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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

(९)- सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'को भगवद्दर्शन (श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई सत्संग कुछ बातें)।

                      ।।श्रीहरिः। ।

(९)- सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'को भगवद्दर्शन -

'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' भारतके राजस्थान राज्यके चूरू शहरमें रहनेवाले थे। इनके पिताका नाम खूबचन्दजी गोयन्दका था और माताजीका नाम था श्री शिवाबाईजी ।

चूरूवाली हवेलीमें एक बार ये चद्दर ओढ़कर लेटे हुए थे। नींद आयी हुई नहीं थी। उस समय इनको भगवान् विष्णुके दर्शन हुए। (इन्होनें सोचा कि सिर पर चद्दर ओढ़ी हुई है, फिर भी दीख कैसे रहा है?) इन्होने चद्दर हटाकर देखा, तो भी भगवान् वैसे ही दिखायी दे रहे हैं। भगवान् और आँखोंके बीचमें चद्दर थी। फिर भी भगवान् दीख रहे थे। चद्दरकी आड़ (औट) से भगवानके दीखनेमें कोई फर्क नहीं आया।

श्री सेठजीने बताया कि ऐसे अगर बीचमें पहाड़ भी आ जाय, तो भी भगवानके दीखनेको वो रोक नहीं सकेगा। उसकी आड़में भगवानका दीखना बन्द नहीं होगा। (फिर चद्दर ओढ़े-ओढ़े ही दर्शन होते रहे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है)।

जब इनको भगवानने दर्शन दिये, तब इनको प्रेरणा हुई कि निष्काम भावका प्रचार किया जाय (और इन्होनें अपना सम्पूर्ण जीवन निष्कामभावपूर्वक परहितमें लगा दिया)।

आज गीताप्रेसको कौन नहीं जानता। उस गीताप्रेसकी स्थापना करनेवाले ये ही थे। ये ही गीताप्रेसके उत्पादक, जन्मदाता, संरक्षक, संचालक आदि सबकुछ थे। इन्होने ही चूरूमें ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम और कलकत्तामें गोबिन्दभवन बनवाया। आपने ही ऋषिकेश गंगातट पर गीताभवन बनवाया और सत्संगका प्रचार किया। आपने ही अद्वितीय गीताजीका प्रचार किया। (गीताजी पर 'तत्वविवेचनी' नामक टीका लिखवाई और अनेक ग्रंथोंकी रचना की)।

(आपकी ही कृपासे 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' जैसे महापुरुष सुलभ हुए। आपके द्वारा जगतका बड़ा भारी हित हुआ है। दुनियाँ सदा आपकी ऋणी रहेंगी)।
ये गुप्तरीतिसे भजन करते थे। ऐसे इनकी निष्ठा थी कि मेरे भगवानकी तरफ चलनेको कोई जान न जाय, किसीको पता न लगे- इस रीतिसे भजन करते थे।

एक प्रसंग चला था। उसमें ऐसी बात चली थी कि प्रह्लादजी को बहुत कष्ट हुआ, बड़ी-बड़ी त्रास उनको मिली। ऐसी बात चलते-चलतेमें श्री सेठजीने कहा था कि प्रह्लादजीने अपनेको प्रकट कर दिया। इस वास्ते विघ्न आये। और वे (श्री सेठजी) कहते थे कि प्रकट नहीं होना चाहिये। गुप्तरीति से भजन होना चाहिये।

मनुष्य अपने साधारण धनको भी गुप्त रखते हैं, तो क्या भजन-स्मरण जैसी पूँजी (भी) कोई साधारण है, जो लोगोंमें प्रकट हो जाय! यह तो गुप्तरीति से ही भजन करना चाहिये। ऐसा उनका ध्येय था, इसी तरहसे लोग कहते थे।

'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के 19951205_830 (goo.gl/cLtjIi) बजेवाले सत्संग-प्रवचनसे।

ऐसी उनकी बड़ी, ऊँची अवस्था हो गई थी। सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार- इस विषयमें मेरी समझमें उनकी अच्छी, बढ़िया जानकारी थी।

http://dungrdasram.blogspot.com/2014/11/blog-post_42.html