।।श्रीहरि:।।
कर्ता और भोक्ता कौन है?(कि कोई नहीं है,केवल कल्पना है)-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज (दि. १९९५०५३१/८.३० और १९९५०६०१/८.३० बजेका सत्संग)|
[दि.३१/५/१९९५|८.३०को
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने बताया कि कर्ता कौन है?और भोक्ता कौन है?
शरीर कर्ता है? प्राण कर्ता है? इन्द्रियाँ कर्ता हैं?मन कर्ता है? बुध्दि कर्ता है? अहंकार कर्ता है? स्वयं कर्ता है? कह, नहीं|
शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ,मन,बुध्दि और अहंकार तो कर्ता हो नहीं सकते; (क्योंकि) ये तो जड़ हैं; ठहरते ही नहीं(प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं) इनके पास समय ही नहीं है कर्ता-भोक्ता बननेका(अर्थात् ये कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकते)|
तो स्वयं कर्ता है ? कह, नहीं; क्योकि स्वयं निर्विकार है,विकार है ही नहीं ,तो कर्ता कैसै बनेगा? भोक्ता कैसे बनेगा?(अर्थात् स्वयं कर्ता-भोक्ता नहीं है)|]
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तो वास्वमें कर्ता-भोक्ता न जड़ है, न चेतन है|
तो जड़-चेतनकी ग्रंथि है,यह भोक्ता है?(कह,नहीं;क्योंकि)
जड़-चेतनकी ग्रंथि(गाँठ) होती (ही) नहीं ;अमावस्याकी रातका और दिनका गठबन्धन हो जायेगा? जड़-चेतनकी ग्रंथि मानी जायेगी ? तो कैसे भोक्ता होगी ?
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कर्ता और भोक्ता अन्तःकरण है क्या ? ये तो करण(औजार) है,कर्ता नहीं है ;
तो भोक्ता कौन है ?(कि) 'पुरुषः प्रकृतिस्थ:' आप शरीरमें स्थित मानते हो
तो आप ही कर्ता-भोक्ता हो |
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जब मन बुध्दि शरीर इन्द्रियाँ कर्ता नहीं है तो आप कर्ता हो क्या?
अगर आप कर्ता होगे
तो आपकी मुक्ति कभी नहीं होगी, सम्भव
ही नहीं होगी;क्योंकि 'नाभावो विद्यते
सतः'(गीता २/१६) सतका अभाव होता नहीं और आप
कर्ता हो तो कर्तापन कभी मिटेगा ही नहीं; तो आप
कर्ता नहीं हो |
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तो कर्ता कौन है? अब ध्यान देना !
कर्ता है भोक्ता(प्रकृतिस्थ स्वयं)|
जो भोक्ता है वो कर्ता होता है क्योंकि सुख-भोगके लिये काम करता है -'अथ केन प्रयुक्तो$यं पापं चरति'? तो 'काम एषः क्रोध एषः'(गीता३/३६,३७) कामके वशीभूत होकर पाप करता है तो 'काम'है- 'भोग' ;सुख- अनुकूल मिले-वो 'भोग'हुआ,तो कर्ता कौन हुआ? भोक्ता हुआ कर्ता; कर्ता और भोक्ता एक (ही) है-'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्|' शुभ और अशुभ कर्म करोगे तो जरूर भोगना पड़ेगा तो भोक्ता होता है, वो कर्ता होता है और भोक्ता इन्द्रियाँ मन बुध्दि नहीं है,भोक्ता स्वयं बनते हो आप |
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(प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष ही भोक्ता है); जो भोक्ता होता है,वही कर्ता होता है और जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है -पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |(गीता १३/२१)
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सुखदुःखके भोगनेपनमें पुरुष हेतु होता है; अब प्रक्रियासे(आजकलके वेदान्तके ग्रंथोंके अनुसार) कहदो कि पुरुष भोक्ता नहीं होता तो (क्या) गीता झूठ कहती है?
'पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुः'(गीता १३/२०),भोक्ता नहीं बताती है,भोक्तापनमें हेतु होता है पुरुष (यह बताती है)|
कौन पुरुष होता है? (कि)'पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते'(गीता१३/२१) प्रकृतिमें स्थित होता है तो पुरुष भोक्ता बनता है,वो भोक्ता खुद बनता है,कब? कि 'प्रकृतिस्थ' और 'प्रकृतिस्थ' नहीं रहता है तो ? 'सम दुःखसुखः स्वस्थ'(गीता १४/२४) 'स्व'में भोग नहीं है| स्वयं जो आपका सत्तारूप है वो भोक्ता थोड़े ही है!
