गुरुवार, 27 नवंबर 2014

(८)-'परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' और 'श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज' का मिलन

                        ।।श्रीहरिः। ।

(८)-'परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका' और

'श्रद्धेय स्वामीजी
श्रीरामसुखदासजी महाराज' का मिलन -

अब परम श्रद्धेय सेठजी श्री जयदयालजी गोयन्दका(चूरू) और 'श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के मिलनका वर्णन किया जायेगा, जिसका काफी वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 – goo.gl/ub5Pjy) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दि. 19951205/830 (goo.gl/cLtjIi) बजेके सत्संगमें भी किया है।

(श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' के कहनेके भाव है कि)

मेरे मनमें रही कि उनसे कैसे मिलें? पैसा मैं पासमें रखता नहीं, न लेता हूँ (किसीके देने पर भी पैसा मैं लेता नहीं), टिकटके लिये भी किसीसे कहता नहीं [कि मुझे श्री सेठ(श्रेष्ठ)जीकी सत्संगमें जाना है, टिकट बनवादो]। पैदल चलकर जाऊँ तो वहाँ पहुँच नहीं पाऊँ; क्योंकि मैं पहुँचूँ उससे तो पहले ही वो प्रोग्राम पूरा करके आगे चलदे। वो गाड़ीसे चलते हैं, मैं पैदल, कैसे पहुँचता।

फिर गम्भीरचन्दजी दुजारी (मेरे सहपाठी चिमनरामजीके मित्र) बोले कि वार्षिकोत्सव पर श्री सेठजी ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम चूरू आनेवाले हैं, आपको मैं ले जाऊँगा, चलो। मैंने उनसे कहा नहीं था (कि मुझे वहाँ जाना है, ले चलो, टिकट दे दो आदि) वो अपने मनसे ही बोले। तब मौका समझकर कर मैं और चिमनरामजी चूरू आये।

श्री सेठजी उस समय चूरू पहुँचे नहीं थे। कोई पंचायतीके कारण देरी हो गई थी, आये नहीं थे। मैं वहीं रहने लगा। गाँवमेंसे भिक्षा ले आना, पा लेना और वहीं रहना। मौन रखता था। दो-चार दिन वहीं रहा।

फिर सुबहकी गाड़ीसे श्री सेठजी आये।(किसीने उनको बताया कि ऐसे-ऐसे यहाँ संत आये हैं तो श्री) सेठजी खुद आये हमारी कुटिया पर, तो मैं भी गया उनके सामने। उस समय थोड़ी देर मौन रखता था मैं। बोलता नहीं था। तो श्री सेठजी मिले बड़े प्रेमसे।

श्री सेठजीने कहा कि हमतो आपलोगोंके (सन्तों के) सेवक हैं। मेरे मनमें आया कि सेवा लेनेके लिये ही आये हैं, सेवा करो, सेवा लेंगे। हमारी सेवा और तरहकी है। मनमें भाव ही आये थे, बोला नहीं था। बड़े प्रेमसे मिले। फिर वहाँ ठहरे (और सत्संग करने लग गये)। यह घटना विक्रम संवत १९८९-९१ की है। हमारी पोल भी बतादें- 
श्री सेठजीने सत्संग करवाया। मैंने सुना। तो कोई नयी बात मालुम नहीं दी। ये गीताजीका अर्थ करेंगे शायद, तो अर्थ तो मैं बढ़िया करदूँ इनसे। वो (गीताजीके) पदोंका अर्थ करते, उनका(और किसीका)अर्थ करते; तो मनमें आती कि क्यों तकलीफ देखते हैं। मेरे मनमें अभिमान था कि मैं पढ़ा-लिखा हूँ। मैंने विद्यार्थियोंको संस्कृत व्याकरण आदि पढ़ाया है। पढ़ाता हुआ ही आया था पाठशाला छोड़कर। यह अभिमान एक बड़ा भारी रोग है।

श्री सेठजी बात करते, तो बातें तो उनकी मेरेको अच्छी लगती; परन्तु श्लोकोंका अर्थ करते, ये करते, तो मेरे बैठती नहीं थी बात।

पढ़ना-पढ़ाना कर लिया, गाना-बजाना कर लिया। लोगोंको सिखा दिया। लोगोंको सुना दिया। (व्याख्यान) सुनाता था। सुनने-सुनानेसे अरुचि हो गई। अब तो भाई! साधनमें लगना है अच्छी तरहसे- यह मनमें थी। तो दृष्टि पसार कर देखा तो गोयन्दकाजीके समान कोई नहीं दीखा मेरेको। दीखा किससे? कि लेखोंसे।
गीताके विषयमें ये लेख लिखते थे, वो लेख देते थे कल्याणमें। केवल इनके लेख देखकर इतने जोरोंसे जँच गई कि मैंने न कहनेवाली बात भी कहदी। मैंने कहा कि गीताजीके गहरे अर्थको जितना गोयन्दकाजी जानते हैं, उतना टीकाकारोंमें कोई नहीं दीखता है हमें। (इसका वर्णन ऊपर आ चुका है)।

http://dungrdasram.blogspot.com/

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें