एक बार किसी पत्रिकामें श्रीस्वामीजी(रामसुखदासजी) महाराजके लेखको कुछ संशोधन करके छापा गया।उस लेखको सुननेपर श्रीस्वामीजी महाराजको लगा कि इसमें किसीने संशोधन किया है,जिससे इसका जैसा असर होना चाहिये,वैसा असर दीख नहीं रहा है!तब श्रीस्वामीजी महाराजने एक पत्र लिखवाकर भेजा,जिसमें लिखा था कि 'आप हमारे लेखोंमें शब्दोंको बदलकर बङा भारी अनर्थ कर रहे हो;क्योंकि शब्दोंको बदलनेसे हमारे भावोंका नाश हो जाता है! इस विषयमें आपको अपने धर्मकी,अपने इष्टकी सौगन्ध है!'आदि। *
-संजीवनी-सुधासे(परम श्रध्देय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा रचित 'साधक-संजीवनी' पर आधारित) प्राक्कथन ix से साभार
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1.यह बात उन दिनोंकी है कि जिन दिनोंमें गीता-दर्पण (लेखक-श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज) का प्रकाशन ... हो रहा था (नाम लिखना बढिया नहीं रहेगा)।बादमें भी कई बार ऐसे अवसर आये हैं।
2.महापुरुषोंके शब्द बदलने नहीं चाहिये।अगर भावोंका खुलासा करना हो तो ब्रिकेट( ) या टिप्पणीमें करना चाहिये।और यह स्पष्ट होना चाहिये कि ऐसा खुलासेके लिये किया गया।राम राम सीताराम।
इस जगतमें अगर संत-महात्मा नहीं होते, तो मैं समझता हूँ कि बिलकुल अन्धेरा रहता अन्धेरा(अज्ञान)। श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजीमहाराज की वाणी (06- "Bhakt aur Bhagwan-1" नामक प्रवचन) से...
बुधवार, 1 जनवरी 2014
संतवाणीके काँट-छाँट,परिवर्तन करनेका अपराध न करें ,
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