बुधवार, 26 नवंबर 2014

५०१-६०१÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) |


                              ||श्रीहरिः||        

                          ÷सूक्ति-प्रकाश÷

                         
-:@छठा शतक (सूक्ति- ५०१-६०१)@:-

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि) ।

सूक्ति-
५०१-

भाटो आयो है भाटो |

भावार्थ-

जब घरमें कन्याका जन्म होता है और कोई बूढी माँजीसे पूछता है कि आपके घरमें पुत्र आया है कि पुत्री? तब वो कहती है कि भाटा (पत्थर) आया है भाटा- भाटो आयो है भाटो | (पत्थर जन्मा है)।

अगर कोई उनसे पूछे कि आप आये (जन्मे)  थे,तब हीरो आये थे क्या? अर्थात् आप भी तो भाटा ही आये थे! (फिर कन्याका इतना तिरस्कार क्यों?)।

सूक्ति-
५०२-

बाई ! तूँ आक छा$सी क मांढो ?।

शब्दार्थ-

मांढो (मण्डप)।

सहायता-

जब छोटी बच्चीका लाड़-प्यार किया जाता है तो कइ जने ऐसे बोलते हुए लाड़  करते हैं कि बाई! तू आक छायेगी या मण्डप (मांढो)? अर्थात् तू मरैगी या जीयेगी? मानो मरैगी तो आकके नीचे गाड़दी जायेगी,आकको सुशौभित करैगी और नहीं मरैगी तो विवाह किया जायेगा,विवाह मण्डपको सुशौभित करैगी।

(ये लाड़-प्यार बाईके हैं,भाईके नहीं)।

सूक्ति-
५०३-

छौरीके तो रामजी रुखाळा है |

सहायता-

छौटे बच्चेके गलेमें बघनखा आदि रक्षाकी सामग्री बन्धी देख कर कोई माँजीसे पूछता है कि माँजी! छौरेके तो आपने रक्षाके उपाय कर दिये,पर छौरीके? (छौरीके तो आपने छौरेकी तरह रक्षाके उपाय नहीं किये?)
तब माँजीका जवाब होता है कि छौरीके तो रामजी रुखाळा है अर्थात् छौरीकी रक्षा तो रामजी करते हैं |

(सोचनेकी बात है कि छौरीकी रक्षा तो रामजी करते हैं और छौरेकी रक्षा आप (माँजी) करती हैं?
वास्तवमें रामजी तो रक्षा दौनोंकी करते हैं,परन्तु भेदभाव,विषमता करके दोषके भागी आप हो जाते हैं)।

सूक्ति-
५०४-

बेटासे बेटी भली जौ सुलच्छन होय |
बेटो तारे एक कुल बेटी तारे दोय ||

सूक्ति-
५०५-

खावणा पीवणा धापणा नहीं |
लोटणा पोटणा सोवणा नहीं ||
कहणा सुणणा बकणा नहीं |
चलना फिरना दौड़णा नहीं |

सूक्ति-
५०६-

डाकण बेटा लेवै क देवै? |

सूक्ति-
५०७-

लोभ लागो बाणियो चुड़खै लागी गाय |
बावड़ै तो बावड़ै (नहीं तो ) आगड़ाही जाय ||

सूक्ति-
५०८-

रामभजनमें देह गळै तौ गाळिये |
साधाँसेती प्रीति (नेह) पळै तो पाळिये ||

सूक्ति-
५०९-

साधाँ सेती प्रीतड़ी परनारीसूँ हँसबो |
दौ दौ बाताँ बणै नहीं आटो खाबो (अर) भुसबो ||

सूक्ति-
५१०-

बडाँरी ठोकर कौनि खायी |

(तथा भिणिया , पण गुणिया कौनि) |

सूक्ति-
५११-

अति लोभो नहिं कीजिये मासोहि लोभ मलीन।
एक लोभके कारणै कूप पड़्या नर तीन।।

कथा-

एक कूएके पास नरियलका पेड़ था।उसकी एक डाली कुएके ऊपर गयी हुई थी।उसमें एक नरियलका फल लगा हुआ था।कूएके ऊपर होनेके कारण वो तौड़ा नहीं जा रहा था।वहाँ हाथ भी नहीं पहुँच पा रहा था,जिससे कि हाथसे खींच कर तौड़लें।

कुछ लोगोंने नरियलके लोभसे एक युक्ति सौची कि घौड़े पर बैठ कर घौड़ेको कूएके  ऊपरसे कूदायेंगे।घौड़ा जब नरियलके पाससे होकर आगे जायेगा, तो उस समय नरियलके फलको तौड़ लिया जायेगा।ऐसा सौचकर एक जनेको घौड़ेपर बिठाया और घौड़ेको कूएके ऊपरसे कुदाया।घौड़ा जब कूदकर उस फलके पासमेंसे होकर और  कूएके ऊपरसे होकर आगे जा रहा था,तो घौड़े पर बैठे व्यक्तिने नरियलके फलको पकड़ लिया, परन्तु उसको तौड़ नहीं पाया।इतनेमें घौड़ा तो उस पार पहुँच गया और वो आदमी उस फलको पकड़े हुए कूए पर ही लटका रह गया।उसको बचानेके लिये दूसरे आदमीने उसको पकड़ा,लेकिन उसके पैर उखड़नेके कारण वो भी उसके साथ ही कूए पर लटकने लग गया।खतरा देखकर तीसरे आदमीने बचानेकी कोशीश की,लेकिन वो भी पैरों पर मजबूतीसे खड़ा नहीं रह पाया और वो भी उन दौनोंके साथमें लटकने लगा।इस प्रकार एक ही फलके आधार पर तीन आदमी कूएमें लटकने लग गये।उन तीन जनोंके बौझसे वो फल टूट गया और उसके साथ ही तीनों आदमी कूएमें गिर पड़े।

इसलिये कहा है कि

अति लोभो नहिं कीजिये मासोहि लोभ मलीन।
एक लोभके कारणै कूप पड़्या नर तीन।।

सूक्ति-
५१२-

नकटी घणी निराट नकटाँरे जायोड़ी |
भटका बेईमान झकाँरे लारे आयोड़ी ||

सूक्ति-
५१३-

मोरियाँरे तो बोलणो सारे है , बरसणोतो भगवानरे सारे है |

सूक्ति-
५१४-

भाँडाँरी भैंसतौ सोटाँरे ही स्वभावरी है |

सूक्ति-
५१५-

बातें तीन बिरोधरी जर जोरूँ अर जमीन |
सरूपदास साँची कहै मजहब रीति महीन ||

शब्दार्थ-

जोरूँ (स्त्री)। मजहब (धर्म)।

सूक्ति-
५१६-

कर अरु जीभ लँगोटड़ी ए तीनूँ बस रक्ख |
निरभै रम संसारमें बैरी मारो झक्ख ||

सूक्ति-
५१७-

साध हजारी कापड़ौ रतियन मैल सुहाय।
साकट काळी कामळी भावै तहाँ बिछाय।।

सहायता-

साकट (साक्त,आसक्त,विषयी,संसारी)।

सूक्ति-
५१८-

पड़वा महँ पैठन्तरे करड़ापण केती करै |
(पण) धारा माहिं धसन्तरे आँसू आवे एलिया ||

सहायता-

पड़वा (पहले,आरम्भ,शुरुआत)।धारा (सैना)।

जब तक युध्दसे काम नहीं पड़ता,तब तक,उससे पहले,शूरवीरता दिखाननवाले तो कई होते हैं,परन्तु जब काम पड़ता है,युध्दमें घुसते हैं, तब कठिनताका पता चलता है।

सूक्ति-
५१९-

मिनखाँरी माया अर बिरछाँरी छाया |

सूक्ति-
५२०-

रामजीरी माया
(अर) कठैई धूप अर कठैई छाया |

सूक्ति-
५२१-

घालै जितौई मीठो |

सूक्ति-
५२२-

थौड़ो जितेई मीठो |

सूक्ति-
५२३-

सी पोहै न माहै (मायै) ,
सी बाजन्ते बायै |

सूक्ति-
५२४-

अपणै अपणै स्वारथ कारण सब कोई धन खोवै |
परमारथरो काम पड़ै तब टुगमुग टुगमुग जोवै ||

