शुक्रवार, 27 जून 2014

सूक्ति १०१-२०१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि-)।


                                          

                                               ||श्रीहरिः||          

                                    ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                             -:@दूसरा शतक (सूक्ति १०१-२०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |

एक बारकी बात है कि मैंने(डुँगरदासने) 'परम श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'को 'राजस्थानी कहावतें'नामक पुस्तक दिखाई कि इसमें यह कहावत लिखि है,यह लिखि है,आदि आदि| तब श्री महाराजजीने कुछ कहावतें बोलकर पूछा कि अमुक कहावत लिखी है क्या? अमुक  लिखी है क्या? आदि आदि:
देखने पर कुछ कहावतें तो मिल गई और कई कहावतें ऐसी थीं जो न तो उस पुस्तकमें थीं और न कभी सुननेमें ही आयी थीं |
उन दिनों महाराजजीके श्री मुखसे सुनी हुई कई कहावतें लिख ली गई थीं और बादमें भी  ऐसा प्रयास रहा कि आपके श्रीमुखसे प्रकट हुई कहावतें, दोहे, सोरठे, छन्द, सवैया, कविता, साखी आदि लिखलें;
उन दिनोंमें तो मारवाड़ी-कहावतोंकी मानो बाढ-सी आ गई थीं;कोई कहावत याद आती तो पूछ लेते कि यह कहावत लिखी है क्या |
इस प्रकार कई कहावतें लिखी गई |
इसके सिवा श्री महाराजजीके सत्संग-प्रवचनोंमें भी कई कहावतें आई है |

महापुरुषोंके श्रीमुखसे प्रकट हुई सूक्तियोंका संग्रह एक जगह सुरक्षित हो जाय और दूसरे लोगोंको भी मिले-इस दृष्टिसे कुछ यहाँ संग्रह करके लिखी जा रही है |
इसमें यह ध्यान रखा गया है कि जो सूक्ति श्री महाराजजीके श्रीमुखसे निकली है उसीको यहाँ लिखा जाय |
कई सूक्तियोंके और शब्दोंके अर्थ समझमें न आनेके कारण श्री महाराजजीसे पूछ लिये थे, कुछ वो भी इसमें लिखे जा रहे हैं -   

सूक्ति-
१०१-

कलियुग आयो कूबजी भागी धरमरी की धुर |
पहले चेला आवता अब पधारै गुर ।|

शब्दार्थ-
धुर (धुरी,रथ आदिके पहियेका मजबूत धुर ) |

सूक्ति-
१०२-

कलियुग आयो कूबजी बाजन्ताँ ढ़ोलाँ |
पहले बाह्मण बाणियाँ पीछे आयौ  गोलाँ।

सूक्ति-
१०३-्

काँदा खादा कमधजाँ (अर) घी खादो गोलाँ |
चूरू चाली ठाकराँ बाजन्ताँ ढोलाँ ||

शब्दार्थ-
कमधज (युध्दमें जूझनेवाले वो प्रचण्ड वीर , जो मस्तिष्क कटने पर भी युध्द करते रहते हैं , जूझते रहते हैं ,जुझार ,कबन्ध ) |

सूक्ति-
१०४-

जिसके लागी है सोई  जाणे 
दूजा क्या जाणेरे भाई ।
दूजा क्यूँ जाणेरे भाई |

सूक्ति-
१०५-

भूमा अचल शाश्वत अमल
सम ठोस है तूँ सर्वदा |
यह देह है पोला घड़ा
बनता बिगड़ता है सदा ।|

शब्दार्थ-
भूमा (महान) , शाश्वत (सदासे) |

सूक्ति-
१०६-

प्रहलाद कहता राक्षसों !
हरि हरि रटौ संकट कटे |
सदभाव की छौड़ो समीरण
विपतिके बादळ फटे ।|

शब्दार्थ-
समीरण (हवा ,पवन ; सद्भावरूपी हवासे विपतिरूपी बादल छिन्न-भिन्न होजाते हैं , नष्ट हो जाते हैं ) |

