इस जगतमें अगर संत-महात्मा नहीं होते, तो मैं समझता हूँ कि बिलकुल अन्धेरा रहता अन्धेरा(अज्ञान)। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजीमहाराज की वाणी (06- "Bhakt aur Bhagwan-1" नामक प्रवचन) से...
रविवार, 18 जुलाई 2021
त्याग और संकोच के उदाहरण
( त्याग और संकोच के उदाहरण-)
श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदास जी महाराज सब कामों में छाने हुए जल का ही उपयोग करते थे।
खान- पान, शौच- स्नान आदि करने में, कपङे और हाथ पाँव आदि धोने में तथा और भी कुछ करने में छना हुआ जल ही काम में लेते थे। अणछाणे (बिना छाने हुए) जलको काम में लेना जीवहिंसा मानते थे। जल भी गाढे कपङे को डबल (दो लङा) करके छानते थे। एक लङे कपङे के छिद्रों में से सूक्ष्म जीव पार निकल जाते हैं, अटकते नहीं,बचते नहीं। इसलिये डबल कपङे से छानकर उन सूक्ष्म जीवों को बचाते थे। फिर सावधानीपूर्वक जीवाणूँ करते थे अर्थात् चलते जलमें या पर्याप्त स्थिर जल में छोङते थे। कपङे के जिस तरफ सूक्ष्म जीव अटकते हैं,उस तरफ छाने हुए जलकी धारा गिराते हुए उन बारीक जीवों को जल में छोङते थे। छः घंटों के बाद में छने हुए जल में भी वापस जीव पैदा होने लगते हैं,इसलिये छने हुए जल को भी छः घंटों में दुबारा छानते थे। इस प्रकार सब कामों में छने हुआ जल का ही उपयोग करते थे। किसी कारण से अगर ऐसा नहीं हो पाता तो बिना शौच- स्नान किये और बिना खाये-पिये (भूखे- प्यासे) ही रह जाते थे।
श्री स्वामीजी महाराज अपने जीवन की एक घटना इस प्रकार सुनाते थे -
मेरा जल छानने का कपङा फट गया। (किसीने पूछा नहीं कि आपके कपङे फट गये हैं , दूसरे ला देवें आदि। तो) उस फटे हुए जलछानने को दो से चार लङा करके कुछ दिन काम चलाया; पर वो भी इतना फट गया कि पानी को छाननेयोगय नहीं रहा। (फटे हुए स्थानों से जीव निकल जाते, बचते नहीं थे। इस प्रकार जब जल छन नहीं सका) तब मैं न तो शौच गया और न स्नान किया। (सत्संग का समय होनेपर) सत्संग में चला गया। सत्संग के बाद में सेठजी ने कहा कि भोजन (भिक्षा) करो। तब मैंने (सकुचाते हुए) कहा कि स्नान नहीं किया है। तब वो बोले क्यों? (स्नान क्यों नहीं किया?) मैंने बताया कि जलछानना (पानी छानने का कपङा) फट गया था। तब श्री सेठजी (ध्यान न देनेके कारण लोगों को उपालम्भ सा देते हुए) बोले - अरे, स्वामीजी के कपङा लाओ। जब कपङा आया,तब जल छानने का काम किया। (शौच जाकर स्नान आदि किये और भिक्षा पाई।)
इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज ने एक आवश्यक कपङे के लिये भी कहा नहीं किसीको। ऐसा संकोच रखते थे। संग्रह रखते नहीं थे। त्याग पूर्वक रहते थे।
श्री स्वामीजी महाराज जब (सन् १९७५,७६ में) "कल्याण" पत्रिका के सम्पादक थे। तब उन्होंने भाईजी (कल्याण के आदि-सम्पादक श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार) के नाम से ४९ वें वर्ष का हनुमान- अंक और सेठजी (गीताप्रेस के संस्थापक-प्रवर्तक श्री जयदयाल जी गोयन्दका) के नाम से ५० वें वर्ष का भगवत्कृपा- अंक निकाला था (भगवत्=जय, कृपा=दयाल,जयदयाल जी गोयन्दका)।
उन दिनों लोगोंने श्री स्वामीजी महाराज को वहाँ से हटाने के बहुत प्रयास किये,दुर्व्यवहार किये,कोट- कचेङी आदि किये। कहने लगे कि स्वामीजी "कल्याण" को हङप लेंगे।
(अनेक प्रयास करके भी जब लोग हटा नहीं सके, तब श्री स्वामीजी महाराज ने अपनी मर्जी से ही सम्पादक के काम को छोङ दिया।)
उस घटना पर अफसोस जताते हुए कभी-कभी श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि भविष्य में जब कोई खोज करेंगे और ऐसा (लिखित कार्रवाई आदि)रिकोर्ड देखेंगे, तो क्या सोचेंगे (और क्या कहेंगे) कि स्वामीजी के साथ में लोगों ने ऐसा (बुरा) व्यवहार किया! (अफसोस है)।
उन दिनों गोरखपुर के गोरखनाथ मन्दिर वाले महन्त जी बोले थे कि स्वामीजी दो चद्दर के सिवा तीसरी चद्दर अपने पास में नहीं रखते (एक चद्दर का भी संग्रह नहीं रखते) उनके लिये लोग कहते हैं कि ये "कल्याण" को हङप लेंगे, (कितनी बेसमझी की बात है, कितनी हैरानी की बात है)। इन लोगोंके क्या हो गया
(जो स्वामीजी के साथ ऐसा- ऐसा व्यवहार करते हैं,ऐसी- ऐसी बातें कहते हैं आदि)।
इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज अपने पास आवश्यक वस्तु का भी संग्रह नहीं रखते थे। वस्तु के अभाव में कठिनता सह लेते थे; पर किसीको कहते नहीं थे। बङा संकोच रखते थे। त्याग रखते थे। बङी साधुता थीं उनमें।
श्री सेठजी ने (बिना माँगे ही, अपनी तरफ से) कह रखा था कि स्वामीजी! आपके कोई वस्तु आदि की जरुरत हो तो किसीसे कहकर मँगवा लिया करो, (उसके) पैसे हम दे देंगे।
एक बार श्री स्वामीजी महाराज के पेंसिल की जरुरत पङी। जब वे पुस्तक पढ़ा करते थे, तब कहीं कोई विशेष या नयी बात लगती, तो पेंसिल से वहाँ निसान लगा देते थे,रँग देते थे। ऐसा करने से वो पेंसिल घिसते-घिसते इतनी छोटी हो गयी कि काम करने लायक भी नहीं रही। तब उन्होने मोहनलाल जी पटवारी से कहकर दूसरी पेंसिल मँगवाई (शायद दो आने लगे थे उसके)। पटवारी जी ने लाकर दे दी। तब उनसे पूछा कि कितने पैसे लगे हैं पेंसिल के? कह, दो आने। तो बोले कि दो आने सेठजी से ले लेना, अर्थात् सेठजी से पेंसिल के पैसे ले लेना। पटवारी जी बोले कि महाराज जी! दो आने क्या चीज है! (जो सेठजी से लेवें? ये तो मैं ही दे दूँगा)।तो बोले कि नहीं, सेठजी से ले लेना; क्योंकि जब हम स्वयं कोई वस्तु मँगवाते हैं तो उसके पैसे देते हैं।
पटवारी जी बङे उदार हृदय वाले सज्जन थे। दान में इतनी पूँजी लगा देते कि उतनी पूँजी खुद के, उनके पास में नहीं बचती थीं। जैसे,लाख रुपये का दान दे दिया और लाख रुपये की (जमीन आदि सारी) पूँजी भी खुद के पास में नहीं बची। श्री सेठजी ने उनको दानवीर कहा था। ऐसे उदार व्यक्ति से भी श्री स्वामीजी महाराज ने पैसे खर्च नहीं करवाये,उनको भी पैसे वापस दिलवाये।
इस प्रकार श्री स्वामीजी महाराज दो आने की आवश्यक वस्तु माँगने में भी संकोच करते थे।
वो एक संत का उदाहरण बताते थे कि एक बार जगदीशानन्द जी महाराज बद्रीनारायण गये हुए थे। उन्होंने एक घटना सुनायी कि वहाँ एक साधू के अंगुली में पीङा हो गई थी, तो किसीने कहा कि यहाँ मलहम पट्टी करनेवाले हैं,आप मलहम पट्टी करवालें, उनसे कहदें कि मलहम पट्टी करदो। तो वो साधू बोले कि अंगुली की पीङा तो मैं सह लूँगा; पर उनको यह कहना कि "तुम मेरे मलहम पट्टी करदो" - यह पीङा मेरे से सही नहीं जायेगी।
मैंने साधू की जब यह बात सुनी तो वो मेरे चिपक गयी। (साधू की बात बहुत बढ़िया लगी, वे संत थे। ऐसे होते हैं संत। वे अंगुली की पीङा तो सहने को तो तैयार हो गये; पर किसीको परवश करने की पीङा सहने को तैयार नहीं हुए। किसीसे यह कहना कि तू ऐसा करदे, तो यह उनको परवश करना ही हुआ न। संतों के लिये किसीको इतनी सी पीङा भी देना नहीं चाहते। मलहम पट्टी करनेवाले के लिये यह कोई पीङा थोङे ही थी? यह तो उनका काम ही था,पीङा नहीं: फिर भी ऐसे संतों को संकोच होता है, माँगने में पीङा मालुम देती है।)
तो ऐसे थे श्री स्वामीजी महाराज, किसीसे कुछ कहते नहीं थे। कोई आवश्यकता होती और वो पूरी नहीं होती तो उस पीङा को सह लेते थे। किसीको कहते नहीं थे। किसीको कहना पीङा देनेके समान मानते थे। किसी वस्तु,मकान आदि को अपना और अपने लिये नहीं मानते थे तथा न अपने को उनका मालिक मानते थे।
श्री स्वामीजी महाराज कहते थे कि २-मेरा कुछ नहीं है,२-मुझे कुछ नहीं चाहिये और ३-मैं कुछ नहीं हूँ। उन्होंने "मानवमात्र् के कल्याणके लिये" नामक पुस्तक में इन बातों को समझाया है।
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