सूक्ति-
५२५-

धाया थारी छाछसूँ कुत्ताँ कन्नेसूँ तो छुडा ! |

सूक्ति-
५२६-

हिम्मत मर्दाँ मदद खुदाह ,
बादशाहकी लड़की फकीरका ब्याह |

सूक्ति-
५२७-

आधो माहा,
अर कामळ बाहा |

सूक्ति-
५२८-

पोष , खालड़ी खोस |

सूक्ति-
५२९-

सावण मास सूरयो बाजै भादरवै परवाई |
आसोजाँमें पिछमी बाजै (तौ)काती साख सवाई ||

सूक्ति-
५३०-

(तौ) दौ खीरमें हाथ |

सूक्ति-
५३१-

गरज गधेनें बाप करे (है) |

सूक्ति-
५३२-

कितै जळेबी ऊँ: रुळै है ,
कितै खुरन्दा ऊँ: फिरे है |

शब्दार्थ-

खुरन्दा (खानेवाले)।

सूक्ति-
५३३-

अठै काँई केळा घौटे है ! |

सूक्ति-
५३४-

बीसाँ बाताँ एक बात है |
(बीसाँ बाताँ एक बात ,
मोहन पुकारे जात ,
…अपणौं भलो चाहे … तौ राम नाम लीजिये )|

सूक्ति-
५३५-

मूततेनें कौड़ी लाधी माधोशाही मोहर |

सूक्ति-
५३६-

भेख पहर भूलो मत भाई !
आथर और गधैड़ी बाही (वाई) |

शब्दार्थ-

भेख (साधूवेष)।

सूक्ति-
५३७-

(कुत्तो) अठार्यो अटकै,
बीसयो पटकै ,
(अर) इक्कीसियैरे मूँडैमें खरगोसियो लटकै |

सूक्ति-
५३८-

बिना पींदेरो लोटो |

सूक्ति-
५३९-

रोजीनाँरी राड़ आपसरी आछी नहीं |
बणै जठै तक बाड़ चट पट कीजै चकरिया ||

सूक्ति-
५४०-

भाई जिता ही घर |

सूक्ति-
५४१-

कुत्तो देख कुत्तो घुर्र्रायो ,
हूँ बैठो अर तूँ क्यूँ आयो? |

सूक्ति-
५४२-

आई बहू आयो काम ,
गई बहू गयो काम |

सूक्ति-
५४३-

रुपयो काँई आकड़ाँरे लागे है ! |

सूक्ति-
५४४-

क्यूँ भाटो उछाळर माथौ माँडे है ! |

सूक्ति-
५४५-

भगत बीज पलटै नहीं जै जुग जाय अनन्त |
ऊँच नीच घर अवतरै रहै संतको संत ||

सूक्ति-
५४६-

पड़ेगा काम दूतोंसे ,
धरेंगे मार जूतोंसे |

और

गुरजाँरी घमसाणसूँ टूट जायगी टाट।

सूक्ति-
५४७-

गूँगेरो गुड़ है भगवान ,
बाहर भीतर एक समान |

सूक्ति-
५४८-

(पता नहीं आगे कैसा समय आ जाय-)

घौड़ा दौड़ै घौड़ी दौड़ै |

सूक्ति-
५४९-

अकलरा टका नहीं हू ज्यावे ! |

सूक्ति-
५५०-

मायानें डर है ,
कायानें नहीं |

सूक्ति-
५५१-

थळ थेट , बेटी पेट ;
घर जँवाई बेगो आई |

सूक्ति-
५५२-

साधरामरे तीन लोक पटै,
कोई घाले अर कोई नटै |
सगळा घाले तो मावैई कठै ,
कोई नहीं घाले तो जावैई कठे ?।