सूक्ति-
१०७-

स्वारथ शीशी काँच की पटकै जासी फूट |
परमारथ पाको रतन परतन दीजै पूठ ।|

शब्दार्थ-
पटकै ( १.तुरन्त , जैसे काँचके बर्तनके चौट लगते ही पट फूट जाता है | २.पटकने पर )|

सूक्ति-
१०८-

तिलकी औटमें पहाड़ |

सूक्ति-
१०९-

करणी आपौ आपकी।
नहीं किसीके बापकी।।

सूक्ति-
११०-

आजा राम हबौळाँमें ।

शब्दार्थ-
हबौळा (तरंग,लहर) |

सूक्ति-
१११-

रामजी की चिड़ियाँ रामजी का खेत |
खावो (ये) चिड़ियाँ भर भर पेट ।|

सूक्ति-
११२-

बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस।
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास।।

शब्दार्थ-
पसारा (विस्तार) |

सूक्ति-
११३-

कपटी मित्र न कीजियै पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखायकै पीछे धक्का देत।।

शब्दार्थ-
पैठि (प्रवेश करके) |

सूक्ति-
११४-

बाबा तेरे द्वारे देखा मैंने एक नजारा।
देनेवाला देता जाये लेनेवाला हारा।।

शब्दार्थ-
नजारा (दृश्य ) |

सूक्ति-
११५-

भगवानकी विचित्र कृपा-
(भगवान् कहते हैं-)
कि जो मेरा भजन करता है,उसका मैं सर्वनाश कर देता हूँ,पर फिर भी वह मेरा भजन नहीं छोड़ता तो मैं उसका दासानुदास (दासका भी दास) हो जाता हूँ-

जे करे अमार आश,तार करि सर्वनाश |
तबू जे ना छाड़े आश,तारे करि दासानुदास ||

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी 'अनन्तकी ओर'पुस्त्कसे |

(जे कोरे आमार आश।
तार कोरि आमि सर्वनाश।।
तारपोरेओ जे ना छाड़े आमार आश।
तार होई आमि दासेर दास।। ) |

