः होता है भाई ! इसको रखणा मुश्किल है, पकङणा मुश्किल है । अब बाळकपणा छोङा तो जवानी पकङली, जवानी छोङी तो वृद्धापण पकङ लिया। वो छोङा तो मृत्यु को पकङ लिया। मृत्यु को पकङ लिया फिर जङ में (जङता) को पकङ लिया। तो ये जङता तो हरदम जा रही है, केवल आप पकङणा छोङदें तो जङता तो छूट ज्यायगी, जङता तो रह सकती (ही) नहीं, जङता में ताकत नहीं है रहणे की । आप पकङते हैं, पकङना छोङदो तो छूट ज्यायगी ।
ये मेरी बात समझमें आती है क नहिं? (यथावत् लेखन) ●


17-07-1986-0618-AM

● ••• दूजी बात, एक मार्मिक बताता हूँ । उस तरफ भाई बहनों का ध्यान बहोत कम है । आप कृपा करके ध्यान दें । अपणे भजन- स्मरण करके भगवान् का चिन्तन करके, दया, क्षमा करके जो साधन करते हैं । ये जो करके साधन करते हैं , इसकी अपेक्षा भगवान् की शरण होणा , तत्त्व को समझणा और ये करणे पर जोर नहीं देणा, करणे से परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है, इणका त्याग करके एक शरण होणा, एक परमात्मा में लग ज्याणा अर उसके नाम का जप करो, कीर्तन करो , भगवान् की चर्चा सुणो, भगवान् की बात कहो- ये करणे की है। और दूजा करणे का ऊँचा दर्जा नहीं है । जैसे दान करो, पुण्य करो, तीर्थ करो, ब्रत करो, होम करो, यज्ञ करो। ये सब अच्छी बातें है; परन्तु ये दो नम्बर की बातें हैं ।

निष्कामकर्मानुष्ठानं त्यागात्काम्यनिषिद्धयोः।

काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना और निष्काम भाव से सबकी सेवा करना है।

तत्रापि परमो धर्मः जपस्तुत्यादिकं हरेः।।

भगवान् के नाम का जप करणा, स्तुति करणा, भगवान् की चर्चा सुणणी, कथा कहणी, कथा सुणणी, भक्तों के, भगवान् के चरित्रों का वर्णन करणा- ये काम मुख्य करणे का है।

और इसमें थाँरे पईसे री जरुरत कोनि । यज्ञ करो तो , दान करो तो , पुण्य करो तो, उपकार करो तो पईसा री जरुरत है । तो जिणके पास पईसा है, उनको यह करणा चाहिये, टैक्स है उन पर। नहीं करते हैं तो गलती है । पैसा रखे अर दान पुण्य नीं करे -

धनवँत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।
भगति करे नहिं भगतङा अब कीजै कौण उपाव।।
कीजै कौण उपाय सलाह एक सुणलो म्हारी।
दो बहती रे पूर नदी जब आवै भारी।।
जाय गङीन्दा खावता धरती टिकै न पाँव।
धनवत धरमज ना करे अर नरपत करै न न्याव।।

तो धर्म, दान, पुण्य करणा कोई ऊँचे दर्जे की चीज़ नहीं है; पण पईसा राखे है, वाँरे वास्ते टैक्स है । नीं करे तो डण्ड होगा । तो डण्ड से बचणे के लिये ये काम करणे का है । भाई, पईसा ह्वै तो इयूँ करलूँ, इयूँ करलूँ । कहीं कुछ नहीं होता । पईसा है तो वे लगाओ अच्छे काम में । नहीं तो थाँरे फाँसा घालसी , पईसा थाँरा अठैई रहई अर डण्डा थाँरे पङसी, मुफत में, अर पईसा खा ही मादया भाई- दूजा । डण्डा थाँरे पङसी। इण वास्ते ए खर्च करणा है ।