सूक्ति-
५५३-

कह ,
तन्ने कूटर अळतो कर देहुँ |

सूक्ति-
५५४-

सियाळो सौभागियाँ दौरो दोजखियाँ |
आधो हाळी बालदि(याँ) पूरो पाणतियाँ ||

सूक्ति-
५५५-

सोनारी रहसी नहीं रहसी सुथारी |
बिणियाणी रहसी नहीं यूँ कहै कुम्भारी ||

सहायता-

सीताहरणके बाद कुम्भकर्णकी पत्नि रावणके लिये कहती है कि वह सीता रहेगी नहीं आदि…

दो-दो अर्थ-

सोनारी (१-सुनारी,सुनारकी पत्नि,सुलक्षणा स्त्री।२-वह स्त्री,सीता)।सुथारी (१-खातीकी पत्नि।२-तुम्हारी स्वयंकी,विवाहिता)।बिणियाणी (१-बनियेकी पत्नि,सेठाणी।२-बनी हुई,नकली,परायी)।कुम्भारी १-कुम्हार-कुम्भ(घट)कारकी पत्नि,कुम्हारी।२-कुम्भकर्णकी पत्नि)।

सूक्ति-
५५६-

आँधे आगे रोवणौं ,
(अर) नैण गमावणो है |

सूक्ति-
५५७-

गहला गाँव मति बाळीरे ! ,
कह ,भलो चितारयो |

सूक्ति-
५५८-

काँई काची लावे है रे |

सूक्ति-
५५९-

माँ पर पूत पिता पर घौडा ,
बहुत नहीं तो थौड़ा थौड़ा |

सूक्ति-
५६०-

माताजी मठ में बैठी बैठी मटका करया है ,
बाणियाँ ने बेटा नहीं दिया है |

कथा-

एक बनियेने भैरवजीके मन्दिरमें जाकर उनकी मूर्तिके सामने उनसे प्रार्थना की कि हे भैरवजी! मुझे पुत्र दे दो,(और मनौति की कि मेरेको पुत्र दे दोगे तो) आपको एक भैंसा चढा दूँगा।

प्रार्थनाके अनुसार भैरवजीने उनको पुत्र दे दिया।तब बनिया एक भैंसा लेकर भैरवजीके मन्दिर उसको चढानेके लिये गया।अब भैंसेको काट कर तो कैसे चढावे (बनिये भी ब्राह्मणकी तरह अहिंसक,शाकाहारी होते हैं) और काट कर चढानेके लिये वादा भी नहीं किया था,चढानेके लिये कहा था।इसलिये बनियेने भैंसेके कुछ किये बिना ही भैंसेको भैरवजीकी मूर्तिके बाँध दिया और स्वयं घर चला आया।अब भैंसा मूर्तिके बँधा हुआ कितनीक देर रहे।भैंसा बाहर जाने लगा तो मूर्ति उखड़ गई और भैंसा मूर्तिको घसीटता हुआ बाहर चला गया।

आगे जानेपर  देवी माताने भैरवकी यह दुर्दशा देख कर पूछा कि भैरव! आज तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? क्या बात है? तब भैरवजीने माताजीसे कहा कि आपने (माताजीने) मन्दिरमें बैठे-बैठे ही मौज की है,बनियेको बेटा नहीं दिया है- माताजी मठ में बैठा बैठा मटका करया है , बाणियाँ ने बेटा नहीं दिया है | (अगर बनियेको बेटा दे देती तो आपको भी पता चल जाता)।

