÷सूक्ति-प्रकाश÷ (श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या २१-३० तक.
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||श्री हरिः||
सूक्ति-२१.
बैरागी,अर बान्दरा बूढापैमें बिगड़ै (है).
सूक्ति-२२.
बैरागी अर बावरी मत कीजै करतार|
यो नितरा बाँधे गूदड़ा वो नित हिरणाँरे लार||
सूक्ति-२४.
साधू होणो सोरो भाई दोरो होणो दास|
गाडर आणी ऊनणै ऊभी चरै कपास||
भावार्थ-
साधू वेष धारण करके साधू हो जाना तो सुगम है,पर दास होना कठिन है अर्थात् जैसे दास(सांसारिक नौकर) मेहनत करके सेवा करता है,अभिमान छोड़ता है,नीचा(छोटा) बनकर मालिकका काम करता है,मालिकके परिवारका भी मालिककी तरह आदर करता है,आराम छोड़कर,सबकी सेवा करके उनको सुखी करता है,फिर भी एहसान नहीं जताता और न चाहता है,वो एहसान नहीं माने तो भी अपना स्वार्थ(वेतन) समझ कर सेवा करता ही रहता है,अपमान भी सहता है,खाने-पीनेकी परवाह न करता हुआ परिवारसे दूर रहकर रात-दिन कमाई करता है और कमाईको भी अपने पास नहीं रखता आदि आदि| वो सांसारिक दास इस प्रकार जैसे परिवारके लिये करता है;इसी प्रकार पारमार्थिक दास(भगवानका भक्त या मुक्ति चाहनेवाला) भगवानके लिये करता है या मुक्तिके लिये करता है | अगर ऐसा नहीं है तो दशा उस गाडर(भेड़)वालेकी तरह है | जैसे कोई नफा चाहनेवाला भेड़से ऊन काटनेके लिये भेड़को घर पर लावे और ऊन काटे नहीं:अब वो भेड़ उसके रूईके लिये जो कपास था,उसको ही खा रही है;वो लाया तो इसलिये था कि नई कमाई हो जाय,परन्तु भेड़ पहलेकी की हुई कमाई(कपास) खा रही है;इसी प्रकार साधू होते तो नई कमाई(परमात्मा) के लिये हैं;परन्तु दासकी तरह काम(कर्तव्य) नहीं करे,तो पहलेकी कमाई भी खान-पान और आराममें चली जाती है;नई कमाई तो की नहीं और पुरानी थी वो भी गई|इसलिये कहा गया कि साधू होना तो सुगम है,पर दास होना कठिन है|
सूक्ति-२५.
कह,बाबाजी! संसार कैसा(है)? कह,बेटा! आप(स्वयं) जैसा.
(स्वयं अच्छा है तो संसार भी उसके लिये अच्छा है,स्वयं बुरा है तो संसार भी बुरा है).
सूक्ति-२६.
सब जग ईश्वररूप है भलौ बुरौ नहिं कोय|
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय||
सूक्ति-२७.
तन कर मन कर बचन कर देत न काहुहि दुक्ख|
तुलसी पातक झरत(झड़त) है देखत उसके मुक्ख||
सूक्ति-२८.
साध रामरा पौळिया साध रामरा पूत|
साध न होता रामरा राम जातो अऊत||(जातो राम अऊत).
शब्दार्थ- अऊत(जिसके पीछे वंशमें कोई न रहा हो,बिना औलादका).
सूक्ति-२९.
सोता साधु जगाइये ऊठ जपै हरि जाप|
ये सूता नहिं छेड़िये सिंघ संसारी साँप||
(सोता साधु जगाइये ऊठ जपै हरि नाम|
ये तीनों सोते भलै साकट सिंघ रु साँप||).
सूक्ति-३०.
समय पधारै 'कूबजी' साध पावणा मेह|
अणआदर कीजै नहीं कीजै घणौं सनेह||
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