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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

(११)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'के मित्र हनुमानदासजी गोयन्दका

                       ।।श्रीहरिः। ।

(११)- 'सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका'के मित्र हनुमानदासजी गोयन्दका -

कुटम्बमें इनके एक मित्र थे। उनका नाम था हनुमानदासजी गोयन्दका। ये हनुमान प्रसादजी पोद्दार (कल्याण सम्पादक)-ये नहीं, दूसरे थे - हनुमानदासजी (हनुमानबख्सजी) 'गोयन्दका'। (वो तो 'पोद्दार' थे और ये 'गोयन्दका' थे अर्थात् ये हनुमानदासजी दूसरे थे)। इनके (हनुमानदासजी और श्री सेठजी के) बालकपनमें बड़ी, घनिष्ठ मित्रता थी। कभी दोनों इस माँके पास रहते, कभी दोनों उस माँके पास रहते-ऐसे मित्रता थी।
वो लग गये थे व्यापारमें, कलकत्तामें और ये(श्री सेठजी) लग गये अपने (साधनमें)।
साधनकी बात उनको (हनुमानदासजीको) भी नहीं बताई। उनसे भी गुप्त रहते थे और ये इतने थे कि इनके पिताजी पर भी असर था कि यह जैदा(जयदयाल) काम करेगा तो पक्का आदमी है, वो छोड़ेगा नहीं।
जब इनको खूब अनुभव हो गया, बहुत विशेषतासे (अनुभव हो गया)। तब विचार किया कि ये बातें मेरे साथ ही चली जायेगी, दूसरोंको पता ही नहीं लगेगा; तो क्या करें? कैसे करें भाई? 
फिर विचार किया कि मेरी बात सुनेगा कौन? लोग तो कहेंगे- पागल है। इस वास्ते पागलकी बात कौन सुनता है। तो भाई! हनुमान सुनेगा मेरी बात।
ये थे चूरूमें और वो थे कलकत्तामें। वे खेमकाजी (आत्मारामजी) के यहाँ मुनीम थे। ऐसी बात आयी मनमें तो इन्होनें उनको पत्र लिखा कि तुम आओ। तुमको खास बात कहनी है। मेरी बात किसीको कहनेका विचार था नहीं; पर अब विचार किया कि किसीको कहदूँ। वो मैं तेरेको कहूँगा। तुम आओ। मैं तुम्हारेसे बात करूँगा। तुम्हारे समान और कोई मेरा प्यारा है नहीं जिससे कि मैं अपनी बात कहूँ। तब वो आये।
उस समय चूरूमें रेल नहीं हुई थी(चूरूमें रेल्वे लाइन बनी ही नहीं थी)। ऊँटों पर ही आये थे। सामने गये और मिले।
(उन्होने पूछा कि) क्या बात है? तो फिर उनके सामने बातें कहीं। (कि) मैं तेरेको कहता हूँ, तू भी इसमें लगजा। भगवानमें लगजा, अच्छी बात है।
बातें (ये) बताई कि देख! परमात्मतत्त्वका अनुभव आदमीको हो सकता है और तूँ और मैं बात कर रहे हैं, इस तरहसे भगवानसे भी बात हो सकती है। ऐसा हो सकता है। तो उनके बड़ा असर पड़ा कि ऐसा हो सकता है!? कह, हाँ। तो लगजा भजनमें। तू जप कर। भगवन्नामका जप कर। जपकी बात इनके विशेषतासे थी। भगवन्नामका रामरामरामरामरामरामरामराम राम… यह जप भीतरसे करते थे, श्वाससे।
अभी, वृद्धावस्था तक भी, देखा है- (श्री सेठजी) कोई काम करते, बोलते, बात करते, तो बोलनेके बादमें स्वत: जप शुरु हो जाता श्वाससे। वो निगाह रखते(उस जपका दूसरे कोई ध्यान रखते) तो दूसरोंको मालुम हो जाता। रामरामरामरामराम रामरामरामराम-ऐसे। तो ऐसे भीतरसे जप होता था (उनके)। तो वो जप करना शुरु किया (हनुमानदासजीने)।
जप करते-करते उनको कुछ वैराग्य हुआ, तो कह, मेरे मनमें आती है कि यहाँ बड़ा झंझट है, चलो साधू हो जावें।
तो सेठजीने कहा- देख! साधू तो हो जावें; परन्तु तेरे तो बच्चा होनेवाला है, (तू) विवाह करेगा और तेरे बालक होगा, तो तेरेको पीछा(वापस) आना पड़ेगा और मेरेको तू ले जायेगा तो मैं पीछे लौटकर आऊँगा नहीं। तो तेरा-मेरा सत्संग नहीं होगा। तो कहा-अच्छा, नहीं चलेंगे(साधू होनेके लिये-साधू नहीं बनेंगे)।
ऐसी कई-कई बातें इनके आपसमें हुई थी। मैंने बहुत-सी बातें तो हनुमानदासजीसे सुनी है।

http://dungrdasram.blogspot.com/2014/11/blog-post_42.html