सूक्ति-
५६१-

कह ,
चढ़सी झकोई चाढ़सी |

कथा-

एक आदमी नरियलके पेड़ पर नरियलके फल लगे हुए देख कर उस पेड़ पर चढ गया।जब ऊपर पहुँचा तो वायुके कारण पेड़ हिला।जब पेड़ हिला तो उसका हृदय भी हिल उठा।वो नीचे गिरनेके डरसे बड़ा भयभीत हो गया और फलकी आशा छौड़ कर नीचे उतरनेकी चाहना करने लगा।हनुमानजी महाराजसे प्रार्थना करता है कि हे हनुमानजी महाराज! मुझे सकुशल नीचे उतारदो,मैं आपके सवामणि (पचास किलोका भोग) चढाऊँगा।श्री हनुमानजी महाराजकी कृपासे वो धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा।
जब आधी दूर तक नीचे उतरा तो सोचा कि सवामणिका मैंने ज्यादा कह दिया,कम कहना चाहिये था।ऐसा विचार कर उसने आधा चढानेके लिये कहा कि सवामण तो नहीं,पच्चीस किलो चढा दूँगा।उससे नीचे आया तो और कम कर दिया।इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों नीचे आता गया,त्यों-त्यों हनुमानजीके भोग(चढावे) को कम करता गया।जब दौ-चार हाथ ही ऊपर रहा,तो देखा कि अब तो अगर नहीं उतर पाये और गिर भी गये,तो भी मरेंगे नहीं।तब तो वो वहाँसे नीचे कूद गया और कूदता हुआ बोला कि अब तो जो चढेगा,वही चढायेगा अर्थात् जो इस पेड़ पर चढेगा,वही हनुमानजी महाराजके भौग चढायेगा। मैं तो अब न इस पेड़ पर दुबारा चढूँगा और न हनुमानजीके भौग चढाऊँगा,अब तो जो इस पेड़ पर चढेगा,वही चढायेगा।

इस प्रकार उसने हनुमानजीके साथ भी ठगाईका,स्वार्थका व्यवहार कर लिया,लेकिन कभी-कभी हनुमानजी महाराज भी ऐसे लोगोंकी कसर निकाल लेते हैं-

कथा-

एक पण्डितजी मन्दिरमें कथा कर रहे थे।उन दिनों मन्दिरमें एक सेठ आये और परिक्रमा करने लगे।सेठने सुना कि निजमन्दिरमें हनुमानजी महाराज और भगवानके आपसमें बातचीत हो रही है-

भगवान-
हनुमान!

हनुमानजी-
जी,प्रभो।हुक्म (फरमाइये)।

भगवान-
ये जो पण्डितजी कथा कर रहे हैं ना!

हनुमानजी-
जी,सरकार।

भगवान-
इन पण्डितजीके एक हजार रुपयेकी व्यवस्था करनी है।

हनुमानजी-
जी,सरकार,व्यवस्था हो जायेगी।

ये बातें सुनकर सेठने सौचा कि पण्डितजीके कथामें हजार रुपयोंकी भैंट (चढावा) आयेगी,हनुमानजी महाराज इनके एक हजार रुपये पैदा करायेंगे।अब अगर हम पाँचसौ रुपये देकर पण्डितजीसे यह भैंट पहले ही खरीदलें तो हमारे पाँचसौ रुपयोंका मुनाफा हो जायेगा। यह सौचकर सेठ पण्डितजीसे बोले कि पण्डितजी महाराज! ये लो पाँचसौ रुपये और आपकी कथामें जितनी भैंट आयेगी,वो सब हमारी।आपको अगर यह सौदा मँजूर हो तो ये पाँचसौ रुपये रखलो। पण्डितजीने सौचा कि पाँचसौ रुपयोंकी भैंट आना तो मुश्किल ही लग रही है और ये सेठ तो प्रत्यक्षमें पाँचसौ रुपये दे रहे हैं।प्रत्यक्षवाले रखना ही ठीक है।ऐसा सौचकर पण्डितजीने वो रुपये रख लिये कि हमें सौदा मँजूर है।अब जितनी भैंट-पूजा आवे,वो सब आपकी।सेठने भी यह बात स्वीकार करली।

समय आनेपर भैंटमें उतनी पैदा हुई नहीं।अब सेठ कहे, तो किससे कहे? सेठने हनुमानजीकी मूर्तिके मुक्केकी मारी कि आपने हजार रुपयोंकी व्यवस्था करनेके लिये भगवानके सामने हाँ भरी थी और व्यवस्था की नहीं? मुक्की हनुमानजीकी मूर्तिके लगते ही मूर्तिसे चिपक गई।अब सेठ बड़े परेशान हुए कि लोग क्या समझेंगे? रुपये भी गये और इज्जत भी जायेगी।अब क्या करें? इतनेमें सेठको हनुमानजी और भगवानकी बातचीत सुनायी पड़ने लग गई।सेठ सुनने लगे।

भगवान-
हनुमान!

हनुमानजी-
जी,सरकार।

भगवान-
पण्डितजीके हजार रुपयोंकी व्यवस्था हो गई? (या हो रही है?)

हनुमानजी-
जी,सरकार! पाँचसौ रुपयोंकी व्यवस्था तो हो गई और बाकी पाँचसौ रुपयोंकी व्यवस्थाके लिये अमुक सेठको पकड़ रखा है,वो बाकी पाँचसौ रुपये दे देंगे तब छौड़ देंगे और इस प्रकार पण्डितजीके हजार रुपयोंकी व्यवस्था हो जायेगी।

सेठने सौचा कि अब रुपये देनेमें ही भलाई है।सेठने हनुमानजी महाराजसे प्रार्थना की कि हे हनुमानजी महाराज! मेरा हाथ छौड़दो,रुपये दे दूँगा।सेठने रुपये देनेकी हाँ भरी,तब चिपका हुआ हाथ छूटा।

सूक्ति-
५६२-

हलायाँ बिना औधीजै |

सूक्ति-
५६३-

सीर सगाई चाकरी राजीपैरो काम |

सूक्ति-
५६४-

ऊभी आई हूँ , अर आडी जाऊँला |

सूक्ति-
५६५-

बेटी हाँतीरी हकदार है ,
पाँतीरी नहीं |

सूक्ति-
५६६-

दो ठगाँ ठगाई कोनि ह्वै |

सूक्ति-
५६७-

मेह अर मौत तो परमात्मा रे हाथ है |

सूक्ति-
५६८-

हाथ थकाँ कर हाथसे हाथ ऊपरै हाथ |
हाथ रहे नहिं हाथमें (जब) हाथ परै पर हाथ ||

भावार्थ-

जब तक तुम्हारे पास हाथ है,मनुष्य शरीर मिला हुआ है,देनेका अधिकार मिला हुआ है,तभी तक अपने हाथसे दूसरोंको कुछ दान,सहायता आदि दे दो,दूसरोंके हाथके ऊपर हाथ करो,दो।जब तुम्हारे हाथ पराये हाथोंमें पड़ जायेंगे,पशु-पक्षी आदि बन जाओगे,हाथकी जगह पैर आ जायेंगे,मनुष्य शरीरमें मिला हुआ अधिकार चला जायेगा तो आपके हाथकी बात नहीं रहेगी,कुछ दे नहीं सकोगे।इसलिये जबतक देना आपके हाथमें है,वशमें है तभीतक,पहले ही दे दो।

सूक्ति-
५६९-

लोह लोह रहज्या ,
कीटी कीटी झड़ज्या |

सूक्ति-
५७०-

काळमें इधक मासो |

सूक्ति-
५७१-

झकी हाँडीमें खावै , उणीनें फौड़ै |

सूक्ति-
५७२-

आँधे कुत्तेरे तो खोळण ही खीर है |

सूक्ति-
५७३-

अबखी बेळामें माँ याद आवै |

शब्दार्थ-

अबखी बेळाँ (दुखकी घड़ी,संकटका समय)।

सूक्ति-
५७४-

सूखी शिला कुण चाटे ! |

सूक्ति-
५७५-

किणरी माँ सूँठ खाई है ! |

सूक्ति-
५७६-

मिलियो कोनि कोई काकीरो जायो |

सूक्ति-
५७७-

ओ तो म्हारे खुणीरो हाड है |

सूक्ति-
५७८-

कोई मिलै हमारा देसी ,
गुरुगमरी बाताँ केसी (कहसी) |

सूक्ति-
५७९-

ठाला भूला ठिठकारिया कूड़ा जोड़े हाथ |
पतर चीकणा तब हुवे जब आवै बायाँरो साथ ।।

शब्दार्थ-

पतर (भोजन करनेका बर्तन)।

सूक्ति-
५८०-

पौह फाटी पगड़ौ भयो जागी जिया जूण |
साईं सबको देत है चूँच पराणै चूण ।।

सूक्ति-
५८१-

सब काती पींजी रूई हूगी ।

सूक्ति-
५८२-

पीळा पान झड़णैवाळा ही है ।

सूक्ति-
५८३-

थौथो चणो बाजे घणो ।

सूक्ति-
५८४-

कबूतर ने कूवो ही सूझै।

सूक्ति-
५८५-

कुंभ करेवा कोचरी विषधर ने वाराह |
एता लीजे जीवणा और सब डावाह ।।

शब्दार्थ-

करेवा (बैल,साँड़)।

सूक्ति-
५८६-

जन्तर मन्तर ताँती डोरा अन्तर लक्खण भौपेरा ।
साधू होकर सुगन मनावे काळा मूण्डा डौफेरा ।।