सूक्ति-
११६-

दो (देवो) खीरमें हाथ।

सूक्ति-
११७-

जठै पड़े मूसळ। बठेई खेम कुसळ।।

सूक्ति-
११८-

आँधे आगे रोवो अर नेण गमावो।

सूक्ति-
११९-

पाणी पीजै छाणियो।
गुरु कीजै जाणियो।।

शब्दार्थ-
जाणियो (जाना-पहचाना हुआ , परिचित ) |

सूक्ति-
१२०-

भाटी ! तूँ भाटे जैसो मोटे परबत माँयलो।
कर राखूँ काटो शिवजी कर सेवूँ सदा।।

सूक्ति-
१२१-

………गुरु मोती दरियाव।
लाज न मारे इष्टको भावै जहाँ (तहाँ) फिरि आव।।

सूक्ति-
१२२-

हरि भजरे हरिदासिया ! हरिका नाम रतन।
पाँचूँ पाण्डू तारिया कर दागियौ करण।।

शब्दार्थ-
कर दागियौ (हाथ पर दाह क्रिया की ) , करण (कर्ण , कुन्तिपुत्र ) |

कथा-

अन्त समयमें कर्णनें भगवान् श्री कृष्णसे यह वरदान माँगा था कि मेरी अन्त्येष्टि (दाह क्रिया) अदग्ध-भूमिमें हो अर्थात् मेरे को वहाँ जलाया जाय , जहाँ पहले किसीको भी न जलाया गया हो | उसके अनुसार भगवानने जहाँ भी अदग्ध-भूमि देखकर दाहक्रिया करनी चाही , वहाँ पता लगा कि यह अदग्ध नहीं है | यहाँ तो सौ वार भीष्म जल चूके हैं , तीनसौ वार द्रोणाचार्य जल चूके और हजार वार दुर्योधन जल चूका तथा कर्णके जलनेकी तो गिनती ही नहीं थी |
अब भगवान विचार करने लगे कि इनको कहाँ जलावें ? पृथ्वी पर तो कोई जगह बिना जली हुई मिली नहीं मेरा दाहिना हाथभी राजा बलीसे दान लेनेके कारण जला हुआ है |
( जैसे-
जिह्वा दग्धा परान्नेन हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् |
परस्त्रीभिर्मनो दग्धं कथं सिध्दिर्वरानने ! ||
अर्थात्  पराये अन्नसे  जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | अब हे पार्वती !  सिध्दि कैसे हो ! अर्थात् इसलिये मनोरथसिध्दि नहीं होती , (कोई अनुष्ठान किया जाता है तो मन लगाकर , जीभके द्वारा जपकरके या बोल करके तथा हाथोंके द्वारा ही तो किया जाता है ! और ये तीनों ही जले हुए हैं तो कार्यसिध्दि कैसे हों? नहीं होती) |

इससे लगता है कि पार्वतीजीने भगवान शंकरसे पूछा है कि महाराज ! अपने मनकी चाहना पूरी करनेके लिये , मनोरथ पूरा करनेके लिये लोग मन लगाकर जप करते हैं , शुभकाम करते हैं ; परन्तु उनका मनोरथ पूरा क्यों  नहीं होता , उनको सिध्दि क्यो नहीं मिलती ? |
तब शंकर भगवानने जवाब दिया कि
पराये अन्नसे (उनकी) जीभ जल गयी और प्रतिग्रह (दान) लेनेसे हाथ जल गये तथा परायी स्त्रीमें मन लगानेसे मन जल गया | इसलिये हे पार्वती ! अब सिध्दि कैसे हो ! मन, वाणी और हाथ जल जानेके कारण उनके मनचाही पूरी नहीं होती) |
तब भगवानने अपने बायें हाथ पर कर्णकी दाह क्रिया की |
इस प्रकार भगवानने जो काम पाण्डवोंके लिये  भी नहीं किया , वो कर्णके लिये किया | पाण्डवोको भवसागरसे पार कर दिया , पर कर्णको तो अपनी हथैलीमें दागा | इसलिये कोई भी रतनस्वरूप  भगवानका नाम लेता है , भगवानको भजता है , तो भगवान उनको वो सौभाग्य दे-देते हैं जो पाणडव जैसे भक्तोको भी नहीं मिला )|

सूक्ति-
१२३-

कबीरो बिगड़्यो राम दुहाई।
थे मत बिगड़ो म्हारा भाई।।

सूक्ति-
१२४-

बगतरा बाजा है।

शब्दार्थ-
बगत (अवसर ,समय ) |

सूक्ति-
१२५-

मोटे भाई काढी कार।
सोही बीरा लारो लार।।

शब्दार्थ-
कार (मर्यादा ; कामकी शुरुआत ; कानून ,रीति ) , सोही (सभी , सारे ) |

सूक्ति-
१२६-

भाई जिताई घर।

सूक्ति-
१२७-

हींगकी गर्ज भी कौनि सधै।

सूक्ति-
१२८-

चार खुणाँरी बावड़ी भरी हबोळा खाय।
हाथी घोड़ा डूबग्या पिणियारी खाली जाय।।

(पहेलीका अर्थ-
दर्पण,आरसी)।

सूक्ति-
१२९-

कभी घी घणा , अर कभी मूठी चणा।

सूक्ति-
१३०-

रामजीरी चिड़ियाँ रामजीरो खेत।
खावौये चिडियाँ ! भर भर पेट।।

सूक्ति-
१३१-

(चोपड़ चापड़ रोटी खाले) औलण खेंचाताणी।
लक्खण तो मँगतीरा दीसै नाम धर्यो सेठाणी।।

शब्दार्थ-
औलण (लगावण ,  जिसकी सहायतासे रोटी खायी  जाती है , रोटीके साथमें खाया जानेवाला घी , दूध , साग आदि ) |

सूक्ति-
१३२-

दूध दहीरी बग बोलावै घी बरते ज्यूँ पाणी।
एक जाटणी ऊपरै वारूँ लाख सेठाणी।।

सूक्ति-
१३३-

चोपड़ चापड़ रोटी घालै ढाळै कीकर ढूके।
अखो कहे अजमालराँ कोरीने कुण कूके।।

सूक्ति-
१३४-

सूताई सिंवरण करै राली माँहीं राम।
दुनियाँरे दोजख घणो साधाँरे ओइ काम।।

शब्दार्थ-
राली (फटे-पुराने कपड़ों द्वारा बनायी हुई सौड़ ,गूदड़ी) |

सूक्ति-
१३५-

साधु विचार कर भली समझिया दिवी जगतको पूठ। पीछे देखी बिगड़ती (तो) पहलेहि बैठा रूठ।।

सूक्ति-
१३६-

तीतर ऊपर तोप नहीं दीठी दगती नराँ।
कीड़ी ऊपर कोप धारै काँई मोटा धणी।।

सूक्ति-
१३७-

हिंयो हुवै हाथ कुसंगी मिलौ किता।
चन्दन भुजंगाँ साथ काळो न लागै किसनियाँ।।

सूक्ति-
१३८-

तपेश्वरी राजेश्वरी ।
राजेश्वरी नरकेश्वरी।।

सूक्ति-
१३९-

कौन सुनै कासौं कहौं सुनै तौ समुझै नाहिं।
कहना सुनना समझना मनहीकै मन माहिं।।

सूक्ति-
१४०-

करै करावै रामजी मैं कुछ करता नाहिं।
जौ अपनेको करता मानै बड़ी चूक ता माहिं।।
(जौं अपनेको करता मानूँ बड़ी चूक मुझ माहिं )।।

सूक्ति-
१४१-

धान नहीं धीणौं नहीं नहीं रुपैयौ रोक।
जीमण बैठा रामदास आन मिलै सब थोक।।

सूक्ति-
१४२-

एक रती बिनु पाव रतीको।

शब्दार्थ-
रती (भगवत्प्रीति) |

सूक्ति-
१४३-

धजाबँध वै खेजड़ी काटि सकै ना कोय।
रामा राम प्रतापसूँ क्यों नहिं पूज्यसु होय।।

शब्दार्थ-
धजाबन्ध (जिस खेजड़ी-शमीवृक्षके ध्वज बन्धा हो ,देवस्थानवाले देवताके नाम किया हुआ वृक्ष ) |

सूक्ति-
१४४-

वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।

शब्दार्थ-
रज (वृन्दावनकी धूलि , ब्रजरज) |

कथा-

एक राजाने देखा कि एक बाबाजी वृन्दावनसे आये हैं  और उनके पास ब्रजरजसे सनी हुई गूदड़ी है | राजाने सोचा कि गूदड़ी खरीदलें | बाबाजीके ना करनेपर ज्यादा रुपये देनेके लिये कहा ; फिर भी इन्कार करते गये और राजा मौल बढाते गये | अन्तमें दौ लाख रुपये देनेके लिये तैयार हो गये | बाबाजीने सोचा कि गूदड़ी धूलसे भरी है ; अगर इसको धो लेंगे तो कीमत ज्यादा मिलेगी | बाबाजीने गूदड़ी धोकर राजासे कहा कि अब कितने रुपयोंमें खरीदेंगे ? राजाने खरीदनेसे इनकार कर दिया कि मैं तो ब्रजरजके कारण ही खरीद रहा था ; वो नहीं है तो चाहे गूदड़ी कितनी ही बढिया और धुली हुई है तो क्या हुआ ? |
महिमा तो ब्रजरजकी है -
वृन्दावनकी गूदड़ी दैन लगै लख दोय।
रज्जब कौडी नाँ बटी जब रज डारी धोय।।