ख्याल करना ! यह ठीक ठीक - असली ज्ञान है यह असली, आपका स्वरूप सत्ता है,होनापन है न ! -यह आपका स्वरूप है ;होनेपनमें सुखदुःख नहीं होता है ,न सुख होता है,न दुःख होता है,सत्ता है |तो प्रकृतिस्थ होते हो तब भोक्ता बनते हो …||
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तो 'है' (सत्ता) भी 'कर्ता' नहीं है और 'नहीं'(शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार) भी 'कर्ता' नहीं है ; तो अब क्या करो आप ?
एक कृपा करके येह काम करो-
आप अपनेको 'नहीं'से भी हटालो
और 'है'से भी हटालो , तो भोक्ता रहेगा ही नहीं …
श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके
दि.३१/५/१९९५|८.३०|वाले सत्संग-प्रवचनसे लिये गये कुछ अंश |
'नहीं'से और 'है' से भी अपनेको हटालो।
इसका रहस्य 'श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज'ने दूसरे दिन(1995/06/01.830 बजे)के 'प्रवचन'में समझाया है-
…अपनेको,'नहीं'से भी और 'है' से भी(हटालो),…'यह'से भी हटालो और 'है' से भी हटालो; क्योंकि 'है' में 'व्यक्तित्व' नहीं होता और 'वह' टिकता नहीं-होता नहीं;तो दौनोंसे हटालो।
तो फिर क्या रहेगा? फिर 'योग' रहेगा 'योग'।'भोग' नहीं रहेगा,'योग''(नित्ययोग') रहेगा।'योग' किसको कहते हैं?- 'समत्वं योग उच्यते', 'दुख संयोग वियोगं योग सञ्ज्ञितम्'।। (गीता २।४८;६।२३)।…
'नित्ययोग' क्या?
कि आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है,उसका कारण ,अहम' है।'मैंपन' है, यह है भेदका जनक-'मैंपन'।
…'है'से और 'यह'से उठा लेने पर, 'ज्ञान' है (ज्ञान रह गया) 'ज्ञानयोग'-'ज्ञान',तो 'ज्ञानयोग' रहा,'ज्ञानी' नहीं रहा, 'अहम' होनेसे 'ज्ञानी' रहता है।
अब 'ज्ञानी' नहीं रहा, 'ज्ञान' रहा।ऐसे ही 'प्रेमी' नहीं रहा 'प्रेम' रहा।'प्रभु'के साथ ही 'प्रेम' रहा।तो न 'योगी' रहा,न 'ज्ञानी' रहा,न 'प्रेमी' रहा।'ज्ञान' , 'योग' और 'प्रेम' रहा।अब 'प्रेम' 'ज्ञान'(और 'योग') रहा।
इसमें अगर थौड़ा भी 'अहम' लग जायगा,तो आप 'प्रेमी' हो जाओगे, 'ज्ञानी' हो जाओगे, 'योगी' हो जाओगे।
तो क्या (होगा कि) 'भोगी' हो जाओगे।'प्रेम'का 'भोगी' कभी 'राग'का 'भोगी' भी हो जायेगा और 'ज्ञान'का 'भोगी' 'अज्ञान'का 'भोगी' भी हो जायगा।…
अगर इसका 'भोगी' हो गया,अगर इसका 'अभिमानी' हो गया,तो एक 'व्यक्तित्व' आ जायगा (और वो आ गया) तो 'बन्धन' आ जायगा।
तो यह है नहीं,कल्पना किया हुआ है-'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,इस वास्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्'(गीता ५।८)- 'मान्यता'से 'मान्यता'को हटादे।
ऐसा हो जायेगा,तो 'भेद' मिट जायगा, 'भिन्नता' भी मिट जायगी और 'कल्याण' भी हो जायेगा, 'मुक्ति' हो जायेगी, 'तत्त्वमें स्थिति' हो जायेगी।ये 'पूर्णता' हो जायेगी।
ऐसी 'पूर्णता' होनेपर भी,फिर भी 'एकता' नहीं हुई।फिर भी 'भेद' रहा। कहते (हैं कि) 'भेद' फिर क्या रहा? …
(फिर रहा 'सूक्ष्म अहंकार',जिससे 'मतभेद' पैदा होते हैं।
'वासुदेव:सर्वम्'(गीता ७।१९) हो जानेपर कोई 'भेद' नहीं रहता आदि आदि समझनेके लिये कृपया ये दौनों प्रवचन ध्यानसे सुनें और गम्भीरतासे विचार करें)।
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पता-
सत्संग-संतवाणी.
श्रध्देय स्वामीजी श्री
रामसुखदासजी महाराजका
साहित्य पढें और उनकी वाणी सुनें।
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