सूक्ति-
५८७-

म्हारी हाँडी तो चढ़गी ।

कथा-

एक कुम्हारने शामको घर आकर घरवालीसे रोटी माँगी तो घरवाली बोली कि घरमें अन्न (बाजरी,गेहूँ आदि) नहीं है।तब कुम्हार अपनी घड़ी हुई एक हँडिया लेकर गाँवमें गया और उसके बदले अन्न लै आया और कुम्हारीने पीसकर रोटी [साग,कड़ी आदि] बनादी।सबने भोजन कर लिया।

कुम्हार जिसको हाँड़ी देकर अन्न लै आया था,दूसरे दिन वो आदमी मिला तो  बोला कि अरे यार यह क्या किया? कुम्हारने पूछा कि क्या किया? तब वो बोला कि तुम्हारी हाँड़ी तो चढी ही नहीं (फूटी हुई थी,चूल्हे पर चढाई तो आग और बुझ गई)।तब कुम्हार बोला कि (तुम्हारी हाँड़ी नहीं चढी होगी,)हमारी हाँड़ी तो चढ गई (भूखे बैठे थे,उस हाँड़ीके बदले अन्न मिल जानेसे हमारे घरकी हाँड़ी तो चढ गई,तुम्हारी नहीं चढी तो तुम जानो)।

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज इस कहानीका उदाहरण देकर कहा करते थे कि हमने तो आपके हितकी बात कह कर अपनी हाँड़ी चढादी,अब आप काममें लाओ तो आपकी हाँड़ी भी चढ जाय।हमारी तो हाँड़ी चढ गई (हमारे कर्तव्यका पालन तो हो गया), अब आपकी हाँड़ी आप जानो।(काममें नहीं लाओ तो फूटी तुम्हारी, हम क्या करें)।

सूक्ति-
५८८-

ऊँट खौड़ावै ,
अर गधो डामीजै ।

सूक्ति-
५८९-

अकल शरीराँ ऊपजे दियाँ आवे डाम ।

सूक्ति-
५९०-

भौळाँरे भगवान है ।

सूक्ति-
५९१-

खीर में काँकरा मत नाखो ।

सूक्ति-
५९२-

बारी आयाँ बूढ़ियौई नाचे ।

सूक्ति-
५९३-

जठै पड़े मूसळ , बठै ही खेम कुशळ।

सूक्ति-
५९४-

हे रामजी !
एकली तो रोई में लकड़ी भी मत बणाई(ज्यो) ।

सूक्ति-
५९५-

देखा देखी साजे जोग ,
छीजै काया बढ़े रोग ।

सूक्ति-
५९६-

ऊदळतीने दायजो थौड़ो ही दियो जावै ।

भावार्थ-

ऊदळती (जो कन्या माता पिताकी अवहेलना करके अपनी मर्जीसे किसीसे शादी करके चली जाती है और उसके लिये कोई कहे कि दहेज दो, तो उस समय कहा जाता है कि ऊदळतीको दहेज थौड़े ही दिया जाता है)।

सूक्ति-
५९७-

ढळियो घाँटी ,
(अर) हूग्यो माटी ।

सूक्ति-
५९८-

काँई लंका ने मून्दड़ी बतावै है !।

सूक्ति-
५९९-

पूरे हैं मर्द वे जो हर हाल में खुश रहे ।

सूक्ति-
६००-

कह,
काणीछोरी ! तन्ने कुण ब्याहासी (परणीजसी) ?
कह ,
म्हारे ब्याव नहीं ही सही ,
हूँ म्हारे भाई बहनाँनें ही खिलास्यूँ |

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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
http://dungrdasram.blogspot.com/

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