||श्री हरिः||
÷सूक्ति-प्रकाश÷
(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |
सूक्ति १०१-१२० तक |
सूक्ति-
१०१-
कलियुग आयो कूबजी भागी धरमरी की धुर |
पहले चेला आवता अब पधारै गुर ।|
शब्दार्थ-
धुर (धुरी,रथ आदिके पहियेका मजबूत धुर ) |
सूक्ति-
१०२-
कलियुग आयो कूबजी बाजन्ताँ ढ़ोलाँ |
पहले बाह्मण बाणियाँ पीछे आयौ गोलाँ।
सूक्ति-
१०३-
काँदा खादा कमधजाँ (अर) घी खादो गोलाँ |
चूरू चाली ठाकराँ बाजन्ताँ ढोलाँ ||
शब्दार्थ-
कमधज (युध्दमें जूझनेवाले वो प्रचण्ड वीर , जो मस्तिष्क कटने पर भी युध्द करते रहते हैं , जूझते रहते हैं ,जुझार ,कबन्ध ) |
सूक्ति-
१०४-
जिसके लागी है सोई जाणे
दूजा क्या जाणेरे भाई ।
दूजा क्यूँ जाणेरे भाई |
सूक्ति-
१०५-
भूमा अचल शाश्वत अमल
सम ठोस है तूँ सर्वदा |
यह देह है पोला घड़ा
बनता बिगड़ता है सदा ।|
शब्दार्थ-
भूमा (महान) , शाश्वत (सदासे) |
सूक्ति-
१०६-
प्रहलाद कहता राक्षसों !
हरि हरि रटौ संकट कटे |
सदभाव की छौड़ो समीरण
विपतिके बादळ फटे ।|
शब्दार्थ-
समीरण (हवा ,पवन ; सद्भावरूपी हवासे विपतिरूपी बादल छिन्न-भिन्न होजाते हैं , नष्ट हो जाते हैं ) |
सूक्ति-
१०७-
स्वारथ शीशी काँच की पटकै जासी फूट |
परमारथ पाको रतन परतन दीजै पूठ ।|
शब्दार्थ-
पटकै ( १.तुरन्त , जैसे काँचके बर्तनके चौट लगते ही पट फूट जाता है | २.पटकने पर )|
सूक्ति-
१०८-
तिलकी औटमें पहाड़ |
सूक्ति-
१०९-
करणी आपौ आपकी।
नहीं किसीके बापकी।।
सूक्ति-
११०-
आजा राम हबौळाँमें ।
शब्दार्थ-
हबौळा (तरंग,लहर) |
सूक्ति-
१११-
रामजी की चिड़ियाँ रामजी का खेत |
खावो (ये) चिड़ियाँ भर भर पेट ।|
सूक्ति-
११२-
बहुत पसारा मत करो कर थोड़ेकी आस।
बहुत पसारा जिन किया तेई गये निरास।।
शब्दार्थ-
पसारा (विस्तार) |
सूक्ति-
११३-
कपटी मित्र न कीजियै पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखायकै पीछे धक्का देत।।
शब्दार्थ-
पैठि (प्रवेश करके) |
सूक्ति-
११४-
बाबा तेरे द्वारे देखा मैंने एक नजारा।
देनेवाला देता जाये लेनेवाला हारा।।
शब्दार्थ-
नजारा (दृश्य ) |
सूक्ति-
११५-
भगवानकी विचित्र कृपा-
(भगवान् कहते हैं-)
कि जो मेरा भजन करता है,उसका मैं सर्वनाश कर देता हूँ,पर फिर भी वह मेरा भजन नहीं छोड़ता तो मैं उसका दासानुदास (दासका भी दास) हो जाता हूँ-
जे करे अमार आश,तार करि सर्वनाश |
तबू जे ना छाड़े आश,तारे करि दासानुदास ||
-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजकी 'अनन्तकी ओर'पुस्त्कसे |
(जे कोरे आमार आश।
तार कोरि आमि सर्वनाश।।
तारपोरेओ जे ना छाड़े आमार आश।
तार होई आमि दासेर दास।। ) |
सूक्ति-
११६-
दो (देवो) खीरमें हाथ।
सूक्ति-
११७-
जठै पड़े मूसळ। बठेई खेम कुसळ।।
सूक्ति-
११८-
आँधे आगे रोवो अर नेण गमावो।
सूक्ति-
११९-
पाणी पीजै छाणियो।
गुरु कीजै जाणियो।।
शब्दार्थ-
जाणियो (जाना-पहचाना हुआ , परिचित ) |
सूक्ति-
१२०-
भाटी ! तूँ भाटे जैसो मोटे परबत माँयलो।
कर राखूँ काटो शिवजी कर सेवूँ सदा।।
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