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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

(१७)- 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का साधन-सत्संग

                       ।।श्रीहरिः। ।

(१७)- 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' का साधन-सत्संग - 

श्री सेठजीने मेरेसे कहा कि व्याख्यान(सत्संग) सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर (तृप्त होकर) आया हूँ। अब तो साधन करना है। कथायें करली, भेंट-पूजा कराली, रुपये रखकर देख लिये, बधावणा करवा लिये, चेला-चेली कर लिये, गाना-बजाना कर लिया, पेटी (हारमोनियम) सीखली, तबला, दुकड़ा बजाने सीख लिये। अकेले भजन गा-गाकर रातभर जागरण कर लिये, व्याख्यान सुना दिये आदि आदि सब कर लिये। इन सबको छोड़ दिया। इन सबसे अरुचि हो गई।

श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ। तो मैंने कहा कि सेठजी! इन सबसे धापकर आया हूँ, अब सुनानेका मन नहीं है, अबतो साधन करना है। श्री सेठजीने कहा कि यही(सत्संग सुनाना ही) साधन है। कह, यह साधन है! 
तो सुनानेमें ऐसा लगा कि एक-एक दिनमें कई-कई घंटे(छ:छ:, आठ-आठ घंटोंसे ज्यादा) सत्संग सुनाता।

श्री सेठजीने कहा कि सुनाओ, सुनाओ; तो इतना भाव भर दिया कि सुनाता ही सुनाता हूँ, उनका शरीर जानेके बाद भी। अभी तक सुनाता हूँ, यह वेग उन्हींका भरा हुआ है।

लोगोंने प्रेरणा की कि स्वामीजीको कलकत्ता भेजो, यहाँ सत्संग करानेवाला कोई नहीं है। तो वे कलकत्ता ले गये। फिर वहाँ कई महीनों(सात-सात, आठ-आठ महीनों) तक सत्संग सुनाता था। लोग सुनते थे। सुबह आठ बजेसे दस, शामको आठ बजेसे दस और कभी-कभी दुपहरमें दो से चार बजे। ऐसे सत्संग करते थे। भिक्षा माँग कर पा लेना और सत्संग सुनाना। ऐसे कई वर्ष बीत गये। [पहले पुराने गोबिन्दभवनमें सत्संग होता था, फिर बादमें यह नया गोबिन्दभवन कार्यालय बनाया गया]।
ऋषिकेशमें सत्संग पहले गंगाके इस पार काली कमलीवाली धर्मशालामें होता था, फिर बादमें उस पार होने लग गया। यह गीताभवन बादमें मेरे सामने बना है।

गीताजीकी टीका "तत्त्वविवेचनी" (लेखक-'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका') हमारे सामने लिखी गई है।

श्री सेठजीने कहा कि स्वामीजी! गीताजीका प्रचार करो। मैं बोला कि कैसे करें? तो बोले कि म्हे कराँ ज्यूँ करो- जैसे हम करते हैं ऐसे करो अर्थात् जैसे हम व्याख्यान देकर करते हैं, गीताजीकी टीका लिखकर करते हैं, ऐसे आप भी व्याख्यान देकर करो और गीताजी पर टीका लिखकर करो। (इस प्रकार उनकी आज्ञासे हमने भी गीताजी पर टीका लिखी- "साधक-संजीवनी")।

http://dungrdasram.blogspot.com/2014/11/blog-post_42.html