करणे रो काम तो भगवान् रे नाम रो जप करो, कीर्तन करो, सत्संग करो, स्वाध्याय करो, कथा पढ़ो , भगवान् री कथा पढ़ो, सुणो, भगतों की कथावाँ सुणो, पढ़ो । ये पवित्र करणे वाळी चीजें हैं और मुफत में पवित्र कर देगी, कौङी- पईसा लागे नहीं, परतन्त्रता है नहीं । और फेर निरर्थक और निषिद्ध काम बिल्कुल नहीं करणा है कोई तरह से ई । ये जितना अशुद्ध ••• ●
(आगे की रिकोर्डिंग कट गई)।

(- श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के सतरह जुलाई, उन्नीस सौ छियासी, प्रातः पाँच (0618) बजे वाले प्रवचन के अंश का यथावत् लेखन)।


30-3-1988-0830-AM
● ••• तो पहले से भूख लगी होती है उसके सत्संग का असर ज्यादे (ज्यादा) होता है,विलक्षण होता है। परन्तु बिना भूख भी सत्संग करता है उसपर असर जरूर होता है। इसमें सन्देह नहीं। (यथावत् लेखन) ● +++

● ••• अच्छा सत्संग मिलता कठिन है। सत्संग के नाम से तरह- तरह की कथाएँ होती है। परन्तु वास्तविक सत्संग कम मिलता है। मिलता है तो उसका असर हुए बिना रहता ही नहीं। ऐसी बात है। (यथावत् लेखन) ●। +++

● ••• और तो क्या कहें! हरेक जगह सत्संग वो कर नहीं सकेगा। थोङा- सा - क समझा है और उस विषय में गहरा उतरा है तो उसकी विलक्षण अवस्था होती है । हरेक जगह वो बैठ जाय, हरेक उसको अपनी तरफ खैंच ले। यह नहीं होता ।

आपने ध्यान दिया (क्या)? मानो सत्संग के संस्कार भीतर में स्थायी रूप से ही रहते हैं, मिटते नहीं है। वास्तविक सत्संग जिनको मिलता है, उनकी वास्तविकता विलक्षण होती है। हरेक कथा में मन नहीं लगेगा। और हरेक कथा में मन लगता है तो अभी तक असली सत्संग मिला नहीं है। (यथावत् लेखन) ● •••

( मेरे सामने कई ऐसे अवसर आये हैं। एक भाई ने कहा था - कोई तीस चालीस वर्षों से ऊपर की बात है मानो दो हजार संमत से पहले की बात है। उन (उस) भाई ने कहा कि हमारे को बहुत महात्मा मिले (हैं)। तो मैंने कहा कि तुम्हारे को एक महात्मा भी नहीं मिला। एक भी मिलता तो दूसरे के पास क्यों जाते?! बहुत कैसे मिल सकते हैं?। बहुत मिले- इसका अर्थ है कि एक भी नहीं मिला। बहुतों -से (कोई) मुर्दा थोङे ही उठाना है। पारमार्थिक बात लेना है••• एक सैंकङों सगाई ही नहीं हुई है । उसको कोई रोक नहीं सकता। प्रह्लाद और मीराँबाई को कोई रोक नहीं पाया। मेरे को भी रोका है।प्रेम से और धमका के भी (मैं नहीं रुका)। वो हरेक सत्संग में टिक नहीं सकता। बालक को माँ मिल जाती है तो छोङता है क्या? )

2-5-1987_0830
( दो तरह की इच्छायें। एक स्वयं को लेकर और एक शरीर आदि को लेकर। मुक्ति की, प्रेम की परमात्मा की इच्छा स्वयं की और भोजन आदि की इच्छा शरीर की )।
॰॰॰
● ••• पार्माथिक इच्छा है,वो पूरी ही होती है, मिटती है ही नहीं और संसार की इच्छा मिटती ही है,पूरी होती ही नहीं। ऐसी मार्मिक बात कहता हूँ मैं । (वो, उसको) लिखलो आप, अभी बोलना नहीं है। सांसारिक इच्छा है वो पूरी होती ही नहीं (यथावत् लेखन) ●