सूक्ति-
१४५-

टका धरमें टका करमें टका ही परमं पदम्।
यस्य गेहे टका नास्ति हा टका! टकटकायते।।

शब्दार्थ-
टका (रुपये-पैसे) |
यस्य गेहे……(जिस घरमें रुपये न हो… तो हा टके ! हाय रुपये ! , -इस प्रकार रुपयेकी तरफ टकटकी लग जाना |

सूक्ति-
१४६-

कोइ लठधारी कोइ मठधारी
कोइ पाँचूँ इन्द्री घसमारी।
कोइ बेलणगिरि कोइ ठेलणगिरि
खोपड़ी खोपड़ी बुधि न्यारी।।

सूक्ति-
१४७-

भेंसरा सींग भैंसनैं भारी।
तूँ तो भरले दूधरी पारी।।

शब्दार्थ-
पारी (मिट्टीकी बनी हुई एक बिना कानौंकी कलाकृति  युक्त हँडिया-हाँडी)|

सूक्ति-
१४८-

मजाल क्या है जीवरी जौ राम नाम लेवै।
पाप देवै थापरी जौ मूँडो फोर देवै।।

शब्दार्थ-
मूँडो फोर देवै (मुँह फेर देता है ,दिशा बदल देता है; मुँह फौड़ देता है ) |

सूक्ति-
१४९-

बेळाँ नहीं बिणजै सो तो बाणियोंई गिंवार |

शब्दार्थ-
बेळाँ (अवसर पर , समय पर)|

सूक्ति-
१५०-

चार दिनाँकी चाँदनी फेर अन्धेरी रात |

सूक्ति-
१५१-

अगम बुध्दि बाणियो पिच्छम बुध्दि जाट |
तुरत बुध्दि तुरकड़ो बाह्मण सपनपाट ||

शब्दार्थ-
अगम (आगे-भविष्यकी समझ , सूझ ) , पिच्छम (पश्चात , समय बीतने पर , पीछे) , सपनपाट (सीधा ,सरल ,समतल , निश्छल , न आगेवाली न पीछेवाली |

सूक्ति-
१५२-

ओ तो घररो हळ है ,
कणाँई चलाओ |

सूक्ति-
१५३-

अलूणी शिला कुण चाटे ? |

सूक्ति-
१५४-

कागाँरे बागा ह्वै तो उड़ताँरेइ दीसेनी ! |

शब्दार्थ-
बागा (पोशाक) |

सूक्ति-
१५५-

भाँगणों भाखर , अर काढणों ऊँदरो |

सूक्ति-
१५६-

माँगणेसूँ तो मौत भी कौनि मिले |

सूक्ति-
१५७-

संसाररो बायरो लेवै है |

शब्दार्थ-
बायरो (हवा , सुख , आराम) |

सूक्ति-
१५८-

कह, बोळा राम राम !
कह, बाजार गियो हो |
कह, टाबर-टोळी राजी-खुशी (है) ?
कह, भूँजाँ हाँ, अर खावाँ हाँ |

शब्दार्थ-
बोळा (जिसको कानोंद्वारा सुनायी न देता हो , बधिर)|

सूक्ति-
१५९-

एक आँख, अर बीम्हेभी फूलो |

शब्दार्थ-
बीम्हेभी (उसमेंभी) ,
फूलो  (आँखकी एक बिमारी , जिससे आँखमें सफेद-सफेदसा एक गाढा विकार चिपका हुआ दीखता है , जिससे बड़ी तकलीफ होती है , आँसू झरते रहते हैं | ऐसा कई गाय आदि पशुओंकी आँखोंमें देखनेको मिलता है , अगर कोई उसमें सुबह उठते ही आचमन करनेसे भी पहले बासी थूक लगायें तो वह फूला (रोग) मिट जाता है |

सूक्ति-
१६०-

राम राम राम राम ,
कीड़ीनगरे आग लागगी |

शब्दार्थ-
कीड़ी नगरा (चींटियोंका नगर , बिल , घर) |
कीड़ीनगरा सींचनेका , दाना-पानी देनेका बड़ा पुण्य  होता है और कीड़ीनगरेको तोड़नेका एक नगरको ,गाँवको मारनेके समान  बड़ा भारी पाप होता है |  उसमें आग लग जाय तो बड़ी दुखदायक बात है | घरमें अगर चींटियाँ आती हो , तो कीड़ीनगरा सींचनेसे वो चली जाती है |

सूक्ति-
१६१-

कह, बाबाजी !
आप और तो सब ठीक हो;
पण एक कमी (कसर)है |
कह, कौनसी कमीरे बदमाश ! ?
कह, यही | (गुस्सेवाली)|

सूक्ति-
१६२-

दो हाथाँ बीचै एक पेट है |

(पेटके लिये क्या चिन्ता करना) |

सूक्ति-
१६३-

तिल घटै, न राई बधै  |

शब्दार्थ-
बधै (बढना ) |

सूक्ति-
१६४-

साँडेमें कुसाँडो (जैसे) एवड़में ढ़ाँडो ।

शब्दार्थ-
साँडो (साथ) , एवड़ (भेड़ोंका समूह) , ढाँडो (गाय भैंस आदि बड़े पशु) |

(सूक्ति-
१६५-

आप मरौ र ठरौ (पण) म्हारे जीवरो तो भलौ करो |

(आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के 26/10/1993.3.00 बजेके सत्संगसे।

कथा-

एक खेती करनेवाली जाटनी थी । वो एक साहूकार (सेठ) के यहाँ काम करती थी ।
एक बार उसने देखा कि सेठके यहाँ सँत आये हैं। उनका बड़ा आदर किया गया है। गायका गौबर-गौमूत्र जलमें डालकर और उस पतले-पतले लेपसे मसौता लेकर सारा आँगन लीपा गया है।
सत्कार, पूजा आदि करके बड़े आदरसे भोजन परौसा गया है और घरवाले हवा कर रहे हैं।
यह देखकर जाटनीने पूछा कि आपलोग ये सब क्या कर रहे हैं?
तो घरवाले बोले कि हम अपने जीवका भला कर रहे हैं, संतोंकी सेवा करनेसे, संतोंका संग करनेसे-सत्संग करनेसे अपना(जीवात्माका) कल्याण होता है, मुक्ति होती है।
संत-महात्मा भी गीतीजीके पन्द्रहवें अध्यायका पाठ कर रहे हैं-

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

*अथ पञ्चदशोऽध्यायः*

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥१५- १॥

आदि पाठ पूरा करके (ब्रह्मार्पणम्…पत्रं पुष्पं फलं तोयम्…गीता(४/२४;९/२६;) आदि बोलकर भगवानके भोग लगा रहे हैं और प्रसाद पा रहे हैं)
प्रसाद पाकर 'जटाकटाह0'(श्री शिव ताण्डवस्तोत्रम्) आदि बोलकर, (आचमन आदि करके) संत-महात्मा वापस पधार गये।
वो जाटनी भी अपने घर आ गई।

एक दिन शीतकालमें उसके घरपर भी संत पधारे। तब उसने भी गौबर-गौमूत्रसे गाढा-गाढा आँगन लीपा (जिससे ठण्डी भी बढ गयी और संतोंको शीत लगने लग गई)।
बाकी काम करके जाटनी संतोंके हवा करने लगी (जिससे संतोंको ठण्ड ज्यादा लगने लग गई)।
संत बोले कि हमको ठण्डी लग रही है, ठण्डसे मर रहे हैं-शीयाँ मराँ हाँ । तो जाटनी बोली कि आप चाहे मरौ या ठरौ , पर हमारे जीवका तो भला करो(कल्याण करो)-थे मरौ र ठरौ, पण म्हारे जीवरो तो भलौ करो ।

-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज के

दि.19931026/3.00 बजेके सत्संग-प्रवचनके आधार पर

सूक्ति-
१६६-

राख पत , अर रखवाय पत |

शब्दार्थ-
पत (इज्जत, प्रतिष्ठा ) |

सूक्ति-
१६७-

तिलकी औटमें पहाड़ |

सूक्ति-
१६८-

दौनों हाथ भेळा कर्याँही धुपै (है) |

सूक्ति-
१६९-

मनराही लाडू तो घी कम क्यूँ ? |

शब्दार्थ-
मनराही (मनकेही, कल्पित) ।

सूक्ति-
१७०-

मिणियेसूँ मिणियो पोईजग्यो |

भावार्थ-
दौनों एक जैसेही आपसमें मिल गये ।

सूक्ति-
१७१-

जैसेको तैसा मिला ज्यूँ बाह्मणको नाई |
उण बताई आरसी ,(अर) इण तिथि वार बताई ||

शब्दार्थ-
आरसी (दर्पण) ।

सूक्ति-
१७२-

आगेतो बाबाजी फूटरा घणाँ,
अर ऊपरसूँ लगाली भभूत |

शब्दार्थ-
आगेतो (पहलसे) , फूटरा (सून्दर)।

सूक्ति-
१७३-

रब्बदा कि पाणाँ ?
इतै पट्टणा, अर इतै लाणाँ |

शब्दार्थ-
रब्ब (ईश्वर) ।

घटना-
एक पंजाबी संत (बुल्लेशाह) खेतमें क्यारीका काम कर रहे थे ,पहली क्यारीको रोककर दूसरी क्यारीमें जल ला रहे थे।
उस समय किसीने पूछा कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये कौनसा उपाय करना चाहिये?
तब वो संत क्यारी और जलका ही उदाहरण देते हुए बोले कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये कौनसी कठिनता है ! उनकी प्राप्तिके लिये अपनेको इधर(संसार) से  तो रोकना है और इधर(परमात्माकी तरफ)  लगाना है।

सूक्ति-
१७४-

डूबखातो है |

सूक्ति-
१७५-

आ तो छाछ ढुळणवाळी ही है |

सूक्ति-
१७६-

मूँडा देख-देखर टीका काढै है |

शब्दार्थ-
मूण्डा (मुख)।

सूक्ति-
१७७-

हींग लगै नहिं फिटकड़ी (अर) रंग झकाझक  आय।

सूक्ति-
१७८-

घिरत भिरतरी छाँवळी है |

सूक्ति-
१७९-

एक गुणाँ दान, अर सहस गुणाँ पुन्न |

सूक्ति-
१८०-

नंगा क्या धोवै ,
अर क्या निचौवै (निचौड़ै ?) |

सूक्ति-
१८१-

आप बाबाजी बैंगण खावै |
औराँनें प्रबोध बतावै ||

सूक्ति-
१८२-

कह, तिल किताक खा लेही?
काँईं सेर भर ?
कह, सेर भर तो साँगणियाँ समेत खालूँ |

शब्दार्थ-
साँगणियाँ (तिलवाले पौधेके लगनेवाला फल-जिसमेंसे तिलके दाने निकलते हैं,सिट्टा । साँगणियाँ खानेकी वस्तु नहीं होती है;यहाँ खानेके लिये कहनेका तात्पर्य है कि तिल तो मैं बहुत सारे खा सकता हूँ  ; सेर भरके लिये क्या पूछते हो ! सेर भरतो  सिट्टो(साँगणियाँ) समेत खा सकता हूँ। इसमें अपनी ज्यादा सामर्थ्यका परिचय दिखाया गया है)।

सूक्ति-
१८३-

बैठौड़ेरे ऊभोड़ौ पाँवणो है |

सूक्ति-
१८४-

तूँ तूँ करत मिले तूँकारो
जीकारै जीकार जुड़ै |

भावार्थ-
अगर किसीको कोई 'तूँकारा' देता है-'तूँ' कहता है तो बदलेमें 'तूँकारा' ही मिलता है और अगर 'जीकारा' देता है-'जी' कहता है तो बदलेमें 'जीकारा' मिलता है । 'जी' के बदले 'जी' कहनेसे ही तुक मिलता है 'तूँ' कहनेसे नहीं।एक तो 'जी' कहे और दूसरा 'तूँ' कहे , तो 'जी' और 'तूँ' जुड़ता नहीं , 'जी' के बदले 'जी' कहनेसे ही जुड़ता है  , तुक बैठता है ।
इसलिये कोई 'जी' कहलाना चाहे  , (आदर चाहे) , तो  पहले स्वयं 'जी' कहें (आदर करें) क्योंकि 'जी' के बदले ही 'जी' मिलता है 'तूँ' के बदले नहीं। 'जी' के बदले 'जी' ही जुड़ता है।

सूक्ति-
१८५-

पहलाँ आई दाढी ,
तो मूछाँरी जड़ बाढी।
  पहलाँ आई मूछाँ ,
तो दाढीरो काँई पूछाँ ||

शब्दार्थ-
बाढी (काटी) ।

सूक्ति-
१८६-

ढळियो घाँटी ,
अर हूग्यो माटी |

शब्दार्थ-
घाँटी (गला , भोजन नली) ।

सूक्ति-
१८७-

खरचरो भाग मोटो है |

सूक्ति-
१८८-

नित बड़ी है |

सूक्ति-
१८९-

घाटो नफो दौनों भाई है |

सूक्ति-
१९०-

अठैई एवड़रो एवाड़ो,
अर अठैई नाररी घुरी |

शब्दार्थ-
एवड़ (भेड़ोंका समूह ) , एवाड़ो (भेड़ोंके  रहनेका स्थान ,बाड़ा)। नार (भेड़िया) । घुरी (भेड़ियेके रहनेका स्थान )।

सूक्ति-
१९१-

कुण पीळा चावळ दिया हा !

सूक्ति-
१९२-

भाग फूटौड़ैनें करम फूटौड़ौई मिलै |

सूक्ति-
१९३-

पल-पलमें करे प्यार(रे) पल-पलमें पलटै परा | लाँणत याँरे लार रजी उड़ावौ राजिया ||

शब्दार्थ-
लाँणत (धिक्कार ) । याँरे लार (इनके पीछे) । रजी (धूल) ।

सूक्ति-
१९४-

घरमेंहीं चौक पूर लियौ |

सूक्ति-
१९५-

हार खादी ,अर झगड़ो मिट्यो |

शब्दार्थ-
हार खादी (हार मानी,  हार खायी) ।

सूक्ति-
१९६-

दो ठगाँ ठगाई कौनि हुवै |

सूक्ति-
१९७-

माईसूँ खाई प्यारी ह्वै |

शब्दार्थ-
माईसूँ खाई …(माँ से अधिक खानेयोग्य वस्तु प्रिय है) ।

सूक्ति-
१९८-

सागेई करसी, अर सागेई डाँडो |

शब्दार्थ-
करसी (खेत निरानेका एक उपकरण , जिसमें लकड़ीके लम्बे डण्डेके छौरपर लोहेकी एक छोटी खुरपी लगी रहती है , खेत निरानेकी खुरपी ) ।

[कोई प्रयत्न करनेपर भी अपना सुधार नहीं  करता है, वापस पूर्ववत् करने लगता है , तब ऐसी कहावत कही जाती है] ।

सूक्ति-
१९९-

ऊँट, अर भेंसका का घरवासा |

शब्दार्थ-
घरवासा (विवाह , गृहस्थपना) ।

सूक्ति-
२००-

खावौ भलाँही मण ,
ढोळो मति कण |

सूक्ति-
२०१-

कह, आँ काँई बाकी छोडियो है ?
कह,मेह और मौत बाकी छोडिया है |

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
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