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शनिवार, 18 जनवरी 2014

÷सूक्ति-प्रकाश÷(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक

                                              ||श्री हरिः||

                                        ÷सूक्ति-प्रकाश÷

(श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके श्रीमुखसे सुनी हुई कहावतें आदि). सूक्ति-संख्या ५१-६० तक.

सूक्ति-५१.
आखी गुञ्ज  न आखिये होइ जो मित्र सुप्यार |
दूधाँ सेती पित्त पड़े आधी आधी बार ||
भावार्थ-
अगर अपना अच्छा,प्यारा मित्र हो तो भी अपनी रहस्यकी सारी गुप्त बातें तो उनसे भी नहीं कहनी चाहिये ; (क्योंकि उन शत(सौ)-प्रतिशत बातोंमें से पचास प्रतिशत हानि हो जाती है | जैसे,किसीको भरपेट दूध पिलाया जाता है तो) दूधसे भी आधी आधी बार(सौ बारमेंसे आधी-पचास बार) पित्त पड़ जाता है .

सूक्ति-५२.
आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||
भावार्थ-
अपनोंको छोड़ कर परायोंमें बसनेसे और स्त्रीको गुप्त रहस्य बतानेसे पुँडरीक नागको देखो कि वह (गरुड़जीके) पैरोंमें बुरी तरहसे लूंबता,लटकता जा रहा है .
शब्दार्थ-
बिड़ बसण (परायोंमें बसना).गुञ्ज (रहस्यकी बात).
कथा-
एक 'पुँडरीक' नामका नाग गरुड़जीके डरसे (दूसरा रूप धारण करके) कहीं जाकर रहने लग गया (वहाँ विवाह भी कर लिया,परन्तु यह रहस्य किसको भी नहीं बताया था)| एक बार नागपञ्चमीके दिन उस नागकी पत्नि नागदेवताकी पूजा करनेके लिये कहीं जाने लगी तो पुँडरीक नागके पूछने पर उसने बताया कि नागदेवताकी पूजा करने जा रही हूँ | तब
उसने हँसकर बताया कि वो तो मैं ही हूँ , जब मैं साक्षात नाग तुम्हारा पति हूँ और यहाँ मौजूद हूँ तो किसकी पूजा करने जा रही हो? यह सुनकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ | नागने कहा कि यह बात  किसीको भी बताना मत; परन्तु उसकी पत्निके यह बात  खटी नहीं और अपनी पड़ोसिनको बतीदी तथा मना कर दिया कि वो किसीको न बतावे; उसके भी वो बात खटी नहीं और उसने आगे बतादी | इस प्रकार चलते-चलते यह बात गरुड़जीके पास पहुँच गयी और गरुड़जी तो उसको खोज ही रहे थे | तब गरुड़जी  वहाँ आये और पुँडरीक नागको पकड़ कर लै गये (पंजोंसे उसको पकड़ कर उड़ गये)| इसलिये कहा गया कि-
आपौ छोडण बिड़ बसण तिरिया गुञ्ज कराय |
देखो पुँडरिक नागने पगाँ बिलूंब्यो जाय ||

सूक्ति-५३.
पत्र देणों परदेसमें मित्रसे होय मिलाप |
देरी होय दिन दोयकी तो करणो पड़े कलाप ||

सूक्ति-५४.
*नासत दूर निवारज्यो आसत राखो अंग |
कलि झोला बहु बाजसी रहज्यो एकण रंग ||
शब्दार्थ-
नासत (नास्तिकता-ईश्वरको न मानना).आसत (आस्तिकता-ईश्वरको मानना).झोला (एक प्रकारकी हवा,जिससे खेती जल जाती है).
(*यह दोहा श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजके गुरुजीने किसीको पत्र लिखवाते समय पत्रमें लिखवाया था ).

सूक्ति-५५.
राम(२) नाम संसारमें सुख(३)दाई कह संत |
दास(४) होइ जपु रात दिन साधु(१)सभा सौभन्त ||
खुलासा-
(इस दोहेकी रचना स्वयं श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने की है,इसमें महाराजजीने परोक्षमें अपना नाम-(१)साधू (२)राम(३)सुख(४)दास लिखा है |

सूक्ति-५६.
आसाबासीके चरन आसाबासी जाय |
आशाबाशी मिलत है आशाबाशी नाँय ||
इस दोहेकी रचना करके श्रध्देय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराजने इस दोहेमें (रहस्ययुक्त) अपने विद्यागुरु श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजका नाम लिखा है और उनका प्रभाव बताया है |
शब्दार्थ-
आसा (दिग,दिसाएँ).बासी (वास,वस्त्र,अम्बर).आसाबासी (बसी हुई आशा).आशाबाशी (आ-यह,शाबाशी-प्रशंसायुक्त वाह वाही).आशाबाशी (बाशी आशा अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं रहती,तुरन्त मिटती है ,बाकी नहीं रहती).
भावार्थ-
विद्यागुरु १००८ श्री दिगम्बरानन्दजी महाराजके चरणोंकी शरण ले-लेनेसे से मनमें बसी हुई आशा चली जाती है और यह शाबाशी मिलती है (कि वाह  वा आप आशारहित हो गये -चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह | जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह -बादशाहोंका भी बादशाह हो जाता है,वो आप होगये,शाबाश | ) आशा बाशी नहीं रहती , अर्थात् आशा पड़ी-पड़ी देरके कारण बाशी नहीं हो जाती,गुरुचरण कमलोंके प्रभावसे तुरन्त मिटती है,बाकी नहीं रहती ,दु:खोंकी कारण आशाके मिट जानेसे फिर आनन्द रहता है-ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह| सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ).|
विद्यागुरु श्री दिग्(आशा)+अम्बर(बासी,वास)+आनन्द(आ शाबाशी,आशाबाशी नाँय)-दिगम्बरानन्दजी महाराज |
शिष्य श्री साधू रामसुखदासजी महाराज-
रामनाम संसारमें सुखदाई कह संत |
दास होइ जपु रात दिन साधु सभा सौभंत ||
इसके अलावा श्री स्वामीजी महाराजने एक दोहा कवि शालगरामजी सुनारके विषयमें बनाया था,(उनकी पुत्रीका नाम मोहनी था)जो इस प्रकार है-

सूक्ति-५६.
तो अरु मोहन देह मोहनसे मोहन कहे |
मोहनसे करु नेह मोहन मोहन कीजिये ||
भावार्थ-
तेरा(तो) और मेरा (मो+) मिटादो(+हन देह), भगवानका नाम मोहन मोहन कहनेसे (भगवान्नाम लेनेसे) मोह नष्ट हो जाता है (मोह नसे),भगवान (मोहन) से प्रेम करो और उनको पुकारो (मोहन मोहन कीजिये).

सूक्ति-५७.
राम भगति भूषण रच्यो साळग सुबरनकार |
हरिजन अरिजन दोउ मिलि मानेंगे हियँ हार ||
भावार्थ-
कवि शाळगरामजी सुनारने 'रामभक्ति भूषण'नामक ग्रंथकी है,जिसके कारण हरिजन (रामभक्त) और अरिजन (रामविमुख,शत्रु) - दौनों मिल कर हृदयमें हार मानेंगे (रामभक्त तो इसको कीमती हारके समान मानेंगे और रामविमुख हृदयसे हार मान लेंगे,हार जायेंगे ).

सूक्ति-५८.
चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआ बेपरवाह |
जिसको कछू न चाहिये सो शाहनपति शाह ||
शब्दार्थ-
शाहनपति(बादशाह).शाहनपति शाह (बादशाहोंका भी बादशाह ).'बेपरवाह'माने दूसरी वस्तुओंके बिना तो काम चल सकता है;परन्तु अन्न,जल वस्त्र,औषध आदि तो चाहिये ही !- इसको 'परवाह' कहते हैं इस चिन्ताका भी त्याग कहलाता है- 'बेपरवाह' |

सूक्ति-५९.
ना सुख काजी पण्डिताँ ना सुख भूप भयाँह |
सुख सहजाँ ही आवसी यह 'तृष्णा रोग' गयाँह ||
(तृष्णारूपी आगका वर्णन आगेकी सूक्तिमें पढें )|

सूक्ति-६०.
जौं दस बीस पचास भयै सत होइ हजार तौ लाख मँगैगी |
कोटि अरब्ब खरब्ब भयै पृथ्वीपति होनकी चाह जगैगी ||
स्वर्ग पतालको राज मिलै तृष्णा अधिकी अति आग लगैगी |
'सुन्दर'एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगैगी ||